गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

द्विजेन्‍द्र द्विज जी और नीरज गोस्‍वामी जी से आज सुनते हैं : बोलते सुनते समझते हैं जिसे अब तक भी लोग, हर जबां पर गुड़ की भेली, है अभी तक गाँव में ।

सुकव‍ि रमेश हठीला स्‍मृति मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में

अब ये तरही समापन भी नहीं हुई है और उधर एक और तरही की भूमिका शुरू हो गई है । होली माथे पर है । इस बार सोचा है कि होली की तरही को ब्‍लाग पर बाद में लगाया जायेगा पहले उसका एक पूरा पीडीएफ होली अंक बना कर विधिवत जारी किया जायेगा । जिसमें होली के हास्‍य समाचार, होली की उपाधियां होने के साथ सा‍थ सारी तरही ग़ज़लें भी रहेंगीं । बाद में उन्‍हीं ग़ज़लों को होली के अवसर पर दो या तीन अंकों में तरही में लाग दिया जायेगा । तो होली की तरही यदि होना है तो उसके लिये मेरे विचार में अभी से मिसरा दिया जाना उचित होगा । अगले एक दो अंकों में होली का तरही मिसरा घोषित कर दिया जायेगा । और होली का धमाल अंक उसी पर आधारित होगा । आइये आज सुनते हैं श्री द्विजेन्‍द्र द्विज जी और श्री नीरज गोस्‍वामी जी की शानदार ग़ज़लें ।

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श्री द्विजेन्द्र द्विज जी 

द्विज भाई का ये फोटो देख कर चौंकिये मत, अभी तक आपने उनको चश्‍मे में देखा होगा लेकिन अब ये उनका नया रूप है । असल में उन्‍होंने एक विशेष प्राकृतिक दवा का उपयोग कर अपनी आंखों के चश्‍मे से मुक्ति पा ली है । अब ये उनका ताज़ा तरीन फोटो है । बधाई उनको इस हेतु । आइये उनसे सुनते हैं उनकी शानदार ग़ज़ल ।

Big Tree

सोचता हूँ अपना कोई है अभी तक गाँव में
‘ इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में ’

उसका साया है पिता-सा अब पिता जी तो नहीं
‘इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव  में’

और सब अपने पराए शहर में अब आ बसे
एक बस दादी हठीली है अभी तक गाँव में

शहर में चर्चे हैं तेरे रौब -रुतबे के  मगर
तेरे बचपन की कहानी है अभी तक गाँव में

तन-बदन बेशक सुखा डाला ग़मों की आग ने
हाँ मगर आँखों में पानी है अभी तक गाँव  में

बेचना है शहर में इसके लिए भी गर ज़मीर
आ चलें दो जून रोटी है अभी तक गाँव में

बोलते सुनते समझते हैं जिसे अब तक भी लोग
ढाई आखर प्रेम-बानी है अभी तक गाँव में

साथ है परदेस में भी रात-दिन जिसकी महक
वो सुहानी रात-रानी है अभी तक गाँव में

मतले और शेर में एक के बाद एक शानदार गिरह । मुझे तो ये ही समझ में नहीं आ रहा है कि मैं किसकी बात करूं । मगर हां ये तय है कि शेर में जो गिरह है वो आत्‍मा को छूने वाली गिरह है । मन को भिगो देने वाली गिरह है । बोलते सुनते समझते में ढाई आखर प्रेम बानी का जादू जगा हुआ है । जमीर बेचने के बजाय गांव लौट चलने की बात को जिस प्रकार से कहा गया है शेर में वो बहुत सामयिक बन पड़ा है, शायर ने अपने सामाजिक सरोकार को खूब निभाया है इस शेर में । दादी हठीली ने एक बार फिर से नानी की याद दिला दी,  सारे मामा गांव छोड़ कर भोपाल बस गये लेकिन नानी अभी भी गांव में हैं । बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह ।

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श्री नीरज गोस्‍वामी जी

नीरज जी का भी ये नया पोज़ है । एक कहावत सुनी है पंजाबी की कुछ ऐसी है की चढ़ी जवानी........., उसके बाद की पूरी कहावत याद नहीं आ रही है कि आगे क्‍या है। नीरज जी की ग़ज़लों को तरही में सुनना एक अलग ही आनंद होता है । वे डूब कर लिखते हैं ( कुछ लोग उनको सलाह देते हैं कि आप इतना डूब कर काम करते हैं तो कुंआ क्‍यों नहीं खोदते ) । इस बार की ग़जल में कई शेर उन्‍होंने एयरपोर्ट पर प्‍लेन की प्रतीक्षा करते हुए कहे हैं । सो आइये सुनते हैं ये शानदार ग़ज़ल ।

tree alone

मेरे बचपन का वो साथी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

फूल कर कुप्पा हुआ करती थीं जिस पर रोटियां
माँ की प्यारी वो अंगीठी, है अभी तक गाँव में

ज़हर सी कडवी  बहुत हैं इस नगर में बोलियाँ
हर जबां पर गुड़ की भेली, है अभी तक गाँव में

शहर में देखो जवानी में बुढ़ापा आ गया
पर बुढ़ापे में जवानी, है अभी तक गांव में

कोशिशें उसको उठाने की सभी ज़ाया हुईं
इक अजब सी नातवानी, है अभी तक गाँव में
नातवानी= अक्षमता, निर्बलता, असामर्थ्य

सारे त्यौहारों पे मिल कर मौज मस्ती नाचना
रोज पनघट पे ठिठोली, है अभी तक गांव में

पेट भरता था जिसे खा कर, मगर ये मन नहीं
दूध वाली वो जलेबी, है अभी तक गांव में

दोस्ती, अख्लाक, नेकी, अदबियत, इंसानियत
जानिसारी, खाकसारी, है अभी तक गाँव में

जिस्म की पुरपेच गलियों में कभी खोया नहीं
प्यार तो "नीरज" रूहानी है अभी तक गाँव में

पहले तो फूल कर कुप्‍पा होने वाला बिम्‍ब, अहा किस सलीक़े से रोटियों के संदर्भ में फिट किया है कुप्‍पा होने को । यही तो सौंदर्य होता है ग़ज़लों का कि बात आनंद ला दे । और जवानी में बुढ़ापा तथा बुढा़पे में जवानी का जो कन्‍ट्रास रचा है शहर और गांव की तुलना करते हुए वो बहुत सटीक है । मानो पूरी कहानी को दो पंक्तियों में समेट दिया गया है । ज़हर और गुड़ को भी उसी कंट्रास्‍ट के माध्‍यम से दिखा कर शहर और गांव की आत्‍मा को टटोलने का सफल और सुफल प्रयास शायर ने किया है । और मतला तो खैर है ही रंगे नीरज से सराबोर । वाह वाह वाह क्‍या खूब ग़जल़ कही है । आनंद ही आनंद ।

तो आनंद लीजिये अपने समय के दो महत्‍वपूर्ण शायरों की सुंदर ग़ज़लों का और दाद देते रहिये मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ ।

27 टिप्‍पणियां:

  1. बस एक ही शब्द है मेरे पास ; लाजबाब ! वाकई बहुत सुन्दर ! और बहुत खुछ सीखने को भी मिल रहा !

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  2. दो दिग्गज शायरों की गज़लों ने समां बाँध दिया है..
    द्विज जी ने गज़ल में मलते में जो गिरह बाँधी है, कमाल किया है दोनों मत्लों में.. वाकई आत्मा को छूने वाली गिरह है."एक बस दादी हठीली है अभी तक गाँव में..", शहर में चर्चे हैं तेरे रौब रुतबे के मगर/तेरे बचपन की कहानी है अभी तक गाँव में."वाह. "आन्खों में पानी है अभी तक गाँव में..","आ चलें दो जून रोटी है अभी तक गाँव में.."ढाई आखर प्रेम बानी है अभी तक गाँव में..","रात रानी है अभी तक गाँव में." कमाल के शेर कहे हैं द्विज जी ने. बहुत ही उम्दा गज़ल. द्विज जी को बहुत बहुत बधाई..
    नीरज जी की काउ बॉय हैट वाली तस्वीर मेरी फेवरेट है! कमाल की गज़ल कही है.. "फूल कर कुप्पा हुआ करती थीं जिस पर रोटियां.." बहुत ही खूबसूरती से कही बात. वाह. और फिर "हर जुबां पर गुड की भेली है..". बहुत ही खूबसूरत. .जवानी में बुढ़ापा और बुढ़ापे पर जवानी की बात भी बहुत अच्छे तरीके से कही है.
    "रोज पनघट पर ठिठोली है..", "दूध वाली वो जलेबी है.." वाह वाह.. और मकता तो क्या कहने. नीरज जी को बहुत बहुत बधाई.

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  3. इस विषय पे इतने भावों को तन्मयता से पढ़ने के बाद भी अगर किसी नई ग़ज़ल में कुछ ऐसा निकल जाए जो अभी तक ना पढ़ा हो, या ना सोचा हो तो मन असीम आनंद से झूम उठता है.
    नीरज जी और द्विज जी की गज़लें पढ़ के ऐसा ही लगा.
    --------
    "उसका साया है पिता सा...." ये भाव कल भी अर्श की ग़ज़ल में देख के मन विचलित हुआ था, पर आज " पर पिताजी तो नहीं" पढ़ के आँखें नम हो आईं. नमन द्विज जी!
    "शहर में चर्चे हैं तेरे...." बिना लाग लपेट का यह शेर सुन्दर लगा.
    "तन-बदन बेशक...." बहुत अहम बात, सुन्दरता से कही गई!
    "ढाई आखर प्रेम बानी..." अल्फाज़ का खूबसूरत इस्तेमाल एक खूबसूरत बात कहने के लिए!
    मुझे ऐसा लगा कि एकदम सहजता से लिखी हुई ग़ज़ल है ये.
    शायद ये तब ही संभव होता है जब शायर उस मुकाम पे पहुँच जाता है जहाँ उसे किसी को चौंकाने की ज़रुरत महसूस नहीं होती...तब वह हर विषय पे जो सहज ही मन में आता है वह लिखता है, ये नहीं सोचता कि ये तो किसी और ने भी लिखा होगा.
    द्विज जी, आप उसी स्थान से लिख रहे हैं सो आपको प्रणाम करती हूँ!
    ---------
    नीरज जी आपकी ग़ज़ल पढ़ के तुरंत दफ़्तर से घर जाने का मन कर रहा है और रोटियाँ बनाने का और फ़िर बनाते-बनाते ये शेर कहने का "फूल कर कुप्पा हुआ करतीं थीं जिस पे रोटियाँ, माँ की प्यारी वो अंगीठी है अभी तक गाँव में!" वाह वाह वाह! कुछ दाल-चावल और सब्जी के लिए भी लिख दीजिये न!; सारा खाना बनाना आसान हो जाएगा :)
    "जहर सी कडवी बहुत है..." इस शेर में 'गुड की भेली' का इस्तेमाल ... बहुत सुन्दर!
    "शहर में देखो...." ये बहुत सार्थक और सच्ची बात! खूब गठा हुआ शेर!
    " कोशिशें उसको उठाने...." बहुत उम्दा!
    " जिस्म की पुरपेच गलियों..." वाह...बहुत ही खूबसूरत शेर है ये! भाव और संगीतात्मकता से लबरेज़!
    "दूध वाली जलेबी.." का शेर घर ले जा रही हूँ; वहाँ कोई हैं जो इसे सुन कर खुश होंगे :)
    एक बहुत खूबसूरत ग़ज़ल के लिए आभार!
    सादर शार्दुला

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  4. ये द्विज की अपनी खासियत है जो भी शेर जैसे भी माहौल में कहते हैं भावुक कर देते हैं
    शहर में तेरे चर्चे....
    तन बदन बेशक सुखा डाला..
    दुख चाहे पहाड़ का हो या मैदानी गाँव का आपके अशआर जो असर पैदा करते हैं उसे मैं यहाँ अभिव्यक्त नहीं कर सकता.
    पिताजी पर जो मतला है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है.
    जमीर बेचने की बात तो आईना है बिलकुल, परदेस में साथ चलती है महक रात रानी की.
    बहुत सुन्दर. उस्ताद शायर को बहुत बहुत बधाई इस तरही में आप ने जो मिजाज बनाया है.

    और नीरज सर का तो इंतज़ार रहता ही है ये जानने की उत्सुकता बनी रहती है अबके बार कौन से तीर चलाएंगे.
    फुल कर कुप्पा हुई सचमुच अर्थप्रधान और यादगार शेर है.
    हर जबां पर गुड की भेली... दूध वाली वो जलेबी...
    प्यार तो नीरज रूहानी... क्या बात है सर जी. माहौल में गज़ब का इजाफा किया है आपने.

    हठीला स्मृति तरही जिंदाबाद.

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  5. होली का त्यौहार भी बस एक फर्लांग दूर रह गया है. आचार्य जी आपकी जो भी योजनायें होगी ख़ास और मिठास लिए होगी.

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  6. गाँव की होली का विषय दोनों को छू लेगा।

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  7. द्विज जी और नीरज जी ... हमारे लिए तो नाम ही बहुत है गज़ल के गहरे सागर में उतर जाने का फिर यहाँ तो दोनों की लाजवाब ग़ज़लें भी हैं ...
    द्विज जी ने तो मतले में ही गिरह बाँध के आगाज़ किया ही तो अपने अंजाम तक जाते जाते पता नहीं कितने मील के पत्थर छोड़ती जाती है ... उसका साया है पिता सा ... बीते दिनों में बरबस ले जाता है ... तन बदन बेशक सुखा डाला ... गाँव की आत्मा को जी रहा है ...
    और नीरज जी जैसे जिंदादिल शायर के क्या कहने ... फोटो में उनका अंदाज़ नज़र ही आ रहा है ... और शेरो में तो वो हमेशा ही ऐसा कुछ न कुछ करते हैं की जलन होने लगती है ... मतले में ही गिरह बाँध दी और फिर अगला ही शेर ... फूल कर कुप्पा हवा कतरी थीं जिस पर रोटियां .... नीरज जी कहाँ से शब्द निकाले हैं ... और वो अंगीठी .. कमाल है भाई वाह ...
    जहर से कड़वी बहुत हैं ... या फिर शहर में देखो जवानी ... सटीक कटाक्ष है शहर की जीवन शैली पर ... सारे त्योहारों पे मिल कर .. और पेट भरता था जिसे खा कर ...दोस्त अख़लाक़ नेकी ... सभी शेर गाँव की महक लिए हुवे हैं ... और अंत में गाँव के उस रूहानी प्रेम में डूब के लिखा शेर ... गज़ब गज़ब गज़ब नीरज जी ...

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  8. तन बदन बेशक सुखा डाला........
    इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल का हासिल ए ग़ज़ल शेर है द्विज जी

    बेचना है शह्र में........
    बहुत ख़ूब ,,क्य बात है !!
    **********************
    ख़ालिस गाँव की ग़ज़ल है नीरज भैया
    इतनी ख़ूबसूरती से आप ने अँगीठी और भेली जैसे शब्दों का प्रयोग किया है कि मज़ा आ गया और यहाँ होते हुए भी कुछ लम्हे गाँव के जी लिये हम ने
    दोस्ती,अख़्लाक़ ,,,,बहुत ही उम्दा विचारों को पिरोया है इस शेर में आप ने
    दोनों शायरों को बहुत बहुत मुबारकबाद

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  9. सारे राज़ खुल चुके हैं अर्श भाई की सगाई हो चुकी है और कंचन दीदी की कमेंट्री भी पढ़ ली

    अब तो कमेन्ट करना बनता है

    तो भाई अर्श जी महाराज की ग़ज़ल को पहले भी सुन चुका हूँ और अब भी बार बार पढ़ ली
    कितनी बार पढ़ी इसकी गिनती मुझे खुद याद नहीं है

    एक ही शब्द है
    जिंदाबाद

    दीदी की ग़ज़ल पे क्या कहूँ पहले फिर से पढ़ कर आता हूँ


    तुम गये ,तो ले गये, चौपाल, चौबारा मेरा,
    पर कसकती गूँज फिरती, है अभी तक गाँव में।

    जय हो जय हो ...

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  10. मैं भी यही कहूँगी
    बस एक ही शब्द है मेरे पास ; लाजबाब ! वाकई बहुत सुन्दर ! और बहुत खुछ सीखने को भी मिल रहा ! इतना अच्छे तेवर है हमारे आने वाले कल के शायरों के की बस , पढ़ते ही बोल बंद हो जाते है...हर एक लेखक को खा बधाई, नीरज और द्विजेंद्र जी ने तो बेपनाह सलीकेदार शेर लिखे है...दाद के साथ !!

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  11. दोनों उस्ताद शायरों के उस्तादिया कलाम हैं.
    द्विज जी का ये शेर कमाल है खुद में,
    उसका साया है पिता-सा अब पिता जी तो नहीं
    ‘इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में’
    वाह वा

    नीरज जी, के इस शेर में 'कुप्पा' लफ्ज़ क्या खूबसूरती ला रहा है, उसे लिख के बयां करना मुश्किल है,
    "फूल कर कुप्पा हुआ करती थीं जिस पर रोटियां .................."
    "शहर में देखो जवानी में बुढ़ापा आ गया..............." वाह वा

    दोनों शायरों को बधाइयाँ

    @ वीनस, जाना था जापान पहुँच गए चीन समझ गए न.

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  12. बेचना है शह्र में.... ने एक मज़ेदार किस्‍सा याद दिला दिया। मध्‍यप्रदेश सिंचाई विभाग में एक बहुत काबिल इंजीनियर हुए श्री के. एल. हॉंडा जो अपनी योग्‍यता के साथ-साथ ईमानदारी के लिये भी जाने जाते थे। बताते हैं कि सर्विस ज्‍वाईन करने के बाद जब वे पहली बार पंजाब में अपने गॉंव गये तो गॉंव के बड़े-बुजुर्गों ने एक स्‍वाभाविक प्रश्‍न पूछा कि 'काके' मिलता क्‍या है, उन्‍होंने अपनी तनख्‍वाह बतादी जो उस ज़माने 250 रुपये से कुछ उपर ही होती थी। इंजीनियर थे तो अगला प्रश्‍न आया कि 'उत्‍तों' यानि उपरी आय क्‍या है। उन्‍होंने बता दिया कि उपरी आय में उनका विश्‍वास नहीं है। इस पर जो उत्‍तर मिला उसका हिन्‍दी अनुवाद यह है कि 'उपर से कुछ नहीं तो गॉंव क्‍यों नहीं लौट आते, गॉंव में रोटियों की कौनसी कमी है'। ऐसा लगता है कि इंजीनियर को अनादि काल से उपरी कमाई से जोड़ कर देखा जा रहा है जबकि मेरा व्‍यक्तिगत अनुभव रहा है कि बहुत से इंजीनियर्स सीधी रीढ़ की हड्डी लेकर पैदा होते हैं और सारा जीवन ससम्‍मान जीत हैं। तो भाई द्विज जी ने यह पक्ष भी दृढ़ता से रखा कि गॉंव में दो जून रोटी तो ईमानदारी से भी मिल जाती है। द्विज भाई की शायरी में एक अलग ही अंदाजे बयॉं होता है वही पूरी ग़ज़ल में रमा हुआ है।
    नीरज भाई बिना गॉंव जाये ही पूरा गॉंव उठा लाये। भाई ये कुप्‍पा रोटियॉं तो नायाब हैं। बुढ़ापे और जवानी की खूब बात की 'तुम जवानी में ही बूढ़े हो रहे हो, मैं बुढ़ापे में जवानी ला रहा हूँ' की याद ताज़ा कर दी। वैसे आपने कोरी बात नहीं की, मुझसे ज्‍यादह हसीं और जवॉं नज़र आते हैं, कहीं उम्र ग़लत तो नहीं लिखवा रखी है, साठ से उपर के आदमी का इतना जवॉं दिखना.. माशाअल्‍लाह। नातवानी का खूब प्रयोग किया है विशेष बधाई इस विशेष काफि़ये के लिये। पनघट और ठिठोली का बंधन फिर उसपर जलेबी (ज ले बी वाला विज्ञापन याद आ गया) वैसे गॉंव में जलेबी नाम भी होता है। कहीं वही तो नहीं, ... नहीं नहीं इतने शरारती नहीं हो सकते आप। दोस्‍ती.... तो आपकी ग़ज़ल की खासियत इन चुकी है एक साथ इतने शब्‍दों को बॉंधने की। और अंत में हीर-रॉंझा और सोनी-महिवाल की बात, कया बात है।
    आज तो हैवी डोज़ एण्‍टासिड की ज़रूरत महसूस हो रही है।

    और ये भभ्‍भड़ भाई भौंचक्‍के कहॉं हैं....

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  13. यों तो दोनों शायरों की ग़ज़लें काबले दाद है !परन्तु द्विजेंद्र द्विज जी की गज़ल का दूसरा ,तीसरा ,चौथा और छठा शेर और नीरज गोस्वामी जी का मतले का शेर ,चौथा ,पांचवा और छठा शेर गाँव की माटी की छुअन से सराबोर पाये !

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  14. उसका साया है पिता सा...,दादी हठीली...,आँखों में पानी...., दो जून रोटी...,प्रेम बानी...., रात रानी...जैसे अनमोल शेरों से सजी द्विज जी की ग़ज़ल की तारीफ़ किन लफ़्ज़ों में करूँ? द्विज जी की ग़ज़लें तब से पढ़ रहा हूँ जब से मैंने ग़ज़ल का ककहरा सीखना शुरू ही किया था...उन्होंने ने समय समय पर मेरा मार्ग दर्शन किया, जिनके साए तले ग़ज़ल कहना सीखा आज उनके साथ अपनी ग़ज़ल देख कर अजीब सा रोमांच हो रहा है...अपने आपको धन्य मान रहा हूँ...द्विज जी जैसी ग़ज़ल कहने की हसरत पाले बैठा हूँ ...जो पता नहीं कब पूरी होगी...गुरु की हैसियत से उन्हें नमन करता हूँ और उम्र में छोटे होने की वजह से आशीर्वाद देते हुए कामना करता हूँ की वो कामयाबी की नयी बुलंदियों को यूँ ही छूते रहें...

    अब अपने बारे में...जो भी मेरी ग़ज़ल की प्रशंशा में कुछ कहता है वो मुझे मेरे बालों का सबसे बड़ा दुश्मन नज़र आता है...कारण यह है के अपनी प्रशंशा पढने के बाद मैं ये सोचने लगता हूँ के मेरी अगली ग़ज़ल के शेर पिछली ग़ज़ल से उन्नीस न हों...इस प्रयास में दिमाग का दही किया जाता है...कचूमर निकाला जाता है...शेर तो बीस नहीं हो पाते कमबख्त उन्नीस ही रहते हैं, अलबत्ता इस प्रयास में बालों का एक बड़ा सा गुच्छा कंघी करते हुए हाथ में जरूर आ जाता है...अपने पाठकों की अपेक्षाओं को मैं अपनी और से कभी बढ़ने नहीं देता लेकिन जब बढ़ जाती हैं तो उसका खामयाज़ा बेचारी जुल्फों को भरना पड़ता है...पाठक की अपेक्षाओं पर हमेशा खरे उतरने के चक्कर में प्रातः स्मरणीय गुरुदेव पंकज जी और परम प्रिय तिलक जी के सर का जो हाल है वो सबके सामने है...:-)

    नीरज

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  15. बाप रे, दो दिग्गज एक साथ....ये नाइंसाफ़ी है, सरासर नाइंसाफ़ी है हम पाठकों के साथ....

    प्रतीक्षा ही कर रहा था दोनों शायरे-आजमों की ग़ज़लों का|

    एक-से-एक बिम्ब और भाव जिस तरह से उभर कर आए हैं, कह रहे हैं हम सारे नौसीखिए से कि बरखुदारों बस बस बहर बांध लेने से ग़ज़ल नहीं हो जाती| यूं कहे जाते हैं शेर ...

    नमन दोनों को !

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  16. इतने सारे गुणीजनों की स्नेहिल टिप्पणियों से कौन गद्गद नहीं हो उठेगा. नतमस्तक हूँ
    मेरे लिए भी इस ब्लॉग पर छपने से अधिक और प्रसन्नता की बात क्या होगी .
    ऐसा ब्लॉग जहाँ ग़ज़ल निरन्तर परिष्कृत, पल्लवित और संस्कारित हो रही है.
    भाई नीरज जी का बड़प्पन है कि वे मुझे इतना अज़ीज़ और दिल के क़रीब रखते हैं.
    नीरज भाई साहब मैं भी आपके स्नेह की अँगीठी में रोटी की तरह फूलकर कुप्पा हुआ जा रहा हूँ, ज़ाहिर है स्वादिष्ट(रुचिकर) भी हूँगा.

    भाई तिलक राज कपूर जी
    मेरा एक शे’र है:

    “कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना.
    पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता"

    ज़मीर और ख़ुद्दारी को सलामत रखते हुए तो दो जून य़ा रूखी सूखी कमाना भी एक संकट है और यह संकट केवल इंजिनियरिंग व्यवसाय का ही नहीं. और भी लगभग सारे ही व्यवसाय इसी संकट की चपेट में हैं.

    भाई गौतम जी ! इल्म की दुनिया में दिग्गज कोई नहीं . हम सब एक दूसरे से ही सीखते हैं.
    आप भी तो अपनी लेखन शैली के सम्मोहन में हमें बाँधे हुए हैं.
    आप सब का आभार !

    जवाब देंहटाएं
  17. इतने सारे गुणीजनों की स्नेहिल टिप्पणियों से कौन गद्गद नहीं हो उठेगा. नतमस्तक हूँ
    मेरे लिए भी इस ब्लॉग पर छपने से अधिक और प्रसन्नता की बात क्या होगी .
    ऐसा ब्लॉग जहाँ ग़ज़ल निरन्तर परिष्कृत, पल्लवित और संस्कारित हो रही है.
    भाई नीरज जी का बड़प्पन है कि वे मुझे इतना अज़ीज़ और दिल के क़रीब रखते हैं.
    नीरज भाई साहब मैं भी आपके स्नेह की अँगीठी में रोटी की तरह फूलकर कुप्पा हुआ जा रहा हूँ, ज़ाहिर है स्वादिष्ट(रुचिकर) भी हूँगा.

    भाई तिलक राज कपूर जी
    मेरा एक शे’र है:

    “कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना.
    पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता"

    ज़मीर और ख़ुद्दारी को सलामत रखते हुए तो दो जून य़ा रूखी सूखी कमाना भी एक संकट है और यह संकट केवल इंजिनियरिंग व्यवसाय का ही नहीं. और भी लगभग सारे ही व्यवसाय इसी संकट की चपेट में हैं.

    भाई गौतम जी ! इल्म की दुनिया में दिग्गज कोई नहीं . हम सब एक दूसरे से ही सीखते हैं.
    आप भी तो अपनी लेखन शैली के सम्मोहन में हमें बाँधे हुए हैं.
    आप सब का आभार !

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  18. इतने सारे गुणीजनों की स्नेहिल टिप्पणियों से कौन गद्गद नहीं हो उठेगा. मै भी नतमस्तक हूँ.
    मेरे लिए भी इस ब्लॉग पर छपने से अधिक और प्रसन्नता की बात क्या होगी.
    ऐसा ब्लॉग जहाँ ग़ज़ल निरन्तर पोषित ,परिष्कृत, पल्लवित और संस्कारित हो रही है.
    भाई नीरज जी का बड़प्पन है कि वे मुझे इतना अज़ीज़ और दिल के क़रीब रखते हैं.
    नीरज भाई साहब मैं भी आपके स्नेह की अँगीठी में सिंकी रोटी की तरह फूलकर कुप्पा हुआ जा रहा हूँ, ज़ाहिर है आपको स्वादिष्ट (रुचिकर) भी लगूँगा.

    भाई तिलक राज कपूर जी
    मेरा एक शे’र है:

    “कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना.
    पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता"

    ज़मीर और ख़ुद्दारी को सलामत रखते हुए तो दो जून य़ा रूखी-सूखी कमाना भी एक संकट है और यह संकट केवल इंजिनियरिंग व्यवसाय का ही नहीं. और भी लगभग सारे ही व्यवसाय इसी संकट की चपेट में हैं.

    भाई गौतम जी ! इल्म की दुनिया में दिग्गज कोई नहीं . हम सब एक दूसरे से ही सीखते हैं.
    आप की लेखन शैली का सम्मोहन हमें भी तो बाँधे हुए है.
    आप सब का आभार !

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  19. “कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना.
    पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता"

    क्‍या बात कह दी द्विज भाई, कुर्बान।

    नीरज भाई, आप ये हवाई जहाज के इंतज़ार में हवाई गति से गॉंव के उपर से कब उड़ गये, समझ नहीं आया। सर खुजा-खुजा के परेशान हूँ।

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  20. दोनों ही ग़ज़लें बहुत सुंदर हैं। द्विज जी का तो मैं एक जमाने से प्रशंसक हूँ। क्या शे’र कहे हैं। गिरह के दो शे’र दोनों लाजवाब। जय हो...
    दादी हठीली हो.... या शहर में चर्चे हों...या तन-बदन बेशक... हो या बेचना है शहर में हो...ता बोलते सुनते हो...या साथ है परदेस में हो। हर शे’र एक मोती है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इस शानदार ग़ज़ल के लिए

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  21. नीरज जी के चुटीले अंदाज का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ। हर शे’र एक नगीना है। इस बेहद खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिल से दाद दे रहा हूँ। बहुत बहुत बधाई।

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  22. Phool ke kuppa hoti rotiyan wah bhai wah..Neeraj ji ka jawab nahin. Ab tak ki rachnaon mein sabse jyada prabhawit kiya aapne.

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  23. गुरूवर,

    यह कमाल भी है और गौतम जी शिकायत से इत्तेफाक भी कि यह तो नाइंसाफी ही है कि एक साथ दो नायाब शाईरों को प्रस्तुत कर दिया।

    इस तरही ने जिस ऊँचाईयों को छुआ है हठीला जी भी उस जहाँ से अपना आशीर्वाद दे रहे होंगे।

    एक से बढ़कर एक शे’र और एक खास बात की अबकी बार तरही में किसी भी गज़ल मे कोई भी शे’र अपनी जमीं नही भूला यह कामयाबी है उस्तादों की जो सिखाया उसे शागिर्दों ने भी पकड़ा और माँजा भी।

    देवेन्द्र जी शे’र जो उन्होंने टिप्पणी में कहा बेजोड़ है।

    और "सरजी" (यह मैनें तय किया है कि नीरज जी के लिए इससे अच्छा संबोधन हो ही नही सकता) की तो बात ही निराली है।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  24. इस दफ़े दो शानदार शायरों की ग़ज़लें एक साथ ! वाह !!
    जिन लोगों की ग़ज़लों को सुन-पढ़ कर ग़ज़ल की गहनता को जाना, शायद खुद उन्हें भी मालूम न हो, द्विजजी उनमें से हैं.
    आपके सभी शे’र लाजवाब और मुग्धकारी हैं. किस एक की कहूँ ? मतला और हुस्न-मतला दोनों में गिरह और दोनों लाजवाब. ये होता है साधिकार कहना.
    इस शे’र पर विशेष दाद लें -
    साथ है परदेस में भी रात-दिन जिसकी महक
    वो सुहानी रात-रानी है अभी तक गाँव में


    ****

    नीरज जी की टिप्पणियों से लगता है आप बेबाक और बेतक़ल्लुफ़ जीवन जीते हैं.
    मग़र लिखते हैं तो ’बदले-बदलेसे मेरे सरकार नज़र आते हैं..’
    इतनी पैनी दृष्टि और इतनी संवेदना. कायल हो गया हूँ आपके अंदाज़ का, भाई साहब.
    देखिये न, कहना ’फूल कर कुप्पा होना’ और चर्चा रोटी की.. ग़ज़ब !
    सारे शे’र सुभान अल्लाह !
    मग़र आपके मक्ते पर बस झूम गया. बहुत-बहुत कुछ कह डाला आपने नीरज भाईजी.

    सादर
    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)--

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  25. एक साथ दो बड़े शायरों को सुनना बड़ा सुखद अनुभव है. दोनों ही ग़ज़लें आनंद लेने और सीखने की दृष्टि से लाजवाब हैं.जहाँ द्विज जी के 'तन-बदन बेशक सुखा डाला ग़मों की आग ने....'बहुत प्रभावित किया वहीँ नीरज जी अपनी 'फूल कर कुप्पा' हुई रोटियों की कुदरती मिठास हम सब के लिए बिखेर गए हैं.ऐसी सुन्दर ग़ज़लों के लिए आप दोनों का आभार.

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  26. आज तो दोनो उस्दात उपस्थित हैं तो मेरे जैसे नासमझ का कुछ भी कहना बनता नही मगर गज़लें ऐसी हैं कि अपने आप ही वाह वाह निकल ज्क़ाती है। द्विज भाइ की गज़लें समाज के चेहरे से पर्दे उठाती हुयी सच को ब्याँ करती हुयी होती हैं
    तन बदन बेशक सुखा डाला----
    शहर मे चर्चे हैं तेरे---- ये शेर तो लाजवाब है
    बेचना है शह्र मे इसके लिये भी गर जमीर---- सही मे गाँवों मे अभी भी कहीँ सच्चाई इमानदारी मौजूद है। द्विज भाई को इस गज़ल के लिये बहुत बहुत बएधाई।
    नीरज जी की प्रशंसा मै केवल प्रशांसा कहने के लिये नही कर रही बल्कि इनका गज़ल के प्रति समर्पण और उत्साह देख कर कहती हूँ कि लिखने और्4 परखने मे इनका कोई सानी नही।
    फूल कर कुप्प हुया करती थी---- चुल्हे मे पकी रोटी का स्वाद याद दिला दिया
    शहर मे देखो जवाने मे --- सच बाद है गाँव की सादगी मे भी वो नूर है जो शह्र के लीपे पोते चेहरों मे नही। इस गजल मे सभी शेर कोट कर्क़ने वाले हैं । नीराज जी को बहुत बहुत बधाई। और सुबीर जी को त्तो सब से अदेहिक बधाई इतने शायरों को एक मंच पर लाने के लिये।

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  27. फिर दो दिग्गज...फिर वही असमंजस...!! द्विजेंद्र जी, अपना जो मक़ाम बना चुके हैं, उसके बाद कुछ बोलना सूरज को दिया दिखाना है....!!

    नीरज जी, वाक़ई हकदार थे उस सम्मान के जो उन्हे मिला हठीला स्मृति में मिला है।

    माँ की प्यारी, वो अँगीठी है, अभी तक गाँव में...सुंदर..शायद अब सर्दियों में कभी कभी हाथ सेंकने के काम आती होगी, वो अँगीठी।

    और अगले शेर में गुड़ की भेली...आहा... मैं समझती थी कि ये पूर्वांचल से संबंधित देशज शब्द है, लेकिन भेली तो दूर तक मशहूर है।

    पेट भरता था जिसे खा कर, मगर ये मन नही.... वाह वाह...! सच में बहुत सी चीजें गाँव की होती ही हैं ऐसी, जिनसे पेट तो भर जाता है, मगर मन नही....!

    "प्यार तो नीरज रुहानी है अभी तक गाँव में" खैर गाँव हो या शहर प्यार जब तक रूहानी ना हो तब तक प्यार है ही कहाँ....!!

    बधाई आप दोनो को....!!

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