बुधवार, 15 मार्च 2017

हर त्यौहार का एक रंग वह भी होता है जिसे बासी रंग कहा जाता है, इस ब्लॉग पर बासी रंग और ज़्यादा खिलता है। आइए आज तिलकराज कपूर जी और डॉ. सुधीर त्यागी के साथ बासी रंग मनाते हैं।

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होली का पर्व आया और चला भी गया हालाँकि हमारे इधर मालवा में तो अभी असली रंग का दिन रंग पंचमी बचा हुआ है। हमारे यहाँ होली पर तो नाम का रंग होता है असली तो रंग पंचमी ही होती है। और इस बार तो लग रहा है कि यहाँ ब्लॉग पर भी रंग पंचमी तक रंग चल ही जाएगा। बल्कि लगता है कि भभ्भड़ कवि भौंचक्के की इण्ट्री तो शायद उसके भी बाद हो पाए। कुछ नए लोग जुड़ रहे हैं जो दौड़ते भागते रेल पकड़ रहे हैं। जो भी हो हमारा मक़सद तो यही है कि रचनाधर्मिता को बढ़ावा दिया जाए, जो भी हो, जैसे भी हो। असल तो रचनाधर्मिता ही होती है। तो आइए आज रंग भरे माहौल का और बढ़ाते हैं।

आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

मित्रो इस बार की ग़ज़लें बहुत परिपक्व ग़ज़लें हैं। और ऐसा हुआ है कुछ कठिन रदीफ और काफ़िये के कॉम्बिनेशन के कारण। यह सारी ग़ज़लें और गीत शिवना साहित्यिकी पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित होंगे। और हाँ चूँकि पत्रिका त्रैमासिक है तो अब हमें साल में चार मुशायरे तो आयोजित करने ही होंगे। होली दीवाली तो होते ही हैं अब लगता है वर्षा और ग्रीष्म के मुशायरे भी आयोजित करने होंगे। आइए आज बासी होली मनाते हैं तिलकराज कपूर जी और डॉ. सुधीर त्यागी के साथ।

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलकराज कपूर

शह्र डूबा कहूँ कौनसे रंग में
दिख रहे हैं सभी आपके रंग में।

रंग क्या है, समझने की चाहत है गर
सर से पा तक कभी डूबिये रंग में।

प्यास लगने पे अक्सर ही हमने पिये
अश्रु अपनी घुटन से भरे रंग में।

किस तरह से वो निष्पक्ष होंगे कहो
जन्म जिनका हुआ और पले रंग में।

जब मुहब्बत में आगे निकल आये हम
दौर रुस्वाईयों के चले रंग में।

जो दिखा आँखों से बस वही तो कहा
ये खबर क्यूँ  छपी दूसरे रंग में ।

रंग नफ़रत का तुमसे उतर जायेगा
''आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में।''

वाह वाह तिलक जी तो एक के बाद एक ग़ज़लें प्रस्तुत करते जा रहे हैं। पहले दो लग चुकी हैँ और अब यह तीसरी ग़ज़ल, क्या बात है। सच है जब सब के सब किसी एक ही रंग में रँग चुके हों तो यह कह पाना बड़ा मुश्किल होता है कि कौन किस रंग में रँगा है। रंग क्या है समझने की चाहत हेतु सर से पैर तक डूबने की सलाह बहुत ही सुंदर है। किस तरह से वो निष्पक्ष होंगे भला में जन्म होना और पलना जो रंगों में कहा गया है वह बहुत ही गंभीर इशारा है। पत्रकारिता की ख़बर लेने वाला शेर जिसमें कहा गया है कि हमने तो कुछ और कहा था लेकिन छपा तो कुछ और है बहुत ही अच्छा शेर बना है। एक सुचिंतित टिप्पणी है यह आज की पत्रकारिता पर। और अंत में गिरह का शेर भी उतना ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

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डॉ. सुधीर त्यागी

क्या मिला तुमको नफ़रत भरे रंग में
आओ रँग दे तुम्हे इश्क के रंग में

ऐसी बस्ती बसे काश कोई, जहाँ
आदमी प्रेम के बस रँगे रंग में

अब नहीं हैं अमन के कबूतर यहाँ
सब रँगे केसरी या हरे रंग में

प्यार, मनुहार, तकरार सब हैं रखे
क्या पता तुम मिलो कौनसे रंग में

अब बचे कौन कातिल नज़र से यहाँ
घुल गई भंग जब हुस्न के रंग में

डॉ. सुधीर जी पहली बार हमारे मुशायरे में आ रहे हैं। दिल्ली के रहने वाले हैं और कविताएँ ग़ज़लें लिखने का शौक़ रखते हैं। पहली आमद है इसलिए तालियों से स्वागत आपका। मतला में ही गिरह को बाँधा गया है और बहुत अच्छे से बाँधा गया है। और अगले ही शेर में एक ऐसी बस्ती की कामना करना जहाँ पर हर आदमी बस और केवल बस प्रेम के ही रंग में रँगा हुआ हो। सचमुच ऐसी बस्ती की कामना तो हम सब रचनाकार करते हैं। अगला शेर जिसमें अमन के कबूतरों के माध्यम से हमारे झंडे के तीसरे रंग की बात कही गई है बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। प्यार, मनुहार, तकरार सब रखने की बात करने वाला शेर प्रेम की अंदर की कहानी कहता है, सच में हमें सारे रंग ही रखने होते हैं। और अंत में हास्य का तड़का लगाए शेर कि हुस्न के रंग में जब भंग घुल जाए तो उससे कौन बचेगा फिर।

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तो यह है आज की बासी होली। आप दाद देने का काम जारी रखिए क्योंकि दाद से ही भभ्भड़ कवि को आने की प्रेरणा मिलेगी। अभी शायद कुछ और बासी होली मने और उसके बाद करण अर्जुन की तर्ज़ पर भभ्भ्ड़ कवि आएँगे।

20 टिप्‍पणियां:

  1. बासी त्यौहार का वास्तव में अपने आप में अलग ही मजा होता है सही कहा आपने। बासी त्यौहार सुस्ताया हुआ सा सुस्ताते हुए न्जाए किया जाती है। कोई हडबडी़ तो तैयारियों की होती नही,पर बचे हुए पकवान होते हैं स्वाद लेने को। होली पर गुंजिया का स्वाद गुंजिया की घटती सँख्या के साथ बढ़ता जाता है।
    आज की दोनों ग़ज़लों को बार-बार पढ़ कर आनन्द ले रही हूँ। तिलक राज जी के फ़न के तो सभी कायल हैं उनकी ग़ज़लों की खासियत ही है बहुत धीमें से किसी भी सामाजिक बुराई पर प्रभावी रूप से व्यंग्य कर देना। रंग क्या है सममझने की चाहत... शेर कमाल की बात कहता है,रंग का असली रंग रंगजाने पर ही समझ आता है। वैसे ये शेर हम महिलाओं के लिए भी है कोई भी नई ड्रेस या साड़ी खरीदते वक्त पहले ट्राय कर ही कलर का फैसला होता है। हाहाहा।
    इसके बाद मुझे जो शेर बहुत पसंद आ रहा है,वो है , दौर रूस्वाईयों के.... वाह वाह क्या शेर हुआ है बहुत ही खूब। सच ही कहा है
    बिस्मिल हरीमे-इश़्क मे हस्ती ही जुर्म है
    आना कभी ना यहां सर लिए हुए
    उम्मीद है शेर सही ही कॉट किया होगा मैने।
    तिलक जी को एक और उम्दा ग़ज़ल की ढ़ेरों दाद।
    डा० सुधीर को क्योकि मैं पहले से जानती हूँ तो कह सकती हूं कि वो एक बहुत ही अच्छे,समर्पित डाक्टर तो हैं ही। एक बेहद नेक व संवेदनशील व्यक्ति भी हैं। एक बार किसी ने मुझे बताया कि डा० सुधीर के फ़ोन की कॉलर ट्यून "मैं हूँ ना.." है, कभी दर्द मे फ़ोन करो तो आधे तो मैं हूं ना सुन ही सही हो जाते हैं। ऐसे संवेदनशील डा० जब ग़ज़ल जैसी नाजुक विध्ा को अभिव्यक्ति का माध्यम चुनेंगे तो पाठकों को कुछ अच्छा ही पढ़ने को मिलेगा। डा० साहब का इस ब्लॉग परिवार में स्वागत है। अपनी खूबसूरत ग़ज़ल के साथ उन्होने धमाकेदार आमद की है। अभी डा० साहब ने ग़ज़ल कहनी शुरू ही की है पर,अब नही है अमन के कबूतर,, शेर के साथ उन्होने बता दिया है कि वे ग़ज़ल के सफर के दूर तक साथी होंगे। मक्ता व मक्ते से पहले का शेर पढ़ तो बरबस ही वाह निकल पडी मुँह से। डा० साहब को ग़ज़ल के लिए अनेक अनेक दाद।
    खूबसूरत आयोजन मुशायरे का करने के लिए पंकज जी को बहुत बधाईयां।
    भभ्भड़ कवि जी शीघ्र आएंगे ऐसी उम्मीद करते हैं।

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    1. पारुल बिटिया जी आपने भी खूब फिट किया इस शेर को महिला परिधान पर। शेर का मज़ा ही इसमें है कि उसे एकाधिक संदर्भ से जोड़ा जा सके। जैसा कि हम सभी जानते हैं, रंग स्‍वयं में बहुअर्थी है और यह शारीरिक व मानसिक प्रभाव छोड़ने में सक्षम होता है। राधा, कृष्‍ण के रंग में रँगी और रास-रंग उत्‍पन्‍न हुआ। अब राधा की अनुभूति तो सर से पा तक कृष्‍ण के रंग में रंगे बिना आने से रही।

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    2. राधा कृष्ण की बात आपने बहुत सुन्दर प्रस्तुत की तिलक जी। और आपकी और खण्डेलवाल जी की तीन चार रचनाओं से तो इस मुशायरे में चार चाँद लग जाते हैं। आप कभी इस से कम भेजना चाहेंगे तो हम ऐसा करने ना देंगे आपको। और परिधान वाली बात तो यूं है कि तेली के तेल की मुस्सदी को खल की, सो हमे रंग के नाम पर कपडे़ ही याद आ जाते हैं। सावन के अंधे को हरा ही हरा नजर आता है। हाहाहा। पर शेर सुन्दर बन पडा है एक बार फिर दाद कुबूलें।

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  2. अब मैं एकाध शेर तक स्‍वयं को सीमित रखता हूँ, पूरी ग़ज़ल कम ही कहता हूँ लेकिन भाई पंकज सुबीर की मोहब्‍बतें और यहॉं का पारिवारिक माहौल न जाने कहॉ से ऊर्जा भर देता है और शेर-दर-शेर निकलते जाते हैं। बहुत काट-छॉंट के बाद भी काफी कुछ रह जाता है जिसे आप सबसे साझा करने का लोभ छोड़ नहीं पाता। बस इसी तरह यह ग़ज़ल भी हुई।
    डॉ सुधीर त्‍यागी चेहरे से हँसमुख जिन्‍दादिल इन्‍सान लग रहे हैं। जो सादा विचार व्‍यक्‍ति होते हैं उनकी बात दिल से निकलती है और दिल तक पहुँचती है। मत्‍ले के शेर की सादगी दुश्‍मन के भी दिल में कहीं गहरे उतर कर जगह बनाने की क्षमता रखती है। शायद यही शेर की ताकत होती है। यही बात दूसरे शेर में है। हमारे तिरंगे में अम्‍न का जो रंग है वह व्‍यवहार में कहीं खोता जा रहा है और और भेदभाव के रंग जगह बना रहे हैं। इसी बात को तीसरे शेर में बहुत दृढ़ता से व्‍यक्‍त किया गया है। चौथे शेर में प्‍यार, मनुहार, तकरार रखने की बात जिस खूबसूरती से बॉंधी गयी है वह दिलकश है। आखिरी शेर में होली की चुहल बड़ी खूबसूरती से आयी है। ग़ज़ल में शेर कितने हैं यह महत्‍व नहीं रखता एक अच्‍छी ग़ज़ल की पहचान होती है छोड़े गये प्रभाव से और इसमें डॉक्‍टर साहब कामयाब रहे हैं। बधाई।

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  3. कपूर साहब
    प्रणाम
    बधाई और मुबारकबाद क़ुबूल करें हज़रत। हर शेर नगीना, ग़ज़ल मुरस्सा। अश्रु अपनी घुटन के.... एकदम नया और अद्भुत।

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  4. आदरणीय तिलक राज sir की तीसरी ग़ज़ल से तरही आज एक और सीढ़ी चढ़ रही है। हम कुछ और नज़ारे देख पा रहे हैं।
    मतले में महबूब के रंग में रँगा शह्र, और अगले शेर् में रंगों में डूबने की advise। सभी शेर् क़माल कर रहे हैं मगर यह बहुत खास लगा
    जो दिखा आँखों को बस वही तो कहा
    ये खबर क्यों छपी दूसरे रंग में
    और गिरह भी कमाल करती हुई।

    वाह वाह वाह


    डॉ सुधीर जी को पहली बार पढ़ने का अवसर मिला। तरही में यही ख़ास होता है, एक ही ज़मीन पर कईं रंग दिखते हैं।।
    मतले में कमाल की गिरह पढ़ते ही अंदाज़ा हो जाता है कि ग़ज़ल बहुत ख़ास है। इश्क़ का रंग वाकई कमाल है।
    अगले शेर् में मुहब्बत की बस्ती की कल्पना और फिर आज के समय की कड़वी हक़ीक़त।
    प्यार, मुनहार, तकरार सब हैं रखे... यह शेर् भी लाजवाब हुआ है। क्या कहने sir। और शेरे आखिर... भई वाह

    बहुत बहुत बधाई

    सादर
    नकुल

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    1. आप सभी गुणीजनो का ह्रदय से प्रोत्साहन हेतु ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूं.आप सभी मँजे हुए साहित्यकारों के सनिध्य में शायद मै भी कुछ सीख पाऊं. यह बात सही है कि शेर बहुआयामी होता है,एक ही शेर के कई अर्थ निकल सकते है.अमन के कबूतर वाले शेर में केसरी रंग हिंदुत्व व हरा रंग इस्लाम के प्रतीक के रूप में लिया गया है.शेर पुनःदेखे......
      अब नहीं अमन के कबूतर यहाँ
      सब रँगे केसरी या हरे रंग में
      आदरणीय पंकज सुबीर जी का पुनः आभार, किउनहोने ने मुझे अवसर दिया.पारुल जी का भी प्रोत्साहन हेतु विशेष आभार

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    2. आपका बहुत बहुत आभार नकुल जी

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  5. कहना न होगा, आदरणीय तिलकराज जी ने होली के रंग में कई रंग के शेर कहे लेकिन भाई जी वाकई रंग में तो इस ग़ज़ल के शेरों में दिख रहे हैं !
    ’जो दिखा आँखों से..’ इस शेर का रंग बहुत-बहुत ही गहरा है.
    दिल से दाद कुबूल करें ..
    सादर

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    उत्तर
    1. आप सबकी मोहब्बतें ही ऊर्जास्रोत हैं। हृदय से आभारी हूँ।

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  6. वाह वाह तिलक राज सर की तीन ग़ज़लें और तीनों लाजवाब

    रंग क्या है समझने की चाहत है गर..

    किस तरह से वो निष्पक्ष होंगे कहो..

    जो दिखा आँखों से बीएस वही तो कहा

    क्या शानदार शेर कहे हैं हैं इस ग़ज़ल में

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  7. सुधीर जी की ग़ज़ल लाजवाब है,,बहुत अच्छे शेर कहे हैं उन्होंने

    अब नहीं हैं अमन के कबूतर यहाँ
    सब रंगे केसरी या हरे रंग में

    प्यार मनुहार तकरार सब हैं रखे
    क्या पता तुम मिलो कौन से रंग में

    अब बचे कौन कातिल नज़र से यहां
    घुल गई भंग जब हुस्न के रंग में

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  8. डाक्टर सुधीर से मैं पहले से परिचित हूँ .उनकी भावपूर्ण कविताओं से अक्सर रूबरू होती रही हूँ . उनके दोहे ,सवैया और अतुकांत कविताओं की भांति उनकी ग़जल भी लाजवाब है .सुंदर और पठनीय शे-र हैं सभी . बहुत बहुत बधाई सुधीर जी . आगे भी आप को पढने ,सुनने का अवसर मिलेगा ,ऐसी आशा है .

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  9. होली के बाद बासी होली में भी आदरणीय तिलक जी के शेरो ने होली के रंग भर दिए इस लाजवाब ग़ज़ल में ... रंगों को समझने की चाहत ... बहुत ही गहरा शेर ... और गिरह का शेर तो अनायास वाह वाह कहने को मजबूर करता है ... बधाई तिलक राज जी इस कमाल की ग़ज़ल के ...

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    1. आपके स्‍नेह के प्रति हृदय से आभारी हूँ दिगम्‍बर भाई।

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  10. डा.सुधीर त्यागी जी का स्वागत है इस पाठशाला में ... धमाकेदार शुरुआत के साथ आगमन है डा. साहब का ...
    मतले से जो शुरुआत है वो अगले शेरो में बुलंदियों पर है ... ऐसी बस्ती बसे ... अमन के कबूतर और फिर अब बचे कौन कातिल नज़र से यहाँ ... सभी अशआर धमाकेदार हैं ... बहुत बधाई डा.साहब को ...

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  11. आदरणीय नकुल जी, गुरप्रीत जी, आदरणीया सुमित्रा जी हार्दिक आभार. अभी मेराgmail पर अकाउंट नहीं है सो पत्नि के अकाउंट से उत्तर दे रहा हूं.कोशिश रहेगी आप लोगो से सीख कर कुछ और अछ्छा लिख सकूं.

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