शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

आदरणीया लावण्या शाह जी, सुलभ जायसवाल के गीत और श्री मुकेश कुमार तिवारी की ग़ज़ल - छाप उस बीते समय की है अभी तक गाँव में, रेडियो, सायकिल पुरानी है अभी तक गाँव में

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में

आज केवल और केवल एक ही बात करनी है वो ये कि 

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि होली का तरही अंक इस बार पीडीएफ की शक्‍ल में जारी होने जा रहा है । इस अंक में रचनाएं यदि आप 4 मार्च तक भेज देंगे तो उसे पीडीएफ में शामिल किया जायेगा । साथ में आपका परिचय और एक ताजातरीन फोटो भी अवश्‍य भेजें । फोटो मोबाइल का न होकर यदि कैमरे का हो तो बहुत अच्‍छा होगा परिचय अवश्‍य भेजें

होली का मिसरा-ए-तरह

''कोई जूते लगाता है, कोई चप्‍पल जमाता है''

बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ

ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है, गीत, यदि हो तो हास्‍य का हो। हास्‍य रस में सराबोर हज़ल, गीत  । हास्‍य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये

lavnya didi

आदरणीया  लावण्या शाह जी 

लावण्‍या दीदी साहब के गीतों में मिट्टी पूरी गमक के साथ महकती है । उनके गीतों में बचपन अपने पूरे आनंद के साथ उपस्थित होता है और उन सब के साथ ही गुंथा होता है प्रबल भाव पक्ष । उनके गीत हमें किसी और दुनिया की सैर करवा देते हैं । ठहर ठहर के चलती हुई हवा के मदिर और मंद झौंकों की तरह पंक्तियां लहरती हैं । तो आइये सुनते हैं उनका ये गीत ।

tree new

कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
हौले हौले है उतरती छम से संध्या छाँव में!
कुछ दबे पांवों से  बदली, आ लुटाती है फुहार, 
आम की बगिया से बहती सरसराती सी बयार,
यादों के पीपल खड़े लहराते हैं यूं ध्यान में 
कूकती कोयल सुनाती गीत मीठी तान में    
पंख फैलाए मयूर आता है इस अंदाज़ से
कहती तब  ‘के-आऊँ ',  आती मोरनी कुछ नाज़ से  
गाँव के पेड़ों से लिपटे अनगिनत किस्से  कथा   
गोद दादी की दुबक कर जिनको बचपन ने सुना 
कुछ गढ़े थे मन ने मेरे बालपन में खुद ही जो
जाने कितने खेल आते आज भी हैं याद जो 
याद है,  अन्जान चेहरा जो कि आता था सदा 
पेड़ की जो ओट छिप कर मौन बस था देखता  
जल में पोखर के तब उसकी ही तो थी छाया पडी
कैसे भूलूं खत,  बहाए उसके थे जल में उसी !
वो बनी दुल्हिन पराये देस जा कर बस गयी
देखता हूं सूने पथ को मैं अकेला आज भी
याद फिर फिर आ रहे हैं गांव के वे पेड़ अब
वो नहीं हैं पेड़ केवल वो मेरे पुरखे हैं सब
धूप में अमिया मिरच, दादी सुखाती थी जहां
उस ही आंगन में  मेरा बचपन भी छूटा है वहां
याद ये भी,  याद वो भी कुछ भी तो भूला न मन
मेघ का मल्हार, झरने,  बैरी सावन की चुभन ! 
नाती-नातिन, संग बैठे दूर अपने ठांव में !
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में 
हौले हौले है उतरती छम से संध्या छाँव में!

और ये श्री रमेश हठीला जी के लिये

याद आएगी हठीला जी   की वो निर्मल हंसी
गीत में, बातों में जिनके थी खनकती जिंदगी !

बहुत ही सुंदर नज्‍म है । एक एक पंक्ति अपनी कहानी आप ही कह रही है । मुझे याद आ रहा है कि जबलपुर की यात्रा में जब मैंने ट्रेन में नुसरत दीदी को ये मिसरा सुनाया था तो उन्‍होंने कहा था वाह पंकज ये ग़ज़ल का नहीं ये तो नज्‍म का मिसरा है । और आज लावण्‍या दीदी साहब ने मानो नुसरत दीदी के उस कथन को सार्थक कर दिया है । पूरा गीत अपना लम्‍स छोड़ते हुए गुजरता है । वाह वाह वाह  ।  

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

 mukesh tiwari

श्री मुकेश कुमार तिवारी

नववर्ष की तरही का मिसरा जब पढ़ते ही आसान लगा था और फिर दिये हुए उदाहरणों से एकबारगी लगा था कि बस यूँ ही हो जाएगा। लेकिन जब बैठा तो हाथ से तोते उड़ गये फिर आपसे दीपावली के तरही के बाद हुई टेलीफोन वार्ता की याद हो आई कि जो सोच रहे हो उसे गुनगुनाओ बास फिर क्या था जैसे मेरे विचारों को पंख लग गये हो......।

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छाप उस बीते समय की है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में

बन के बदली याद आंखों में घुमड़ कर छा गई  
तेरी वो हर इक निशानी है अभी तक गाँव में

ठिठके ठिठके से मोहल्ले और चौराहे सभी
हर गली सुध बुध सी भूली है अभी तक गाँव में

सबसे ये पूछूंगा कल, बिन उसके कैसा लग रहा
जाएगी जो कल, वो बेटी है अभी तक गाँव में

तुमसे जो सीखा था उसको दूसरों को दे रहे
ये रवायत सीधी सच्ची है अभी तक गाँव में

ज्वार की है गर्म रोटी सौंधी सौंधी धूप  है
संग टमाटर की वो चुर्री है अभी तक गाँव में

बहुत सुंदर गज़ल कही है ।मुकेश जी के अपने काम के दायित्‍व उनको व्‍यस्‍त रखते हैं लेकिन बीच बीच में समय निकाल कर वे फिर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देते हैं । इन्‍दौर में उनके साथ मुलाकात के बाद लगा कि उनमें साहित्‍य को लेकर एक छटपटाहट है । ज्‍वार की रोटी और सौंधी धूप के साथ टमाटर की चुर्री ( अधपिसी चटनी) को बहुत सुंदर तरीके से बांधा है । खुद सीख कर दूसरों को सिखाने के गांव की उदात्‍त परंपरा को भी खूब बांधा है शेर में । बहुत सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह ।

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।  
sulabh-jaiswal

सुलभ जायसवाल

1

धोती गमछा लाल साड़ी है अभी तक गाँव मे 
रेडियो, सायकिल पुरानी है अभी तक गाँव मे 
ना कभी होगा समापन तंबूओं और झूलों का
हर बरस फागुन में लगने वाले रंगीं मेलों का
तरुण तरुणी नृत्य करते, बालकों का जमघटा
जाती इस्टेशन से मेला,  घोड़ागाड़ी फटफटा
नीम, दातुन, आमचूरा, सैर टूटी नाव में
खेत पनघट गुनगुनाते हैं अभी तक गाँव में 
मन कहीं लगता नही मन बावरा चंचल है मन
जिंदगी है पाठशाला शब्द कहता मुझको सुन
वो डटा निश्चिंत टिककर के खड़ा है आस में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में 

और ये श्री रमेश हठीला जी के लिये

मस्त मौला थे हठीला गीत बंजारे लिये
छोड़ इस धरती को अब वो नभ के तारे बन गये

सुलभ भी अभी तक साहित्‍य को लेकर कुछ तय नहीं कर पा रहा है कि क्‍या करना है । किन्‍तु उसके बाद भी उसकी उपस्थिति हर मुशायरे में ये बताती है कि उसके मन में कही न कही एक कसक है । सुलभ ने इस बार गीत लिखने की कोशिश की है । और सार्थक कोशिश की है । गांव के माहौल को बहुत सुंदर तरीके से बांधा है । मुझे अपने गांव का जतरा ( त्‍यौहारों पर लगने वाला मेला ) याद आ गया । और याद आ गया अपने ही गांव में लगने वाला आदिवासियों का भगोरिया भी जिसमें युवक युवती एक दूसरे को पसंद करते हैं और फिर भाग जाते हैं सबकी सहमति से । ये होली पर लगता है । पूरा गीत सुंदर बना है । वाह वाह वाह ।

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

तो दाद देते रहिये और सुनते रहिये तीनों को मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ । और आज केवल और केवल एक ही बात करनी है वो ये कि 

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

15 टिप्‍पणियां:

  1. वाह.
    लावण्या जी का गीत बहुत पसंद आया.बड़ी कारीगरी से तराशा हुआ गीत. सुलभ जी का गीत भी बहुत सुंदर बन पड़ा है.
    मुकेश जी ने बहुत सुन्दर गज़ल कही है.मतला बहुत खूबसूरत है...
    तीनो रचनाकारों को मुबारकबाद.

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  2. गुरूजी,
    होली की तरही मुश्किल लग रही है. हास्य गज़ल लिखनी है और इतने कम समय में. कोशिश जारी है.

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  3. तीनो ही गजलकारों ने उत्तम प्रस्तुति दी है!

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  4. लावण्याजी का गीत ’बीते तो बीत गये’ का अनुपम उदाहरण है. गीत में निहित तमाम बिम्बों और यादों में संध्या का ’छम से’ उतरना हृदय को अभिभूत कर गया. बहुत ही भावुक गीत है.
    सादर प्रणाम.

    *******
    मुकेशभाईजी का सीधी-सीधी ज़ुबान में बातें कहना अच्छा लगा. वैसे उन्हों ने जिस रवायत के होने की बातें की हैं, उसकी बानगी आपकी कहन में भी है. बहुत-बहुत बधाई.

    *******
    सुलभजी के गीत कई-कई चित्रों के कोलाज हैं. आपके होने से उम्मीद बँध रही है.
    शुभकामनाएँ और हार्दिक बधाइयाँ.

    सादर
    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)--

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  5. 'रिश्‍ते ही रिश्‍ते' एक बार मिल तो लें, प्रो. अरोड़ा, 28 रैगरपुरा, करोलबाग, नई दिल्‍ली। जी नहीं, होली का असर नहीं है।
    एक ज़माना था कि दिल्‍ली आवागमन करने वाले हर हिन्‍दी जानने वाले को रेल-ट्रैक के किनारे-किनारे यह पढ़ने को मिलता था और रट जाता था। इतनी जबरदस्‍त मार्केटिंग शायद ही किसी और ने की हो। लगभग वही प्रयास पंकज भाई का है फ़ोटो के लिये, ऐसा न हो कि इसे पढ़ते ही रह जायें। भाईयों और बहनों, बच्‍चों और बच्चियों वगैरह-वगैरह, मेहरबानी करके फ़ोटो अवश्‍य भेज दें वरना 'होली' है; कुछ और छप गया तो बाद में मत कहना।

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  6. गीत भावों भरे, शेर रंगत लिये, बधाईयॉं।

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  7. लावण्या जी का गीत बड़ा अच्छा लगा,

    सुलभ जी ने भी बहुत खूब लिखा हैं,

    मुकेश जी ने बहुत सुन्दर गज़ल कही है,


    सबसे ये पूछूंगा कल, बिन उसके कैसा लग रहा
    जाएगी जो कल, वो बेटी है अभी तक गाँव में


    ज्वार की है गर्म रोटी सौंधी सौंधी धूप है
    संग टमाटर की वो चुर्री है अभी तक गाँव में


    ये शेर बहुत पसंद आये, आप तीनो को इस सुंदर रचना के लिए बधाई

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  8. लावण्या जी के गीत में मधुरता, सरसता भी है और गाँव की माटी की प्यारी छुअन भी है! खासतौर पर गीत की अंतिम पंक्तियाँ ,जो हठीला जी को समर्पित हैं ,बहुत अच्छी हैं !

    मुकेश कुमार तिवारी जी की गज़ल का मतले का शेर ,पांचवा शेर और छठा शेर खासतौर पर काबले दाद है

    सुलभ जायसवाल के गीत में 'फटफटा' लोक प्रचलित शब्द का जो प्रयोग किया गया है, वह लोकभाषा में हिमाचल में भी प्रचलित रहा है !पंकज जी जिस 'जतरा' शब्द की बात कर रहें हैं ,हिमाचल में इसे 'जातर' कहा जाता है ! सुलभ जी का गीत भी अच्छा बन पड़ा है !

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  9. लावण्या जी को इस शानदार गीत के लिए बहुत बहुत बधाई।

    मुकेश जी ने भी शानदार ग़ज़ल कही है। बहुत बहुत बधाई।

    सुलभ जी के अश’आर प्रभावित करते हैं। बधाई और भविष्य के लिए ढेर सारी आशाएँ।

    और हाँ विज्ञापन पढ़ लिया गया है। कार्य बहुत मुश्किल है परन्तु प्रयास जारी है।

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  10. लावण्या जी के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा ,,कम से कम मेरी तो अभी वो हैसियत नहीं कि कुछ लिख सकूँ ,,केवल आभार प्रकट कर सकती हूँ

    बन के बदली याद आँखों ..........
    बहुत ख़ूबसूरत भावनात्मक शेर है मुकेश जी

    तुम से जो सीखा था ............
    क्या बात है !!
    सच है कि इन रवायात को अगर अगली पीढ़ी को न सौंपा गया तो संस्कृति और सभ्यता को बचाना मुश्किल होगा
    *******
    सुलभ बहुत सुंदर पंक्तियों से शुरुआत की और अँत तक सुंदरता को बनाए रखा
    खेत ,पनघट ..........
    बहुत ख़ूब !!
    गाँव के सारे मंज़र याद आ गए
    ऐसे ही लिखते रहो ,,शुभकामनाएं

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  11. उम्दा प्रस्तुति...गीत, नज़्म सब हो गया...

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  12. लावण्या जी की रचना से पूरा का पूरा बचपन चलचित्र की भाँती आँखों के सामने घूम गया...आम के बाग़, कूकती कोयल, दादी की गोद, अमिया मिर्च...उफ़ कितना कुछ समेट दिया है अपनी इस रचना में आदरणीय दीदी ने...अद्भुत..अद्भुत...अद्भुत...हमेशा की तरह.

    मुकेश भाई के बारे में क्या कहूँ...वाह...ठिठके ठिठके से शब्दों के सम्मोहन में अटका पड़ा हूँ...ज्वर की नर्म रोटी के साथ धूप की कल्पना और साथ में टमाटर की चुर्री...बस भाई बस...क्या याद दिला आपने...गज़ब.

    सुलभ जी न केवल कम्यूटर विशेषग्य हैं वरन कहते भी बहुत अलग अंदाज़ से हैं. देखिये न गाँव का गाँव उठा लाये हैं वो अपनी रचना में...गमछा, रेडिओ, साइकिल, इस्टेशन,घोडा गाडी, दातुन आमचूर जैसे ठेठ देसी शब्दों की बहार ला दी है उन्होंने...वाह सुलभ वाह...जियो.

    नीरज

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  13. लावण्या जे के गीत ने तो एक केनवास खड़ा कर दिया गाँव का ओर किसी कोलाज की तरह अलग अलग रंग भर दिए गाँव की मिटटी से उठा कर ... कोयल, आम, मिर्च ... पीपल, मेघ मल्हार झरने... क्या क्या नहीं है गाँव का अपना पण लिए ...
    ओर मुकेश जी ने भी हर शेर में गाँव की खुशबू को जिया है ...
    सुलभ जी ने इस बार गीत के जरिया बाँधा है गाँव की सुहानी रुत को बाँधा है ... नीम दातुन आमचूर ... या फिर गमछा रेडियो साइकिल जैसे शब्दों को बाखूबी उतारा है इस लाजवाब गीत में ... सुभान अल्ला .... मज़ा आ गया सुलभ जी ...

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  14. तीनों रचनाएं उत्कृष्ट हैं. खास कर आ. लावण्या जी का गीत तो बहुत ही मनोहारी है. भाई मुकेश जी ने भी अच्छी ग़ज़ल कही है और सुलभ भाई को पढ़ कर तो हमेशा मज़ा आया है.

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  15. स स्नेह नमस्ते गुणी अनुज को
    आपने , आपके ब्लॉग पर मेरी कविता को दुरुस्त कर के , तरही मुशायरे में शामिल की उसके लिए आपका बहुत बहुत आभार ...
    आप को ' गुणी अनुज ' ऐसे ही नहीं कहती ...अब तो वह कविता मूल रचना के भाव को रखते हुए भी अधिक निखर गयी है
    जिसका श्रेय मैं आपको देती हूँ .....सच्चे मन से मेरा धन्यवाद व स्नेहाशिष स्वीकारीयेगा ...
    सभी की स्नेहसिक्त टिप्पणीयों के लिए मेरा आभार --
    स स्नेह , सादर ,
    - लावण्या

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