गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

जब जब जोड़ लगाता हूं, अक्‍सर खुद घट जाता हूं

हिंदी की ताकत अब दिखाई तो देने लगी है । इस बार की कादम्‍ि‍बनी में श्री विष्‍णु नागर जी का आलेख कुछ ऐसी ही बात कर रहा है कि अब हिंदी कारपोरेट जगत की मजबूरी बनती जा रही है । और सबसे अच्‍छी बात तो ये है कि हिंदी में बोलने वालों की तादाद भी बढ़ रही है । खैर हिंदी तो जन जन की भाषा है । मगर हिंदी में ग़ज़ल कहने वाले एक लम्‍बे समय तक उपेक्षित ही रहे तब तक जब तक कि दुष्‍यंत परिदृष्‍य पर नहीं आ गये । हिंदी में गज़ल कहना ऐसा माना जाता था मानो कोई गुनाह किया जा रहा हो । आज भी हम में से कई सारे लोग फारसी और अरबी के टोले टोले शब्‍द अपनी ग़ज़लों में रखकर अपने का आलिम फाजिल साबित करने का प्रयास करते हैं । अभी कहीं पढ़ रहा था कि क्लिष्‍टता के चक्‍कर में ही संस्‍कृत खत्‍म हुई और हिंदी आ गई और अब क्लिष्‍टता के चक्‍कर में ही उर्दू खत्‍म हो रही है  । क्‍या ज़रूरत है फारसी के मोटे मोटे शब्‍द रखने की जिनके मायने किसी को पता ही नहीं हो । मेरा विरोध कई बार केवल इसी कारण होता है कि मैं ग़ज़ल को हिंदी में लिखे जाने की हिमायात करता हूं । मेरा मानना है कि जो ज़बान जनता बोले और समझे कविता उसी में होनी चाहिये । वाल्मिकी ने रामायण लिखी और तुलसी ने रामचरित मानस, मगर अपेक्षाकृत नई होने के बाद भी तुलसी की मानस ही जन जन तक पहुंची क्‍योंकि वो जनभाषा में लिखी गई है । दुष्‍यंत की जिद ये भी थी कि वो शहर  का वज्‍न 12 ही रखते थे उनका कहना था कि हिंदी में  शहर  को श हर  पढ़ा जाता है उर्दू में शह् र  पढ़ा जाता है इसलिये दोनों जगहों पर वजन अलग अलग है । दुष्‍यंत ने खुद लिखा है कि मैं चाहूं तो इस विवाद का हल  शहर  के स्‍थान पर नगर  का उपयोग करके कर सकता हूं मगर मैं नहीं करना चाहता । आज के शीर्षक में विज्ञान व्रत का मतला लगाया है विज्ञान व्रत भी दुष्‍यंत कर परंपरा के ग़ज़लकार हैं । कुल मिलाकर बात ये है कि अब जनता कि जो भाषा है उसीमें ही बात करनी होगी अगर नहीं करेंगें तो जनता आपकी कविताओं को गुनगुनायेगी ही नहीं और जो जनता ने नहीं गुनगुनाया तो आपकी कविता कहीं नहीं पहुंची ।  बशीर बद्र जैसे शायर खुद ही महफिलों में कहते हैं कि आने वाले समय के मीर और गालिब अब हिंदी से ही आयेंगें । हिंदी में कहना मतलब जनभाषा में कहना । आज के लोग माज़ी  जैसे अपेक्षाकृत सरल शब्‍द का अर्थ भी नहीं जानते तो आपको हिंदी का उपयोग तो करना ही होगा । मुशायरों तक में ये हालत है कि फारसी का कोई क्लिष्‍ट शब्‍द लिया तो उसका अर्थ पहले बताना होता है कि  इसका ये अर्थ ये होता है । पिछले दिनों को एक किस्‍सा है मैंने बताया था कि जनाब बेकल उत्‍साही जी के मुशायरे का संचालन मैंने किया था । बेकल उत्‍साही जी के बारे में तो आप जानते ही होंगे फिर भी ये जान लें कि ये भी हिंदी के हिमायती हैं । उस मुशायरे में ये हुआ के संचालन तो एक उर्दूदां को ही करना था मगर जो श्रोता थे वे हिंदी वाले अधिक थे सो एट द इलेवंथ आवर मुझसे कहा गया कि आपको संचालन करना है । अपने राम तो वैसे भी संचालन के दिवाने हैं । सो कर डाला और वो भी शुद्ध हिंदी में । लोगों ने पसंद भी किया यद्यपि शायरों में कुछ नो भौं सिकोड़ते रहे पर क्‍या करें जनता तो जनार्दन होती है । हिंदी भी वो नहीं जो संस्‍कृत निष्‍ठ हो और उर्दू भी वो नहीं हो जो अरबी फारसी निष्‍ठ हो । हिन्‍ुदस्‍तानी भाषा ये है कि आम आदमी संस्‍कृत के कुन्‍तलों, बोली के बालों और उर्दू की जुल्‍फों में सबसे आसानी से जुल्‍फों को समझता है तो आप जुल्‍फें ही लिखें । तो कुल मिलाकर बात ये कि हिन्‍दुस्‍तानी भाषा में ग़ज़लें कहें । हिन्‍दुस्‍तानी भाषा जिसमें हिंदी हो उर्दू हो और आवश्‍यकता पड़ने पर अरबी, फारसी और अंग्रेजी के आसान और आम फहम शब्‍दों को लिया जाये । आम अर्थात जिनका अर्थ आपको शेर पढ़ने के पहले बताना न पड़े के इसका अर्थ ये होता है ।  कविता अपने चरम पर श्रोता के अंदर रस प्रवाहन करने लगती है और जैसे ही कोई टोला शब्‍द आता है के रस भंग हो जाता है और उसके बाद वो श्रोता आपकी कविता से फिर नहीं जुड़ पाता । टोला शब्‍द अर्थात अरबी फारसी या संस्‍कृत का शब्‍द ।

Andheri-Raat-Ka-Suraj2 Rakesh2

एक शुभ सूचना ये है कि वरिष्‍ठ कवि श्री राकेश खण्‍डेलवाल जी का काव्‍य संग्रह '' अंधेरी रात का सूरज''  शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होकर आ गया है । 11 अक्‍टूबर को एक साथ उसका अमेरिका और भारत में सीहोर में विमोचन होने जा रहा है । संग्रह के बारे में विस्‍तृत जानकारी अगली पोस्‍ट में दी जायेगी । विमोचन के अवसर पर सभी आमंत्रित हैं शिवना प्रकाशन  द्वारा । अमेरिका में वाशिंगटन हिंदी समिति और सीहोर में शिवना द्वारा ये आयोजन किया जा रहा है  । राकेश जी के ये गीत और मुक्‍तक आने वाले समय की थाती हैं । अगली पोस्‍ट में विस्‍तार से चर्चा की जायेगी अंधेरी रात का सूरज की ।

11 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ-संकेत है ये तो। जनता की भावनाओं को उन्ही की भाषा में व्यक्त करना ही होगा। जमीनी हकीकत को छोड़कर सिर्फ़ चाँद-तारों की बाते करने का कोई विशेष मतलब भी नहीं है।
    "अंधेरी रात का सूरज" का इंतजार रहेगा। अच्छा होगा यदि अगले पोस्ट में इस संग्रह के कुछ चुनिंदा अंश भी पढ़ने को मिले।

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  2. गुरुदेव आप ने जो खा है उस से हम जैसों का हौंसला बढ़ा है...हम को कहाँ भारी भरकम उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का पता है...आप ने सही कहा जो बात समझ में ही ना ए उसे किसी भी भाषा में करने से क्या फायदा...राकेश जी की किताब का बेताबी से इन्तेजार है...उन जैसा विलक्षण लेखन बहुत कम पढने में आया है...शब्दों को अपनी रचना में ऐसे पिरोते हैं की देखते ही बनता है...माँ सरस्वती के इस लाडले पुत्र की एक नहीं और भी पुस्तकें प्रकशित हों ये ही कामना है...
    नीरज

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  3. नमस्कार गुरु जी,
    आपकी पोस्ट काफी दिनों से नही आ रही है.
    बहरे रमल मुसमन महजूफ
    २१२२-२१२२-२१२२-२१२

    ये एक ग़ज़ल मैंने बनाई है, कोई गलती हो तो बताएगा.

    अब तलक मेरा रहा अब आपका हो जाएगा.
    इस दिवाने यार दिल का कुछ पता हो जाएगा.

    तू अगर चाहे तो तुझको मैं भुला दूँगा मगर,
    है जो वडा धड़कनों से वो दगा हो जाएगा.

    आज की ये ज़िन्दगी अब ताजगी खोने लगी,
    याद कर बातें पुराणी सब नया हो जाएगा.

    दिल जिगर में, धड़कनों में, रूह में तू बस गई,
    बिन तिरे जीना बड़ा मुश्किल मिरा हो जाएगा.

    इश्क में यारों ने हिम्मत तो बड़ा दी है "सफर",
    सामने जब वो रहंगे सब हवा हो जाएगा.

    अंकित सफर
    http://www.ankitsafar.blogspot.com/
    agriboyankit@gmail.com

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  4. नमस्कार गुरु जी,
    आज २ अक्टूबर गाँधी जयंती के दिन एक मतला और एक शेर लिखा है, और उसमे आप की कही एक बात का ज़िक्र किया की "माज़ी" के बारे में ही बहुत कम लोग जानते है और उस लफ्ज़ को मैंने इसमे पिरोने की कोशिश की है, अब ये आप ही बता पाएंगे की वो कोशिश कामयाब हुई या नहीं।

    वक्त की सिलवट में रहे माज़ी की खुशबू।
    आज भी ताज़ा सी है, आज़ादी की खुशबू।
    महकता है हिंदोस्ता, जब महकती है,
    अनगिनत वीरों और एक गाँधी की खुशबू।

    ankit safar
    agriboyankit@gmail.com

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  5. सुबीर जी ,दुष्यंत जी की बात को आपने आगे बढाया अच्छी बात है ,कबीर तुलसी मीरा रफीम खुसरो आज भी प्रासंगिक है क्यों जनभाषा के कारण ,यही नहीं गालिब के दीवान को एडिट किया हाली ने और उस वक्त आमजन की भाषा के अशआर रखे तो गालिब जिंदा हुए .शहर ही नही वज़्न भी वज़न,फसल ,असल बोला जा रहा है ,उर्दूदां जन्म को जनम ,भूख को भूक कर सकते हैं सिरहाने को सिराने [ सिराने भी है हिन्दी में जिसका अर्थ दीपक सिराना ,नदी में बहाना होता है, आदि-आदि |तो साहित्य जनभाषा में होना चाहिए तभी तो जनप्रिय या जन साहित्य होगा ,आज कितने आमजन मुक्तिबोध ,अगेय को जानते है क्या उसका १० % हैं जो दुष्यंत ,शैलेन्द्र नीरज को जानते हैं |मेरा एक लेख त्रिलोचन के बहाने कई पत्रिकाओं में आया -सराहा भी गया देखना चाहें तो देखें यहाँ .श्याम सखा श्याम www.webduniya.com par sanamaran men ja kar

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  6. ...गुरूजी को चरण-स्पर्श!विष्णु नागर जी का वो आलेख मैंने भी पढा था और खूब उत्साहित हुआ. तो आप ही बतायें गुरूजी कि हम-आपके शिष्यगण- अपनी गज़लों में "शहर" और श्री श्याम सखा जी द्वारा टिप्पणीत शब्द "असल" , "वजन’ और "फ़सल" आदि के वजन की गणना किस प्रकार करें?
    ...और जो आपने कादम्बिनी का जिक्र किया है तो इस यानि कि अक्टूबर माह वाली में नये पत्ते के अंतर्गत मेरी एक गज़ल छपी है.मैं तो भेज कर भूल भी गया था.आपसे मिलने से पहले की बात है.सारे दीर्घ वाली बहर में है.लेकिन अब समझता हूँ कि उसमें कुछ शेर बेबहर थे.आप कुछ कहें पढ कर तो सकुन मिलेगा.
    ...और उस दिन फोन पे आपसे बात कर के बड़ा मजा आया.

    पुनःश्च- अंकित जी को बधाई.

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  7. गुरु जी प्रणाम
    आपका लेख पढ़ा, जान कर खुशी है की राकेश जी की पुस्तक का विमोचन होने जा रहा है राकेश जी को हार्दिक बधाई
    साथ ही आपको भी हार्दिक बधाई आप भी कई दिनों से इस प्रोजेक्ट को पूरा करने में जी जान से लगे हुए थे.
    आशा करता हूँ की इस पुस्तक के विमोचन से शिवाना प्रकाशन नई उचाईयों को प्राप्त करेगा

    आपका वीनस केसरी

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  8. इन्तजार रहेगा आपकी समीक्षा का राकेश भाई की किताब का. तरही मुशायरे का भी इन्तजार तो है ही. :)

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  9. Rakesh Ji ki Patrika Shivana Prakashan se aana ham sab ke liye Harsh Ki baat hai.... Pratiksha hai sameeksha ki

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  10. पंकजजी

    सही कहा आपने
    जो माधुर्य हमें देती है अपनी जन जीवन की भाषा
    वह सहसा ही अपने मन के कण कण में आ भर जाता है
    परिचित शब्दावलियां ही तो हमें जोड़ पाती हैं उससे
    जो सुर किसी कलम से बह कर जन मानस पर छा जाता है

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  11. सुबीर जी,
    बढ़िया पता लगा..
    मैंने पानीपत में ४०-५० ढंग के कविसम्मेलन करवाये. कोशिश की, कि आम जनता के बेतुके- बेढंगे हास्य कवियों के साथ-साथ हर बार कुछ बेहतर कवियों को भी उसमें रखा. आयोजकों को थोड़ा खला, परंतु मुझे याद है जब मैंने तमाम विरोध के बावजूद शिव ऒम अंबर जी से अपने कविसम्मेलन का संचालन करवाया तो लोगों ने हतप्रभ होकर बधाई दी.
    बहरहाल मन बना है कि जल्दी ही आपको पानीपत का मैदान दिखाऊं..
    sanchaalan karwaun..
    मैं स्वयं भी कविसम्मेलनों में देश भर में निरंतर जा रहा हूं. नो चुटकुलेबाजी, नो लफ्फाजी, नो ड्रामेबाजी, नो मिमिक्री, नो पैरोडी... विशुद्ध हास्यव्यंग्य पगी कविता या गजल या दोहा..
    फर्क सिर्फ इतना पड़ता है कि साल में ८-१० कविसम्मेलन कम मिलते है लेकिन शेष स्तरीय...
    खैर...

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