गुरुवार, 9 मार्च 2017

आइये आज होली के क्रम को आगे बढ़ाते हैं चार रचनाकारों के साथ। आज होली के रंग लेकर आ रहे हैं राकेश खंडेलवाल जी, निर्मल सिद्धू जी, कुमार प्रजापति जी और भुवन निस्तेज।

मित्रों कल बहुत अच्छे से मुशायरे की शुरुआत हुई होली के मुशायरे को दोनों रचनाकारों ने नए रंग से भर दिया। होली पर हम हमेशा धमाल रचते हैं, इस बार होली का धमाल अंतिम दिन ही देखने को मिलेगा। अंतिम दिन मतलब होली वाले दिन मचेगा यह धमाल। होता क्या है कि धमाल के चक्कर में ग़ज़लें अनसुनी रह जाती हैं। तो यह सोचा कि होली का धमाल अलग से मचाया जाए और ग़ज़लें अलग सुनी जाएँ। इसलिए ही अभी आपको होली का धमाल देखने को नहीं मिल रहा है।

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आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

इस बार मिसरे को लेकर बहुत सी बातें हो चुकी हैं, लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि उसके बाद भी इतनी सारी ग़ज़लें आईं हैं। अलग अलग क़ाफियों के साथ। असल में हमारा ठीक इससे पूर्व का मुशायरा जो होली पर हुआ था उसमें भी क़ाफिये की ध्वनि यही थी, इसलिए सुविधा यह भी है कि पिछली बार की ग़ज़लों में से काफिये छाँट लिए जाएँ। ध्यानपूर्वक क्योंकि सारे नहीं चलेंगे कुछ ही चलेंगे।

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आइये आज चार रचनाकारों के साथ होली के इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं। राकेश खंडेलवाल जी ने तीन बहुत सुंदर गीत भेजे हैं जो रोज़ एक के क्रम में आपके सामने आएँगे। निर्मल सिद्धू जी होली के मुशायरे की गाड़ी दौड़ते भागते पकड़ ही लेते हैं। और भुवन निस्तेज और कुमार प्रजापति  होली के मुशायरे में शायद पहली बार आ रहे हैं, आइये चारों के साथ मनाते हैं होली का यह अगला अंक।

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राकेश खंडेलवाल

सोच की खिड़कियां हो गई फ़ाल्गुनी
सिर्फ़ दिखते गुलालों के बादल उड़े
फूल टेसू के कुछ मुस्कुराते हुये
पीली सरसों के आकर चिकुर में जड़े
गैल बरसाने से नंद के गांव की
गा रही है उमंगें पिरो छन्द में
पूर्णिमा की किरन प्रिज़्म से छन कहे
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

स्वर्णमय यौवनी ओढ़नी ओढ़ कर
धान की ये छरहरी खड़ी बालियाँ
पा निमंत्रण नए चेतिया प्रीत के
स्नेह बोकर सजाती हुई क्यारियां
साग पर जो चने के है बूटे लगे
गुनगुनाते  मचलते से सारंग है
और सम्बोधनो की डगर से कहे
आओ रंग दें तुम्हरे प्रीत के रंग में

चौक में सिल से बतियाते लोढ़े खनक
पिस  रही पोस्त गिरियों की ठंडाइयाँ
आंगनों में घिरे स्वर चुहल से भरे
देवरों, नन्द भाभी की चिट्कारियाँ
मौसमी इस छुअन से न कोई बचा
जम्मू, केरल में, गुजरात में, बंग में
कह रही ब्रज में गुंजित हुई बांसुरी
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

पनघटों पे खनकती हुई पैंजनी
उड़्ती खेतों में चूनर बनी है धनक
ओढ़ सिन्दूर संध्या लजाती हुई
सुरमई रात में भर रही है चमक 
मौसमी करवटें, मन के उल्लास अब
एक चलता है दूजे के पासंग में
भोर से रात तक के प्रहर सब कहें
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

पूर्णिमा की किरण प्रिज्म से छन कर कहे, वाह राकेश जी इसी कला के तो हम सब कायल हैं। आपके गीतों में जो बिम्ब उभर कर आते हैं वो अद्भुत होते हैं। टेसू के फूलों का सरसों के चिकुर में आकर जड़ना वाह क्या बात है। पहले की बंद में चेतिया प्रीत का निमंत्रण तो कमाल कमाल है। चने के बूटे और सारंगों के मचलने का प्रतीक तो मानों उफ युम्मा टाइप का बन पड़ा है। दूसरे बंद में पोस्त गिरियों की ठंडाइयों का सिल और लोढ़े पर पिसना मन में ठंडक भर गया, लगा कि अभी दौड़ कर एक गिलास तो पी ही लें। और उस पर जम्मू से केरल तक ब्रज में गुंजित बाँसुरी का गूँज जाना तो बस पूरे देश में होली के रंग का एक अनूठा नमूना है। और तीसरे बंद में संध्या का लजाना ऐसा लगा मानों दूर ढलते सूरज की लालिमा आस पास फैल गई है। और अंत में भोर से रात तक के प्रहर सब के सब इश्क़ के रंग में रँगने को तैयार हैं। वाह क्या कमाल का गीत है। राकेश जी को यूँ ही तो नहीं कहा जाता गीतों का राजकुमार। वाह वाह क्या कमाल का गीत है।

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भुवन निस्तेज

राख उड़ती रही सुगबुगे रंग में
आप रंगते रहे मसअले रंग में

हाशिये भी अगरचे रँगे रंग में
रँग गए अब तो हर जाविये रंग में

रात भर ख्वाब आकर डराते रहे
और आई सुबह रतजगे रंग में

रंगसाजी करे खुद ब खुद फैसला
बस्ती फूलों की कैसे रँगे रंग में

आपके रंग में जाफरानी हवा
आपको सादगी क्या दिखे रंग में

पर्वतों से उफनती नदी ज़िन्दगी
गुनगुनाने लगी बावरे रंग में

आस्तीनों में ख़ंजर लबों पर हँसी
क्या हुई है वफ़ा आज के रंग में

बात ये खार से कौन कहता यहाँ
'आओ रंग दूँ तुम्हें इश्क के रंग में'

अब ये लहज़ा ग़ज़ल का बदलिये हुजूर
लाइए अब कहन को नए रंग में

ये नहर ने नदी से है पूछा 'सुनों
क्यों हमेशा से हो सरफिरे रंग में ?'

शायरी में दिखाओ असर फागुनी
हो गजल रंग में, काफ़िये रंग में ।

मतले का शेर ही पूरी ग़ज़ल का रंग पहले से बता रहा है कि यह अपने समय पर कटाक्ष करती हुई ग़ज़ल होने को है। और पूरी ग़ज़ल वैसी ही है भी। मतला ही हमारे पूरे समय पर चोट करता हुआ गुज़रता है।रात भर ख़्वाबों का आकर डराना और फिर सुब्ह का रतजगे के रंग में आना, कवि की कल्पना का कमाल है यह। रंगसाज़ी वाले शेर में रँगे को ही क़ाफिया बना कर कवि ने एक और कमाल कर दिया है। और यह क़ाफिया भी पूरी तरह से निर्वाह हो गया है। आपके रंग में जाफरानी हवा अगर ध्यान से सुना जाए तो इसकी ध्वनियाँ गंभीर पोलेटिकल व्यंग्य से भरी हैं। आस्तीनों में ख़जर और लबों पर हँसी हमारा सच में आज का समय है। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर बनाया है, फूलों और काँटों का तुलनात्मक शेर बहुत कमाल के साथ रचा है शायर ने। और नहर का नदी से पूछना कि तुम हर समय सरफिरे रंग में क्यों हो, बहुत अच्छी कल्पना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। तीखे व्यंग्य के साथ। वाह वाह वाह कमाल।

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निर्मल सिद्धू

तुम भी रँग जाओगे फिर मेरे रंग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

चढ़ के उतरे नहीं इसमें है वो कशिश
डूब तो लो ज़रा इस नये रंग में

अब तो मौसम भी मदहोश होने लगा
क्यूँ न हम भी घुलें मदभरे रंग में

रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब 
जबसे देखा है तुझको हरे रंग में

साये ग़म के कभी पास आते नहीं
जब रहे हम सदा प्यार के रंग में

मैं अलग तू अलग ऐ खुदा कुछ बता
आदमी ढल रहा कौन से रंग में

वाह वाह वाह क्या ग़ज़ल कही है। मतले में ही गिरह ठीक प्रकार से बाँधा गया है। अपने ही रंग में रँगना ही तो असल इश्क़ होता है। किसी दूसरे को अपने रंग में रँग लेना यही तो प्रेम है और मतले का शेर उस भावना को बहुत ही अच्छे से व्यक्त कर रहा है। पहला ही शेर एक निमंत्रण है अपने ही रंग में डूब जाने का। और एक चुनौती के साथ निमंत्रण है कि यह जो रंग है यह चढ़ गया तो उतरने वाला नहीं है। और मौसम फागुन का हो तो मद भरा रंग तो बिखरना ही है चारों ओर। रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब में किसी एक को हरे रंग में देख लेना और उसके बाद हर रंग फीका हो जाना, वाह क्या बात है यह शेर हर पढ़ने वाले को यादों में ज़रूर ले जाएगा। और फिर वही बात कि जब तक हम प्रेम में हैं सबसे प्यार कर रहे हैं तब तक ग़म के साये कभी पास नहीं आते। और अंत तक आते-आते प्रेम को सूफ़ियाना अंदाज़ प्रेम के रंग को भी अपने रंग में रँग लेता है। वाह वाह वाह क्या बात है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

KUMAR PRAJAPATI

कृष्ण कुमार प्रजापति

देख लेना सुधार आएगा ढंग में
आओ रंग दे तुम्हें इश्क़ के रंग में

उसको छेड़ा तो वो बुत ख़फ़ा हो गया
किस तरह आ गयी जान इक संग में

सीने छलनी हुए कट के सर गिर पड़े
कितने कम आ गए आन की जंग में

इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था
क्या मिलाया है तूने मेरी भंग में

उँगलियाँ जल उठीं दिल सुलगने लगा
बिजलियों सी जलन है तेरे अंग में

अपनी साँसे मेरी सासों में घोल दे
देख जमना बहा करती है गंग में

सारा गुलशन उठाकर न दे तू "कुमार "
डाल दे फूल कुछ दामन ए तंग में

कुमार जी को शायद क़ाफिया समझने में कुछ ग़फ़लत हो गई है। उन्होंने ए की मात्रा के स्थान पर रंग को ही क़ाफिया बना लिया है। इस ब्लॉग की परंपरा है कि यहाँ जो रचनाएँ आ जाती हैं सबका सम्मान किया जाता है इस अनुरोध के साथ कि आगे से यह ग़फ़लत नहीं हो। मतला ही बहुत खूब बन पड़ा है जिसमें इश्क़ के माध्यम से सुधारे जाने की बात कही गई है। इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था में किसीके हाथों को छूकर नशे के और बढ़ जाने की बात बहुत ही सुंदर तरीक़े से कह दी गई है। वस्ल को लेकर दो अच्छे शेर कह दिये हैं कुमार जी ने पहले तो उँगलियाँ जल उठने वाला शेर है जो प्रेम के दैहिक रूप को प्रकट करता है और उसके बाद अपनी साँसें मेरी साँसों में घोलने का अनुरोध प्रेम के दूसरे रूहानी पक्ष की बात करता है। और अंत में मकते का शेर बहुत छोटी सी कामना के साथ सामने आया है जिसमें केवल चंद फूलों की बात की गई है पूरे गुलशन के स्थान पर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।  
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लीजिए तो आज के चारों रचनाकारों ने होली के माहौल को अलग ही रंग में रँग दिया है। आपका काम तो वही है दाद दीजिए और खुल कर दाद दीजिए। दाद देते रहने में ही आपकी भलाई है नहीं तो होली पर आपके फोटो के साथ क्या होगा यह ख़ुदा ही जानता है।

46 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी की सोच की फाल्गुनी खिड़कियों से निकल कर आए जादुई मिसरों से सजा गीत और श्री भुवन निस्तेज की तेजस्वी ग़ज़ल, श्री निर्मल सिद्धू जी की इश्क़े मिजाजी और हकीकी दोनों रंगों में रंगी हुई ग़ज़ल, श्री कृष्ण कुमार प्रजापति की काफिये की गफलत के बावजूद सुन्दर ग़ज़ल के लिए और आपको मनहर सञ्चालन के लिए हार्दिक बधाई|

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    1. मान्यवर,
      ये पंकज भाई कीम चेतावनी का असर है जो ये शब्द अनुस्युत हो गये. साथ ही आपकी शुभकामनायें हैं.
      आभार

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    2. आदरणीय द्विज साहब मेरे प्रयास को अनुमोदन करने का शुक्रिया.

      हटाएं
  2. शानदार। प्रजापति के मामले में चूक मुझसे हुईं। राउरकेल्ला स्टेशन पर वे मिले और मैंने उन्हें तरही मिसरा भर दिया। बताना भूल गया कि रदीफ़ एक ही है। वे मंजे खिलाड़ी हैं।

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  3. रचनायें और चारों कि चारों क्या धमाकेदार.
    राकेश जी की कल्पना उनके बिम्बों प्रतीकों को नमन. उनकी कलम को नमन.
    सोच की खिड़कियां हो गई फ़ाल्गुनी
    सिर्फ़ दिखते गुलालों के बादल उड़े
    वाह वाह क्या शुरुआत है.क्या कल्पना है. शानदार.
    और
    पूर्णिमा की किरन प्रिज़्म से छन कहे
    आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
    क्या बात है..
    हर बँद मे एक द्रुष्य का क्या कमाल चित्र खींचा गया है...वाकई कमाल है

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    1. बन्धु,

      गज़ल के इतने नामचीन शायरों के बीच आने की गुस्ताखी की है. मज़बूरी है कि मैं गज़ल नहीं कहता ( इसे मेरा निर्णय ही समझें -कमजोरी नहीं ). हा हा हा -- होली का असर है.

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    2. Sir जी ये तो शुक्र है कि आप गज़ल नहीं कहते. वरना मुझ जैसों को कौन पूछता...हा हा हा..

      हटाएं
  4. भुवन जी की गज़ल मैने इस मंच की पुरानी पोस्ट में कहीं पढी है..और उससे बहुत प्रभावित हुआ था.और उनकी आज की गज़ल भी उतनी ही कमाल है.
    राख उड़ती रही सुगबुगे रंग में
    आप रंगते रहे मसअले रंग में
    क्या शानदार मतला है..वाह वाह

    रंगसाजी करे खुद ब खुद फैसला
    बस्ती फूलों की कैसे रँगे रंग में

    ये नहर ने नदी से है पूछा 'सुनों
    क्यों हमेशा से हो सरफिरे रंग में ?'

    शायरी में दिखाओ असर फागुनी
    हो गजल रंग में, काफ़िये रंग में ।

    बहुत ही सुंदर शेअर

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    1. गुरप्रीत साहब, एकबार इससे पहले इस मंच में आने का सौभाग्य प्राप्त हुवा है. मैं आपके स्नेह के लिए सदा आभारी रहूँगा.

      हटाएं
  5. आज होली की तरही एक सीढ़ी और चढ़ी तो हमे कुछ और नज़ारे देखने को मिले। हम जैसे जैसे सीढियाँ चढ़ते है, नज़ारों का दायरा बढ़ता रहता है।

    खंडेलवाल साहब की नज़्म ने तरही पर चार चाँद लगा दिए। टेसू के फूल का सरसों में जड़ जाना हो, कि प्रिज़्म से पूर्णिमा की चांदनी का छनना। प्रिज़्म की बात अक्सर सूर्य के प्रकाश तक ही सीमित रहती है, अतः चांदनी का प्रिज़्म के साथ बहुत अच्छा प्रयोग हुआ है। अगली बार जब भी प्रिज़्म हाथ लगेगा, मैं यह करके ज़रूर देखूँगा।अगले ही बन्द में धान की क्यारियाँ मुझे नानी माँ के घर की याद दिलाने लगीं तो तीसरे बन्द में देवर भाभी के रूप में ब्रज का दृश्य होली के पूरे रंग में ढाल रहा है। देवर भाभी के मज़ाक होली में चरम पर होते हैं। ब्रज की बांसुरी पूरे देश में गूंजती हुई हमारी अखण्डता को भी दर्शाती है।
    क्या कहने sir।

    भुवन निस्तेज जी की ग़ज़ल हमें और समाज को आइना दिखा रही है। 'आप रंगते रहे मसअले रंग में' ... यही तो हो रहा है आजकल हर ओर।
    रतजगे के रंग में सुब्ह, यह मिसरा स्वयं कईं रंगों में रंगा हुआ है। आस्तीनों में ख़ंजर लिए मुस्कान से सवाल है कि वफ़ा का क्या हुआ। भई वाह

    निर्मल जी की ग़ज़ल हमें मुहब्बत के रंग में रंग देती है।
    अपने रंग में रंग लेना ही तो इश्क़ की असल जीत है। और दूसरे शेर् में इस रंग के पक्के होने की गारन्टी भी मिल रही है। क्या कहने।
    हरे रंग में प्रेमिका को देखलेने के बाद कोई और रंग नहीं भाना। यह नया ढंग है कि बिना कुछ कहे एक चित्र मन में उभर आता है। जो भी पढ़े उसे अपनी मुहब्बत दिखे। दिल जीत लेने वाला शेर् हुआ है।
    आखिरी शेर् में ऊपर वाले से वह सवाल किया गया है जिसका उत्तर देना वास्तव में इंसानों के बस में नहीं।

    प्रजापति जी की ग़ज़ल में कुछ और नज़ारे मिले।
    इश्क़ के रंग में रंग जाने पर विचारों में सुधार आना लाज़िमी है। बहुत प्यारा मतला हुआ है। पूरी ग़ज़ल अलग अलग रंग बिखेर रही है। कहीं जंग, जो कभी खत्म नहीं होती तो तीसरे शेर् में इश्क़ के नशे की बात हुई है। क्या बात है।

    सादर
    नकुल

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    1. धन्यवाद नकुल. अच्छा लगा जानकर कि शब्द संयोजन तुम्हें पसंद आया.
      आभार.

      हटाएं
    2. आदरणीय नकुल साहब, बहुत बहुत धन्यवाद.

      हटाएं
  6. निर्मल जी ने भी बहुत अच्छी गज़ल कही है.

    रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब
    जबसे देखा है तुझको हरे रंग में
    वाह वाह बहुत पसंद आया ये शेअर

    चढ़ के उतरे नहीं इसमें है वो कशिश
    डूब तो लो ज़रा इस नये रंग में

    मैं अलग तू अलग ऐ खुदा कुछ बता
    आदमी ढल रहा कौन से रंग में

    बहुत ही सुंदर शेअर

    जवाब देंहटाएं
  7. और आखरी रचना भी उतनी ही शानदार है जितनी कि पहली तीन.कुमार प्रजापति जी ने भी कमाल किया है.



    उसको छेड़ा तो वो बुत ख़फ़ा हो गया
    किस तरह आ गयी जान इक संग में
    बहुत बढ़िया लगा ये शेअर



    उँगलियाँ जल उठीं दिल सुलगने लगा
    बिजलियों सी जलन है तेरे अंग में

    अपनी साँसे मेरी सासों में घोल दे
    देख जमना बहा करती है गंग में

    सारा गुलशन उठाकर न दे तू "कुमार "
    डाल दे फूल कुछ दामन ए तंग में कमाल का शेअर

    बहुत खूबसूरत गज़ल
    इन सब रचनओं ने आज का दिन बहुत खूब बना दिया है...सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाइयां

    जवाब देंहटाएं
  8. वाह ... क्या दिशा दी ही मुशायरे को राकेश जी के गीत ने ... आनंद और उल्लास का माहोल मस्ती के साथ बाद राकेश जी की लेखनी ही कर सकती है ... सोच की खिड़कियाँ हो गई फाल्गुनी ... पहली पंक्ति को ही पकड़ के बैठा हूँ मैं तो ... सोच के बादलों की उड़ान का कोई छोर नहीं मिल रहा .... होली के रंग और प्रेम की फुहार ... स्नेह बोकर सजाती हुयी क्यारियाँ ... मुझे तो चहुँ और दिख रही है प्रेम इस गीत में ... तीसरे छंद में तो सम्पूर्ण भारत और होली की मस्ती को समेट लिया है राकेश जी ने .... और अंतिम छंद में मौसम की अठखेलियों को प्राकृति के सभी रंगों को समेटा है ... इस गीत में हर रंग को बाखूबी उकेरा है राकेश जी ने ... बहुत बहुत बधाई ...

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    1. शारदा ने दिया एक आशीष, तब
      काव्य की राह पर सोच चलने लगी
      शब्द आकर स्वयं पंक्ति में लग गये
      और बस गीत में प्रीत जगने लगी.
      सादर आभार.

      हटाएं
  9. मन-सरोवर का जल शांत बेमन पड़ा
    देह के टूटने की कसक जी रहा
    आँख औंधी चढ़ी गोया मदिरा पिये
    तन निठल्ला पड़ा बेकसी पी रहा
    आ गये कहते राजेश ऊर्जा भरे --
    आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

    आज की गीति-रचना आदरणीय राजेश जी के वैन्यासिक विवेचना का अनुपम उदाहरण है.
    टेसू के लाल फूलों का पीली सरसों के संग मिल नयनाभिराम दृश्य बनाना और इस दृश्य का शब्दों से मनोहारी चित्र बनाना, प्रिज़्म से पूर्णिमा की किरणों का ’प्रस्फुटित’ होना, सचमुच विभोर कर गया. और फिर, साग पर चने के बूटे की परिकल्पना, सम्बोधनों की डगर से निवेदन, सिल-बट्टे की खनक ! इन शुद्ध देसिले बिम्बों से आदरणीय ने गाँव के फागुन की रंगीन दशा उकेर दी है.

    मुग्ध मुग्ध मुग्ध !

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    1. मन सरोवर में ठंडाइयां यूं घुली
      हम सुबह शाम डुबकी लगाते रहे
      थोड़ा शिव की प्रसादी का भी था परस
      अपनी सुधबुध तभी भूल जाते रहे
      यों खुमारी उमंगों की चढ़ती रही
      नाम भूले सभी, चढ़ रही भंग में
      और बस बेतहाशा यही कह रहे
      आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

      हटाएं
  10. आदरणीय भुवन निस्तेज जी की कोई ग़ज़ल अरसे बाद देखने-पढ़ने का संजोगबन रहा है. ये अरसा आपके सतत प्रयास का अनुमोदन कर रहा है.
    जो कमाल भाई भुवन जी ने मतले में किया है उसे आगे के कई शेरों में भी निभाया है.
    जैसे, ’रात भर ख़्वाब आकर डराते रहे..’ यहाँ सुबह का रतजगे रंग में आना चकित भी करता है और शेर को अर्थ भी देता है. इसी तरह, ’रंगसाज़ी करे खुद ब खुद फैसला.. ’ का सानी बहुत गहरी बात कह रही है.
    फिर, ’आस्तीनों में ख़ंज़र लबों पर हँसी.. और नहर-नदी जैसे शेर आश्वस्त करते हैं.
    वाह, भुवन भाई वाह ! दाद कोबूल कीजिये भाई !!

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    1. आदरणीय, यह आप लोगों का स्नेह ही है की मुझे इन मंचों में उपस्थित होने की प्रेरणा मिलती रहती है. अन्यथा हिन्दी भाषा में शायरी करना मेरे लिए काफी चुनौती भरा काम है.

      हटाएं
  11. भुवन जी ने व्यंगात्मक और आज के हालात पे तप्सरा करती हुयी नायाब ग़ज़ल लिखी है ... मतले के शेर ने ही उनकी तीखी धार की तरफ इशारा कर दिया है ... रात भर ख्वाब आ कर डराते रहे ... सटीक समीक्षा है आज के माहोल की ... आस्तीनों में खंजर ... एक और दिलचस्प शेर है माहोल पर .... कुछ शेर प्रेम और फुहार में रचे बसे हैं ... जो ताजगी बढ़ा रहे हैं फागुन की ... बहुत ही कमाल ग़ज़ल है ... भुवन जी को बहुत बहुत बधाई इस ग़ज़ल की ....

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    1. आदरणीय नासवा साहब, अनुमोदन के लिए आपका आभारी रहा हूँ. दरअसल मुझे भी कुछ नाजुक ख्यालों वाली ग़ज़ल कहनी चाहिए थी पर मेरे परिवेश में अभी यही हो रहा है. मैं शायद इससे मुक्त नहीं हो सका.

      हटाएं
  12. आदरणीय निर्मल सिद्धू जी की इस उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई.
    रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब
    जबसे देखा है तुझको हरे रंग में

    इस शेर ने देर तक बाँधे रखा .. बहुत खूब !
    लेकिन बार-बार बधाइयाँ ग़ज़ल के आखिरी शेर के लिए निर्मल भाई.
    शुभ-शुभ

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  13. निर्मल जी की खूबसूरत ग़ज़ल के क्या कहने ... गिरह को मतले में बाखूबी लगाया है ... प्रेम की सौंधी खुशबू में रचे बसे शेर ग़ज़ल में किसी गुलाब से कम नहीं हैं ..... मौसम की मदहोशी और हरे रंग का जवाब ही नहीं ... जबरदस्त ... और आखरी शेर तो बहुत ही वाजिब प्रश्न खडा कर रहा है समाज से ... निर्मल जी को बहुत बहुत बधाई इस खूबसूरत ग़ज़ल पर ....

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  14. प्रजापति जी ने भी कमाल के शेर प्रस्तुत किये हैं .... मतले के शेर ने अपनी बात बाखूबी कह दी ... इश्क में जो रंग जाता है सुधर जाता है ... क्या बात .... सीने छलनी हुए कट के सर गिर गए ... वीर सैनिकों के नाम इस शेर को नमन है मेरा ... उंगलियाँ जल उठीं और अपनी साँसों वाले शेर प्रेम के पक्ष को बाखूबी रख रहे हैं ... और सादगी भरे आखरी शेर ने तो जान ले ली ... बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुयी है ... बहुत बहुत बधाई प्रजापति जी ...

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  15. हालाँकि, आदरणीय कृष्ण कुमार प्रजापति जी ने गफ़लत में काफ़ियाबन्दी ग़लत कर दी है. लेकिन जिस अंदाज़ में आपने ग़ज़लग़ोई की है वह आपके बख़ूब हुनर का पता दे रहा है.
    ’उसको छेड़ा तो वो बुत ख़फ़ा हो गया..’ जैसे शेर यों ही नहीं हो जाते.
    ’सीने छलनी हुए कट के सर गिर पड़े..’ एक अच्छा शेर हुआ है. अलबत्ता, टंकण त्रुटि के कारण ’काम’ ’कम’ हो गया है.
    ’उँगलियाँ जल उठीं दिल सुलगने लगा..’ और ’अपनी साँसें मेरी साँसों में घोल दे..’ इश्क़ के क्रमशः दैहिक और मानसिक समझ के द्योतक हैं.
    आपकी ग़ज़ल के तकनीकी पक्ष को एक बार नज़रन्दाज़ कर दें तो आपकी सोच काबिले ग़ौर है.
    दिल की गहराइयों से दाद कुबूल कीजिए आदरणीय.
    शुभ-शुभ

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  16. ओढ़ सिन्दूर संध्या लजाती हुई
    सुरमई रात में भर रही है चमक
    वाह राकेश जी का गीत प्रकति की छटा से लेकर प्रीत के रंग में रंगा है।

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  17. शायरी में दिखाओ असर फागुनी
    हो गजल रंग में, काफ़िये रंग में ।
    भुवन जी ने तो एक से एक असरदार शेर लिखकर वाकई मक्ता सार्थक कर दिया है।

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  18. मैं अलग तू अलग ऐ खुदा कुछ बता
    आदमी ढल रहा कौन से रंग में
    वाह निर्मल जी क्या बात है, आपके शेर भी असरदार हैं।

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    उत्तर
    1. सारा गुलशन उठाकर न दे तू "कुमार "
      डाल दे फूल कुछ दामन ए तंग में
      वाह प्रजापति जी, काफिये की गफलत के बावजूद आपने खूब शेर कहे हैं।

      हटाएं
  19. खण्डेलवाल जी ,निर्मल जी ,प्रजापति जी, भुवन जी चारो शायरों ने एक से बढ़कर एक शेर किये हैं ग़ज़ल में | होली के रंग के साथ ही दुनिया के रंग को बखूबी उकेरा गया तँजों के माध्यम से |आज के चारो गज़लको को कोटि कोटि बधाई

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  20. खण्डेलवाल जी ,निर्मल जी ,प्रजापति जी, भुवन जी चारो शायरों ने एक से बढ़कर एक शेर किये हैं ग़ज़ल में | होली के रंग के साथ ही दुनिया के रंग को बखूबी उकेरा गया तँजों के माध्यम से |आज के चारो गज़लको को कोटि कोटि बधाई

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  21. खण्डेलवाल जी ,निर्मल जी ,प्रजापति जी, भुवन जी चारो शायरों ने एक से बढ़कर एक शेर किये हैं ग़ज़ल में | होली के रंग के साथ ही दुनिया के रंग को बखूबी उकेरा गया तँजों के माध्यम से |आज के चारो गज़लको को कोटि कोटि बधाई

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  22. आदरणीय राकेश जी ने हमेशा की तरह लाजवाब गीत रचा है। इनके बिम्ब इनके प्रतीक हमेशा नये होते हैं इस बार प्रिज़्म से छनती पूर्णिमा की किरण जैसा बिम्ब लेकर आये हैं राकेश जी। उन्हें बहुत बहुत बधाई इस शानदार गीत के लिए।

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  23. आदरणीय भुवन जी ने अपने समय पर शानदार कटाक्ष किया है। हर एक शे’र अपने समय का सच बयान कर रहा है। इस शानदार ग़ज़ल के लिए आदरणीय भुवन जी को बहुत बहुत बधाई।

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    1. सज्जन साहब बहु बहुत धन्यवाद. यदि आप जैसे सुधि जनों का साथ रहे तो हमारा हौसला भी बना रहेगा.

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  24. आदरनीय निर्मल सिद्धू जी ने शानदार ग़ज़ल कही है। बहुत बहुत बधाई उन्हें।

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  25. आदरणीय कृष्ण कुमार जी ने काफ़िया तंग लेने के बाद भी शानदार अश’आर निकाले हैं। बहुत बहुत बधाई उन्हें इस ग़ज़ल के लिए।

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  26. राकेश भाई साहब, आपका शब्‍द साम्राज्‍य शब्‍द गुँथन की उच्‍च्‍तम सीमा में छाया हुआ है इस गीत में। बहुत से नये शब्‍दों से परिचय हुआ।
    गीत की मोहक विधा की खूबसूरती पूर्ण यौवनावस्‍था में समक्ष में है, मोहित हूँ। वाह्ह।

    भुवन निस्‍तेज भाई क्‍या कह गये मत्‍ले के शेर में। लाजवाब। समय के हर दौर में शायरी की मांग रही है व्‍यवस्‍था और अवस्‍था पर चोट। बहुत खूबसूरती से बॉंधा आपने। आपको ग़ज़ल का लहज़ा बदलने की कोई ज़रूरत नहीं, क़ायम रखें। वाह्ह।
    निर्मल जी का मत्‍ले का शेर और दूसरा शेर कत्‍अ: का प्रभाव र्पदा कर रहा है। चढ़ के उतरे नहीं इसमें है वो कशिश; क्‍या बात है। वाह्ह।
    कृष्‍ण कुमार जी की ग़ज़ल में काफि़या/ रदीफ़ बदलना केवल मिसरा पढ़ने के कारण हुआ यह तो स्‍पष्‍ट है। तीसरे शेर में शायद 'कम' न होकर 'काम' है। भांग की जगह भंग प्रचलन में आ जाने से ले लिया गया लगता है। प्रजापति जी को पहली बार पढ़ रहा हूँ। जमना का गंगा में समा जाना बहुत खूबसूरत प्रयोग है। वाह्ह।

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    1. आदरणीय, आपके शब्द सदैव संजीवनी की तरह कम करते हैं. इस अनुमोदन हेतु धन्यवाद.

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  27. आदरणीय पंकज साहब
    बहुत बहुत धन्यवाद. आपने जिन सज्जनों के साथ मुझे प्रस्तुत किया मई स्वयं को सौभाग्यशाली अनुभूत कर रहा हूँ.
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    आदरणीय खंडेलवाल साहब की प्रिज्म से छन के आती हुई किरण का बिम्ब कमल का है. आपको ढेरों बधाइयाँ.
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    आदरणीय सिद्धू साहब की ग़ज़ल कमाल है. कृपया बधाई काबुल करे.
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    इसी तरह आदरणीय कृष्ण कुमार साहब की ग़ज़ल भी काफी प्रभावित कर रही है. हाँ काफिये को लेकर कुछ गलतफहमी जरूर हो गई है इसके बावजूद भी काफी खूबसूरत ग़ज़ल आई है. कृपा बधाई स्वीकार करे,.

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  28. आदरणीय राकेश जी की इस पंक्ति को पढने के बाद लिखने को कुछ बाक़ी ही नही रहता :
    पूर्णिमा की किरण प्रिज्म से छन कहे
    आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में
    ये करिश्मा राकेश जी ही कर सकते हैं ! नमन है उनकी लेखनी को - बेजोड !!

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  29. लाइए अब कहन को नए रंग में
    अपने इस मिसरे से भुवन जी ने इस ब्लॉग पर ज़ोरदार दस्तक दी है ! हर शेर असरदार है उन्हें इस बेहतरीन गजल के लिये ढेरों दाद!!!
    साये ग़म के कभी पास आते नहीं
    जब रहें हम सदा प्यार के रंग में
    से सिद्धु साहब ने बहुत बड़ा संदेश दिया है ! निर्मल जी की पूरी गजल सादा ज़बान में गहरी बात कहने का खूबसूरत उधाहरण है!! ज़िंदाबाद !!
    उसको छेड़ा तो वो बुत ख़फ़ा हो गया
    किस तरह आ गयी जान इक संग में
    कृष्ण जी ने क़ाफ़िया समझने में भले भूल की हो मगर गजल कहने में अपनी महारत का प्रदर्शन किया है ! हर शेर लाजवाब है उनका !!


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