बुधवार, 1 अगस्त 2012

रक्षा बंधन के पर्व की सभी को मंगल कामनाएं । आज तरही में एक साथ दो पांडे जी, श्री सौरभ पांडेय जी और श्री विनोद पांडेय ।

याद आता है बचपन का वो ठीक ठाक सा पहला रक्षाबंधन । हर तरफ भाइयों की कलाई पर राखी बंधी हुई । और हम दोनों भाई टुकुर टुकुर उनको ताकते हुए । पहली बार जिन बहनों ने कलाई पर राखी बांधी थी वो भी पांडेय ही थीं । जाने अब वो कहां हैं । इतना ज़रूर पता था कि बड़ी बहन जी के पति मध्‍यप्रदेश कांग्रेस सेवादल के प्रदेश अध्‍यक्ष थे छत्‍तीसगढ़ बनने के पहले तक । उसके बाद का कुछ पता नहीं । ये भी संयोग है कि आज जिन दो शायरों को तरही में ग़ज़ल पाठ के लिये आमंत्रित किया जा रहा है वे भी दोनों ही पांडेय हैं ।

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प्रीत की अल्‍पनाएं सजी हैं प्रिये

आज तरही में जो शायर आ रहे हैं । दोनों ही शायर कमाल के हैं । दोनों का ही नाम तरही के लिये अपरिचित नहीं हैं । श्री सौरभ पांडेय जी और श्री विनोद पांडे तरही में नियमित आते रहे हैं । दोनों ही शायर अपनी ग़ज़लों से श्रोताओं का मन जीतते रहे हैं । आज रक्षाबंधन की पूर्व बेला में सुनते हैं दोनों शायरों की ग़जल़ें ।

Saurabh

श्री सौरभ पांडेय जी

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आज कलियाँ प्रणय की खिली हैं प्रिये
तितलियाँ चाह की झूमती हैं प्रिये

धड़कनों से खिलें पुष्प पाटल कमल 
धमनियों में उमंगें बही हैं प्रिये

धार रक्तिम तरंगित उपटती बहीं
सुर सधी जलतरंगें छुई हैं प्रिये

भाल सिन्दूर से लसपसाया हुआ 
सूर्य-किरणें हुलस कर बसी हैं प्रिये

व्यक्त विदरण लगें देहरी देह की
प्रीत की अल्पनाएँ सजी हैं प्रिये

मंद घड़ियाँ मनोरम न यों थीं कभी
मुग्ध हो कसमसाती लगी हैं प्रिये

मधु भरे वार दो आज मुझ पे अधर
देह में चीटियाँ रेंगती हैं प्रिये

दो कदम मैं चलूँ दो कदम तुम चलो
दूरियाँ मिल हमें काटनी हैं प्रिये

तुम ये मानो न मानो मग़र सच यही
तुमसे सुधियाँ हृदय की हँसी हैं प्रिये

मधु भरे वार दो आज मुझ पर अधर, देह में चीटियां रेंगती हैं प्रिये, कमाल शेर । दोनों ही मिसरे कमाल कमाल हैं । मिसरा सानी तो श्रंगार तथा अश्‍लीलता के बीच की बारीक डोर पर नट की तरह सधा हुआ गुज़रा है । उफ कमाल का शेर । भाल सिन्‍दूर से लसपसाया हुआ में लसपसाया हुआ की तो बात ही क्‍या है । देशज शब्‍द जब काव्‍य में सही तरीके से आते हैं तो सोने पर सुहागा हो जाता है । ऐसा ही एक शब्‍द और आया है धार रक्तिम तरंगें उपटती बही में, उपटती की क्‍या बात है । बहुत सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह ।

vinod1

श्री विनोद कुमार पांडेय

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इस लहर सी हृदय में उठी है प्रिये
क्या कहूँ किस कदर बेखुदी है प्रिये

नैन बेचैन है, हसरतें हैं जवाँ
हर  दबी भावना अब  जगी है प्रिये

प्रेम के गीत की गूँज है हर तरफ
प्रीत की अल्पना  भी  सजी है प्रिये

साज श्रृंगार फीके तेरे सामने
दिल चुराती तेरी सादगी है प्रिये

मेरे दिल का पता दिल तेरा हो गया
ये ठगी है कि  ये दिल्लगी है प्रिये

उस हवा से है चंदन की आती महक
जो हवा तुमको छूकर चली है प्रिये

उस कहानी की तुम ख़ास किरदार हो
संग तुम्‍हारे जो मैने बुनी है प्रिये

छन्द, मुक्तक, ग़ज़ल, गीत सब हो तुम्‍हीं
तुम नही तो कहाँ, शायरी है प्रिये

बहुत सुंदर ग़ज़ल । साज श्रंगार फीके तेरे सामने में दिल को चुराने वाली सादगी की क्‍या बात है । छन्‍द मुक्‍तक ग़ज़ल गीत में प्रेम को काव्‍य का मूल आधार होने की बात को बहुत सुंदरता के साथ प्रतिपादित किया गया है । मेरे दिल का पता तेरा दिल हो गया में ठगी और दिल्‍लगी की बात को अच्‍छा बांधा है । बहुत सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह ।

18 टिप्‍पणियां:

  1. प्रीत भरे सफ़र का एक और सुन्दर पड़ाव.

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    1. आदरणीय पाण्डेय जी, नैनी से लगातार काव्य सुधा बरसा रहे हैं. उनको यहाँ सुनना सदा सुखद अनुभूति से गुजरना है.
      भाल सिन्दूर से... मंद घड़ियाँ... मधु भरे वार.... सबने मिलकर क्या सुन्दर छटा बिखेरी है.

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  2. बिनोद जी, हमारे नजदीक ही हैं नॉएडा में. जितने आदर और सादगी से वो मुझसे बात करते हैं मैं उनका कायल हूँ.
    आज श्रृंगार रस में जो शे'र कहे हैं उस पर मन मोहित हुआ जा रहा है.
    उस कहानी की तुम ख़ास किरदार हो.... छंद, मुक्तक, ग़ज़ल, गीत सब हो तुम्ही... बहुत सुन्दर !!
    ---
    रक्षा बंधन की शुभकामनायें !!

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  3. सौरभ जी की ग़ज़ल याद दिलाती है उस काव्‍य युग की जब काव्‍यात्‍मक शब्‍दो से ही काव्‍य सृजित होता था और उसमें पूर्ण काव्‍य-रसता होती थी। यह ग़ज़ल पुष्‍ट करती है इस बात को कि सटीक शब्‍द का उपयोग का व्‍य/ग़ज़ल को पुश्‍ट करता है। मेरा शबद भंडार आज थोड़ा और समृद्ध हुआ इस ग़ज़ल को पढ़कर।
    विनोद जी की पहली ही पंक्ति ने यकायक याद दिला दी 'दिल में इक लहर सी उइी है अभी' की। ध्‍यान गया कि वह ग़ज़ल भी इसी मीटर पर ािी।

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    1. विनोद जी की खूबसूरत ग़ज़ल ने 'दिल में इक लहर सी उठी है अभी की याद दिला दी। खूबसूरत ग़ज़ल है।

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    2. मुझसे चूक हुई 'दिल में इक ' की बह्र पहचानने में।

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  4. शब्दों का चमत्कारिक प्रयोग किया है सौरभ जी ने अपनी ग़ज़ल में...शुद्ध और देशज शब्दों का एक साथ इतना खूबसूरत प्रयोग किसी एक ग़ज़ल और कहीं मिलना दुर्लभ है... सौरभ जी आपकी इस ग़ज़ल के लिए जितनी भी प्रशंशा की जाय कम होगी. विशेष तौर पर " धडकनों में..." " धार रक्तिम..." " भाल सिन्दूर से"...और "मधु भरे वार दो...में "देह में चींटियाँ रेंगती हैं प्रिये "...का प्रयोग अद्भुत है....अप्रतिम है...वाह...

    विनोद जी ने सादगी को अपने शेरों में ढाल कर मन्त्र मुग्ध कर दिया है...ऐसी ग़ज़ल जो पढ़ते पढ़ते दिल में उतर जाती है..."मेरे दिल का पता" लाजवाब शेर है...बहुत बहुत बधाई विनोद भाई...वाह...

    श्रृंगार रस में ओतप्रोत ऐसी ग़ज़लें इस तरही मुशायरे के आलावा और कहाँ पढने को मिलेंगी, गुरु देव आपकी लीला अपरम्पार है...धन्य हो..


    नीरज

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  5. बेहद खुबसूरत शेर कहे हैं,सौरभ जी ने..सुन्दर शब्द चयन और सुन्दर भावनाओं ने प्रेम की इन पंक्तियों को लाजवाब बना दिया..

    मैं अपने बारे में क्या कहूँ ..पंकज की का आभार व्यक्त करना चाहता हूँ जिनके प्रयास से आज इस शानदार मुशायरे की एक कड़ी मैं भी हूँ....पंकज जी को प्रणाम और सभी अपने मित्रों का धन्यवाद व्यक्त करता हूँ जिनकी प्रतिक्रिया ने मेरे आत्मविश्वास को और बढ़ा दिया...

    धन्यवाद !!

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  6. सौरभ पांडेय जी और विनोद कुमार पांडेय जी दोनों ने बहुत खूब शेर निकाले हैं. सौरभ जी ने जिस सहजता और खूबसूरती से देशज और हिंदी शब्दों को प्रयोग किया है और शेरों में जिस अंदाज़ से गूंथा है, उसके कहने ही क्या! लाजवाब.
    विनोद जी का ये शेर "साज श्रृंगार फीके तेरे सामने ............" ख़ास पसंद आया.

    दोनों शायरों को खूबसूरत ग़ज़लों के लिए मुबारकबाद.

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  7. दोनों पान्डेय जी को मेरा सलाम बेहतरीन रचनाओं के लिये, सौरभ जी का मतला और विनोद जी का मक्ता बहुत दमदार लगा।

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  8. सौरभ पांडे जी की गज़ल का पहला दूसरा और आठवां शेर खासतौर पर पसंद आये ! यदि सौरभ जी ने सरल शब्दों का प्रयोग किया होता तो वह बहत अच्छा लिख सकते हैं ! विनोद पांडे जी की गज़ल तो बहत गज़ब है !

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  9. रक्षा बन्धन पर आज सब्झी को हार्दिक शुभकामनायें। फ्विनोद जी को आज कई दिन बाद पढा है।सौरभ जी का मतला लाजवाब है तीसरा और पाँचवाँ शेर भी बहुत अच्छा लगा। विनोद जी की आखिरी दो शेर तो दिल को छू गयी। बहुत बहुत बधाई। मेरे भाईयों को राखी एक बार फिर मुबारक , आशीर्वाद बधाईयाँ।

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  10. शरीर, तन और देह ! ये तीन समानार्थी लगते-से शब्द. किंतु, तथ्यानुभूति तथा भावाभिव्यक्ति के पञ्चकोषों के स्तर पर तीनों कितने प्रच्छन्न !

    ’इन तीन समानार्थी लगती संज्ञाओं के मध्य शृंगार की कायिक-प्रभा किसके सन्निकट, किस सीमा तक’ का तात्विक ऊहापोह, और, इस तरही हेतु प्रविष्टि-प्रेषण हेतु पंकजभाई द्वारा पूर्वघोषित दिनांक बस दो दिन दूर. उस पर से, इस दफ़े मुशायरे का ’सकारण’ आयोजन ! इस दशा में प्रसूत हुईं कुछ पंक्तियाँ. स्वीकृत हुईं. समक्ष हुईं. आभार.

    वैचारिक अवधारणा के इस विषम में शृंगार के संयोग पक्ष की श्रेणी को दैहिक अनुभूति के आयाम से ’देखने’ की सोचा. कारण ? सनातन-सम्मिलन को सिद्धवत् जीने का हेतु अब साकार हो चुका था ! भाव-स्वप्न के लिये अब किसी विस्तार की आवश्यकता नहीं रह गयी थी. प्रत्यक्षानुभूति समझ के धरातल पर थी.. . ’यहाँ’ भी, ’वहाँ’ भी.

    देखा, कुछ द्विपदियाँ अभिव्यंजनाओं के अलावे हैं. स्पष्ट हैं. अलोत किया. सम्मिलन-संकेत को प्रभावी करते रक्त-वर्ण को इंगित करती द्विपदी को ’धार-रक्तिम’ के ’उपटने’ का आवरण दे देह की आवृति को सस्वर करता चला गया. भासित ’अल्पनाओं’ को मुखरित करती दशा स्वयमेव बनती चली गयी. ’नट की तरह’ सधे मिसरों का होना यही कारण बना, आदरणीय.
    सादर धन्यवाद, पंकजभाईजी, कि ’संस्कार-विशेष’ की आनुष्ठानिक परिणति के उपरांत की अभिव्यक्ति मंच पर ’गेय’ समझी गयी.

    यह विधा, पंकजभाईजी, अभी भी मेरे लिये सहज नहीं है, किंतु आपका सस्मित समर्थन कितना दुस्साहसी बना देता है, कोई मुझसे पूछे.

    समस्त सुधीजनों के प्रति सादर आभार.
    रक्षापर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  11. भाई विनोदजी की ग़ज़ल से प्रभावित हुआ हूँ. इस मंच पर आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल मेरे लिये संभवतः आपकी कोई प्रथम प्रविष्टि है.
    साज शृंगार फीके.. . में अभिव्यक्त सादगी सनातन है. और उसी सरलता से उकीर्ण हुई है.
    उस हवा से है चंदन.. . में मोहक महक समायी है. बहुत खूब !
    आखिरी शेर पर विशेष बधाइयाँ व हार्दिक शुभकामनाएँ. ..

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  12. दोनों ही ग़ज़लें शानदार है। सौरभ जी का ज्ञान और शब्द प्रयोग अचंभित करता है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इस विशुद्ध हिंदी की ग़ज़ल के लिए।
    विनोद जी ने भी शानदार अश’आर कहे हैं। बहुत बहुत बधाई

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  13. दोनों ही ग़ज़लें इस तरही को चार चाँद लगाने वाली ग़ज़लें हैं
    दो क़दम मैं चलूं .......
    बहुत सुंदर लोक शब्दों के मध्य ये शेर !!!!
    कमाल है भाई,,

    साज श्रृंगार फीके........
    बहुत सुंदर विनोद जी

    आप दोनों शायरों को बहुत बहुत बधाई !!!

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  14. आ..सौरभ पाण्डेय की ग़ज़ल का मुझे इंतज़ार था,उनकी टिप्पणियां जितनी विस्तृत और ज्ञानवर्धक होती हैं ग़ज़ल उससे कमतर कैसे हो सकती थी.बेहद सुन्दर और अलंकारिक.तरही को नए आयाम देती हुई इस रचना के लिए बधाई स्वीकार कारें.विनोद पाण्डेय जी की ग़ज़ल भी अच्छी लगी.मुबारकबाद

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  15. सौरभ जी ने तो जो काव्य सरिता बहाई है .... बस उसका ननद ही लिया जा सकता है ... शब्दों में कहना आसान नहीं है ...
    किसी एक शेर की बात भी क्या की जाए ... हर शेर प्रेम और प्रीत की चासनी में डूबा हुवा सा है ... हर शेर जैसे पावन प्रेम को सर्थक कर रहा है ... बहुत ही सुन्दर गज़ल ... सौरभ जी की इस गज़ल ने इस मुशायरे को प्रीत की नयी ऊँचाइयों तक ला खड़ा किया है ...
    विनोद जी ने भी बहुत ही कमाल के शेर कहे हैं ... बहुत ही सादगी से अपनी प्रीत को दिशा दी है ... मज़ा आ गया सभी शेर पढ़ के ...

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