मित्रो अब तो आपके घर में भी पकवान तैयार होने लगे होंगे। गुझिया, पपड़ी, बेसन चक्की आदि खाने से ज़्यादा मज़ा इनकी ख़ुश्बू में होता है। दो दिन पहले से घरों में जो सुगंध उठती है वह तो जानलेवा होती है। जी करता है खाएँ कुछ भी नहीं, बस बैठ कर सूँघते ही रहें। तृप्त होने के लिए ज़रूरी नहीं है कि ज़बान को तकलीफ़ दी जाए सूँघ कर, सुन कर, देख कर या महसूस करके भी तृप्त हुआ जा सकता है। मगर नहीं ऐसा भी नहीं करना है। इतनी मेहनत से जो पकवान बन रहे हैं उनको खाएगा कौन। देखिए बीमारी तो होती रहेगी, आपके न खाने से भी रुकने वाली तो है नहीं, तो खाकर ही उसका मुकाबला करने में ज़्यादा समझदारी है।
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
इस बार का मिसरा तो बहुत कमाल दिखा रहा है। सोचा भी नहीं था कि ऐसे-ऐसे क़ाफियों का ऐसा-ऐसा प्रयोग भी देखने को मिलेगा। इस बार का क़ाफिया ज़रा सी ग़लती से भर्ती का क़ाफिया हो जाने के ख़तरे की संभावना से भरा हुआ है। और उसकी सावधानी सभी रचनाकार बरत रहे हैं यह अच्छी बात है। रंग का पर्व सामने है तो आज हम भी कुछ आगे बढ़ते हैं राकेश खंडेलवाल जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर', गिरीश पंकज जी और अंशुल तिवारी के साथ।
राकेश खंडेलवाल जी
मौसमों ने तकाजा किया द्वार आ
उठ के मनहूसियत को रखो ताक पर
घुल रही है हवा में अजब सी खुनक
तुम भी चढ़ लो चने के जरा झाड़ पर
गाओ पंचम में चौताल को घोलकर
थाप मारो जरा जोर से चंग में
लाल नीला गुलाबी हरा क्या करे
आओ रंग दें तुम्हें इशक के रंग में
आओ पिचकारियों में उमंगें भरें
मस्तियाँ घोल लें हम भरी नांद में
द्वेष की होलिका को रखें फूंक कर
ताकि अपनत्व आकर छने भांग में
वैर की झाड़ियाँ रख दे चौरास्ते
एक डुबकी लगा प्रेम की गंग में
कत्थई बैंगनी को भुला कर तनिक
आओ रंग दें तुम्हे इश्क़ के रंग में
बड़कुले कुछ बनायें नये आज फ़िर,
जिनमें सीमायें सारी समाहित रहें
धर्म की,जाति की या कि श्रेणी की हों
वे सभी अग्नि की ज्वाल में जा दहें
कोई छोटा रहे ना बड़ा हो कोई
आज मिल कर चलें साथ सब संग में
छोड़ कर पीत, फ़ीरोजिया, सुरमई
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में
आओ सौहार्द्र के हम बनायें पुये
और गुझियों में ला भाईचारा भरें
कृत्रिमी सब कलेवर उठा फ़ेंक दें
अपने वातावरण से समन्वय करें
जितना उल्लास हो जागे मन से सदा
हों मुखौटे घिरे हैरतो दंग में
रंग के इन्द्रधनु भी अचंभा करें
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में
होली के आ ही जाने की सूचना को लिए हुए यह गीत राकेश जी ने लिखा है। मनहूसियत को ताक पर धर कर चने के झाड़ पर चढ़ जाने का आह्वान होली के मौसम में ही किया जा सकता है। लेकिन पहले ही बंद में होली के माहौल में मानवता का संदेश लिए गीतकार का दूसरा पक्ष समाने आता है। जिसमें द्वेष की होलिका को जलाने और भांग में अपनत्व छानने जैसे प्रतीकों के माध्यम से गीत आगे बढ़ता है। वैर को भुला कर प्रेम की गंग में डुबकी लगा लेने का आमंत्रण बंद देता है। अगले बंद में वसुधैव कुटुम्बकम की बात कही गई है। एक ऐसा परिवार जिसमें दुनिया का हर मानव सदस्य हो जाए। सब एक ही में रहें न कोई छोटा, न कोई बड़ा। तीसरा और अंतिम बंद होली के नए पकवानों की बता करता है उन गुझियों की जिनमें भाईचारा भरा हो। सचमुच आज के समय में ऐसे ही पकवानों की आवश्यकता है। वातावरण में समन्वय हो तो सब ठीक हो जाएगा। वाह वाह वाह क्या सुंदर गीत है कमाल।
द्विजेन्द्र द्विज जी
रंग सारे ही घुलमिल गये रङ्ग में
लाल पीले हरे साँवले रङ्ग में
मैं तेरे रंग में तू मेरे रंग में
चेह्रे भी रंग में आइने रङ्ग में
सूफ़ी सन्तों के मनभावने रङ्ग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रङ्ग में
क्यों हो तन्हाइयों से सने रङ्ग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रङ्ग में
रङ्ग ने रङ्ग में रङ्ग से बात की
रङ्ग कितने ही और आ गए रङ्ग में
जानेजाँ क्यों है तू अनमने रङ्ग में
आ भी जा आज तो मनचले रङ्ग में
ये बुढ़ापे की चादर उतारो ज़रा
आके हमसे मिलो चुलबुले रंग में
साल भर की उदासी! ज़रा साँस ले
आज आने दे मुझको मेरे रङ्ग में
एक सपना यकायक मुझे ले गया
उसकी ख़ुश्बू से महके हुए रङ्ग में
मुँह छिपाएँ कहाँ आज मायूसियाँ
आज हैं दोस्तो ! क़हक़हे रङ्ग में
पल छिनों में गुज़र जाएगी ज़िन्दगी
थे अभी कुछ यहाँ बुलबुले रङ्ग में
कोई रङ्ग और मुझ पर चढ़ा ही नहीं
यार ! जब से रँगा मैं तेरे रङ्ग में
रङ्ग दुनिया के हैं अब ख़लल की तरह
मेरी आँखों में आकर बसे रङ्ग में
कोई मौक़ा नहीं आज तकरार का
आज हैं सबके सब फ़लसफ़े रङ्ग में
क्या रहा ज़ायक़ा रङ्ग के खेल का
खेलने सब लगे अटपटे रङ्ग में
चढ़ गया रङ्ग रिश्तों पे बाज़ार का
कुछ तो है खोट खिलते हुए रङ्ग में
चन्द शे’र आपके हमने क्या सुन लिए
आप गाने लगे बेसुरे रङ्ग में
कितने रङ्ग उनके चेहरे पे आए, गए
‘द्विज’! ये क्या कह दिया आपने रङ्ग में
द्विज भाई अपने ही रंग में ग़ज़ल कहते हैं। उनके शेर अलग से पहचाने जा सकते हैं कि हाँ ये इन्हीं के शेर हैं। एक दो नहीं पूरे चार मतले। और चारों ज़बरदस्त मतले। सूफी सन्तों के मन भावने रंग में के साथ बहुत ही सुंदर गिरह बांधी है उन्होंने। और उसके बाद ठीक पहला ही शेर कमाल का रच दिया है रंग ने रंग में रंग से बात की, वाह वाह वाह कमाल के रंग पिरोए हैं मोती की तरह। ग़ज़ब का शेर। और दो ख़ूबसूरत शेर इसके बाद एक तो साल भर की उदासी वाला और दूसरा एक सपना यकायक। वाह क्या बात है यह रंग द्विज भाई के शेरों की ही ख़ासियत है। कुछ और आगे एक और शेर आया है रंग दुनिया के अब हैं खलल की तरह, उसमें मिसरा सानी तो कमाल ही कर रहा हे। ग़ज़ब। चंद शेर आपके में बहुत गहरा व्यंग्य है, सामयिक व्यंग्य। और मकते का शेर भी बहुत ही ख़ूबसूरत बन पड़ा है यहाँ भी मिसरा सानी बहुत ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है भाई, क्या बात है वाह वाह वाह।
डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर'
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
डूब जाएं चलो एक से रंग में
है ये होली का दिन कुछ बुरा क्यूं लगे
सारा आलम है जब सरफिरे रंग में
सुर्ख़ गालों की लाली लगी फैलने
जब सजनवा के हम आ गए रंग में
सात रंगों के सुर से सजा जब जहां
फिर सियासत है क्यूं बेसुरे रंग में
जान पाना ये होता न आसां कभी
कौन डूबा यहां कौन से रंग में
दिख गया जब भी रंगे-लहू ठीक से
फिर ये दुनिया दिखेगी नए रंग में
छा ही जाता है सब पे अलग सा नशा
जब भी आती है महफ़िल मेरे रंग में
मधुर जी ने मतले से ही होली का सुर ठीक प्रकार से लगा दिया है। मिसरा ए तरह को उलटबांसी प्रयोग करते हुए मिसरा उला बनाने का प्रयोग उन्होंने किया है। मतले में ही यह गुंजाइश होती है। अगले शेर में होली के अमर वाक्य बुरा न मानो होली है को बहुत ही सुंदरता के साथ शेर का मिसरा बना दिया है। और अगला शेर मिलन का शेर है प्रेम और मिलन का शेर। जब एक दूसरे पर एक दूसरे का रंग चढ़ जाता है। गोरी साँवली होने लगती है। सात रंगों के सुर से सजा जब जहाँ में व्यंग्य को पिरो लिया गया है। और अगला शेर एकदम होली के त्योहार में चलते हुए रंग में ले जाकर खड़ा कर देता है आपको जहाँ पहचानना ही मुश्किल होता है कि कौन् कहाँ है। दिख गया जब भी रंगे लहू बिल्कुल अलग ही तरीक़े का शेर है। और आखिरी शेर में उस्तादों के रंग वाली शायरी दिखाई दे रही है। मेरे रंग में महफ़िल आएगी तो अलग ही नशा छाएगा सब पर का उद्घोष करते हुए। वाह वाह वाह क्या बात है सुंदर ग़ज़ल।
लाल, पीले, हठीले हरे रंग में
मन हमारा रँगा आपके रंग में
प्यार बाँटें यहां प्यार मिलता रहे
ज़िन्दगी को जिएं हम नए रंग में
फाग आया तो टूटे हैं बन्धन कई
तापसी भी दिखे मद भरे रंग में
रंग के बिन यहाँ ज़िन्दगी कुछ नहीं
देखिए लग रहे कहकहे रंग में
रंग है इक नदी डूबते सब रहे
गोरे, काले हों या सांवले रंग में
रंग का संग जिनको मिला साथियो
शान से वो जिए फिर मरे रंग में
यूं न बचते फिरो आज मौका मिला
'आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में'
हमने दिल से कहे शे'र अपने सभी
हम नहीं बोलते भंग के रंग में
आओ 'पंकज' उतारो ये चोला जरा
तुम हो कैसे अरे अनमने रंग में
लाल पीले के बाद हठीले हरे की तो क्या बात है। सुंदरता तो उसी हठीले हरे से पैदा हो रही है। प्यार बाँटें ताकि प्यार सबको मिलता रहे की भावना लिए अगना शेर ज़िंदगी को नए रंग में जीने की बात कर रहा है। सचमुच यही तो होना चाहिए हम आपस में प्यार बाँटते रहें और प्यार से ही जीते रहें। अब उस बीच चूँकि फाग आया है तो तापसी तो मदभरे रंग में आएगी ही, उसे कौन रोक सकता है। और रंगों की वह नदी हमारा जीवन ही तो है जिसमें हम सब डूब रहें हैं कोई गोरा है कोई साँवला है तो कोई काला है। और रंग का संग जिनको मिल जाए वो शान से जीते भी हैं और मरते भी शान रंग में ही मरते हैं। यही तो रंग का सबसे बड़ा कमाल होता है। और गिरह का शेर भी खूब बन पड़ा है होली का मौका सचमुच ही ऐसा अवसर होता है जिसमें हर कोई अपना इश्क़ का रंग लिए फिरता है। बचने का दिन नहीं होता है होली का दिन यह तो रंगने का दिन होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।
अंशुल तिवारी
अब के फागुन है कुछ मनचले रंग में,
आओ रंग दें तुम्हे इश्क़ के रंग में।
लाल, पीले, ग़ुलाबी पुराने हुए,
आज हम भीग जाएँ, नए रंग में।
फ़ाग का है असर, हर बशर पर यहाँ,
घूमते हैं सभी जो, बड़े रंग में।
कोई सूरज नया आसमाँ में उगा,
धूप भी आई है कुछ खिले रंग में।
बात तुमसे जो कहनी थी, कह तो गए,
पर कही हमने कुछ, अटपटे रंग में।
भाँग का भी असर मुझ पे कुछ ना हुआ,
देखा तूने यूँ कुछ मदभरे रंग में।
ढूँढ़ते हम रहे, रंग जीवन में पर,
रंग सारे मिले, प्रीत के रंग में।
जब से उल्फ़त हुई, हमने तबसे सुनो,
अपने दिल को रँगा बस तेरे रंग में।
मेरा जो भी था, सब-कुछ तेरा हो गया,
तुम भी रँग जाओ ना, अब मेरे रँग में।
एक-दूजे से मिलकर यूँ घुल जाएँ अब,
श्याम-राधा थे जैसे घुले रंग में।
वास्तव में फागुन मनचला नहीं होता है, मनचले तो हम हो जाते हैं उसे दौरान और अपना सारा इल्ज़ाम ठोंक देते हैं फागुन में यह कह कर कि अबके फागुन है कुछ मनचले रंग में। जब प्रेम हो जाता है तो लाल पीले गुलाबी रंग भला भाते ही कब हैं तब तो उसी नए प्रेम के रंग में भींगने की इच्छा होती है। अच्छा शेर। कोई सूरज नया आसमाँ में उगा में शायर ने सामान्य से हट कर कुछ नए तरीके से बात को कहने की सफल कोशिश् की है। जब सूरज नया होगा तो धूप भी कुछ अलग तो होगी ही न्, अच्छा सुंदर शेर। मेरा जो कुछ भी था सब कुछ तेरा हो गया में यह अनुरोध बहुत ही मासूमियत के साथ आया है कि मेरे रंग में रंग जाओ न अब तुम भी। सचमुच यही तो समर्पण होता है जब हम एक दूसरे को अपना सब कुछ अर्पण करके एक दूसरे के रंग में रंग जाते हैं। और अंत का शेर एक बार फिर से राधा और श्याम के प्रेम के माध्यम से प्रेम की ही बात कर रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
तो मित्रों यह थे आज के पाँच रचनाकार। अब आपके हवाले ये और इनकी रचनाएँ। दाद ज़रा दिल से देंगे तो आनंद आएगा। सुनने वाले को भी और सुनाने वाले को भी। तो देते रहिए दाद।
आओ पिचकारियों में उमंगें भरें
जवाब देंहटाएंमस्तियाँ घोल लें हम भरी नांद में
द्वेष की होलिका को रखें फूंक कर
ताकि अपनत्व आकर छने भांग में
वैर की झाड़ियाँ रख दे चौरास्ते
एक डुबकी लगा प्रेम की गंग में
जानेजाँ क्यों है तू अनमने रङ्ग में
आ भी जा आज तो मनचले रङ्ग मे
साल भर की उदासी! ज़रा साँस ले
आज आने दे मुझको मेरे रङ्ग में
वाह ,द्विजेन्द्र द्विज जी का मतला तो है ही ज़ोरदार पर ये उपरोक्त शेर भी ज़ोरदार है। एक से एक शेर नए अंदाज में है बहुत खूब।
जानेनां से ऊपर की गीत पंक्तियाँ राकेश जी की है ,गीत मज़ेदार है।
हटाएंछा ही जाता है सब पे अलग सा नशा
जवाब देंहटाएंजब भी आती है महफ़िल मेरे रंग में
मधुभूषण जी, भी खूब शेर कहें हैं।
प्यार बाँटें यहां प्यार मिलता रहे
ज़िन्दगी को जिएं हम नए रंग में
पंकज जी ,वाह क्या बात है । बहुत खूब शेर कहें हैं ।
प्यार बाँटें यहां प्यार मिलता रहे
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी को जिएं हम नए रंग में
वाह पंकज जी ,आपके क्या कहने ,बहुत खूब ।
जब से उल्फ़त हुई, हमने तबसे सुनो,
अपने दिल को रँगा बस तेरे रंग में।
वाह बहुत खूब अंशुल तिवारी जी । बढ़िया शेर कहे हैं ।
राकेश भाई साहब, वाह्ह, सभी रंगों को एक तरफ रखते हुए इश्क के रंग में रंगने का विशेष आग्रह लिये यह मधुर गीत मुझे विवश कर रहा है इस अनुरोध के लिये कि राकेश जी की पोस्ट आडियो रूप में भी होनी चाहिये जिससे श्रवणेन्द्रिय वंचित न रहे गीत की मधुरता से। होली हास्य विनोद का अवसर है इसलिये अंतिम छंद के संदर्भ में कुछ हो जाये। पुए में सौहार्द्र और गुझियों में भाईचारा इतना तला जा चुका है कि अब ..........। (मुझे मालूम है आप सौहार्द्र और भाईचारा की सुगंध और मिठास की बात कर रहे हैं)
जवाब देंहटाएंद्विज भाई के चार और फिर एक मत्ले के साथ 13 शेर; वह भी एक से एक रंग में रंगे, बेहद खूबसूरती से कसे हुए शेर। वाह्ह, वाह्ह।
जान पाना न हाता ये आसां कभी, कौन डूबा यहॉं कौन से रंग में; वाह्ह वाह्ह मधु भूषण जी।
रंग है इक नदी, डूबते सब रहे, वाहह वाह्ह, क्या बात कही। गिरीश पंकज जी खूब रंगिये, कोई नहीं भागेगा।
अब के फ़ागुन है कुछ मनचले रंग में, क्या बात है अंशुल। शादी -वादी हो गयी क्या इस वर्ष। कोई सूरज नया आसमॉं में उगा- क्या बात है। वाह्ह, वाह्ह।
बस अब तो होली आ ही चली, रंग चढ़ रहा है। वाह्ह।
राकेश खंडेलवाल जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर' और अंशुल तिवारी सबको बधाई , शानदार शेरो के लिए। शुभ होली
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-03-2017) को
जवाब देंहटाएं"आओ जम कर खेलें होली" (चर्चा अंक-2604)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आदरणीय राकेश खंडवाल जी का दूसरा गीत भी काफी प्रभावशाली है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय द्विज साहब ने तो चार( या पाँच) मतले कह डाले और फिर शेरों का विस्तृत आयाम. काफी आनंदित हुवा आपकी गाल पढ़कर.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसात रंगों से सजा जहाँ और बेसुरे रंग में सियासत क्या खूब डॉ मधुर. काफी अच्छे और विविध रंगी शेर कहे हैं आपने.
जवाब देंहटाएंफागुन का आना और तापसी तक का मद भरे रंग में दिखना, ये फागुन का मुकम्मल बयान है.गिरीश पंकज साहब नेकफी असरदार शेर कहे हैं.
जवाब देंहटाएंनए सूरज के उगने की तस्वीर काफी सुन्दर है आदरणीय अंशुल तिवारी साहब. बधाई हो.
जवाब देंहटाएंघुल रही है हवा में अजब सी खुनक .. सही बात है, हवा ही मदमाती हुई बहने लगती है और सभी बहने लगते हैं उसके प्रभाव में ! तभी तो चने की झाड़ पर चढ़ाने की बात की जा रही है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय राजेश जी का यह पूरा गीत ही गीति-काव्य की समस्त विशिष्टताओं को रूपायित करता हुआ मुग्ध कर रहा है.
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
सौरभ भाई, होली की खुमारी इतनी ज्यादा है की फिर से मेरा नाम भूल गए. सादर गुलाल का टीका स्वीकार करें
हटाएंआदरणीय द्विजेंद्र द्विज की शैली और उनके कहने का ढंग उनकी ग़ज़लों को विशिष्ट बना देता है. और इस बार तो हुस्ने मतलाओं से आपने अपनी ग़ज़ल को सराबोर ही कर दिया है ! वाह वाह !!
जवाब देंहटाएंरंग ने रंग में रंग से बात की
रंग कितने ही और आ गये रंग में .. .. इस रंग के यमक को जिस कुशलता से आदरणीय ने साधा है वह रंग के विभिन्न स्वरूप से परिचित करा रहा है. चाहे जो जैसे उठा ले.
और तिस पर ’चन्द शेर आपके हमने क्या सुम लिए..’ .. कमाल ! सानी में बेसुरे रंग का तो ज़वाब नहीं ! ऐसी परख का शाब्दिक होना शाइर की ताक़त बताया करती है..
बहुत खूब !
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
होली की मस्ती और इसके बेलौसपन में प्रस्तुतियों की विधाजन्य सीमाएँ किस सहजता से गौण पड़ जाती हैं, इसकी बानग़ी है, आदरणीय मधु भूषण शर्मा ’मधुर’ जी की प्रस्तुत ग़ज़ल ! ग़ज़ल और गीत के बीच का सामंजस्य मुग्ध कर रहा है. और फिर ’सजनवा’ से उमगी आती आत्मीयता का तो ज़वाब ही नहीं है.
जवाब देंहटाएंवाह वाह !
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
आदरणीय गिरीश पंकज जी ने अपनी प्रस्तुति को होली के आयामों में बाँध दिया है और फिर शेर दर शेर विभिन्न रंगों से सराबोर करते जा रहे हैं. ग़िरह का शेर तो होली के उत्साह को बखूब शाब्दिक कर रहा है.
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
भाई अंशुल तिवारी की ग़ज़ल से होली का वैभिन्य सहज ही बहा आ रहा है. हार्दिक बधाई और होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंशुभ-शुभ
आओ पिचकारियों में उमंगें भरें
जवाब देंहटाएंमस्तियाँ घोल लें हम भरी नांद में
द्वेष की होलिका को रखें फूंक कर
ताकि अपनत्व आकर छने भांग में
वैर की झाड़ियाँ रख दे चौरास्ते
एक डुबकी लगा प्रेम की गंग में
कत्थई बैंगनी को भुला कर तनिक
आओ रंग दें तुम्हे इश्क़ के रंग में
नमन नमन नमन सौ बार हज़ार बार नमन इस विलक्षण गीतकार को जिसका नाम राकेश खंडेलवाल है ! सरस्वती इनके क़लम पर विराजती है , विलक्षण प्रतिभा है इनकी , इनकी शान में जो कहा जाय कम ही होगी !! अद्भुत !!
जय हो प्रभुजी, चने के झाद्क्स पर तो हमने गीत में चढ़ाया आप हमें यहाँ चढ़ा रहे हैं . होली की शुभकामनायें
हटाएंरङ्ग ने रङ्ग में रङ्ग से बात की
जवाब देंहटाएंरङ्ग कितने ही और आ गए रङ्ग में
वाह उस्ताद वाह !! क्या कहें द्विज जी शायरी पर ? कहॉं से लायें शब्द इस बेमिसाल शायर की प्रशंसा के लिये ? मैंने इनसे बहुत सीखा है और इन्हें गुरू मानता हूँ !! कमाल कमाल कमाल पूरी गजल ही कमाल !!!
छा ही जाता है सब पे अलग सा नशा
जवाब देंहटाएंजब भी आती है महफ़िल मेरे रंग में
सच में मधुर जी आपकी गजल से अलग सा नशा छा गया है महफिल में ! पूरी गजल एक अलग दिलकश रंग में नजर आ रही है - लाजवाब !!
रंग का संग जिनको मिला साथियो
शान से वो जिए फिर मरे रंग में
गिरीश भाई ज़िंदाबाद , बेमिसाल गजल कही है आपने ! सकारात्मकता से भरपूर इस गजल का जवाब नहीं !!
कोई सूरज नया आसमाँ में उगा,
धूप भी आई है कुछ खिले रंग में।
जियो अंशुल वाह वाह वाह आप को पहली बार पढा है शायद और आपके हुनर का क़ायल हो गया हूँ ! बेहतरीन गजल - पूरे कौर पर मुकम्मल !!! दाद कबूलें !
बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब।
हटाएंज़र्रानवाज़ी है आपकी।
राकेश खण्डेलवाल साहब का यह दूसरा गीत है तरही में।
जवाब देंहटाएंमान गए साहब।
सभी बन्द एक से बढ़कर एक हुए हैं। थाप मारो ज़रा जोर से चंग में...
आओ पिचकारियों में उमंगें भरें...
द्वेष की होलिका को फूंकना.. और भांग में अपनत्व को छानना...
कृत्रिम कलेवर फेंकना...
हों मुखौटे हैरतो दंग
कमाल के एहसास हैं। कहीं कहीं आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी साहब का अंदाज़ याद दिला रहा है यह गीत
आदरणीय द्विज sir की ग़ज़ल में चार मतले
और चारों एक से बढ़ कर एक
साल भर की उदासी! ज़रा साँस ले
आज आने दे मुझको मेरे रङ्ग में
एक सपना यकायक मुझे ले गया
उसकी ख़ुश्बू से महके हुए रङ्ग में
पल छिनों में गुज़र जाएगी ज़िन्दगी
थे अभी कुछ यहाँ बुलबुले रङ्ग में... वाह वाह वाह
चढ़ गया रङ्ग रिश्तों पे बाज़ार का
कुछ तो है खोट खिलते हुए रङ्ग में। बेमिसाल
कितने रङ्ग उनके चेहरे पे आए, गए
‘द्विज’! ये क्या कह दिया आपने रङ्ग में
वाह वाह
सभी शेर् लाजवाब हैं। क्या उम्दा ग़ज़ल हुई है
आदरणीय मधु शर्मा sir की छोटी लेकिन बेजोड़ ग़ज़ल हुई। पढ़ कर आनंद आ गया। हर शेर् लाजवाब है।
सात रंगों के सुर से सजा जब जहां
फिर सियासत है क्यूं बेसुरे रंग में
वाह वाह वाह
आदरणीय गिरीश पंकज जी की ग़ज़ल के मतले में हठीले का प्रयोग बहुत रोचक हुआ है।
क्या कहने sir। बहुत बढ़िया मतला।
रंग के बिन यहाँ ज़िन्दगी कुछ नहीं...
बहुत प्यारा शेर् हुआ है।
वाह वाह वाह
अंशुल भाई की ग़ज़ल का मतला भी होली की तरही के लिए उपयुक्त मतला है।
फागुन में हम सब मनचले हो जाते हैं। इसी लिए होली इसी महीने में आती है।
कोई सूरज नया आसमां में रँगा। क्या कहने भाई
बहुत खूब शेर् हुआ है।
अगले शेर् में महबूब के मदभरे रंग का प्रयोग भी बेजोड़ है।
सभी शेर् एक से बढ़कर एक हैं
वाह वाह वाह
राकेश जी, आदरणीय द्विज जी और गिरीश जी के गीतों और गजलों का आनंद कुछ अलग ही है ... बहुत कमाल के छंद और बेजोड़ शब्द समा बाँध रहे हैं ... इस मुशायरे को चार चाँद लग रहे हैं ...
जवाब देंहटाएंमधुर जी और अंशुल जी को भी बहुत बहुत बधाई इस कामयाब और लाजवाब ग़ज़ल पर ... सभी शेर एक से बढ़ कर एक ...
जवाब देंहटाएंआदरणीय राकेश जी ने एक और शानदार गीत से इस मंच को नवाजा है। बहुत बहुत धन्यवाद उन्हें यह शानदार गीत हमें सौंपने के लिए।
जवाब देंहटाएंआदरणीय द्विजेन्द्र जी अपने पुराने अंदाज में एक लम्बी लेकिन शानदार ग़ज़ल के साथ आये हैं। किस शे’र को कोट करें किसको छोड़ें। सभी एक से बढ़कर एक हैं। बहुत बहुत बधाई उन्हें।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मधु भूषण जी ने शानदार ग़ज़ल कही है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इस ग़ज़ल के लिए।
जवाब देंहटाएंआदरणीय गिरीश पंकज जी और अंशुल तिवारी जी ने बेहतरीन ग़ज़लों से इस मंच को नवाजा है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इन शानदार ग़ज़लों के लिए।
जवाब देंहटाएं