शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

इस्‍मत ज़ैदी जी और वीनस केशरी से सुनते हैं - पक्षियों की चहचहाहट ,सुब्ह की ठंडी हवा, हर पुराना रंग बाकी है अभी तक गाँव में

सु‍कवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाक़ी हैं अभी तक गाँव में

पिछली बार के अंक में नीरज जी ने जो फूल के कुप्‍पा होती रोटियों का शब्‍द चित्र बनाया वो अभी तक आनंद दे रहा है । बहुत उम्‍दा । आइये आज तरही को आगे बढ़ाते हैं । इसके बाद अगला अंक लगने में शायद कुछ विलम्‍ब होगा क्‍योंकि कल सुब्‍ह कुछ मुशायरों के लिये निकलना है । इस बीच होली के तरही के लिये मिसरा भी तय करना है । खैर आइये आज सुनते हैं इस्‍मत ज़ैदी जी और वीनस केशरी से उनकी सुंदर ग़ज़लें ।

ismat zaidi didi 2

आदरणीया इस्‍मत ज़ैदी जी

इस्‍मत दीदी की ग़जलों में सबसे महत्‍वपूर्ण बात ये होती है कि बड़ी बड़ी बातों को बहुत ही सादगी के साथ वे कह देती हैं । उनकी ग़ज़लें स्‍वस्‍फूर्त होती हैं, वे लिखने के लिये नहीं लिखतीं बल्कि विचार जब क़लम उठाने पर मजबूर कर देते हैं तब लिखती हैं । आइये उनसे सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़ज़ल ।

tree-of-life

गोरियाँ पनघट पे जाती हैं अभी तक गाँव में
प्रीत की राहों के राही हैं अभी तक गाँव में

पायलों से सुर मिलाती वो खनकती चूड़ियाँ
लोक धुन पर गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में

हाँ, रहट की वो सदाएं मुझ को शहनाई लगें
आरज़ूएं कुछ बुलाती हैं अभी तक गाँव में

पक्षियों की चहचहाहट ,सुब्ह  की ठंडी हवा
चुनरियाँ खेतों की धानी हैं अभी तक गाँव में

झोपड़ी, खलिहान, पनघट, बाग़ में बिखरे हुए
याद के कुछ फूल बासी हैं अभी तक गाँव में

छोड़ आए थे जिन्हें तुम गाँव के बरगद तले
झील सी आँखें वो प्यासी हैं अभी तक गाँव में

संस्कारों के, क्षमा के, दान के और त्याग के
"कुछ पुराने पेड़ बाक़ी हैं अभी तक गाँव में"

क्या बुज़ुर्गों का है दर्जा, मान क्या, सम्मान क्या
माँएं बच्चों को सिखाती हैं अभी तक गाँव में

भूल कर भी अपनी मिट्टी को न भूलेगी ’शेफ़ा’
कुछ जड़ें गहरे समाई हैं अभी तक गाँव में

छोड़ आये थ जिन्‍हें तुम गांव के बरगद तले, क्‍या कहूं, क्‍या लिखूं इस मिसरे के बारे में । यूं लगता है कि जैसे लोकशैली में किसी सिद्धहस्‍त चित्रकार ने बहुत सुंदर पेंटिंग बना दी है । पूरा चित्र आंखों के सामने उभर रहा है । अहा  । पायलों से सुर मिलाती हैं खनकती चूडि़यां, अहा एक और सुंदर चित्र । क्‍या बुजुर्गों का है दर्जा में गहरी बात कह दी गई है । गिरह का शेर और मक्‍ता दोनों ही बहुत खूबसूरत बन पड़े हैं । मतला और उसके ठीक बाद का शेर तो अपने आप में एक मुक्‍तक हैं सुंदर मुक्‍तक । वाह वाह वाह ।

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वीनस केशरी

उधर प्रकाश अर्श के घोड़ी पर चढ़ने की तैयारी हुई और इधर गुरुकुल के कुंवारे शायरों के मन में लड्डू फूटने लगे हैं । ऐसा लगता है कि बस इस साल के खत्‍म होने तक हमारे पास कुंवारों का स्‍टाक ख़त्‍म हो जायेगा । वीनस केशरी भी कुंवारों की उस लिस्‍ट में सबसे ऊपर चल रहे हैं । तथा आशा भरी नजरों से बहन कंचन की तरफ देख रहे हैं 'जैसे उनके दिन फिरे' । आइये सुनते हैं वीनस की ये सुंदर ग़ज़ल ।

mnMQeji

एक चूल्हे की समाई, है अभी तक गाँव में
लौट चल खेती किसानी है अभी तक गाँव में

अनकही हर एक कहानी है अभी तक गाँव में
हर ओसारे* एक होरी है अभी तक गाँव में

सुब्ह झुलसी शाम काली है अभी तक गाँव में
हादसों से जंग जारी है अभी तक गाँव में

लोकगीत अब भी यहाँ की ज़िंदगी में है घुला  
गीत, फगुआ और कजरी है अभी तक गाँव में

शह्र में सम्बन्ध सब अनुबंध होते जा रहे
खूब रिश्तों की कमाई है अभी तक गाँव में

ताल - पोखर, खेत - बगिया, झोपड़ी, ढेकुल - कुआँ   
हर पुराना रंग बाकी है अभी तक गाँव में

इक कसम, दो चार वादे, मैं न पूरे कर सका
ये खनकती फौजदारी है अभी तक गाँव में

शह्र  अंधी दौड में ले जा रहा जाने कहाँ 
दिन ध्रुपद है शाम ठुमरी है अभी तक गाँव में

मेरे पुरखों ने लगाया था जिसे मेरे लिए
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

दिन में चूल्हा जल गया तो शाम को फाकाकशी
बेबसी की बैलगाड़ी है अभी तक गाँव में

शह्र से कुछ रहनुमा आये थे खुशियाँ बांटने
इक कसैला खौफ तारी है अभी तक गाँव में

श्रद्धेय हठीला साब के लिए -
सादगी, जिंदादिली, यायावरी, बेबाकपन
शह्र की लंबी उधारी है अभी तक गाँव में

कभी कभी एक मिसरा ही ऐसा हो जाता है कि पूरी ग़ज़ल उसके सामने फीकी हो जाती है । अब क्‍या जाये उस 'खनकती फौजदारी' को लेकर । उफ मानो बरसों के इंतजार को स्‍वर मिल गया हो । ताल पोखर खेत बगिया में सारे रंगों को सुंदरता के साथ समेटा गया है । दिन में चूल्‍हा जल गया तो शाम को फाकाकशी बहुत सुंदर तरीके से बात कह दी गई है । शहर से कुछ रहनुमा शेर भी सुंदर बन पड़ा है । और हठीला जी को समर्पित शेर भी मिसरा उला में श्री हठीला जी को पूरी तरह से अभिव्‍यक्‍त कर गया है । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।

तो देते रहिये दाद और लेते रहिये आनंद मिलते हैं अगले अंक में कुछ और शायरों के साथ । 

और अंत में कुछ तस्‍वीरें ।

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33 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों ग़ज़लें पढकर मंत्रमुग्ध हो गया हूँ|

    इस्मत दी की गजल में लोकधुन की टेर सुनाई दे रही है
    गिरह को इतनी उत्तम तरीके से बांधा है कि क्या कहूँ ..बस नतमस्तक हूँ|
    ऐसी गजल वही कह सकता है जिसने गाँव को खुद जिया हो ..यही बात मकते में कही भी गई है|
    मेरी तरफ से ढेरमढेर दाद संप्रेषित हो|
    ********************************
    अब वीनस जी की बात करे तो

    हर ओसारे एक होरी......

    गीत, फगुआ और कजरी.....

    ताल - पोखर, खेत - बगिया, झोपड़ी, ढेकुल - कुआँ .....
    ऐसे शेर इनकी प्रतिभा को दर्शाते हैं और यह दो शेर तो पूरी गज़ल पर ही भारी हैं|

    इक कसम, दो चार वादे, मैं न पूरे कर सका
    ये खनकती फौजदारी है अभी तक गाँव में

    शह्र अंधी दौड में ले जा रहा जाने कहाँ
    दिन ध्रुपद है शाम ठुमरी है अभी तक गाँव में

    अभी इन दोनों गज़लों का आनंद ले रहा हूँ|

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  2. ’अँगूठी-पहनाई’ की आत्मीय तस्वीरों ने इस दफ़े तरही-मुशायरे में स्वर में स्वर मिला कर एक मनोहारी ग़ज़ल कहा है - ’ये मुलायम रिश्तेदारी है अभी तक गाँव में..’
    सही कहा आपने, पंकजभाईजी, बस एक मिसरा ही कभी-कभी पूरी ग़ज़ल पर भारी पड़ता है. हृदय की गहराइयों से इस शानदार जोड़ी को बधाई और आनेवाले समय के लिये ढेरम्ढेर शुभकामनाएँ.

    ****

    आदरणीया इस्मत ज़ैदी की ग़ज़ल हार्दिक भावों को बखूबी उकेरने और संप्रेषित करने में सक्षम हैं.
    आरज़ूएं कुछ बुलाती हैं अभी तक गाँव में..
    इस ’कुछ’ पर मैं देर तक गुम रहा है. इस्मत आपा की इस कहन पर क्या कहूँ ?
    जिन शे’रों ने विशेष रूप से मुग्ध किया है वे हैं -
    झोपड़ी, खलिहान, पनघट, बाग़ में बिखरे हुए
    यहाँ ’याद के कुछ फूलों’ के साथ ’बासी’ विशेषण विशेष भाव उत्पन्न कर रहा है.
    छोड़ आए थे जिन्हें तुम में ’झील सी आँखों की प्यास’ ! वाह-वाह !!
    इस्मत आपा की भावप्रवणता और संस्कारों के प्रति आग्रह मन को असीम संतोष दे रहा है.
    संस्कारों के, क्षमा के.. . वाला शे’र हो या क्या बुज़ुर्गों का है दर्ज़ा.. हो, दोनों शे’र श्रद्धा के भाव जगाते हैं.
    सही है, आपके भाव-संसार की कुछ नहीं कई-कई ’जड़ें गहरे समाई’ हुई हैं.
    आज मन को खश होने का भरपूर अवसर मिला है. हृदय से बधाई, इस्मत जी.

    ****

    हाल के वर्षों में जिस ’बच्चे’ ने मुझे सबसे अधिक चकित किया है, उसका नाम वीनस है.
    ठसक भरा खाँटी इलाहाबादी जिसकी भाव-तरंगें आदर और श्रद्धा के नरम पुष्प अर्पित करती हैं.
    वीनस को ईश्वर ने समझ और मौका दोनों दिया है.
    अब मतले को ही लें, ’एक चूल्हे की समाई’ ! इसके आगे अब न भी पढूँ तो शे’र की धमक मस्तिष्क में गूँजने लगती है. वाह-वाह !
    इशारों और इंगितों में कहना खूबी हुआ करती है किसी शायर की. वीनस का हर ओसारे एक होरी.. या, रिश्तों की कमाई या फिर, खनकती फ़ौज़दारी, बेबसी की बैलगाड़ी वाह भाई, वाह ! बधाई हो !!
    शह्र में संबन्ध सब अनुबंध होते जा रहे को वीनसभाई की संवेदना ने बखूबी पकड़ा है.
    लेकिन जिस शे’र ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित नहीं चकित किया है वह है -
    शह्र से कुछ रहनुमा आये थे खुशियाँ बांटने
    इक कसैला खौफ़ तारी है अभी तक गाँव में

    इसे कहते हैं, पारखी नज़रों की बेखौफ़ गवाही.
    वीनस भाई, आपने दिन शुभ कर दिया, हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.

    सादर
    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)--

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  3. इस्मत और उसकी शायरी पर मेरे लिए कुछ कहना हमेशा से ही बहुत मुश्किल काम रहा है...उसे पढता हूँ तो लगता है बस पढता ही रहूँ...कुछ न कहूँ...कहने से वो बात नहीं आ पायेगी जो पढ़ते वक्त दिल महसूस करता है...इस्मत के लिए दिल से हमेशा दुआएं ही निकलती हैं...मेरी ये छोटी सी प्यारी सी बहुत ही समझदार सी बहना हमेशा खुश रहे और अपनी शायरी से लोगों के दिलों को सुकून पहूँचाती रहे.

    गोरियों की,खनकती चूड़ियों की, चुनरियों की, झोपडी खलियान पनघट की, बरगद की और अपनी मिटटी की बात करने वाली इस्मत तुम्हें मेरा सलाम. झील सी आँखें वो प्यासी हैं से जो मंज़र आँखों के सामने आते है उस से आँखें भीग सी जाती हैं...सुभान अल्लाह...इंतज़ार की तड़प को किस बला की ख़ूबसूरती से बांधा है तुमने...वाह...गिरह के शेर की ख़ूबसूरती उफ़ यूँ माँ है...रहट की आवाज़ से स्वर्गीय गुलशन बावरा जी का गीत..."सुन कर रहट की आवाजें यूँ लगे कोई शेहनाई बजे..."याद आ गया...जियो इस्मत जियो.

    कुछ बच्चे अपनी उम्र से अधिक समझदार होते हैं 'वीनस' उनमें से एक है...जिस सहजता से वो शायरी में गहरी बातें कर जाता है उसे पढ़ कर हैरानी होती है...इस से पता चलता है के शायरी इंसान के भीतर होती है, कलाकार की कला की तरह जो किताबें पढ़ कर नहीं सीखी जा सकती. वीनस को लगता है शायरी घुट्टी में पिलाई गयी है...एक चूल्हे की समाई, हर ओसारे एक होरी, गीत फगुआ कजरी, ताल पोखर खेत, खनकती फौजदारी,ध्रुपद और ठुमरी, बेबसी की बैलगाड़ी की बात अपने अशआरों में करने वाला ये होनहार नौजवान कहाँ जा कर रुकेगा भगवान् जाने...लेकिन ये बात तय है के एक दिन दुनिया इसकी शायरी को झूम कर गाएगी. वीनस का शेर "इक कैसेला खौफ तारी..." इस तरही के अब तक के बेहतरीन शेरों में से एक है. जिस गुरुकुल में ऐसे मेधावी छात्र हों उसका क्या कहना.

    आनंद नहीं परमानन्द की प्राप्ति हो गयी गुरुदेव...जय हो.

    नीरज

    पुनश्च: अर्श की सगाई की तस्वीरें इस पोस्ट में सोने पर सुहागा का काम कर रही है.

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  4. वाह क्या खूब ग़ज़लें आई हैं आज के अंक में..
    इस्मत जी की गज़लों को पढ़ना एक ताजगी भरा एहसास होता है. गज़ल उस्तादाना अंदाज़ में कही है.. गिरह तो ऐसी बाँधी है की क्या कहें. लाजवाब. एकदम अलग. और फिर शेर एक से बढ़ कर एक. मतला. आहा! पायलों से सुर मिलाती लोकधुन पर खनकती चूडियों का चित्र बहुत खूबसूरत है. 'रहट की सदाएं','धानी चुनरियां', 'झील सी प्यासी आँखें', क्या बात है... मकता भी बहुत खूब है. इस्मत जी को इस खूबसूरत गज़ल के लिए दिली मुबारकबाद.
    वीनस ने शायद सबसे पहले गज़ल भेज दी थी..शायद एक दो दिनों के भीतर ही. इतनी जल्दी में इतनी खूबसूरत गज़ल कहना अपने आप में एक बड़ी बात है. और शेरों की बात करें तो किस शेर को कोट करें. लाजवाब शेर कहे हैं. "गीत फगुआ और कजरी है अभी तक गाँव में..","खूब रिश्तों की कमाई है..", "ताल पोखर खेत बगिया..","फौजदारी..","दिन द्रुपद है शाम ठुमरी है अभी तक गाँव में.." इस मिसरे पर तो कुर्बान. "शाम को फाकाकशी,बेबसी की बैल गाडी.." वाह. "शहर से कुछ रहनुमा आये थे.." गजब की गज़ल है. वीनस को बहुत बहुत बधाई.

    अर्श को सगाई की बहुत बहुत मुबारकबाद.

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  5. इस्‍मत ज़ैदी जी की ग़ज़ल का एक-एक शेर चुन-चुन कर कहा गया है, किस किस की बात हो, आपने जीवन का एक-एक पल जिया है और सहेजा है यह स्‍पष्‍ट हो रहा है ग़ज़ल से।
    मक्‍ते का शेर दिलकश है। आपने जो कहा उसी की सलाह मैनें एक शेर में कुछ यूँ दी है कि:
    वतन को छोड़, आतुर हो बहुत, परदेस जाने को
    हवाओं में मगर खुद को जड़ों से बॉंधकर रखना।
    वीनस ने प्रयास किया की सभी ग्राम-विशेष संदर्भ पिरोकर प्रस्‍तुत किये जायें, मुझे तो लगता है कि प्रयास सफ़ल रहा है। मैं आरंभ से प्रेमचंद की कहानियों के चरित्रों के इंतज़ार में था, एक होरी तो आया वीनस के माध्‍यम से।
    इस्‍मत जी व वीनस को बधाई।

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  6. इस बार का तरही मुशायरा शुरु होते ही इस्मत की ग़ज़ल का इन्तज़ार शुरु कर दिया था, आज खत्म हुआ( सभी शायरों से ख्शमा याचना सहित, आप सबकी ग़ज़लें भी नियमित पढ रही हूं)
    जैसा नीरज जी ने लिखा, उसी तरह इस्मत की ग़ज़ल पर कुछ कहने के लिये मेरे पास शब्द हमेशा ही कम पड़ने लगते हैं. उसकी ग़ज़ल इतनी वज़नदार होती है, कि मैं उतने भारी शब्द ढूंढ ही नहीं पाती, जो उसकी रचना के साथ न्याय कर सकें.
    "झोपड़ी, खलिहान,पनघट, बाग़ में बिखरे हुए
    याद के कुछ फूल बासी हैं अभी तक गांव में"

    रहती गोआ में है, और महसूस गांव को करती है!!! कुछ इस तरह की हम सब भी ये कहने को मजबूर हों जायें, कि हां ऐसा ही तो हम भी महसूस करते हैं!
    "संस्कारों के. क्षमा के, दान के और त्याग के,
    कुछ पुराने पेड़ बाक़ी हैं अभी तक गांव में"

    आपकी ’तरह’के साथ पूरा न्याय किया है इस्मत ने.
    और अन्त में-
    "भूल कर भी अपनी मिट्टी को न भूलेगी ’शेफ़ा’
    कुछ जड़ें गहरे समाई हैं अभी तक गांव में"
    जैसा शे’र कह के तो शब्दहीन ही कर दिया है इस्मत ने. बहुत खूब.
    वीनस जी की ग़ज़ल भी लाजवाब है.
    " शहर में सम्बन्ध सब अनुबन्ध होते जा रहे
    खूब रिश्तों की कमाई है अभी तक गांव में
    सुन्दर शे’र है. बधाई वीनस जी. और आभार पंकज जी इतनी शानदार ग़ज़लें पढवाने के लिये.

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  7. शह्र में सम्बन्ध सब अनुबंध होते जा रहे
    ख़ूब रिश्तों की कमाई है अभी तक गाँव में

    शह्र से कुछ रहनुमा .........
    क्या बात है !!
    वीनस लाजवाब कर दिया बेटा ,
    बहुत उम्दा ग़ज़ल !!
    रस्मन २ ही शेर कोट किये लेकिन पूरी ग़ज़ल बार बार पढ़ने को मजबूर करती है
    बहुत ख़ूब !! बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ !!!

    आप सभी गुणीजन का बहुत बहुत शुक्रिया कि आप ने अपने कीमती वक़्त में से
    वक़्त निकाला , मेरी ग़ज़ल पढ़ी और हौसला अफ़ज़ाई की जो मेरे लिए बाइस ए शरफ़ है

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  8. वीनस तुम्‍हारे शेर ने मुझे मरहूम जनाम माहसिन अली 'रतलामी' साहब का एक शेर याद दिला दिया कि:
    आये थे रौशनी के लिये मश्‍अलें लिये
    वो बस्तियों में आग लगा कर चले गये।
    मिस्रा ए सानी दो तरह से कहा था, दूसरा ऐसे था:
    आतिशकदा चमन को बनाकर चले गये।
    भाई मैं तो मोहसिन साहब को अपना उस्‍ताद मानता था, उनसे इस्‍लाहियत लिया करता था। आपका शेर अब और क्‍या कहने को मॉंगता है। ना लिया भाई, पूरा 16 फि़ट का शेर है (पूँछ सहित)।

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  9. दोनों ही गजलें लाजवाब हैं।


    सादर

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  10. आज 12/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  11. आज तो दोनों ही ग़ज़लें आशा के बीज बो रहीं हैं ... गाँव के उजलेपन को बाहूबी बयान कर रही हैं ...
    इस्मत जी का तो हर शेर हांव की मिटटी की सोंधी खुसबू लिए है ... मतले ने तो जैसे एक केनवस खड़ा कर दिया और आगे का हर शेर उसमें नया रंग भरता चला गया ... पायलों से सुर सुनाती ... या फिर .... हाँ रहत की वो सदायें ... या पंछियों की चहचहाहट ... सभी शेर अलग अलग नक्षा खींच रहे हैं .... गिरह का शेर तो सच में गाँव के विस्तृत रूप का और विस्तार कर रहा है ...
    अंतिम शेर भी बहुत संजीदगी लिए है ... आनद आ गया पूरी ग़ज़ल पढ़ के ...
    वीनस जी तो अक्सर उस्तादों वाले शेर ही कहते आये हैं ... चाहे अभी तक कुंवारों की लिस्ट में हैं पर शेरों से नहीं लगता ऐसा ... शुतुआत इतनी धमाकेदार है की आगे के शेरों का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है ... लोकगीत अब भी यहाँ की ... गाँव के मेले, होली और ब्याह की यादें ताज़ा कर रहा है ... और फिर ताल पोखर खेत बगिया ... जैसे गाँव को साक्षात कागज़ पे उतार रहा हो ... फिर गिरह वाला शेर तो अपनेपन का एहसास लिए है ... और हठीला जी की याद में कहा शेर तो बहुत ही कमाल का है ... वीनस जी आप ने कमाल किया है ... चार नहीं कई कई चाँद लगा दिए हैं आईटी तरही में ....

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  12. गुरवर,

    इस बेहद कामयाब तरही ने दिखा दिया कि गाँव भले ही शह्र के लिए कुर्बान हो गए लेकिन आज भी शहीदों की तरह जिंदा हैं कहीं हमारे दिलों में, दिमाग में और अजब भी कोई मौका मिलता है बस उमड़ पड़ते हैं......

    इस्मत आपा के लिए "सरजी" ने जो भी कहा है वह कम है।

    संस्कारों के, क्षमा के, दान के, और त्याग के
    कुछ पुराने पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

    हमारे देहातें में बसने वाली जिन्दगियों के लिए इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि जिसे हम सभ्यता कहतें वह केवल वहीं विद्यमान जो जगह हम छोड़ आये हैं।

    जन्मघुट्टी सा लगा उनका ये कहन :-

    क्या बुज़ुर्गों का है दर्जा, मान क्या, सम्मान क्या
    माँए बच्चों को सिखाती हैं अभी तक गाँव में
    ------------------
    वीनस, देखियेगा अब हिटलिस्ट सबसे ऊपरी कतार में हैं आप और गुरूजी ने अपना अग्रिम आशीर्वाद भी दे ही दिया है.....

    शह्र में सम्बन्ध सब अनुबन्ध होते जा रहे
    खूब रिश्तों की कमाई है अभी तक गाँव में

    और फिर तो पूरी गज़ल ही जिन्दा दस्तावेज बन गयी है हमारे गाँवों का और देहातों की जिन्दगी का।

    बहुत बधाईयाँ।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

    प्रकाश "अर्श" को बहुत सी बधाईयाँ, दावतनामा आप न भी भेजें तो भी कुबूल है.....आ जरूर जायेंगे।

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  13. दोनों गजल बहुत खूबसूरत ... गाँव की खुशबू को बसाये हुये

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  14. मुशायरे का आज का अंक तजुर्बेकारी और मेधा का संगम है. इस्मत जैदी जी की ग़ज़ल निश्चय ही इस मुशायरे की सबसे अच्छी ग़ज़लों में से एक है.मेरा ख्याल था कि बहुवचन वाले रदीफ़ के साथ ग़ज़ल कहना थोड़ा मुश्किल होगा. शायद यही वजह है कि अब तक बहुवचन रदीफ़ के साथ एक-आध ग़ज़लें ही आ पाईं हैं.लेकिन इस्मत जी ने जिस सहज प्रवाह के साथ अशार कहें हैं वह देखने लायक है.'याद के बासी फूल' जेहन में घर कर जाते हैं.लेकिन सबसे असरदार है गिरह.बहुत खूब..

    वीनस भाई विस्फोटक प्रतिभा वाले फनकार हैं.उनकी कुछ ही ग़ज़लों को पढ़ कर मैं यह कह सकता हूँ कि वे शायरी को अपने रगों में जीते हैं.इलाहाबाद कि आबो-हवा का शायद इसमें कुछ हाथ हो.उनकी ग़ज़ल का पहला मिसरा ही इतना जबरदस्त है कि क्या कहना.गाँव की पूरी तहजीब का निचोड़,उसका उन्वान.भई वाह...

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  15. क्या कहूँ दोनों ही रचनाकारों ने शानदार ग़ज़लें कही हैं। इस्मत जी ने जिस सीदे सादे ढंग से मत्ला कहा है कमाल है और उसके बाद एक के बाद एक शे’र। कोट करने की कोशिश नहीं करूँगा क्यूँकि हर शे’र लाजवाब है जैसा कि ऊपर की टिप्पणियों में पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है। बहुत बहुत बधाई इस्मत जी को इस शानदार ग़ज़ल के लिए।

    वीनस जी को तो क्या कहें उनका तो नाम ही एक मुकम्मल ग़ज़ल है और मंच संचालन भी कमाल का करते हैं। इस बार के नवोन्मेष मुशायरे में मँझे हुए संचालक की तरह से उन्होंने संचालन किया। ये तो आंटी से पता चला कि उन्होंने रात भर रट्टा मारा था। :)))))))))))

    बहरहाल, अब किसी को भी अगर संचालक की जरूरत पड़े तो वीनस जी से सीधा संपर्क करें। जब तक कुँवारे हैं फ्री में संचालन कर देंगे उसके बाद तो भाई हर संचालन का क्या लगेगा ये सब तो घर से ही तय होगा। सुना है कुँवारों की लिस्ट में सबसे ऊपर इन्हीं का नाम है।:)))))))))))

    लाजवाब ग़ज़ल कही है वीनस जी ने। मत्ले से मक्ते तक क्या जानदार शे’र कहे हैं। ये खनकती फौजदारी वाला शे’र तो भाई जान निकाल गया मगर करोड़ रूपए का प्रश्न है कि ये शादीशुदाओं ने न लिखकर एक कुँवारे ने कैसे लिखा। बहरहाल इस शे’र पर तो कई ग़ज़लें कुर्बान। होरी वाला शे’र भी गजब का है। किस किस की तारीफ करूँ। कहीं गूगल ज्यादा लम्बी टिप्पणी देखकर स्पैम में न डाल दे। इसलिए भैया बहुत बहुत बधाई।

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  16. आनंद आ गया, लाजवाब गजलें पढ़कर...
    सादर.

    जवाब देंहटाएं
  17. अनुपम आनंद से सराबोर ये एक तरही
    और इस तरही में अनेक रंग समाये हुए हैं. लाजवाब प्रस्तुति और भावुक भी.
    आदरणीया इस्मत दीदी ने बड़ी सरलता अपने अशआरों में बहुत सारी बाते कह दी.
    आरज़ूएं कुछ बुलाती हैं अभी तक गाँव में / झोपड़ी, खलिहान, पनघट, बाग़ में बिखरे हुए
    याद के कुछ फूल बासी हैं अभी तक गाँव में... क्या दृश्य है क्या शायरी है सीधे दिल की गहरायिओं में उतरते हुए.
    और आगे के शेर
    संस्कारों के, क्षमा के, दान के और त्याग के / क्या बुज़ुर्गों का है दर्जा, मान क्या, सम्मान क्या / माँएं बच्चों को सिखाती हैं अभी तक गाँव में / कुछ जड़ें गहरे समाई हैं अभी तक गाँव में

    सब कुछ सामने है. बेमिसाल.

    जवाब देंहटाएं
  18. mnMQeji

    वीनस तो पके शायर की रौ में अपनी ग़ज़ल कहते हैं.

    हर ओसारे* एक होरी है अभी तक गाँव मे / लोकगीत अब भी यहाँ की ज़िंदगी में है घुला / शह्र में सम्बन्ध सब अनुबंध होते जा रहे

    ये तो ख़ास है - "हर पुराना रंग बाकी है अभी तक गाँव में"

    ये खनकती फौजदारी - इतने असरदार शेर - उम्मीद से दुगुना है वीनस भाई.

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  19. अर्श भाई की यादगार तस्वीरें - क्या सुन्दर माहौल बना है. बहुत आनंद आया.
    पुनः बधाई !!

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  20. Ismat Jaidee ki gazal gaon ki maati ki chhuan se sarabor hai,
    veenas jee,aap to naye prayog karte hi rahte hain so yah bhee gazal achhi ban padi hai, bacchon ke leptop se gaon se comment kar raha hoon filhaal isme Hindi software mere apne leptop ki tarah nahin -Ashwini Ramesh

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  21. दोनों ग़ज़लें लाजवाब !!!!!
    इस्मत दीदी और वीनस जी को हार्दिक बधाई!!!

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  22. ग़ज़लें पढ़ लीं हैं, बेहद खूबसूरत! विस्तार से लिखने फ़िर से आती हूँ. आप दोनों को हार्दिक बधाई इस्मत जी और वीनस जी!
    अर्श और उनकी दुलहनिया को भी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!

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  23. smit jaidi ji ki gazal bakai nagina hai aur vinas ji ne bhi accha likha
    subhir ji ap ka bhi bahur bahut abhar

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  24. दोनों ही गजल बहुत खुबसूरत है ...



    खासतोर पर आदरणीया इस्मत जैदी जी का शेर --



    छोड़ आये थे जिन्हें तुम गाँव के बरगद तले


    झील सी आँखे वो प्यासी हैं अभी तक गाँव में


    और आदरणीय वीनस केशरी जी का शेर --


    दिन में चूल्हा जल गया तो शाम को फाकाकशी ,


    बेबसी की बेलगाडी है अभी तक गाँव में


    आहा क्या कहे ये शेर दिल को छु गए, सच्चाई बयां करते ये शेर ...



    आप दोनों को इस खुबसूरत गजल के लिए बधाई

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  25. तरही मुशायेरे का हर नया अंक एक नयी ताजगी लिए होता है.
    इस्मत दीदी ने बहुवचन में शेर बांधे हैं, जो बहुत ही मुश्किल काम था, खासकर मेरे लिए तो था ही मगर देखिये कितनी आसानी से दीदी ने खूबसूरत शेर निकाल दिए हैं. वो चाहे मतला हो या फिर "पायलों से सुर मिलाती वो खनकती.............", "हाँ, रहट की वो सदाएं मुझ को................." पायल, रहट का शब्दमई चित्रण एक अलग ही आनंद दे रहा है. वाह वा
    "पक्षियों की चहचहाहट.......", "झोपड़ी, खलिहान, पनघट, ...", वाह वा
    मगर हासिल-ए-ग़ज़ल शेर तो "छोड़ आए थे जिन्हें तुम गाँव के बरगद तले .........", उल और सानी जुड़कर जो शेर बना रहा हैं वो अद्भुत है. लाजवाब शेर बुना है.
    मक्ता, भी बहुत खूबसूरत गढ़ा है.
    वाह वा, इस्मत दीदी, आपको ढेरों बधाइयाँ.
    गुरुदेव ने सही कहा है कि ऐसा लग रहा है जैसे लोकशैली में किसी सिद्धहस्‍त चित्रकार ने बहुत सुंदर पेंटिंग बना दी है । पूरा चित्र आंखों के सामने उभर रहा है ।

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  26. चुनिन्दा लोग जिनकी तरही ग़ज़ल का बेसब्री से इंतज़ार रहता है उसमें इस्मत जी का नाम भी है


    गोरियाँ पनघट पे जाती हैं अभी तक गाँव में
    प्रीत की राहों के राही हैं अभी तक गाँव में

    पायलों से सुर मिलाती वो खनकती चूड़ियाँ
    लोक धुन पर गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में

    छोड़ आए थे जिन्हें तुम गाँव के बरगद तले
    झील सी आँखें वो प्यासी हैं अभी तक गाँव में

    संस्कारों के, क्षमा के, दान के और त्याग के
    "कुछ पुराने पेड़ बाक़ी हैं अभी तक गाँव में"

    वाह-वाह, वाह वा
    गाँव के खूबसूरत दिलकश मंजर आखों में बस गये
    गिरह का शेर तो इतना ऊँचा है कि सर श्रद्धा से झुक गया

    "झील सी आँखें वो प्यासी" कितना जबरदस्त 'कंट्रास्ट' निकल कर आ रहा है

    वाह वाह वाह

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  27. पिछले साल के एक तरही मुशायरे में जिसका मिसरा था "और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी"

    में ग़ज़ल लिखते समय कहीं मन में ये भाव था कि शायद उतनी अच्छी ग़ज़ल न लिख सकूं और सच में ग़ज़ल से मैं संतुष्ट न हो सका था और गुरुदेव से डाट भी पडी थी ;)

    सो इस बात डट के ग़ज़ल लिखी और पढ़ कर सुकून मिला कि ग़ज़ल ने सभी को आनंदित किया और संतुष्ट किया

    आप सभी ने जो स्नेह वर्षा की है उसके लिए ह्रदय से आभारी हूँ

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  28. वैसे तरही की ग़ज़ल वीनस से फ़ोन पे कई बार सुन चूका हूँ और ढेरों वाह-वाही पहले ही इन्हें दे चूका हूँ, लेकिन पढ़कर और भी आनंद आ रहा है. वीनस ने कमाल के शेर निकाले हैं. उफ्फ्फ्फ़ © जीयो वीनस भाई जीयो.


    मतला खूब कहा है, "एक चूल्हे की समाई............" वाह वा, हुस्न-ए-मतला "सुब्ह झुलसी शाम काली है................." भी खूब बना है.
    ये मिसरा "शह्र में सम्बन्ध सब अनुबंध होते जा रहे............", बहुत अच्छे से गढ़ा है, शेर लाजवाब कर दे रहा है.
    "ताल - पोखर, खेत - बगिया, झोपड़ी, ढेकुल - कुआँ ......." वाह वा
    "इक कसम, दो चार वादे, मैं न पूरे.......", वाह वा मगर असली वाह वाही का हक़दार तो इसका सानी है, जो एक अलग ही असर दे रहा है. खतरू शेर.
    हासिल-ए-ग़ज़ल शेर तो ये है,
    शह्र से कुछ रहनुमा आये थे खुशियाँ बांटने
    इक कसैला खौफ तारी है अभी तक गाँव में
    वाह वा वीनस भाई, मज़ा आ गया

    हठीला जी को समर्पित शेर वाकई हठीला जी को पूरी तरह से अभिव्‍यक्‍त कर गया है.

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  29. दोनों ही गज़लें बहुत ही नायाब हैं
    गाँव की सोंधी खुशबू समेटे

    इस्मत और वीनस जी को हार्दिक बधाई!!!

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  30. इस्मत आपा का लिखा हमेशा चौंकाता है| रहट की वो सदाएं का बिम्ब कितना अलग सा है|

    वीनस भी इनदिनों खूब अलग-अलग इमेजरी लेकर आ रहा है अपनी रचनाओं में| ध्रुपद और ठुमरी का प्रयोग तो उफ़्फ़ उफ़्फ़ उफ़्फ़ ...

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  31. वाह आज तो मेरी प्यारी छोटी बहिन और वीनस बेटे ने कमाल कर दिया। इस्मत जी से बहुत दिन से बात नही हुयी लेकिन याद उन्हें करती रहती हूँ उन्हें क्या सब को ही चारपाई पे पडे हुये यही तो एक काम है जो इन्सान कर सकता है। और अर्श की सगाई की तस्वीरें देख कर्4 दिल खुश हो गया।
    इस्मत जी के ये शेर ---
    हाँ रहट की वो सदायें------
    छोड आये थे जिन्हें तुम गाँव के-----
    झोंपडी खलिहान---- वाह वाह बहु8त खू0बसूरत गज़ल है। इ9स्मत जी को बधाई
    और वीनस क्4ए क्या कहने---
    शह्र मे संबन्ध सब्व अनुबन्ध-----
    दिन मे चुल्हा जल गया तो शाम को---- कितने दर्द से गाँव की बदहाली को ब्याँ किया है
    पोखर खेत बगिया---- सच बात है गाँवों मे अभी तक अपनी विरासत बची हुयी है। दोनो को शानदार गज़लों के लिये बधाई।

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  32. तीन दिन से समय ढूढ़ रही थी कि कहीं १५-२० मिनट मिल जाएं इन खूबसूरत ग़ज़लों पे भरपूर दाद देने के लिए...गीत की नगरी की वासी हूँ तो फ़िर इस्मत जी के ७५% शेर मुसलसल देख के मन को जो ख़ुशी मिली और आत्मीयता का आभास हुआ उसका क्या कहना! कितना सुन्दर चित्रांकन सा है ग्राम्य जीवन का! एक इतनी खूबसूरत बात देख रही हूँ - हर शेर आने वाले शेर को ज्यों आमंत्रित कर रहा है. राहों के राही, फ़िर पायल के सुर , फ़िर चूड़ियों की आवाज़, फ़िर गुनगुनाना, फ़िर ग़ज़ल बाहर जा कर सबसे पहले स्वर ही ढूंढती है ...रहट की आवाजें, शहनाई और फ़िर खेत, खलिहान, पनघट....फ़िर शायद गाँव के सूदूर कोने में एक बरगद...फ़िर दूर जाने वाले का रास्ता होगा...फ़िर ग़ज़ल अंतर्मुखी हो जाती है, झील सी आँखें ...और हो जाता है फुल सर्कल!
    ये ग़ज़ल नहीं है मेरे लिए, ये एक गीत है गाँव की कहानी कहता हुआ गीत!
    याद के कुछ फूल बासी... बहुत नाज़ुक भाव...खूबसूरत शेर!
    छोड़ आए थे जिन्हें....सच में एक शब्द चित्र है जो समय के साथ ठहरा हुआ लग रहा है....ऊपर वाले शेर को गहनता देता हुआ!
    कुछ पुराने पेड़ों को संस्कारों, क्षमा, दान और त्याग से जोड़ने का विचार अत्यंत सुन्दर है! इस शेर की सात्विकता के लिए आपको नमन इस्मत जी!
    बुजुर्गों का दर्जा..वाह क्या बात कही है..वाह!
    और भूल कर भी अपनी मिट्टी को.... इसके लिए कुछ कह नहीं सकुंगी...ये प्रवासी मन का एक ही तो आधार है...इसे शब्दों में कैसे व्यक्त करे कोई...
    एक बहुत सुन्दर, चित्रात्मक, आवाज़ और अहसास से भरी हुई ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें इस्मत दी!
    जानतीं हैं, इसमें मुझे ऐसा लगा कि जाने वाला लौट आएगा तो बुजुर्ग उसे क्षमा कर देंगे....एक आस सी बन्ध गई!
    -----------
    'चूल्हे की समाई' पढ़ के चकित रह गई वीनस! फ़िर इस पूरे शेर के गहरे अर्थ से मन खुश हो गया..वाह!
    सुब्ह झुलसी शाम काली... बेहद सुन्दरता से बाँधा हुआ शेर. बहुत सार्थक!
    शहर में संम्बंध सब अनुबंध होते जा रहे हैं...इस मिसरे का गठन और सोच दोनों अतिसुन्दर!
    ताल-पोखर वाले शेर में ढेकुल के लिए एक बड़ी सी वाह कबूल करिए! बहुत ताल दे कर गाया जाने वाला शेर है ये!
    इक कसम दो चार वादे.... खनकती फौजदारी ....ये शेर फौजदारी काफिये को ध्यान में रख के लिखना और खनकती शब्द सोचना विशेषण के लिए ...वाह वाह!
    दिन में चूल्हा जल गया तो .... ये जिस सचेतन संवेदना का शेर है वीनस उसके लिए तुम्हें शाबाश! बहुत अच्छे!
    रहनुमा आए थे .... ये हुआ गज़ब का ख़याल!वाह!
    फाकाकशी , खौफ़ तारी जैसे शब्दों को जिस सहजता से आपने हिंदी की सुन्दर शब्दों के साथ सी सा लिया है, वाह!
    हठीला साहब के लिए यायावर शब्द का प्रयोग! वाह! 'शहर की उधारी' से हठीला जी का वो चैक लौटने वाला वाकया याद आ गया!
    ढेर दाद कबूल करिये ! यूँ ही लिखते रहिये !
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    अर्श की दुल्हनिया बड़ी सुन्दर हैं, पास होते तो मुँह दिखाई देते, दूर से मन से आशीष दे रहे हैं!
    कंचन ! बहुत सुन्दर लग रही हो तुम भी!
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    सादर शार्दुला

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