प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
और तरही के समापन का समय आ ही गया है । आज हम प्रेम तरही का समापन करने जा रहे हैं । एक अलग प्रकार की तरही का आनंद हम सब ने खूब उठाया । खूब रस बरसा इस बार तरही में । प्रेम में सचमुच इतनी शक्ति है कि वो दुनिया के हर कोने में शांति कायम कर सकता है । हमने स्वयं ही तो अपने जीवन के संचालन सूत्र नफरतों को दे दिये हैं । जिन मसलों को प्रेम चुटकियों में सुलझा सकता है उनके लिये हम बरसों बरस तक युद्ध लड़ते हैं और परिणाम शून्य ही रहता है । कभी कभी मैं किसी ऐसे द्वीप की कल्पना करता हूं जहां हर तरफ प्रेम हो, किसी के मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं हो । कैसी सुंदर होगी न वो जिंदगी भी । किन्तु शायद अब उस जिंदगी की कल्पना ही की जा सकती है । हकीकत में वैसा होना संभव ही नहीं है । लेकिन हम अपने अपने दायरे में तो प्रेम की खेती कर ही सकते हैं ताकि हमारा अपना दायरा प्रेम के फूलों से महकता रहे । यही दायरा हो सकता है बढते बढते पूरी पृथ्वी पर फैल जाये ।
तरही का समापन हम करने जा रहे हैं उनकी रचनाओं के साथ जिनका इस बार की तरही में सबसे ज्यादा इंतजार हो रहा है । हालांकि वे बीच में एक हास्य ग़ज़ल सुनाने के लिये आये थे किन्तु उनसे तो हम सुंदर गीतों मुक्तकों की उम्मीद लगाये रहते हैं । तिस पर ये कि इस बार का मिसरा भी तो श्रंगार से रसाबोर है । तो आइये आज श्री राकेश खंडेलवाल जी की तीन तीन रचनाओं के साथ समापन करते हैं प्रेम की तरही का ।
आदरणीय श्री राकेश खंडेलवाल जी
अत्यधिक व्यस्तता के कारण हुये विलम्ब के लिए क्षमा चाहते हुये
यह प्रयास भेज रहा हूँ. पता नहीं भावों का अवगुंठन आपकी कसौटी पर कैसा उतरेगा
पारिवारिक व्यस्तताएं तथा कार्य सम्बंधित कांफ्रेंसों में उलझा हुआ हूँ.
नैन में स्वप्न अनगिन सजाये हुये
सांझ का दीप पथ में जलाये हुये
बाट जोहा करी आस की कोकिला
गीत लाये हवा, गुनगुनाये हुये
हों गज़ल की बहर में बंधे कुछ हुये
कुछ लिये सन्तुलन के नये काफ़िये
एक ही ध्येय हो, एक सन्देश हो
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
पर उठे ही नहीं हैं हवा के कदम
दिन निरन्तर हुये हैं गरम पर गरम
पांव फ़ैलाये बस मौन पसरा रहा
प्यास मृग सी बढ़ाती रही है भरम
मेघ का दूत कोई निकल चल पड़े
और सन्देश पिघले, जलद से झड़े
कामना बस यही आँख में आंज कर
मन प्रतीक्षित हुये, जाल पर हैं खड़े
मेघ का दूत कोई निकल चल पड़े, अहा क्या बता है और सचमुच ही यहां सीहोर के आस पास के इलाकों में मेघ दूत आ गये हैं । नैन में स्वप्न अनगिन सजाये हुए के बाद सांझ का दीप जो पथ में जलाया गया है उसकी तो बात ही अजब बनी है । बहुत सुंदर छंद हैं चारों के चारों । चारों को अलग अलग करें तो चार सुंदर मुक्तक । लेकिन चूंकि एक ही भावभूमि पर हैं तो चारों एक दूसरे के साथ गूंथ कर एक समग्र रचना बना रहे हैं । बहुत सुंदर ।
द्विपदी
क्या रदीफो बहर क्या वज़न काफ़िये
ताक पर आज सब ही उठा रख दिए
रक्त पुष्पों ने मंडप सजाया नया
कदली स्तंभों पे अंकित हुये सांतिये
सप्त नद नीर पूरित हुये हैं कलश
पूर्ण वातावरण है सुधायें पिए
चाँदनी ने भिगो गुलमुहर का बदन
पांखुरी पर लिखा जो उसे वांचिये
माल मन-पुष्प की यों प्रकाशित हुई
जगमगाने लगे अर्चना के दिये
होंठ ने प्रीत की स्याही से होंठ हैं
कितने हस्ताक्षरों से सजा रख दिये
गंध की बारिशें मौसमों से कहें
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
द्विपदी यानि ग़ज़ल की मौसेरी बहन । होंठ वाला पद पढ़ कर पहले तो मैं भी उलझ गया कि ये दो बार होंठ क्यों आये फिर जब पुन: पढा तो मर्म तक पहुंचा । अहा । गंध की बारिशों का मौसम से कहना वाह क्या बात है । द्विपदी सचमुच ही प्रीत की द्विपदी बन गई है । हर पद में से अष्टगंध की महक आ रही है ।
गीत
सुरपुरी की सुमन वाटिका से चली
चन्द पुरबाईयों को समेटे हुये
लालिमायें उषा के चिबुक से उठा
सांझ की ओढ़नी में लपेटे हुय्र
दूधिया रश्मियां केसरी रंग में
घोल कर चित्र में ला सजाते हुये
रक्तवर्णी गुलाबों से ले पांखुरी
शतदली बूटियों में लगाते हुये
उर्वशी के पगों से महावर लिए
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
मन से मन की मिटाते हुये दूरियाँ
धड़कनें धड़कनों से मिलाने गले
भर के भुजपाश में मोगरे की महक
पगतली से चली हैं लिपटने गले
संकुचित शब्द सीमाओं को तोड़कर
दृष्टि से दृष्टि की जोड़ने साधना
ध्येय दो एक ही सूत्र में जोड़ने
पूर्ण करने अकल्पित सभी कामना
स्वप्न की हर गज़ल के बनी काफ़िये
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
रातरानी रही मुस्कुरा बाँध कर
मोगरे की कली से चिकुर की लटें
बन रहीं जलतरंगों सी मादक धुनें
पाटलों पर गिरी ओस की आहटें
चाँदनी की कलम से लिखी चाँद ने
झील के पत्र पर नव प्रणय की कथा
शीश अपने झुका कर तॠ कह रहे
पल यही एक ठहरा रहे सर्वदा
सृष्टि सारी मुदित होंठ पर स्मित लिये
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
बादलों से टपकती हुई यह सुधा
कह रही आओ पल मिल के हमतुम जियें
दृष्टि से दृष्टि के मध्य बहती हुई
प्रीत की यह सुरा आज छक कर पियें
मिल रहे हैं धरा औ’ गगन जिस जगह
आओ छू लें चलो हम वही देहरी
दे रही है निमंत्रण सुमन पथ बिछा
पर्क से सिक्त हो रात यह स्नेह की
नैन अपने झुका कह रहे हैं दिये
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
आप क्या कहते हैं मैं कुछ लिख पाऊंगा इस गीत के लिये । क्या मेरे जैसे अदने से साहित्यकार की कोई हस्ती है जो वो इस गीत पर कुछ लिख सके । इस गीत पर कुछ भी लिखने के लिये चंदन की कलम और चांदनी का पृष्ठ चाहिये । तीसरा छंद तो जैसे कोई टोना सा मार कर स्तंभित कर रहा है । मिल रहे हैं धरा औ गगन में किस सुंदरता के साथ देहरी को छूने की बात कही है । और वैसा ही कुछ जादू है भुजपाश में भरी हुई मोगरे की महक का । अहा । और उर्वशी के पैरों से महावर लेकर प्रीत की अल्पनाएं सजाने की बात, अहा क्या कहूं । ये ही तो वो स्वर्ण युग है गीतों का जो बीत गया। लेकिन राकेश जी मानो उस स्वर्ण युग की ध्वनियों को बीत जाने से रोके हुए हैं । उसे अतीत नहीं होने दे रहे हैं । आनंदम परमानंदम । तरही का इससे अच्छा समापन और क्या हो सकता था ।
ईद पर एक तरही नशिश्त
''अल्लाह मेरे मुल्क में अम्नो अमाँ रहे''
'अल्लाह 221'- 'मेरे मुल्क़ 2121' -'में अम्नो अ 1221'-' माँ रहे 212'
( दूसरे रुक्न में 'मेरे' का 'रे' गिरा कर लघु किया गया है और तीसरे रुक्न में 'में' को गिरा कर लघु किया गया है बाकी मात्राएं अपने यथारूप वज़्न पर हैं )
रदीफ होगा 'रहे' तथा क़ाफि़या 'आँ' ( आसमाँ, हिन्दोस्ताँ, गुलसिताँ, यहाँ, जहाँ, कहाँ )
एक या दो दिवसीय दिवसीय नशिश्त करने की इच्छा है, उसके लिये हालांकि समय बहुत कम है फिर भी इच्छा है कि कम से कम एक एक मुक्तक यदि सब दे सकें तो हम एक दिवसीय नशिश्त 'ईद' के पर्व पर करें। यदि पूरी ग़ज़ल दे पायें तो बहुत अच्छा है, सोने पर सुहागा । किन्तु यदि समयाभाव के कारण उतना नहीं कर पाएं तो कम से एक मुक्तक (मतला और शेर) जु़रूर भेजें । मतला और मकते का काम्बिनेशन दे पाएं तो और अच्छा । ईद के लिये जो मिसरा बनाया गया है वो बहरे मुजारे मुसमन अख़रब मक़फ़ूफ महज़ूफ़ जिसका वज़्न है 221-2121-1221-212 ( मफऊल फाएलात मफाईल फाएलुन) कोई गीत याद आया ? नहीं आया तो चलिये मैं याद दिला देता हूं फिल्म हम दोनों में रफी साहब का सदाबहार गीत 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया' ।
ईद का मिसरा एक दुआ है उस दोनों जहान के मालिक से दुआ, तो ईद पर इस दुआ के स्वर में अपना स्वर अवश्य मिलाएं । जल्द से जल्द क़लम उठाएं और लिख भेजें अपनी रचना । ईद की नशिश्त आपकी रचनाओं के लिये मुन्तजि़र है । लिखते समय इस बात का ख़ास ध्यान रखें कि किसी मिसरे का वज़्न बहरे मुजारे मुसमन अख़रब मक़फ़ूफ महज़ूफ़ 221-2121-1221-212 से भटक कर जुड़वां बहर बहरे हज़ज मुसमन अख़रब मक़फ़ूफ महज़ूफ़ के वज़्न 221-1221-1221-122 पर नहीं चला जाये । मतलब ये कि 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया' के वज़्न पर ही रहे कहीं 'तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा' के वज़्न पर न हो जाये । आप इन दोनों गीतों को गाकर देखेंगे तो लगेगा कि अरे दोनों तो एक ही वज्न में हैं फिर अंतर क्या है । अंत दूसरे और चौथे रुक्न में है । और समझ में इसलिये नहीं आ रहा है कि मात्राओं का योग भी समान है दूसरे और चौथे रुक्न में, केवल उनकी जगह बदली हुई है, वो भी केवल पहली दो मात्राओं की । ठीक है । ईद के एक दिन पहले तक अपनी रचना अवश्य भेज दें ।
राकेश जी के गीतों पर कुछ भी लिखना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। इसलिए बेहतरह है कि चुप रहा जाय।
जवाब देंहटाएंगीत की देह पर प्रीत लिखते रहें
प्रीत की हर नई रीत लिखते रहें
गीत-सम्राट लिखते रहें ताउमर
नफ़रतों का हृदय जीत, लिखते रहें
आनंद, परमानंद।
जवाब देंहटाएंराकेश जी के गीत तो ग़ज़ल से उपर हो गये।
इस आनद को तो बस आत्मसात ही किया जा सकता है ...
जवाब देंहटाएंराकेश जी के गीतों से समापन ... माने प्रीत को नई उड़ान दे दी है आज ... कुछ कहना नामुनकिन है पर आनंद आलोकिक है ...
नई गज़ल या मुक्तक ... अहा ... इस बार तो ईद पे भी सिवैयां मिलने वाली हैं ... मज़ा आ जाएगा ....
जवाब देंहटाएंझूम रहे हैं. मुग्ध हैं. मस्त हैं. राकेशजी की रचनाओं पर बस एक शब्द वाह !
जवाब देंहटाएंसादर
Pankaj ji ko sadar namskar .......
जवाब देंहटाएंRakesh ji ko bahut bahut badhai sundar gazal ki prastuti par ..........
Geet bhi lajvab hain.......
जवाब देंहटाएंराकेश खंडेलवाल जी के गीतों की झड़ी गर्मी में रिमझिम बारीश की तरह का अपना ही आनन्द देती है !
जवाब देंहटाएंमाम्य पंकजजी का स्नेह स्वत: ही कुछ न कुछ कहलवा देता है. आप सभी के सन्देशों से अभिभूत मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ.
जवाब देंहटाएंएक आशीष मुझको बड़ों ने दिया, दूजे वरदान इक शारदा दे गई
काव्य की वीथियों में उमड़ती हुई, भाव की एक भागीरथी बह गई
योग मेरा तो इसमें नहीं है तनिक,मैने शब्दों से केवल चितेरा उसे
मेरी खिड़की की सिल पे आ गाते हुये बात गौरेय्या जो एक है कह ह गई
एक दिन छुट्टी पर चली जाऊँ अय्ते ही एक धमाका हुआ मिलता है। मेरे वश मे तो इस धमाके के सहन कर पाना मुश्किल लग रहा है। खैर कोशिश की जा सकती है। राकेश जी की तीनो रचनायें कमाल की हैं\ इतनी अच्छी हिन्दी ! वाह काश मुझे भी आती। राकेश जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंसांझ का दीप पथ में जलाए हुए...
जवाब देंहटाएंसचमुच गीतों के नगरी को अपने शब्दों से अनवरत आलोकित कर रहें हमारे आदरणीय श्री खंडेलवाल जी को प्रणाम !
आपने सुन्दर पदों से जिस विलक्ष्णता के साथ इस तरही में शब्द उष्मा दिए हैं, ये सब स्मृति में रहेंगे.
बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ़.... बड़ा लम्बा और मुश्किल नाम है. देखते हैं ये बहर कैसे रंग बरसाती है. बहरे हजज से तो परिचित हूँ और यहाँ महजूफ़ भी है.
जवाब देंहटाएंपिछले तीन दिनों से भुवनेश्वर गया हुआ था इस वजह से नैट से दूर रहा...आज आया, आपका ब्लॉग देखा तो जीवन धन्य हो गया...राकेश जी से बात करना और उन्हें पढना एक ऐसा अद्भुत अनुभव है जिस से बार बार गुजरने को दिल करता है...हिंदी में ऐसे रचनाकार अब ढूंढें नहीं मिलते...शब्द और भाव का ऐसा संगम अब दुर्लभ होता जा रहा है...मैं उनकी रचनाओं पर क्या कहूँ...पढ़ पढ़ कर गदगद होता रहता हूँ . इस बार की तरही ने जो समा बांधा है और आनंद दिया है उसका खुमार उतरना आसान नहीं...इस आयोजन की अभूतपूर्व सफलता के लिए आपको ढेरम ढेर बधाई.
जवाब देंहटाएंनीरज
आ.राकेश खंडेलवाल जी की अनुपम रचनाओं से प्रेम तरही का समापन यादगार तरीक़े से हुआ है.और ख़ुशी की बात है कि नई तरही कि भी भूमिका लिखी जा चुकी है.
जवाब देंहटाएं"चांदनी ने भिगो गुलमुहर का बदन, पांखुरी पर लिखा जो उसे बांचिये
जवाब देंहटाएंमाल-मन पुष्प की यों प्रकाशित हुई, जगमगाने लगे अर्चना के दिए" - वाह! प्रिय प्रकाश और मालाजी को कितनी सुन्दर भेंट है ये!
मेरी भी मंगलकामनाएं स्वीकार करें आप दोनों अर्श और माला! दिल्ली में हैं तो मिलना होगा ही.
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"लालिमायें उषा के चिबुक से उठा" -- वाह!
"उर्वशी के पगों से महावर लिए, प्रीत की अल्पनायें ..".--- अद्भुत कल्पना!
"संकुचित शब्द सीमाओं को तोड़ कर, दृष्टि से दृष्टि की जोड़ने साधना"-- अतिसुन्दर!
...और ये पद तो सम्मोहन है साक्षात्!
"रात रानी रही मुस्कुरा बांध कर, मोगरे की कली से चिकुर की लटें--क्या कल्पना है!
बन रहीं जलतरंगों सी मादक धुनें, पटलों पर गिरी ओस की आहटें --- अद्भुत!
चांदनी की किरन से लिखी चाँद ने, झील के पत्र पर नव प्रणय की कथा -- बहुत सुन्दर!
शीश अपना झुका कर तरु कह रहे, पल यही एक ठहरा रहे सर्वदा-- अद्वितीय! बहुत बहुत सुन्दर!
सृष्टि सारी मुदित होठ पर स्मित लिए, प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये" -- इतनी सुन्दर गिरह!
"बादलों से टपकती हुई ये सुधा, कह रही आओ पल मिल के हम-तुम जियें -- अहा!
दृष्टि से दृष्टि के मध्य बहती हुई, प्रीत की यह सुरा आज छक कर पियें --- निशब्द हूँ!
मिल रहें हैं धरा औ' गगन जिस जगह, आओ छू लें चलो हम वही देहरी" -- कोई क्या कहे इसे पढ़ कर!
लगता है सुरपुर से ही कोई कवि, अतीत की कविता लिखता है, गाता है...आज के समय में कहाँ संभव है ये!
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निशब्द हूँ! अभिभूत हूँ! धन्य हुई!
गुरुजी, सुबीर भैया ! आप दोनों को हृदय से धन्यवाद और नमन! यूँ ही सदा माँ सरस्वती के दुलारे रहें आप दोनों!
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नई नौकरी और कार्यजनित ट्रेवलिंग के कारण बहुत दिन से लेखन-पठन से दूर हूँ.
इस बार तरही लिख-पढ़ नहीं पाई इसका अफ़सोस है. कुछ लिखा है अभी-अभी. टिप्पणी में ही रहने लायक है, सो टिप्पणी में ही भेज रही हूँ :)
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रात्रियाँ तारकों से जड़ी हैं प्रिये, बिरहनी उँगलियों ने गिनी हैं प्रिये
तुम हवा के खटोले में चढ़ जो गए, कुछ कथाएँ वहीँ पे रुकी हैं प्रिये
सांवरे मेघ हैं पीर के डाकिये, बारिशें बिन तुम्हारे चुभी हैं प्रिये
लिख गए पेड़ जो धूप के गाँव में, पातियाँ सांझ ने झुक पढ़ी हैं प्रिये
एक जां दो बदन हम हैं सब जानते, दूरियाँ, दूरियाँ कब रही हैं प्रिये
चन्द्र की चन्द्रिका, कृष्ण की कनुप्रिया, सब ही अपने पिया से बंधी हैं प्रिये
देह की देहरी, आस की कलसियाँ, प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
सादर शार्दुला