मठों से और मठाधीशों से मुझे हमेशा से ही एक चिड़ सी रही है । रवायतों और परम्पराओं की दुहाई देने वालों से मेरी कभी नहीं निभती । मुझे हमेशा से ही ये लगता है कि जो कुछ भी बदले जाने योग्य है उसे बदला ही जाना चाहिये और जो कुछ बदले जाने योग्य नहीं है उसको नहीं बदला जाना चाहिये । वे सभी रवायतें और परम्पराएं जो कि समय के साथ असहज होती जा रही हैं और अपना आधार खोती जा रही हैं उनको बदला ही जाना चाहिये । किन्तु मठ और मठाधीशों की दुकाने तो उन परम्पराओं के कारण ही चलती हैं । अगर उनको ही बदल दिया गया तो ये दुकानें कैसे चलेंगी । एक सच सुनकर शायद कई लोगों को मुझ पर क्रोध आये और कई लोग हो सकता है मेरे बारे में मान्यता बदल लें लेकिन सच यहीं है कि मैं मंदिरों में नहीं जाता । ये भी सच है कि ईश्वर में अटूट आस्था है और उसको महसूस किया है लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मंदिर और कुछ नहीं है बस एक दुकान है और दुकानदार वहां का पंडा या पुजारी है । मैं हमेशा से ऐसा नहीं था लेकिन पिछले कुछ सालों से ऐसा हो गया हूं ।
आज का ये इन्ट्रोडक्शन क्यों ? दरअसल में उसके पीछे भी एक कारण है । भाषा को लेकर बड़ा द्वंद चलता है । और विशेषकर हिंदी बेल्ट में तो भाषा को लेकर काफी उठापटक रहती है । और ये उठापटक है भाषा के शब्दों और उनके उपयोग को लेकर । चूंकि कई सारे शब्द इधर उधर के हैं अत: ये हंगामा हमेशा रहता है कि ये शब्द तो इस प्रकार उच्चारित होता है । दुष्यंत को सारी उम्र रवायतों के हिमायतियों से सामना करना पड़ा, बाद में दुष्यंत की शायरी ने वो किया जो तथाकथित परम्परावादी जीवन भर नहीं कर पाये । एक शेर को बार बार मैं कोट करता हूं । सतपाल जी ने बताया कि ये शेर अदम गोंडवी जी का है ।
ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
( अदबी इदारा : साहित्यिक संस्था )
मुझे नहीं लगता के आगे कुछ कहने की ज़रूरत है । खैर तो बात ये कि कौन तय करेगा कि क्या ठीक है और किस आधार पर । यदि व्याकरणाचार्यों की सुनें तो दुष्यंत एक निम्न स्तर का शायर है और यदि लोक की सुनें, जन की सुनें तो दुष्यंत हिंदी का सबसे बड़ा शायर है । तो किसकी बात को सही माना जाये परम्परवादियों की, या उस जन की जो परम्पराओं से छुटकारा चाहती है । हिंदी में एक वाक्य है ' अब तो वहां जाकर के ही देखेंगें ' , या एक और वाक्य है ' पास आकर के देखो' । अब हम उदाहरण लेते हैं वाक्य 'पास आकर के देखो' का इसमें से 'के' को हटा दें तो वाक्य बनता है ' पास आकर देखो' । अब कई बार उच्चारण करें दो वाक्यों का ।
पास आकर देखो
पास आकर के देखो
क्या दोनों वाक्यों की ध्वनियों में कोई परिवर्तन नहीं लग रहा है । दरअसल में ये विशुद्ध हिंदी की ध्वनियां हैं । हिंदी जो मेरे विचार में विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है । हिंदी विश्व की सबसे वैज्ञानिक भाषा है । इसलिये कोई दूसरी भाषा का हिमायती ( भाषा का नाम लेना आवश्यक नहीं है ) यदि इन दोनों वाक्यों को पढ़ेगा तो उसे दूसरे वाक्य में जो के शब्द आ रहा है वो अतिरिक्त लगेगा । किन्तु हिंदी का जानकार जब पढ़ेगा तो उसे पता होगा कि दूसरे वाक्य में जो के आ रहा है वो भाषा के लालित्य, भाषा के सौंदर्य का एक प्रयोग है जो कि केवल हिंदी में ही होता है । अब ये जो के है ये क्या कर रहा है इसको जानें । दरअसल में ये जो के है ये कोई अतिरिक्त नहीं है ये तो एक प्रयोग हैं । यदि आप पहले वाक्य को देखेंगें तो उसमें प्रेम नहीं है, मनुहार नहीं है, बल्कि एक प्रकार का रूखापन है । या यूं कह सकते हैं कि उसमें एक प्रकार की धमकी जैसी दिखाई दे रही है । दूसरे में जो के आया है उसने वाक्य का सौंदर्य बढ़ा दिया है । अब उसने उस वाक्य में सब कुछ भर दिया है, सौंदर्य भी, लालित्य भी, मनुहार भी और बहुत कुछ । लेकिन भाषा का लालित्य विश्व की केवल एक ही भाषा में होता है हिंदी में । इसलिये यदि भाषा के लालित्य का समझना है तो हिंदी में सोचना होगा । इस के को ग़ज़लों में अवांछित माना गया है और बिना इसके प्रयोग को देखे इसको भर्ती का शब्द बता दिया जाता है ।
भाषा लोक से जन्म लेती है । लोग जो कुछ बोलते हैं वही भाषा होती है । और भाषा के शब्द भाषा के नियम सब लोक से आते हैं । एक भाषा के नियम दूसरी पर भी चलते हों ये नहीं हो सकता । जैसे उर्दू में हिंदी के ब्राह्मण को बिरहमन कर दिया गया है हिंदी के पृथ्वी को पिरथवी कर दिया गया । उसको लेकर हिंदी ने कभी आपत्ती नहीं उठाई के ये तो ग़लत उच्चारण है । तो फिर जब हिंदी में उर्दू के शह्र को शहर किया गया तो उस पर भी आपत्ती नहीं होनी चाहिये । दरअसल में लोग किसी शब्द को जब दूसरी भाषा से लेते हैं तो वे उसका उच्चारण भी कुछ परिवर्तित हो जाता है । और जब एक भाषा के शब्द दूसरी में जाते हैं तो उच्चारण बदल ही जाता है । ऐसे में यदि मूल भाषा के व्याकरणाचार्य आपत्ती उठायें कि नहीं ये तो ग़लत उच्चारण है तो भी जन या लोक उस उच्चारण को बदलते नहीं हैं । क्योंकि ये बचपन से जुबान, तालू, दांत और दिमाग में होता है कि किस अक्षर को कैसे कहना है । यदि आप ध्यान से सुनें तो सब टीवी के धारावाहिक गनवाले दुल्हनिया ले जायेंगें में एक लड़की जो टाइगर की प्रेमिका बनी है वो स को फ उच्चारित करती है । क्योंकि बचपन से उसे ये ही अभ्यास में हैं । जैसे उर्दू में ज़ात में ज पर नुक्ता लगता है हिंदी में वो जात होती है । ( जात न पूछो साधु की ) । हमने अंग्रेजों को इसलिये नहीं भारत से भगाया कि वे ट,ठ,ड,ढ को ठीक प्रकार से उच्चारण नहीं कर पाते थे । उनको भगाने के पीछे दूसरे कारण थे । वे नहीं कर पाते थे क्योंकि उनका मुंह की आंतरिक संरचना तथा जुबान इन शब्दों पर ठीक प्रकार से कार्य नहीं करती थी । मैंने पूर्व में एक बार बताया है कि दो हजार साल पहले खाड़ी के देशों के लोग स को ह बोलते थे । इसी उच्चारण की गड़बड़ी से जन्मा है नाम हिंदू तथा हिंदुस्तान । क्योंकि सिंधू नदी से हमारी पहचान थी और उसी सिंधू को हिंदू कहकर पुकारा जाता था । अरब की उन्हीं बंजारा जातियों के वंशज आज भी राजस्थान में हैं जो लोहापीटा बंजारे हैं ये भी आज तक सबेरे को हबेरे कहते हैं अर्थात वही स को ह । यही ह जब यूनान पहुंचा तो वहां इसे अ मिला अर्थात ह को अ उच्चारण वहां होता था । तो ये ही सिंधु जो कि अरब में हिंदू हुआ वहीं यूनान में ह का उच्चारण इ होने के कारण इंदू हुआ जिससे फिर बना इंडिया । ( आचार्य रामधारी सिंह दिनकर स्मृति स्मारिका 2008 में उस पर मेरा एक विस््तृत आलेख है मिलें तो पढें ) ।
अग्रज कवि श्री नीरज गोस्वामी जी की दो ग़ज़लें मुझे बहुत आनंद देती हैं जिनमें मुंबइया भाषा का प्रयोग हुआ । आनंद क्यों ? क्योंकि इनमें जन की भाषा का प्रयोग है, लोक की भाषा का प्रयोग है । क्या वो जन इतना बुरा है कि उसकी भाषा में साहित्य ही न रचा जाये । क्या साहित्य केवल चंद एलीट या अदबी लोगों के लिये ही है । नहीं तुलसीदास ने जब संस्कृत को छोड़कर भाखा ( जन भाषा) में मानस की रचना की तो संस्कृत वालों ने खूब हंसी उड़ाई, किन्तु आज समय ने बताया कि तुलसी कहां हैं और दूसरे कवि कहां हैं । मुझे पसंद आती हैं श्री द्विजेंद्र द्विज जी की ग़ज़लें क्योंकि वो आम आदमी की भाषा में बात करती हैं जैसे
इन्हीं हाथों ने बेशक विश्व का इतिहास लिक्खा है
इन्हीं पर चंद हाथों ने मगर संत्रास लिक्खा है
या
जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
लोग कहते हैं यहां रोज हवन होता है
या फिर श्री आलोक श्रीवास्तव जी की ग़ज़लें जो बिना किसी ताम झाम के केवल जन की बात करती हैं ।
घर में झीने झीने रिश्ते मैंने रोज उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा
इस शेर पर हिंदी के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह जी ने कहा कि तुरपाई शब्द संभवत: काव्य में पहली बार प्रयोग किया गया है और इतनी सुंदर जगह प्रयोग किया गया है ।
मैं स्वयं पैदाइशी विद्रोही हूं, मेरा मानना है परम्पराएं कुछ नहीं होतीं, जो जन तय करता है वही परम्परा होती है ।
अंत में सबसे क्षमा चाहता हूं । मुझे लगा कि ये कहना आज जरूरी है सो कहा । तुलसी से लेकर दुष्यंत तक हमारे पास उदाहरण हैं कि जिसने विद्रोह किया रवायतों से परम्पराओं से वही अमर हुआ और कालजयी हुआ तो फिर भी हम कुछ सीखते क्यों नहीं ।
खैर काफी लम्बा हो गया है सो विराम देता हूं । मिलिये आज मेरी दोनों बिटियाओं परी और पंखुरी से ।
बहुत अच्छे से आपने अपनी बात रख्खी है...एक सिद्ध हस्त रचनाकार ही अपनी बात इतनी कुशलता से रख सकता है...
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से भाषा एक दूसरे तक अपने भाव पहुँचाने का माध्यम मात्र है...माध्यम जितना सरल, आसान होगा बात उतनी ही जल्दी एक से दूसरे तक पहुँचेगी...भाषा को क्लिष्ट करने के चक्कर में सिर्फ शब्दों का आदान प्रदान हो पायेगा...संवाद का नहीं...
क्या संयोग है की मैं भी मंदिर नहीं जाता और इसके पीछे मेरी नास्तिकता नहीं वहां होने वाला आडम्बर है जिस से मुझे सख्त घृणा है...मेरा मानना है की अगर आपका मन निर्मल निश्छल है तो इश्वर आपमें ही है...कहीं जाने की जरूरत नहीं और अगर नहीं है तो फिर किसी भी मंदिर में कितनी बार भी जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता...
आजकल आपकी पुस्तक का अध्यन कर रहा हूँ और प्रत्येक कहानी पर आपको साहित्य का नोबल पुरूस्कार देने की चाह रखता हूँ...आपकी कहानियां न केवल कथ्य में बल्कि शैली में भी नवीनता लिए हुए हैं...कभी इश्वर ने इस लायक बनाया तो आपकी पुस्तक के बारे में लिखने की कोशिश करूँगा...
परी और पंखुरी (क्या नाम रखें हैं...वाह...) से मिलने का सौभाग्य कब होगा?दोनों इतनी प्यारी हैं की गोद में लेकर दुलारने को जी कर रहा है.
नीरज
बहुत अच्छे से आपने अपनी बात रख्खी है...एक सिद्ध हस्त रचनाकार ही अपनी बात इतनी कुशलता से रख सकता है...
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से भाषा एक दूसरे तक अपने भाव पहुँचाने का माध्यम मात्र है...माध्यम जितना सरल, आसान होगा बात उतनी ही जल्दी एक से दूसरे तक पहुँचेगी...भाषा को क्लिष्ट करने के चक्कर में सिर्फ शब्दों का आदान प्रदान हो पायेगा...संवाद का नहीं...
क्या संयोग है की मैं भी मंदिर नहीं जाता और इसके पीछे मेरी नास्तिकता नहीं वहां होने वाला आडम्बर है जिस से मुझे सख्त घृणा है...मेरा मानना है की अगर आपका मन निर्मल निश्छल है तो इश्वर आपमें ही है...कहीं जाने की जरूरत नहीं और अगर नहीं है तो फिर किसी भी मंदिर में कितनी बार भी जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता...
आजकल आपकी पुस्तक का अध्यन कर रहा हूँ और प्रत्येक कहानी पर आपको साहित्य का नोबल पुरूस्कार देने की चाह रखता हूँ...आपकी कहानियां न केवल कथ्य में बल्कि शैली में भी नवीनता लिए हुए हैं...कभी इश्वर ने इस लायक बनाया तो आपकी पुस्तक के बारे में लिखने की कोशिश करूँगा...
परी और पंखुरी (क्या नाम रखें हैं...वाह...) से मिलने का सौभाग्य कब होगा?दोनों इतनी प्यारी हैं की गोद में लेकर दुलारने को जी कर रहा है.
नीरज
परम्पराएं कुछ नहीं होती ,जो जन तय करता है वही परम्परा होती है । पूरी तरह सहमत हूँ इस बात से । सिर्फ़ भाषा ही नही-- रस्म -रिवाज,पूजा-पाठ, ज्योतिष ---हर जगह यह बात सही होती है।(उदाहरण के लिए--- पूजा के समय गनेश जी की मुर्ती उपलब्ध न होने पर पंडित जी सुपारी रखने की सलाह देते हैं )
जवाब देंहटाएंआपकी बेटीयाँ बहुत प्यारी है ---दोनों को आशिर्वाद ।
सब बकवास...बस, जनभाषा ही चलेगी.
जवाब देंहटाएंव्याकरण या मानकीकरण का अपना महत्त्व है, वहीं भाषा बहती नदी-सी है.
बच्चियों के नाम भी उन्ही की तरह बड़े प्यारे हैं.
गुरु देव को सादर प्रणाम,
जवाब देंहटाएंसच्ची बात है के शब्द और उनका इस्तेमाल संवाद के लिए ही होता है और वस्तुतः यही सत्य है ... जन भाषा ही आम लोगों की भाषा होती है जिसके माध्यम से संवाद का संचार होता है ... जिसमे लोग अपनी बात को स्पष्ट तरीके से एक दुसरे के सामने रखते है... और अपनी भावना से एक दुसरे को अवगत कराते है... जो जन भाषा है साहित्य की भी वही भाषा है...
मैं अपनी कुछ एक गल्तीओं के लिए गुरु देव आप से क्षमा प्रार्थी हूँ ... उम्मीद है आप इस नालायक को माफ़ कर देंगे.. मैं भी मानव हूँ और गलतीयां तो हो जाती है ... पारी और पंखुरी को बहोत बहोत प्यार...
आपका
अर्श
100 प्रतिशत सहमत - इसीलिए हम कहते हैं -
जवाब देंहटाएंग़ज़ल को ले चलो हर संभव गलियारों में,
मन चाहे रूप धर दो नवछदं - व्यंज़लों में।
आदरणीय भाई सुबीर जी
जवाब देंहटाएंसादर स्नेहाभिवादन
कहाँ मैं कहाँ ये मुकाम...
अल्लाह-अल्लाह.
परी और पँखुरी को
हार्दिक स्नेह.
गुरूदेव अभी जल्दी में हूं, रात को टिप्पणी करूंगा बस इतना कहते चलूं-
जवाब देंहटाएंआज अग्नि संस्कारों की हो जाने दे रस्म सखे
अग-जग की जड़ता-चंचलता हो जाने दे भस्म सखे
(कवि का नाम अभी नहीं याद आ रहा है)
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। इसे यूँ भी कहते हैं कि जिसे समय की गर्द में फना नहीं होता, वह समय के साथ खुद को भी बदल देता है।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों मे
जवाब देंहटाएंमुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदम गोंडवी जी का ये शे’र ही अपने आप मे एक सीख है और सार है. बाकी तो आदरणीय पंकज जी ने भी सही तरीके से समझाया है.
कहीं न कहीं ये बात सही लगती है कि..content is more important than container..lekin ye bhi aapne sahi kaha ki bhasha panditoN ki dukaan ka bhi savaal hai.
lekin ye pathar pe lakeer hai ki janbhasha hi kavita /ghazal ki aslee bhasha hai.
गंभीर एवं विचारणीय आलेख एक तरह से मार्गदर्शिका है,भाषा साहित्य के लिए...महत आलेख हेतु आपका साधुवाद.विषय को बड़े ही प्रभावी ढंग से आपने स्पष्ट किया है...
जवाब देंहटाएंपरन्तु आलेख पढ़कर मेरे मन में जो एक बात आई उसे कहने की धृष्टता कर रही हूँ....
मुझे लगता है किसी भी भाषा में लिखने और बोलचाल में सदैव ही अंतर हुआ करता है,दोनों अपने अपने स्थान पर उतने ही महत्वपूर्ण तथा जीवनोपयोगी है.
यदि बोली जाने वाली भाषा को ही साहित्य की भाषा ठहरा दी जायेगी तो भाषा के लिखित स्वरुप का स्तर बहुत नीचे चला जायेगा...उदहारण के लिए आज हिंदी जिस रूप में बोलचाल में अधिकतर सभ्रांत कहे जाने वाले समाज में वर्तमान है,उसे हिंदी कहना किना उचित होगा पता नहीं....उसे आधुनिक हिंगलिश कहते सुनती हूँ.....पहले हिंदी वाक्य में अंग्रेजी के शब्द फिलर हुआ करते थे ,अब हिंदी के शब्द अंग्रेजी वाक्य के बीच फिलर बनकर रह गए हैं...यदि इस हिंदी को साहित्यिक हिंदी का दर्जा दे देंगे तो कई सुन्दर शब्द विलुप्त हो जायेंगे....
वस्तुतः बोली जाने वाली भाषा का स्वरुप तेजी से बदलता है परन्तु लिखित भाषा साहित्य को संजोती और पीढियों तक पहुंचाती है.
यह पूर्णतः सत्य है कि कई साहित्यकार स्वयं को हिंदी नियंता मानते हैं और अपने इशारों पर इसे चलाना चाहते हैं....परन्तु जो सत्य है वह शाश्वत होता है..उसे कोई मिटा नहीं सकता...कोई कितना भी नामचीन क्यों न हो जाय इसे अपने जेब में नहीं रख सकता..
तुलसीदास जी का उदहारण बड़ा ही सटीक दिया आपने....परन्तु तुलसीदास जी की भाषा, भाषा के कारण अमर नहीं हुई,भाव के कारण अमर हुई..उन्होंने भावः को जनभाषा में ढाल कर भक्ति को उज्जवल स्वरुप प्रदान किया,समाज को रास्ता दिखाया.तुलसी दास की रचना में स्थित जन कल्याणकारी भाव ने ही कृति को अमर बना दिया.....
एक बात और,किसी भी गलत बात का विरोध दो प्रकार से होता है- एक गलत बात की आलोचना कर और दूसरा अपने कर्म द्वारा सही का आदर्श स्थापित कर...सत्य है, मंदिरों या पूजा पाठ में आडम्बर ने अपना स्थान बना लिया है...परन्तु उन्ही मंदिरों में यदि सीर्फ अपने मन की दृढ आस्था और श्रद्धा के भाव के साथ जाया जाय,तो भगवान् और शांति दोनों मिल जाते हैं(यह मैं अपने अनुभव के आधार पर बता रही हूँ)...
आज बोलचाल में जिस प्रकार की हिन्दी बोली जाती है ईश्वर न करें की हिंदी का यह रूप ही सांस्कृतिक रूप बन कर जाना जाय.
आका विचार और लेखन दोनों ही लाजवाब हैं ...............मुझे लगता है भाषा किसी, प्रांत, प्रदेश..........देश या प्यक्ति विशेष की नहीं होती..........उसको भाषा बनाने में जितना परिवेश........स्थान .........संस्कृति का योगदान होता है उतना किसी और का नहीं......... हिंदी में भी लोक भाषा को इतना मिश्रण है की कुछ शब्द हिंदी के ही लगते हैं किसी विशेष लोक आँचल के नहीं........
जवाब देंहटाएंभाषा का विकास........मुझे लगता है एक सतत प्रक्रिया है..........मुझे लगता है आप से बेहतर ये बात कौन जनता होगा ......... आप तो स्वयं इतने गुनी हैं इस मामले में.
पारी और पंखुरी से मिल कर अच्छा लगा..........आपकी अगली मेल का इंतज़ार है
चि. बिटीया परी और पाँखुरी दोनोँ को
जवाब देंहटाएंस स्नेह आशिष --
बातेँ भाषा के जरीये
एक मनुष्य के ह्र्दय से
दूसरे के मन तक
पहुँचाने का सशक्त माध्यम है
विश्व की हरेक भाषा !
महत्त्वपूर्ण भी है -
उसके बोलनेवाले किस निष्ठासे
उसे जीवित रखते हैँ
उसी पर ,
उनका भविष्य मेँ क्या स्थान रहेगा ,
तय होता है -
हिन्दी भाषा के प्रति आदर ,
प्रेम व निष्ठा है
जो इत्ती दूर परदेस से भी
मुझे ,
हिन्दी के साथ जोडे हुए है ...
उसकी खुशी है -
नीरज भाई की तरह
आपकी पुस्तक पढ रही हूँ -
सारी कहानियाँ
आज के विषयोँ को मुख्य बनाकर
लिखी गयीँ हैँ
और अलग तरह से
मन मेँ घर कर रहीँ हैँ :)
आपको पुन: बधाई -
स स्नेह,
- लावण्या
सुबीर जी
जवाब देंहटाएंआपका यह सारगर्भित लेख पढ़ा।
मैं इस विषय को लेकर अपने मत का प्रतिपादन करने के लिए नहीं लिख रहा हूं और ना ही किसी के विचारों से टकराने की इच्छा है, केवल विचार हैं जो गलत भी हो सकते हैं। यदि कोई इस से सहमत ना हो तो उनके विचारों का पूरा सम्मान देते हुए उनका आभार मानूंगा।
किसी युग के साहित्य में नवीन प्रवृत्तियों का उद्भव चमत्कारिक घटना के रूप में एकाएक नहीं हुआ करता। उसका बीज वातावरण में बहुत गहरा जमा होता है। उपयुक्त परिस्थितियों से पोषण पाकर अंकुरित होकर बढ़ता है। यथार्थ की प्रवृत्ति का प्रभाव काव्य-क्षेत्र की भाषा के परिवर्तन में दृष्टिगत होता है। धीरे धीरे नवयुग के साहित्य में भी
अभिव्यक्ति के लिए इस प्रकार की भाषा का व्यवहार होने लगता है। आचार्य चन्द्र वली पाण्डेय जी ने भारतेन्दु जी के लिए कहा है: "क्या यह हमारे अभिमान की बात नहीं है कि हमारी नागरी का नेता नागर हरिश्चन्द्र था जो 'गंवारी'(भाषा) का रसपान करने में तनिक भी नहीं हिचकता था।" डा. देव राज ने इस नई कविता का उद्भव एवं विकास के विषय में कहा है कि पुरानी कविता रूढ़िग्रस्त हो उठी है, काव्य-भाषा को जन-भाषा के निकट लाना है और नये मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए नवीन प्रयोग करने हैं।"
आज के प्रयोगशील कवियों ने विभिन्न क्षेत्रों में विविध प्रयोग किए हैं और उन्हें मान्यता भी मिली है। कुछ आलोचकों एवं कवियों ने इस प्रकार के प्रयोगों को अस्वस्थ बतलाया है और उसके प्रति अपना क्षोभ भी प्रकट किया है। प० नन्द दुलारे वाजपेयी इसके विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में ये ऐसी रचनाएं अनुभूति की ईमानदारी से रहित हैं और सामाजिक उत्तरदायित्व को भी पूरा नहीं करतीं। किसी भी अवस्था में यह प्रयोगों का बाहुल्य वास्तविक साहित्यिक-सृजन का स्थान नहीं ले सकतीं।
जब कोई भाषा व्याकरण के नियमों से बंध कर साहित्यिक भाषा बन जाती है तो उससे कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा बोलचाल की भाषा स्थान ले लेती है। धीरे धीरे साहित्यिक भाषा रूढ़गस्त होकर नवीन साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास में पूर्ण योग देने योग्य नहीं रह जाती, तब उससे आगे बढ़ी हुई बोलचाल की भाषा का जन्म होता है। यह साहित्य के आदिकाल से ही होता रहा है। हिन्दी साहित्य स्वयं ही इसका साक्षी है। दसवीं शताब्दी में जब 'अपभ्रंश' (मैं इसे हिन्दी मानता हूं) 'साहित्यिक मरण' को प्राप्त हुई और उससे आगे बढ़ी हुई देशभाषा या लोक भाषा ने उसका स्थान ग्रहण किया।
आप स्वयं देख सकते हैं कि उस समय की देशभाषा या लोक भाषा से आज तक की लोक भाषा तक की यात्रा में कितने परिवर्तन हुए होंगे, समय समय पर आलोचकों का सामना भी करना पड़ा होगा। दसवीं शताब्दी की लोकभाषा का यह उदाहरण देखिए: (विद्यापति की 'कीर्तिलता' से)
अथ छपद:
तसु नन्दन भोगी सराअ, वर भोग पुरन्दर।
हुअ हुअसन तेजिकान्ति कुसुमउँह सुन्दर।।
जाचक सिद्धि देदार दान पञ्चम वलि जानल।
पिअसख भणि पिअरोजसाह सुरतान समानल।।
पत्तापे दान सम्मान गुणे जें सब करिअउँ अप्पवस।।
वित्थरि अकित्ति महिमणडलहि कुन्द कुसुम संकास जस।।
इस उदाहरण देने का तात्पर्य यह है कि यदि रूढ़िबद्ध साहित्य भाषा का विकास रुक जाए तो क्या हमें आज इस भाषा में लिखना रुचिकर होगा। भाषा का प्रवाह तो कभी भी नहीं रुका है और आगे ....!
महावीर शर्मा
(छंद, ग़ज़ल आदि का विषय अलग है, जिस पर यहां कुछ कहना ठीक नहीं होगा। कृपया इस विषय को
यहां सम्मलित ना करें तो अच्छा होगा)
सुबीर जी
जवाब देंहटाएंएक बात तो भूल ही गया। हमारी ओर से दोनों प्यारी प्यारी बिटियाओं को ढेर सारा प्यार देना।
महावीर
सहमत हूं आपसे। परी और पंखुरी को किसी की नज़र न लगे,उनको हमारी उमर लग जाय्।
जवाब देंहटाएंगुरु जी प्रणाम
जवाब देंहटाएंआज की आपकी पोस्ट ने चौका दिया हमने तो सोमवार के लिए सोंच रखा था
बहरहाल मैं बता दूं की मंदिर ना जाना और भगवान् पर अटूट विशवास रखना ये तो हमारी भी आदत है ये बात अलग है की कोई साथ चलने को कहे तो मना नहीं करता मगर मुझे याद नहीं पढता की कभी अपने मन से मंदिर गया हूँ
आपने आज जो विषय उठाया है पढ़ा तो कुछ दिन पहले की बात याद आ गई
हम लोग अक्सर कहते हैं
"इतनी मेहनत की है की सारा कस बल निकल गया "
या फिर
"आज तुम्हारे सरे कस बल निकाल दूंगा "
अभी कुछ दिन पहले ही पता चला की जी कस बल का प्रयोग मैं हिन्दी के रूप में करता आया हूँ और जिसका आशय घमंड से लिया जाता है वास्तव में वो एक उर्दू का शब्द है जो कस्बल के रूप में शुद्ध है जब मैंने पढ़ा तो हक्का बक्का रह गया था
कही पढ़ा था जिस भाषा में लचक नहीं होती वो मर जाती है जैसे संस्कृत
आपका वीनस केसरी
मैं चुपचाप हो इस अद्भुत आलेख के तेवर को गुनता-समझता हूँ।
जवाब देंहटाएंआह...!!!! मन प्रसन्न हो गया गुरूदेव। फोन पर हुई उस दिन की सारी बातें याद आ रही हैं।
परी और पंखुरी की तस्वीर ने मन मोह लिया। खूब सारा प्यार दोनों को और समस्त शुभकामनायें
’श’ और ’स’ को ’ह’ बोलना जोधपुर में भी काफी कॉमन है...
जवाब देंहटाएंपण्डित जो नियम कायदे गढे़ स्कुल में पढ़ाने के लिये ठीक है... बाकी समाज/आम लोग तो वो ही करेंगें जो उन्हे सुविधाजनक है.. और हिन्दी की ये ही विशेषता है.. कि वो क्षेत्रिय भाषाओं में घुल कर ’लोकल’ स्वरुप ले लेती है...
परी पंखुरी.. क्या कहने..
कुछ समझा हूं, कुछ समझने की कोशिश कर रहा हूं।
जवाब देंहटाएंमैं सोचता हूं कि जो लोग सिद्धहस्त हैं वे लोग भाषा के साथ प्रयोग कर सकते हैं लेकिन जिन्हें भाषा का पूरा ज्ञान नहीं है वे इसे डिस्टार्ट भी कर सकते हैं। जैसे अभी अभी मैं कर रहा हूं।
इससे शायद अभिव्यक्ति भी गड़बड़ा सकती है। पता नहीं दावे से कुछ नहीं कह सकता। लेकिन जो लोग जानते हैं वे खुलकर प्रयोग कर सकते होंगे।
दोनों परियों :) परी और पंखुरी को ढेर सारा प्यार।
गंभीर बात इस सहजता से...आपके बस का है बस!!
जवाब देंहटाएंइस पर ज्यादा कुछ कहने की सक्षमता नहीं है..मेरी!!
परी और पँखुरी को प्यार दें!!
जवाब देंहटाएंबिल्कुल दिल की बात कही आपने सुबीर जी
जवाब देंहटाएंमैं भी पिछले तकरीबन 10 साल से मन्दिर नहीं जाता। खैर मैं तो ईश्वर में भी यकीन नहीं रखता।
परन्तु ये बात तो ठीक लगती है, कि परमपरायें आज कल बोझ सा लगने लगी हैं । अब शादी ब्याह को ही ले लीजिये, पहले तो कुंड्लिया मिलाई जाती है, जिसका कोई scientific explanation नहीं है। सिर्फ़ और सिर्फ़ कोरा वहम। मुझे तो अक्सर ऐसी बातों पर क्रोध आने लगता है। घर में बड़ों से अगर discuss करो ये चीज़ तो उन्हें लगता है, कि हम उनका अनादर कर रहे हैं, वो ये नहीं समझते के उनको logically सोचने की सलाह दे रहे हैं। और जवाब ये मिलता है, कि तू क्या दुनिया में सब से ज़्यादा समझदार है। लोग पागल हैं क्या जो ये सब follow करते हैं ?
परी और पंखुरी को हमारा ढेर सारा प्यार।
सुबीर जी,
जवाब देंहटाएंअभी अर्श भाई ने आपके ब्लॉग का लिंक देकर पोस्ट पढने को कहा....
जिस "के" और "है" के लिए उन्होंने बात की ...उससे तो खैर असहमत होने का कोई मतलब नहीं है....पर .......
मैं खुद कभी मंदिर नहीं जाता ........इश्वेर को भी मानता हूँ.....
मठ और मठाधीशों से भी चिढ़ता हूँ,,,,,(वो भी इतना ज्यादा के कह नहीं सकता)
पर ये कभी नहीं मानता के इस कारण कोई भी मेरे बारे में अपनी मान्यता बदल लेगा या मुझ पर क्रोध करेगा.....(कम से कम मंदिर जाने न जाने से तो कतई नहीं,,,,,)
हाँ मठाधीशों वाली बात से कोई एकाध जरूर असहज हो जाता है.....par हो जाए तो हो जाये,,
और मुझे इसका इल्म भी हो जाता है..... बहुत ही जल्दी.....(नजर न पड़े तो और बात...)
par कोई फर्क नहीं पड़ता.....
विद्रोही हर कोई होता है ,,कोई कम कोई ज्यादा,,,,कोई कही तो कोई कहीं,,,,
इस बारे में भी मेरी एक अलग ही राय है,,,,,,
फिलहाल तो mere यहाँ par internet विद्रोह कर रहा है,,,
सो फिर कभी.....
अच्छा लेख....
और हाँ सुबीर जी,
दोनों फूल सी बच्चीयाँ बहुत ही भाईं,,,,, कितने प्यार से दिवाली का लुत्फ़ ले रही हैं....
इश्वेर से haath जोड़ कर प्रार्थना है के इनके जीवन में सदा ऐसे ही खुशियाँ बरसें,,,,,,
और,,,,
इनके जीवन में खुशियाँ और सकारात्मकता यूं ही बढ़ती रहे,,,,,
Pankaj ji
जवाब देंहटाएंSadar Namskaar,
Aapki baat bhasha ke manak ko samjhaati hui bhaut pasand aayi.....
magar mujhe sabse zayada aapki dono betiyon ke naam aur unka photo laga
aapko itni sunder pariyan pane ke liye badhayi
bhasha ke paryog ki sunder jankari.ke shabad ka paryog ke bare me jo btaya..woh adbhut tha.....
जवाब देंहटाएंइतनी बारीकियाँ...अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंaapka blog bahut achcha hain.......full of knowledge....aaj wo seekha jo pahle kabhi nahi padha tha.....aapki betiyan bahut pyari hain. Meri taraf se bhi dono ko dher sara pyaar.
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