गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

शेषधर तिवारी जी और सौरभ पाण्‍डेय जी यानि आज टोटल इलाहबादिया ग़ज़लें :- शादियों के जश्न में जेवनार पर समधी हँसे, शान मूँछों की निराली है अभी तक गांव में

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्‍सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्‍मे के सिवा क्‍या है फ़लक़ के चाँद-तारों में
-स्‍वर्गीय अदम गोंडवी जी

आज वर्तमान समय के सबसे महत्‍वपूर्ण शायर स्‍वर्गीय अदम गोंडवी जी का ये मतला और शेर कोट करने के पीछे एक महत्‍वपूर्ण कारण है । असल में इस मतले का मिसरा उला अपने आप में सब कुछ कह रहा है । सब कुछ, कि क्‍यों आज का कवि आज का शायर समकालीन लेखन नहीं कर पा रहा है । असल में वो लोक को भूल गया है । और यही कारण है कि उसमें वो तत्‍व नहीं हैं जो लोक से उठ कर आते थे । गोंडवी जी ग़ुस्‍से के शायर थे, वे ग़लत को ग़लत कहने वाले शायर थे । इसीलिये उन्‍होंने कहा कि ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में । आज की दोनों ग़ज़लें ठेठ अंदाज़ में बातें कर रही हैं । जिसमें समधी है, जेवनार है, मूंछें हैं, सुहागन हैं, मनौती है, भिनसार है अर्थात वे सारे शब्‍द हैं जिनको ग़ज़ल में रखने की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी । यदि ये शब्‍द ग़ज़ल में हैं तो हमें स्‍वीकार करना चाहिये कि लोक की कविता आज भी सबसे सशक्‍त कविता होती है । अब हमें ग़ज़ल के शब्‍दकोश को विस्‍तृत करना होगा । उसमें लोक के ठेठ और भदेस शब्‍दों को शामिल करना होगा । आदमी की कविता उसी की भाषा में होनी चाहिये, तब ही तो वो पसंद करेगा । श्री नीरज गोस्‍वामी जी की मुम्‍बइया ग़ज़लों को मैं बहुत पसंद करता हूं तो उसके पीछे भी कारण यही है कि उसमें आदमी से आदमी की भाषा में बात की जा रही है । बस एक बात कि ''श्रोताओं को मंगल ग्रह की भाषा में कविता सुनाना बंद करिये, उससे उसकी ही भाषा में बात करिये, फिर देखिये वो कैसे आपका मुरीद होता है ।'' तो आइये सुनते हैं ये दो सुंदर ग़ज़लें श्री शेषधर तिवारी जी से और श्री सौरभ पाण्‍डेय जी से ।

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श्री शेषधर तिवारी जी

शेष जी इलाहाबाद से हैं । वही इलाहाबाद जहां का अमरूद बहुत प्रसिद्ध होता है । लेकिन जिस सुंदरता के साथ श्री तिवारी  जी ग़ज़लें कहते हैं उससे लगता है कि अब इलाहाबाद में ऐ प्रसिद्ध चीज़ और बढ़ने वाली है और वो है श्री तिवारी जी के अशआर । उनकी ग़ज़लें ठेठ अंदाज़ में भदेस होकर बातें करती हैं । आइये उनसे सुनते हैं उनकी ये सुंदर गज़ल़

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कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
पीढ़ियों की ये निशानी हैं अभी तक गाँव में

वक़्त रोने और हँसने का हमें मिलता नहीं
छोरियाँ कजरी सुनाती हैं अभी तक गाँव में

शादियों के जश्न में जेवनार पर समधी हँसें
गालियाँ लगती सुहानी हैं अभी तक गाँव में

बेटियों सा प्यार बहुएँ पा रहीं शायद तभी
सास के वो पाँव धोती हैं अभी तक गाँव में

आपसी रिश्तों में तल्खी आ नहीं पाती यहाँ
छोहरी, बायन औ सिन्नी  हैं अभी तक गाँव में

हैं हठीले आज भी गांवों में सच्ची सोच के 
बातें सच्ची हैं तो सच्ची हैं अभी तक गाँव में

छोहरी - रबी की फसल घर में आने पर सबसे पहले सत्तू बनाकर गाँव भर के छोरों छोरियों को खिलाया जाता है
बायन - शादी या गौने की बिदाई में बहू के साथ आये लड्डू आदि मिठाइयों को गाँव भर में बांटा जाता है
सिन्नी - गन्ने से खांड और गुड बनाने पर पहले पाग से बच्चों को खिलाया जाता है

मित्रों आज पहले एक ही शेर की बात जिसमें छोहरी, बायन और सिन्‍नी का जिक्र आया है । गांव के रिश्‍तों को बहुत बारीकी के साथ विश्‍लेषित किया है इस शेर में । यूं कि मानों हमारे आज की पूरी पड़ताल कर दी गई है । तल्‍खी को मिटाने का सबसे अच्‍छा तरीका कि गांव भर के बच्‍चों को बुला कर उन्‍हें खिला पिला दो, नई बहू के साथ आई मिठाई को गांव भर में बांट दो । वैसे हमारे यहां तो मिठाई पर आटे के समधी और समधन भी बने आते हैं क्‍या आपके यहां भी आते हैं । शादियों के जश्‍न में जेवनार पर हंसते समधियों की बात ही निराली है । खूब चित्रकारी की है तिवारी जी ने ।  वाह वाह वाह ।

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श्री सौरभ पाण्‍डेय जी

आज के दूसरे इलाहाबादी श्री पाण्‍डेय जी भी देशज शब्‍दों का प्रयोग बहुत सुंदर तरीके से अपनी ग़जलों में करते हैं । इनसे हमको आने वाले होली के तरही मुशायरे में बहुत सी उम्‍मीदें हैं । क्‍योंकि होली भले दुनिया भर में मनाई जाती हो लेकिन जो बात उत्‍तर प्रदेश की होली की है वो तो अलग ही है । तो आइये सुनते हैं श्री पाण्‍डेय जी से उनकी ये सुंदर ग़ज़ल ।

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आपसी व्यवहार बासी है अभी तक गांव में
हो न हो मौसम चुनावी है अभी तक गांव में

क्या कहूँ ज़ज़्बात रिश्तों दोस्ती व्यवहार की
बिल्लियों-बंदर की यारी है अभी तक गांव में

बाँस कोठी, आम-महुओं के बगीचे बिक गये
खेल लेकिन ’डोल-पाती’ है अभी तक गांव में

इस नगर या उस नगर वो  हो रहा आबाद  पर
आपसों में वो ज़ुबानी है अभी तक गांव में

गालियों में बात, आँखें लाल तिसपर गोलियाँ
सब सही, पर शांति कितनी है अभी तक गांव में

हो गई कुछ तीतरी या फिर बटेरी ज़िन्दग़ी
साथ कंप्यूटर के धोती है अभी तक गांव में

शह्र के अंदाज़ मौज़ूं,  रीढ़ तक सीधी नहीं
शान मूँछों की निराली है अभी तक गांव में

हर सुहागिन की मनौती सुन रहा है ग़ौर से
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में

अनमने दालान में भिनसार तक धुरखेल सी  
आस झूली चारपायी है अभी तक गांव में

जानती है रात ’सौरभ’ टूटना होता है क्या
चांद फिर भी रोज़ बुनती है अभी तक गांव में

बात आखिरी के तीन शेरों और मक्‍ते की । गिरह के शेर में जिस प्रकार से सुहागिन की मनौती को गौर से सुनने की बात कही है वह सुंदर बन पड़ी है । और अनमने से दालान में पड़ी चारपाई क्‍या बात है । यूं लगता है कि आंखें बंद करो और गांव में पहुंच गये । नींबू को टिका रखने वाली मूंछों पर लिखा गया शेर गुदगुदा रहा है । लेकिन बात मक्‍ते की क्‍या बात है कितनी सुंदरता से बात कही गई है । जानती है रात सौरभ टूटना होता है क्‍या बहुत सुंदरता के साथ गढ़ा है शेर को । वाह वाह वाह ।

तो आनंद लीजिये इन दोनों सुंदर ग़ज़लों का दाद देते रहिये और मिलते हैं अगले अंक में जिसमें होगी होली के तरही मिसरा की घोषणा और यदि निर्णायक मंडल ने नाम भेज दिया तो प्रथम सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान की भी घोषणा ।

25 टिप्‍पणियां:

  1. रंग बरसे रस बरसे
    भाव बरसे रूप बरसे सब बरसे इस तरही में और जम कर बरस रहे हैं सभी शायर.
    और हम है कि बस भीगे जा रहे हैं.

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  2. Sheshdhar Tiwaree jee ki gazal ke saare sher aur Saurabh Pandey jee ki gazal ka panchwa, satwaan ,aathwan aur makte ka sher,gaon ke hakiki manzar ke kafi nazdeek lage.

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  3. शेषधर जी को एक बार फोन पर सुना हूँ, बहुत तरतीब के साथ शेर कहते हैं.
    आज उनके गाँव की निराली छटा ग़ज़ल में है. समधी जी वाले शेर पढ़ मन हर्षित हुआ.
    हमारे यहाँ ठकुराइन, नाइन घर घर लड्डू बांटने का काम बाखूबी करती है. शानदार ग़ज़ल है शेष जी. बहुत बहुत बधाई!

    सौरभ जी को जब से जान रहा हूँ, एक रिश्ता सा महसूस होता है. एक जिम्मेदार रचनाकार, पाठक के साथ साथ एक अच्छे मेंटर की भूमिका में भी होते हैं.
    बांस कोठी, आम महुए के बगीचे की बीच से शेर ...
    शहर में रीढ़ तक सीधी नहीं... और ये गिरह "हर सुहागिन की मनौती..." बहुत सुन्दर!!

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  4. ग़ज़ब कर दिया है दोनों शायरों ने। वैसे मैं तो इन दोनों ही शायरों का पहले से ही फैन हूँ।

    क्या अश’आर कहे हैं शेषधर जी न..छः के छः एक से बढ़कर एक हैं और समधी वाला शे’र तो गजब ढ़ा रहा है।

    सौरभ जी का भी जवाब नहीं, एक से बढ़कर एक शेर हैं। मूँछों वाले शे’र का तो कहना ही क्या। अपनी मूँछों पर ताव दे रहा हूँ पढ़-पढ़कर। बहुत बहुत बधाई इस शानदार ग़ज़ल के लिए

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  5. शेषधर जी और सौरभ जी ने बहुत बढ़िया ग़ज़लें कही हैं..
    शेषधर जी के शेर "शादियों के जश्न में..गलियां लगती हैं सुहानी", "आपसी रिश्तों में तल्खी आ नही पाती."..खास तौर पर पसंद आये. बहुत बहुत मुबारकबाद.
    सौरभ जी की गज़ल में "बिल्लिओं बन्दर की यारी है..","शान मूंछों की निराली है.." बहुत बढ़िया लगे. गिरह भी खूब है. सौरभ जी को बहुत बहुत बधाई.

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  6. शादियों के जश्न में जेवनार पर समधी हँसे


    गलिया लगती सुहानी हैं अभी तक गाँव मैं


    बेटियों सा प्यार बहुएं पा रही शायद तभी


    साँस के वो पांव धोती हैं अभी तक गाँव मैं





    आदरणीय शेषधर जी पूरी गजल बहुत अच्छी लगी, खासतोर पर ये दो शेर में तो मजा आ गया हैं







    आदरणीय सोरभजी को पड़ना हमेशा ही बहुत कुछ सिखाता हैं, बहुत सिखने को मिलता है, कितनी खूबसूरती से गजल कही है मजा आ गया हर शेर को पद कर निकल रहा था बस वाह वाह ,बहुत खूब --


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  7. शेषधर जी का शेर 'छोहरी...' बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है।
    सौरभ जी की बिल्लियों बंदर की यारी, 'बॉस कोठी...', के साथ 'साथ कम्‍प्‍यूटर के धोती' का कंट्रास्‍ट, शह्र के मजनुओं की गॉंव की मूछों से तुलना ग़ज़ब है। सबसे खूबसूरत रहा गिरह का शेर। अनमने दालान में भिनसार तक घुरखेल के साथ झूली चारपाई.. क्‍या खूबसूरत शब्‍द चयन है।
    बधाईयॉं ही बधाईयॉं।

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  8. बहुत आनंद आया दोनों गजलों को पढ़कर... एकदम गावों की खुशबु से लबरेज अशआर... वाह वाह!
    आदरणीय शेष धर और आदरणीय सौरभ जी को सादर बधाइयां.

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  9. शेषधर जी की ग़ज़ल है या ज़िंदगी का जश्न! लगता है विवाहोत्सव मन रहा है एक पुराने पेड़ के साए तले!
    शादियों के जश्न में जेवनार पर समधी हँसें --- इस मिसरे की आत्मीयता से मन मुग्ध हो गया! बड़ा ही अलग सा, हँसता सा बिम्ब है!
    बेटियों सा प्यार बहुएं .... वाह! आमीन!
    आपसी रिश्तों में तल्खी ... क्या बात है...कितनी सूक्ष्म सोच है. जहाँ दूरी ही न होने दी जाए, जहाँ सब कुछ बांटा जाए समुचित ...वहाँ मनमुटाव का प्रश्न ही नहीं!
    हैं हठीले आज भी ... इसमें 'बातें सच्ची हैं तो सच्चीं है'... इस को जिस तरह से कहा गया है लगता है कोई हठ कर के कह रहा अहै...यूँ वर्णनकर्ता का स्वयम ही वर्णित हो जाना बहुत ही मुग्धकारी! हठीला जी को सटीक श्रधांजलि!
    एक मिठास भरी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें तिवारी जी!
    ------------
    डोल-पाती के खेल को अपने शेर में ढालने वाले सौरभ जी को प्रणाम!
    बांस-कोठी आम महुए के बगीचे बिक गए...इस मिसरे के दुःख को बालकों के इस खेल के सुख ने मानो धैर्य बंधा दिया हो! बहुत ही सुन्दर शेर!
    ये मिसरा" गलियों में बात, आखें लाल तिस पर गोलियां...बहुत कुछ समेटता हुआ, मूवमेंट, गति का मिसरा! यथार्थ परक और बेबाक!
    शहर में अंदाज़... शान मूंछों की निराली ...वाह ये हुई न बात!
    मुझे जो शेर अपने मन के सबसे करीब लगा वो ये "हर सुहागन की मनौती सुन रहा है गौर से..." क्या बात है! नमन स्वीकारें! कंचन और वीनस के बाद एक आपने ही मनौती के धागे बंधे वृक्ष की याद दिला दी!
    अनमने दालान में भिनसार तक धुरखेल सी... इस शेर के शब्द बहुत ही मीठे और सुन्दर लगे पर पूरा भाव मन से ग्रहण करने में समय लगा..शायद धुरखेल के कारण ... फ़िर समझ आया तो ज्यों बालपन के चित्र खुलते गए...मिथिलांचल के एक गाँव में शाम को बाबा का घर-आँगन में आ जाना और दालान पे रखी चारपाई का अगली सुबह तक उनका इन्जार करना! वाह मन खुश कर दिया आपने!
    जानती है रात ... ये इस ग़ज़ल का सबसे नाज़ुक शेर! बेहद खूबसूरत! महीन बिम्ब, रेशमी शब्दों में बुना हुआ!
    एक सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें सौरभजी!
    सादर शार्दुला

    जवाब देंहटाएं
  10. दोनों इलाहाबादी ग़ज़लें पढकर मन प्रसन्न हो गया|
    शेषधर जी की गज़ल में गुड की भेली जैसी मिठास है, सभी शेर अच्छे हैं पर हठीला जी को समर्पित शेर अद्भुत है, एकदम सच्चा|

    सौरभ जी को पढाना हमेशा ही सुखदायी होता है| आपकी डिक्शनरी में इतने शब्द हैं कि अगर डाउनलोड करना हो तो १ टेरा बाईट की हार्ड डिस्क चाहिए| आपके बारे में एक बात और भी प्रचलित है कि..... साहित्य में एक विधा टिपण्णी की भी होनी चाहिए...इतना डूबकर टिपण्णी करना तो कोई आपसे सीखे.....गज़ल के शेरों कि बात करें तो मूछों वाले शेर पर अटका हुआ हूँ ...झूली चारपाई और मकते का शेर आवाज़ लगा रहा है कि हम भी कम नहीं हैं.......

    दोनों शायरों को ढेर सारी दाद मिले|

    जवाब देंहटाएं
  11. दोनों इलाहाबादी ग़ज़लें पढकर मन प्रसन्न हो गया|
    शेषधर जी की गज़ल में गुड की भेली जैसी मिठास है, सभी शेर अच्छे हैं पर हठीला जी को समर्पित शेर अद्भुत है, एकदम सच्चा|

    सौरभ जी को पढाना हमेशा ही सुखदायी होता है| आपकी डिक्शनरी में इतने शब्द हैं कि अगर डाउनलोड करना हो तो १ टेरा बाईट की हार्ड डिस्क चाहिए| आपके बारे में एक बात और भी प्रचलित है कि..... साहित्य में एक विधा टिपण्णी की भी होनी चाहिए...इतना डूबकर टिपण्णी करना तो कोई आपसे सीखे.....गज़ल के शेरों कि बात करें तो मूछों वाले शेर पर अटका हुआ हूँ ...झूली चारपाई और मकते का शेर आवाज़ लगा रहा है कि हम भी कम नहीं हैं.......

    दोनों शायरों को ढेर सारी दाद मिले|

    जवाब देंहटाएं
  12. ऊपर की टिपण्णी में चौथी पंक्ति में 'पढ़ाना' को 'पढ़ना' पढ़ें|

    जवाब देंहटाएं
  13. भाई पंकज सुबीर जी
    आपने बिल्कुल ठीक कहा है शेषधर तिवारी जी के अशआर इलाहाबादी अमरूद -सी ख़ुशबू और ज़ायक़ा लिए हुए हैं.
    गाँव बाख़ूबी झलकता है उनके अशआर में. शेषधर तिवारी जी को हार्दिक बधाई.
    .............................




    गांव में हर सुहागिन की मनौती का श्रोता पेड़ जितना अमर है उससे भी ज़ियादा अमर शे’र सौरभ पांडेय जी का है.
    और ... शान मूँछों की निराली है अभी तक गाँव में...में गाँव ज़िन्दाबाद है.
    सौरभ पांडेय जी को भी हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  14. अरे वाह आज की पोस्ट तो मेरे अपने शह्र की है :)

    आपसी रिश्तों में तल्ख़ी......
    बहुत उम्दा मतले से शुरुआत कर के तिवारी जी ने इस शेर में पूरा गाँव ही समेट दिया ,,इतनी ख़ूबसूरत वजह दी गाँव की एकता की जिस का जवाब नहीं बहुत बहुत मुबारक हो !!!

    सौरभ जी ने
    हर सुहागिन......
    वले शेर में गाँव का जो नक़्शा खींचा है उस का जवाब नहीं सारे तीज त्योहार जीवंत हो उठे आँखों के सामने
    अनमने दालान ....... में भिनसार और धुरखेल का इस्तेमाल ज़बरदस्त है और आस को झूली चारपाई की संज्ञा देकर तो कमाल ही कर दिया

    दोनों कवियों को बधाई और शुभकामनाएं

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  15. शेषधरजी की ग़ज़ल के अश’आर गाँव की खुशहाल दशा का बखूबी बयान करते दीख रहे हैं.
    वाकई रोचक होगा देखना कि छोहरी, बायन और सिन्नी का जोरदार डिस्ट्रिब्यूशन नगरों में कैसे हो.
    दिल से लिखी ग़ज़ल पर दिल से दाद कुबूल फ़रमायें.

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  16. यूँ तो वीनस भाई बज़्म की चमक में इजाफा कर चुके हैं.लेकिन ईलाहाबाद की गैलेक्सी का इंतज़ार था.कहना न होगा कि इंतज़ार का फल एक बार फिर मीठा साबित हुआ.

    शेषधर जी ने बहुवचन रदीफ़ के साथ ग़ज़ल कही है जिसमे कम ही ग़ज़लें आ पाईं हैं.पूरी ग़ज़ल में ग्रामीण संस्कृति की मोहक छवियाँ खूबसूरती से पिरोई गईं हैं.ख़ास कर मकते का अंदाज़े-बयाँ तो शानदार है.बहुत-बहुत बधाई..



    सौरभ पाण्डेय जी की ग़ज़ल भी बेहतरीन है.'क्या कहूँ जज़्बात....'क्या मानीखेज बात कही है.बहुत खूब.उसी तरह 'शान मूंछों की निराली...' वाला मिसरा भी लाजवाब है.और मक्ता...हासिले-ग़ज़ल..ढेरों मुबारकबाद पाण्डेय जी और शुक्रिया इस ग़ज़ल के लिए.

    जवाब देंहटाएं
  17. अदब, तह्ज़ीब और संस्कृति को जिस तरह से शेषधर जी ने अपनी ग़ज़ल में जगह दी है वो वाकई तारिफ के क़ाबिल है ! बहुत खुबसूरत ग़ज़ल !
    एक अलग कहानी है इस सौरभ जी की ग़ज़ल में,वो हर बात जो गाँव की है , और उन सारी बातों को एक साथ गज़ल मे पिरोने का जो काम इन्होने किया है वो वाक़ई हम जैसे नए लोगों के लिये सिखने की बात है ... बाँस कोठी वाले शे'र मे वर्तमान समय को लिखा गया है वो बिल्कुल सच है, और जो गिरह लगाई है इन्होनें वो तो कमाल की है ! और जो दृश्य इन होने दालान वाले शे'र से दर्शाया है इसे पढ कर बचपन याद आ गया ! और मक्ते ने तो जैसे स्तब्ध कर दिया !
    एक निहायत ही मज्बूत ग़ज़ल के लिये सौरभ जी को बहुत बधाई 1

    अर्श

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  18. जब जब ये लगा की ये तरही अपने शीर्ष पर पहुँच चुकी है तभी आने वाला अगला अंक चौंका कर कहता है...सितारों से आगे जहाँ और भी हैं...शेषधर जी और पाण्डेय जी की ग़ज़लें पढ़ कर कुछ कहते ही नहीं बन पा रहा...सोच किस ऊँचाई तक जा सकती है इन ग़ज़लों को पढ़ कर समझा जा सकता है...अनछुए शब्दों को इस ख़ूबसूरती से शेरों में इन दोनों ने ढाला है के लगता है जैसे ये शब्द इन शेरों के लिए ही बने हों...कमाल...अद्भुत...लाजवाब...बेजोड़...प्रशंशा के शब्दों का कोटा ही लगता है समाप्त हो गया है...

    नीरज

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  19. कल मैंने सौरभ जी की ग़ज़ल पर काफी लंबा कमेन्ट लिखा था जो कि अचानक एरर कि वजह से डिलीट हो गया :(((

    संक्षेप में कहूँ तो सौरभ जी की ग़ज़ल का हर शेर पसंद आया
    इन शब्दों ने शब्द चित्र जैसा आनंद दिया


    बिल्लियों-बंदर की यारी है अभी तक गांव में

    खेल लेकिन ’डोल-पाती’ है अभी तक गांव में

    साथ कंप्यूटर के धोती है अभी तक गांव में

    शान मूँछों की निराली है अभी तक गांव में




    हर सुहागिन की मनौती सुन रहा है ग़ौर से
    इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में

    अनमने दालान में भिनसार तक धुरखेल सी
    आस झूली चारपायी है अभी तक गांव में

    जानती है रात ’सौरभ’ टूटना होता है क्या
    चांद फिर भी रोज़ बुनती है अभी तक गांव में

    इन तीनों शेर के लिए अलग से ...

    ...बधाई बधाई बधाई

    जवाब देंहटाएं
  20. अभिभूत हूँ.
    आप सभी.. . सभी गुणीजनों की सदाशयता ने जो मान दिया है, मेरे जैसों के लिये थाती है. सबको वन्दन करता हूँ. किस एक का नाम लूँ?

    यदि मेरा कहा पसंद आया है तो इस कहने के अंदाज़ को सँवारा आप ही ने है. इसे इस मंच पर अच्छी तरह से तो तिलकराजजी, धर्मेन्द्रजी, भाई राणा, संजय भाई और अन्यतम वीनस ही जानते हैं. आप सबों की मेहनत स्वीकारी गयी है. कि, मैं ग़ज़ल कह रहा हूँ.
    यह मेरे लिये भी हार्दिक तोष का कारण है.

    भाई पंकजजी को मेरा सादर नमन. भाईजी, आपके साहित्य-सुयज्ञ में कई-कई आत्मीय समिधा डाल पा रहे हैं. यह आपका सात्विक विस्तार है.
    इस संस्कार का हिस्सा बनने पर मैं जिस अतिरेक में हूँ इसे संभवतः अनुज वीनस अच्छी तरह समझ रहे होंगे.
    भाई, हम ऐसे ही हैं.

    सादर
    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)--

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  21. वाह .. वतन से वापस के साथ ही इलाहाबादी रंग में डूबी गज़लों का आनंद लेने को मिला है ...
    शेषधर जी ने जिन शब्दों को साधा है बहुत ही लाजवाब बना रहे अहिं पूरी गज़ल को ... गाँव के लम्हों को को शेरों में उतार के कारीगरी की है ... चाहे शादियों के जश्न ... चोरियां कजरी ... या फिर छोहरी, बायन वाला शेर हो ... आनद आ गया ....
    सौरभ जी ने तो हर शेर में गाँव का एक अलग ही केनवास तैयार किया है ... किसी एक शेर का ज़िक्र क्या करूं सभी शेर गाँव की चुहल और ठिठोली की याद करा रहे हैं ... गिरह वाला शेर तो जैसे देव्तत्व का आभार करा है ...
    बहुत ही मज़ा आ रहा है आईटी मुशायरे में ...

    जवाब देंहटाएं
  22. गुरूवर,

    शेषधर जी और असौरभ जी ने तो जैसे कमाल कर दिया हो बिल्कुल देसी बातें और देसी बिम्ब लेकिन बड़ी उम्दा गज़लें।

    वक्त रोने और हँसने का हमें मिलता नही
    छोरियाँ कज़री सुनाती हैं अभी तक गाँव में

    आपसी रिश्तों में तल्खी आ नही पाती यहाँ
    छोहरी, बायन औ सिन्नी है अभी तक गाँव में

    -----------

    सौरभ जी का यह कहना कि :-

    शह्र के अंदाज मैजूं, रीढ तक सीधी नही
    शान मूछों की निराली है अभी तक गाँव में
    (अपने क्लीन शेव होने पर अफसोस हुआ)

    हर सुहागिन की मनौती सुन रहा है गौर से
    इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

    और यह भी देहात की जिन्दगी में झाँकता हुआ अश’आर :-

    अनमने दालान में भिनसार तक धुरखेल सी
    आस झूली चारपायी है अभी तक गाँव में

    वाह.....वाह........

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

    देर से आने के लिए क्षमा

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  23. aajkal fir se likh nahin paa rahi hoon is liye maafi chahati hoon .likh pane ki sthiti me aate hi likhati hoon. haath abhee poora saath nahin de rahe.dua keejeeyega bhaai. shubh kaa.

    जवाब देंहटाएं
  24. आप शीघ्र स्वस्थ हों, आदरणीया. आपका शुभ-संदेश पा कर हम अत्यंत कृतज्ञ हैं.

    सादर
    --सौरभ पाण्डॆय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)--

    जवाब देंहटाएं
  25. शादियों के जश्न में जेवनार पर समधी हँसें..... एकदम सही नज़ारा जेवनार का... खैर अब तो शायद ही कहीं होता हो, मगर पहले तो जैसा कि माँ से सुना है कि लोग यहाँ तक कहते थे कि "भाई उनके यहाँ गालियों में मजा नही आई" वैसे मेरे बड़े जीजाजी की तरफ से भी ये शिकायत आई थी।

    छोहरी शब्द पहली बार सुना, बहुत बढ़िया प्रयोग....!! बधाई शेषधर जी।

    सौरभ जी ने कड़वे सच बयाँ कर दिये...खैर ये भी अपना अंदाज़ है और कहीं से झूठा नही है....! बधाई आपको भी सौरभ जी....!

    जवाब देंहटाएं

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