शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

लिपि का बड़ा खेल है । देवनागरी और उर्दू ये दो लिपियां ज़रूर हैं लेकिन बोलते समय दोनों हिंदी हो जाती हैं । और इसी की पैदाइश है सौती क़ाफिया ।

कई लोगों से मिलते मिलाते पिछला बरस बीत ही गया । पिछला बरस जिसमें कि काफी कुछ हो गया । लगभग इसी समय फरवरी में ज्ञानपीठ की घोषणा हुई और एक सपना पूरा हुआ । ब्‍लाग जगत से परिचय में आये अधिकांश लोगों से पहली बार मिलवा कर गया वो साल । राकेश खंडेलवाल जी, शार्दूला दीदी, पूर्णिमा बर्मन जी, दिव्‍या माथुर जी,  दिगम्‍बर नासवा, अनुराग शर्मा, कंचन चौहान, गौतम, रवि, वीनस, सीमा गुप्‍ता,फुरसतिया जी, कुश से 2010 में मिलना हुआ ( प्रकाश और अंकित से 2009 ने मिलवा दिया था ) । बहुत सी यादें लेकर बीत गया वो साल । दो कहानियां लिखीं और दोनों ही चर्चित हुईं ( चित्रा जी ने इस बार कहा कि पंकज साल में दो या तीन से ज्‍यादा कहानियां मत लिखना । ) । कम लिखना और अच्‍छा लिखना बेहतर है बजाय अधिक और खराब लिखने के । तो उस हिसाब से चौथमल मास्‍साब और सदी का महानायक ये दोनों कहानियां पिछले वर्ष में ठीक रहीं । सदी का महानायक का नाट़य रूपांतरण हो रहा है और शायद उस पर कोई लघु फिल्‍म भी बन रही है ( जैसी मुझसे स्‍वीकृति ली गई है ) । ये वो सहर तो नहीं के साथ ही कई लोगों की नाराज़गी झेलनी पड़ी । कई अपने नाराज़ हो गये । तो एक बहुत अपने ने उपन्‍यास पढ़कर कहा कि पंकज तुम अपनी तुलना एक बार तसलीमा नसरीन और रशदी से तो करो । अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अपने खतरे होते हैं जो सब नहीं उठाते, लेकिन किसी न किसी को उठाने होते हैं ।एक और शोधपरक उपन्‍यास की भूमिका बन रही है । देखें क्‍या होता है । बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा, तो गौतम का फोन आ गया, लगा कि चलो कोई तो है जो परवाह कर रहा है इस बात की । ये पोस्‍ट गौतम के ही नाम ।

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 सौती काफिया : जैसा कि पहले ही कहा था कि इस बार होली पर सौती मुशायरा करवाने की इच्‍छा है । सौती मुशायरा आजकल तो नहीं होता । लेकिन जैसा कि एक किताब में पढ़कर ज्ञात हुआ कि पहले काफी होते थे । आजकल सौती क़ाफि़या ये शब्‍द तो चलन में है । सौती काफिया का अर्थ ये कि ऐसा काफिया जो उर्दू के हिसाब से ग़लत है लेकिन ध्‍वनि के हिसाब से सही है उसे सौती काफिया कहा जाता है । जैसे उर्दू में ख़ास  के साथ आस तथा प्‍यास  के काफिये नहीं लगाये जा सकते । क्‍योंकि खास  में जो  स है वो स्वाद  ( उर्दू का एक अक्षर ص) से बन रहा है तो आस  में   जो है वो सीन ( उर्दू का एक अक्षर س) से बन रहा है । देवनागरी में कोई फर्क नहीं दिखता लेकिन उर्दू में जब लिखेंगें तो फर्क साफ दिखेगा । इसलिये जब भी कोई शायर खास  के साथ आस, प्‍यास   को काफि़या बनायेगा तो पहले कह देगा कि '' माफ कीजिये इसमें मैंने सौती काफिया लगाया है ।''  इसी प्रकार से ख़त  के साथ मत, लत  को नहीं लिया जा सकता है । यदि ले रहे हैं तो आपको कहना होगा कि आपने सौती काफिया लगाया है ( जो ग़लत तो है लेकिन समान ध्‍वनि उत्‍पन्‍न कर रहा है अर्थात फोनेटिकली सही है, लिंग्विस्टिकली ग़लत है ) । यहां पर ये बात भी जान लें कि  आग  साथ दाग़  का क़ाफिया लगाना सौती काफिया  की श्रेणी में नहीं आता क्‍योंकि ये ध्‍वनि ( फोनेटिकली ) भी ग़लत है तथा लिपि ( लिंग्विस्‍टकली ) भी ग़लत है ।  आग  की ध्‍वनि तथा बाग़  की ध्‍वनियों में अंतर है । इसलिये मेरे विचार में आग  के साथ दाग़  का काफिया लगाना हिंदी या देवनागरी में भी ग़लत है और उर्दू में तो है ही ।

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्‍फ़ के सर होने तक

ये मतला एक बार गौतम ने प्रश्‍न की तरह उछाला था कि इसमें तो क़ाफि़या सर को बनाया गया है तो फिर आगे इस ग़ज़ल में चचा गालिब ने ख़ाक हो जाएंगें हम तुमको ख़बर होने तक, दिल का क्‍या रंग करूं ख़ूने जिगर होने तक, शम्‍अ हर रंग में जलती है सहर होने तक  जैसे प्रयोग कैसे कर लिये । कायदे में तो क़ाफिया सर से बंध गया था । दरअसल में ये मतला भी उर्दू में पढ़ने पर समझ में आता है कि वहां पर असर में जो   है वो से ( ث )  से बन रहा है तथा सर में जो  स  है वो सीन ( س ) से बन रहा है । उर्दू में  स तीन प्रकार से लिखा जाता है से, सीन और स्वाद ( ث س ص  ) और तीनों में अलग अलग ही माना जाता है ।   उर्दू को देवनागरी में लिखना बहुत मुशिकल है क्‍योंकि हम तो तीनों ही स ( से, सीन और स्वाद )  के लिये केवल   ही लिखेंगें । तो फिर अंतर तो कहीं हुआ ही नहीं । ठीक वैसे ही जैसे उर्दू में   को 6 तरीके से लिखा जाता है (जीम, ज़ाल, ज़े, ज़्हे,  ज़्वाद, और ज़ोय ج ذ ز ژ ض ظ),    को दो तरीके से लिखा जाता है ते और तोय (  ت ط  ) तथा   को दो तरीके से  अलिफ़ और ऐन ( ا ع  )   लेकिन जब आप इनको देवनागरी में लिखेंगें तो केवल और कवल ज, अ और  ही लिखेंगें । यहां पर मामला थोड़ा लिपी से जुड़ा हो जाता है इसलिये उसको समझने के लिये हमें वह लिपि भी आनी चाहिये । हालांकि मैं अभी भी इस बात का झंडा उठा कर खड़ा हूं कि जो चीज़ जिस लिपि में लिखी जा रही है उसे उसी लिपि‍ के नियमों का पालन करना चाहिये । यदि आप देवनागरी में लिख रहे हैं तो आपको देवनागरी के ही नियमों का पालन करना चाहिये । इसलिये यदि आप देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो आपको सौती काफिये कहने की इजाज़त होनी चाहिये ( जो नहीं है ) । यदि आप देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो आपको छोटी ईता की इजाज़त होनी चाहिये ( जो नहीं है ) । अब ये प्रश्‍न कि यदि ये इतने सारे ज, स, त अ हैं तो क्‍यों हैं तथा हैं तो इनका क्‍या अर्थ है । असल में ये अरबी से आये हैं जहां इनके लिये अलग अलग ध्‍वनियां हैं । लेकिन हिंदी तथा उर्दू में नहीं है ( ऐसा इसलिये क्‍योंकि देवनागरी तथा उर्दू ये दो लिपियां हैं जिनकी एक ही भाषा है हिंदी । या यूं कह लें कि हिंदी को दो प्रकार की लिपियों में लिखा जा सकता है देवनागरी तथा उर्दू, मगर बोला एक ही प्रकार से जाता है । ) । अरबी में इनको बोलते समय अलग अलग प्रकार से ज़बान तथा गले का प्रयोग होता है लेकिन उर्दू और हिंदी में नहीं होता । यदि आपने किसी को पवित्र कुरान पढ़ते हुआ सुना है तो आप समझ रहे होंगें कि वे ध्‍वनियां किस प्रकार निकाली जाती हैं जो इन अक्षरों को अलग अलग करती हैं । जैसे क्‍यों वुसअ़त शब्‍द में   अक्षर के नीचे नुक्‍ता लगा है जबकि हम तो ये जानते हैं कि नुक्‍ता तो केवल क,ख, ज, ग, फ में ही लगते हैं । लेकिन ये नुक्‍ता बताता है कि   का उच्‍चारण अब विशिष्‍ट हो गया है अब उसे गले के विशेष भाग से बोलना है ।

सौती मुशायरा : तो इस प्रकार से सौती काफिया का अर्थ निकलता है । लेकिन ये सौती मुशायरा ,ये तो कम सुना हुआ लगता है । दरअसल में सौती मुशायरे के बारे में जो कुछ मुझे ज्ञात हुआ है वो ये है कि ये भी तरही मुशायरे की ही तरह होता था जिसमें कि बहर रदीफ और काफिया दे दिया जाता था । जिस पर गज़ल लिखनी होती थी । लेकिन ग़ज़ल और शेर की परिभाषा के उलट यहां पर शेर इस प्रकार निकालने होते थे जिनमें मिसरे का कोई भी अर्थ नहीं निकले । केवल बहर के वज्‍न के हिसाब से शब्‍द रख रख कर मिसरा इस प्रकार बनाया जाये कि उसका कोई भी अर्थ नहीं हो । यद‍ि कोई अर्थ बन गया तो शेर खारिज । यदि रदीफ काफिये से शब्‍दों का कोई तारतम्‍य मिल गया तो शेर खारिज । गरज ये कि आपको केवल वज्‍न के बारे में सोचना है, कहन के बारे में बिल्‍कुल भी नहीं । इसके बारे कहा जाता है कि ये बहुत ही मुश्किल काम होता था । तथा इससे बहर के बारे में काफी जानकारी मिल जाती थी । मुश्किल काम तो मुझे अभी इसलिये भी लग रहा है कि मैं अभी तक एक मिसरा नहीं बना पाया हूं । ऐसा जिसमें सारे रुक्‍न एक दूसरे से रूठे रूठे हों । कोई किसी का पूरक नहीं हो । इस प्रकार की ग़ज़ल सुनने वालों को खूब आनंद देती हैं इसलिये इस बार होली पर सौती तरही का आयोजन किया जायेगा ताकि फुल बेवकूफी से भरी ये ग़ज़लें आनंद दे सकें ।

बहरे वाफर :  बहरे वाफर पर इस बार का होली का सौती मुशायरा होना है  । इस बहर पर लगभग नहीं के बराबर काम उर्दू तथा हिंदी में मिलता है । बहर का रुक्‍न हजज जैसा है । बस फर्क ये है कि बहरे हजज में जहां 1222 होता है वहीं इसमें 12112 होता है अर्थात हजज की तीसरी दीर्घ मात्रा को दो लघु में बांट दिया है । ध्‍वनि लगभग एक जैसी है दोनों बहरों की । गुनगुनाने में एक सी ही लगती हैं । जैसे कामिल और रजज लगती हैं । क्‍योंकि वहां पर भी एक दीर्घ को तोड़ कर दो लघु बना कर बहर को अलग अलग कर दिया है और यहां पर भी वही है । खैर तो इस बार की योजना बहरे वाफर पर सौती तरही करने की है । यदि आप लोग वाफर मुसमन सालिम पर कोई सौती मिसरा लिख पाएं तो भेजें । जैसे

जो तुम  न अगर, कहीं से न दिल, कभी ये ख़बर, नहा के चलो

12112-12112-12112-12112

अब ये तो एक उदाहरण है जो बहुत जल्‍दी में यहीं पर बनाया है । आप लोग तो माहिर लोग हैं मुझे भरोसा है कि टिप्‍पणियों में ही मिसरे मिलेंगें और उन्‍हीं में से हम तय कर लेंगें होली के सौती मुशायरे का मिसरा क्‍या होगा । जल्‍दी करें क्‍योंकि होली सर पर है अब तो एक माह से भी कम का समय बाकी है ।

और अंत में गीत ( झेला जाये )

63 टिप्‍पणियां:

  1. सौती मुशायरे की बात बडी रोचक लगी।

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  2. काफिये का बारे में इतनी अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद. "सर' और "असर" जैसे काफिये कई बार मिलते हैं और पता नहीं चल पाता कि काफिया ऐसे क्यों लिया है.
    मेरे ख्याल से अगर उर्दू लिपि आती हो तो गज़ल को उर्दू में लिख कर भी तकती कर ली जाए और फिर भले देवनागरी में प्रकाशित कर दी जाए. उससे उर्दू जानने वालों को भी कोई आपत्ति नहीं होगी.
    क्या उर्दू में तकती के अलग नियम होते हैं?

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  3. वाह वाह अभी तो गीत सुन कर जा रही हूँ। ये सौती वाली बात अपनी त्प समझ से बाहर है मगर बेवकूफियाँ करना तो अपनी आदत है -- एक बेवकूफी तो ये लो----
    कभी तू सुना, हुआ करता, कहाँ है नज़र, यहाँ से चलो हा हा हा। अब भागती हूँ । अभी बैठे बैठे ही ठेल दिया। शुभकामनायें।

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  4. इतनी जानकारी एक ही पोस्ट में. वाह!

    सौती मतलब दिमाग का दही होना तय है.

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  5. अद्‍भुत पोस्ट गुरूदेव! लीपियों की इस गुत्थम-गुत्था में हमजैसे नौसिखवे तो मारे ही जायेंगे। और अपने मस्त अंदाज में जो गा रहे हैं आप "न शिकवे हैं न वादे....ऐसा ही रूप निगाहों में था जैसा मैंने सोचा था" तो किसी सलोने बादल की याद आयी :-)

    सौती में मजा आयेगा खूब। एक मतला जैसा कुछ यूं सूझा:-

    गुनाह हुआ, तमाम सफर, निगाह मिली, निसार किया
    नकाब उठी, दिवार गिरी, निलाम हुआ, करार किया

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  6. वाह! आनन्द आने वाला है, फ़ागुन का!!!

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  7. फिर से आता हूं गुरुदेव। फिलहाल तो मिसरा बनने की कोशिश कर रहा था-

    बहार नहीं, दुकान खुली, मजाक हुआ, किताब पढ़ो

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  8. सौती मतलब दिमाग का दही

    हा हा हा

    सुलभ जी क्या बात कह दी

    होली का रंग अभी से चढ गया क्या ?

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  9. १२११२, १२११२, १२११२, १२११२

    ओके

    मजाक तेरा, मजाक मेरा, ये राज़ मेरा, बहार कहाँ
    जहाज उड़ा , पतंग उड़ी, पलंग उड़ी, दिमाग दही

    हा हा हा

    कैसा रहा ?

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  10. और पोस्ट में जो जानकारी मिली है जो दिमाग के कपाट खुले हैं वो तो ,,,,

    क्या कहूँ कोई बढ़िया शब्द सूझ ही नहीं रहा जो

    उत्तम
    सर्वोत्तम
    बढ़िया
    लाजवाब
    जय हो
    जिंदाबाद
    अदभुद
    अद्धुत
    वाह वाह

    आदि का निचोड़ हो ...:(

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  11. अपने शेर का रदीफ काफिया बताना तो भूल ही गया था

    मजाक तेरा, मजाक मेरा, ये राज़ मेरा, बहार कहाँ
    जहाज उड़ा , पतंग उड़ी, पलंग उड़ी, दिमाग दही


    काफिया - ई की मात्रा
    रदीफ --- दिमाग दही

    हर शेर में दिमाग का दही हो जाएगा
    हा हा हा

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  12. सौतौ मुशायरा जिसे समझ में आ गया वो लिखें... मिसरा खोंजें, तरही लिखें.....!!

    फिलहाल मुझे तो ये आपके साथ गौतम भईया की इस तरह हँसती फोटो देख कर और ये पोस्ट उनके नाम है ये पढ़ कर सौतिया डाह हो रहा है......!! हटा लीजिये ये फोटो मेरी नज़रों के सामने से वर्ना मुझे इस पोस्ट पर आने के बाद सीधे Ctrl+End प्रेस कर के आगे की टिप्पणियाँ देखनी पड़ेंगी :-/

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  13. हे हे हे

    दीदी आपने कह दिया
    मैं चुप रह गया था मगर जला भुना तो मै भी हूँ

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  14. Bahut Hairaan hoon, Pareshan hoon. Ye to sach mein Dimaag ki.....!!
    soch thithak kar ruki hui hai...

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  15. पंकज जी ,
    ये मेरे बस की तो बात है नहीं लिहाज़ा मैं तो बस पढ़ूंगी .

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  16. बहुत उम्दा जानकारी दी आपने सौती क़ाफिए के बारे में ।
    मुकेश के गीत को अच्छी तरह निभाया आपने।

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  17. जलने वाले तो जलते रहेंगे...हाथों को अपने मलते रहेंगे... :-)

    वैसे गुरूदेव, जहाँ आम बोलचाल और उच्चारण का संबन्ध है तो फिर ऐसे में हिंदी बोलने वाले इलाकों में कहीं भी बाग को बाग़ नहीं बोला जाता है और न ही मैंने किसी पत्रिका में, हिंदी कविताओं में, कहानियों में बाग को बाग़ लिखा देखा है। दाग़ तो फिर भी अमूमन मिल जाता है, किंतु बाग़ तो बहुत ही कम द्रष्टव्य है। बहस के लिये ही सही, ऐसे में क्या किया जाये। अब तो लगभग "सुबह" और शहर-जैसे शब्द "12" के वजन पर खुलेआम लिये जाने लगे हैं ग़ज़लों में। ऐसे में इस पोस्ट पर और विचार आ जाये, तो अच्छा रहेगा।

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  18. गौतम भैया,

    जलने वाले तो जलते रहेंगे...हाथों को अपने मलते रहेंगे... :-)


    खूब नमक छिड़का ...

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  19. कुछ और प्रयास करता हूँ


    ------------------------------------

    अचार तेरा, विचार मेरा,मजार दिया, मिनार क़ुतुब

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    गिरे थे कहाँ, कबाब हुए , उठा के पटक, उधार मेरा

    ------------------------------------

    चिराग दिया, शराब पिया, नकाब तेरा, गुलाब सड़ा

    ------------------------------------

    बेहोश हुए, चले थे जिधर, जमाल मियां, लपेट दिया

    ------------------------------------

    निकाल कलम, पतंग उड़ा, महान हुए, टहल के गए

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  20. गौतम ,
    बाग और बाग़ २ अलग लफ़्ज़ हैं बाग़ = garden ,
    और
    बाग = लगाम
    लिहाज़ा अगर बोलचाल में कोई लफ़्ज़ ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है तो कम अज़ कम लिखने में तो सही होना चाहिये ताकि लोगों को सही अल्फ़ाज़ मालूम तो हों
    सुबह और शहर भी ग़लत हैं subah की जगह subh और शहर की जगह होना तो शह्र ही चाहिये ,,जिस ज़बान का लफ़्ज़ है अगर उसे वैसे ही बोला और लिखा भी जाए तो सही होगा न
    परंतु ये मेरे विचार हैं ,तुम को असहमति रखने का पूरा अधिकार है क्योंकि मैंने भी साधिकार तुम से ये बात कही है
    ख़ुश रहो !

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  21. मजा आ गया सौती काफ़िए की जानकारी पाकर। सुबीर जी को बहुत बहुत आभार। मैंने भी एक कोशिश की है सब को देखते हुए।

    कहाँ तेरा दर, न खा तू जहर, यही मेरा घर, नहीं है वो नर।
    न देख उधर, ये लम्बा सफ़र, जो करना है कर, खुदा का शहर।

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  22. सभी मित्रों का स्वागत इस दिमाग के दही वाले कुंड में|

    पंकज जी एक बार फिर बात-बात में कुछ सिखा गए हैं आप| नमन श्रीमान|
    मित्रों ने तो काफी कुछ कमाल पहले ही दिखा दिये हैं| मेरे लिए ये पहला मौका है|
    यार फालतू लिखना भी कितना मुश्किल है ना?
    स्मार्ट इंडियन भाई, राजीव भाई, निर्मला जी, सुलभ भाई, गौतम भाई [जंच रहे हो बन्धु], केथेलिओ भाई, रवीकान्त भाई, वीनस प्रा, कंचन जी, देवी नागरानी जी, इस्मत जी, मनीष भाई आप सभी को पढ़ने के बाद कुछ हिम्मत जुटा के कुछ कोशिश कर रहा हूँ, डर है कहीं मेरा मिसरा खारिज न हो जाए:

    फटाक बजा दही का बड़ा अमीर घड़ा बरात भगा

    हे साहित्य के शुभ चिंतको
    आपसे यही है प्रार्थना
    मेरी इज्जत रख लेना
    और वीनस वाले 'दिमाग के दही वाले कुंड' में
    मुझे डुबो ना देना
    हहहहहह....................। :)
    भाई होली में दोस्त लोग ऐसा कर देते हैं ना...............

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  23. गुरु जी प्रणाम,

    लफ्ज़ पत्रिका में आपका हास्य व्यंग्य "कवि फिर भी विनम्र है"
    पढ़ा
    खूब मजेदार है

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  24. सौती मुशायरे के बारे में आप से सुना था मगर काफिया नया लगा , और बखूबी भाया भी बहुत स्वागत है इस पोस्ट का ! बहुत ही गूढ़ बातों से अपने सभी को अवगत कराया ! गौतम भाई की बातों से सहमत हूँ थोडा बहुत की बाग़ और बाग जैसे ही शब्द हिंदी भाषी क्षेत्र में कम पढने को मिलते हैं , इस्तेमाल में बाग़ को बाग ही लिखते हैं यहाँ तक की लगभग सारी मुख्य पत्रिकाओं में भी यही होता है ! मगर दूसरी तरफ इस्मत दी की बात हो भी ख़ारिज नहीं कर सकते हम सिरे से उनका यह कहना बिलकुल सही है कि सही शब्द का इस्तेमाल सही तरीके से करना ही चाहिए ! मगर बात अब आ जाती है बोलचाल की और हम इसी चीज को लेकर मारे जाते हैं ! इस इस्तेमाल होने वाली शब्दों का क्या किया जाये , एक निश्चित पथ मिले तो आगे बढ़ा जाये ! क्यूंकि दोनों चीजों को इस्तेमाल करने वाले कभी कभार टोक देते हैं ! यही मुख्य उलझन है ! इस बात को लेकर और बाते गुरु देव आपकी तरफ से आनी चाहिए , ताकि बातें और स्पष्ट हो !

    मुशायरे के मिसरे के लिए बाद में आऊंगा ! उबड़ खाबड़ रस्ते पर चलना बहुत मुश्किल हो जाता है , कभी कभी !

    आपका
    अर्श

    जवाब देंहटाएं
  25. इस्मत आपा से खूब लंबी बात हुई इस मुद्दे को लेकर। जहाँ एक तरफ उनकी बात से सहमत हूँ कि जो लफ़्ज़ जिस भाषा का हो, कम-से-कम उसे लिखते समय उस भाषा के कायदे से लिखना चाहिये...वहीं दूसरी तरफ बात फिर से घूम कर आती है कि हम सब कहते हैं कि आम हिंदुस्तानी बोलचाल की भाषा में लिखना चाहिये। फिर कितने आम हिंदुस्तानी बाग को बाग़ उच्चरित करते हैं? अगर भाषा-विशेष के शब्दों को उस भाषा के कायदे का पालन करने की बात आती है तो क्यों नहीं आम इंगलिश शब्दों का इस्तेमाल करते समय, जो कि ग़ज़लों में भी खूब प्रयुक्त होते हैं, हम इंगलिश प्रनाउंशियेशन के कायदे को ध्यान में रखते हैं। इंगलिश के कितने ही शब्द...बशीर बद्र की ही ग़ज़लों को लें तो शावर, इंजिनियर जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है उन्होंने। इंगलिश भाषा के कायदे को लें तो दोनों शब्दों के आखिर में आने वाले "र" सायलेंट होना चाहिये। क्या ऐसा करते हैं हम? फिर उर्दू के बड़े शायरों ने ब्राह्मण को बिरहमन और ऋतु को रुत कहने की लिबर्टी ले रखी है...तो हम आम बोलचाल की भाषा के मद्देनजर, ये लिबर्टी क्यों नहीं ले सकते?

    ऊपर पोस्ट में गुरूजी ने फोनेटिक्स की बात की है, तो हिंदुस्तान के ऐसे सारे जगह चाहे हजारीबाग हो, लालबाग हो, पटना का कंकड़बाग हो...सबके साइनबोर्ड, नक्शे, छपे हुये नाम और बोलते वक्त इनमें से किसी के साथ बाग़ नहीं इस्तेमाल होता है।
    बगीचा या बागीचा से निकला हुआ बाग़ या बाग उर्दु से ब्हुत पहले संस्कृत में भी प्रयोग हुआ है। साधु-संतों के तपस्या या समाधिस्थल वाली जगहों के लिये पुरानी हिंदी में छतबाग का इस्तेमाल देखा जा सकता है।

    हाँ, इस मामले में ये जरूर कहा जा सकता है कि ग़ज़ल-विधा चुंकि अरबी और ऊर्दु से आयी है तो नियमों को देखते हुये बहस की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती! :-)

    शेष गुरूजी, इस विषय पर और कुछ कहें तो मजा आ जाये!

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  26. मैं तो खुद एक विद्यार्थी हूँ, पर इतना जरूर कहूँगा की गौतम की बात में दम लगता है| बाकी हमारे अग्रजों को हमारा मार्गदर्शन करना चाहिए| पंकज जी से तो इस विषय पर काफी बात हो चुकी है| पंकज जी आप की बात की प्रतीक्षा करते हैं|

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  27. बहुत अच्छी चर्चा चल रही है, नई नई बात पता चल रही है

    इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मेरा यह विचार और पुख्ता हो गया की अगर मैं चाहता हूँ की ग़ज़ल मुझे अपनाए तो इसके लिए उर्दू लिपि का प्रारंभिक ज्ञान तो प्राप्त करना ही पड़ेगा

    कुछ दिन से प्रयासरत था और फिर मन माँगी मुराद पूरी हो गई

    तो सोचा अब इस पोस्ट के बाद यहाँ भी शेयर करना चाहिए, जिससे आप सभी भी लाभ प्राप्त कर सकें


    जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी उर्दू लिपि का एक करास्पांडेन्स डिप्लोमा कोर्स करवाती है जो तीन महीने का है

    जानकारों से पता किया है तो पता चला की अगर बिना किसी सहायता के भी कोर्स किया तो हर्फ़ जोड़ जोड़ के पढ़ना तो आ ही जायेगा


    जानकारी -

    कोर्स अविधि - ३ माह
    शुल्क - १०० रुपये मात्र (ड्राफ्ट भेजना है)
    पुस्तक - निःशुल्क भेजी जायेगी
    परीक्षा - घर से ही देनी होगी
    प्रमाण पत्र - उर्दू डिप्लोमा का प्रमाण पत्र मिलेगा

    अधिक जानकारी, सेलेबस व फ़ार्म प्राप्त करने के लिए यह लिंक देखें

    http://jmi.nic.in/cdol/ucc.htm

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  28. गौतम शायद मैं अपनी बात को सही तरीक़े से पेश नहीं कर पाई
    मेरा मतलब है कि एक नुक़्ता लफ़्ज़ के मानी बदल देता है जैसे बाग़ =उपवन लेकिन बाग = लगाम
    ऐसा ही फ़र्क़ जंग और ज़ंग
    अरबी का लफ़्ज़ है "जलील" = बड़ा ,बुज़ुर्ग,अल्लाह का एक नाम लेकिन अगर नुक़्ता लग गया तो
    "ज़लील" लिहाज़ा शब्दों का कम से कम लेखन में तो हम सही इस्तेमाल करें ,हमें मालूम तो होना ही चाहिए कि सही लफ़्ज़ क्या है
    जहां तक प्रश्न ब्राह्मण को बिरह्मन करने का है यहां लफ़्ज़ को तोड़ा ज़रूर गया है लेकिन इस से उस के मानी में कोई फ़र्क़ नहीं आया है
    मैं उसे सही नहीं ठहरा रही हूं लेकिन ये दोनों बातें अलग हैं
    वैसे मैं मुंतज़िर हूं उस्तादों की राय की भी

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  29. मैं दिल्ली में था जब गुरुदेव आपकी ये पोस्ट देखी...पढ़ते ही समझ गया के इस बार गुरु-चेले ने मिलकर हम सब को चक्कर में डालने का कार्यक्रम बना लिया है तभी दोनों के दोनों हमारी शक्लें देख कर बुक्का फाड़ के हंस रहे हैं...(ऊपर वाला चित्र गवाह है)...हंस लो हंस लो हमारे भी दिन आयेंगे...
    वैसे हम तो इस सौती मुशायरे से डरने वाले हैं नहीं क्यूँ के हमारी तो सभी ग़ज़लें सौती मुशायरे की शर्तों का बखूबी निर्वाह करती नज़र आती हैं...किसी को सुनाओ तो पूछता है भांग खा के लिखते हो क्या? कुछ पल्ले ही नहीं पड़ती...

    मुकेश का गाना आपने कुछ ज्यादा ही झूम के गया है...इतना झूम के तो मुकेश ने "बरखा रानी जरा जम के बरसो मेरा दिलबर जा न पाए झूम कर बरसो...." वाला गाना भी नहीं गाया होगा. वैसे इस तरह से आपको गाना गाना सिखाता कौन है?
    (हमारा मतलब वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं...हमारा मतलब है के अगर आप बता दें तो हम भी उनकी शरण में चले जाएँ...)

    नीरज

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  30. कम समझ या कुछ भी कहें , मगर मैं इस बात से इतफाक़ रखता हूँ की जो शब्द जैसा है उसका वही रूप इस्तेमाल में लाया जाये ! अपभ्रंश तो शब्दों का बहुत पुरानी बात है ! मगर बात यहाँ लफ़्ज़ नुक्ते के इस्तेमाल की है , इस का इस्तेमाल बहुत ही सावधानी पूर्वक करनी चाहिए ! मुझे याद है की एक बार स्वर्गीय महावीर जी ने मेरी एक ग़ज़ल पर इस विषय में मुझसे कहा था की इसके इतेमाल में हमेशा ही सावधानी बरतो , जो लाज़मी है हलाकि हम अभी भी उर्दू के बारे में बहुत नहीं जानते लिहाज़ा गलत होने की संभावना बहुत रहती है ! मगर जब हम जानते हुए जान बुझकर शब्द की मौलिकता को ख़त्म कर देंगे तो उसके साथ न्याय नहीं है ! अगर हम बाग़ को बाग कहें तो ज़रूर गलत है ! यहाँ शब्द इतेमाल करने की मनाही नहीं है मनाही होनी चाहिए उसके गलत इस्तेमाल से ! अगर बशीर बद्र साब ने इंजिनियर शब्द का इतेमाल किया है तो वो उसी के लिए है ना की इसका अर्थ बदल गया ! हम खुद कभी कभी शहर को शह्र इस्तेमाल करते है अपनी ग़ज़लों में अपनी सुविधा के लिहाज़ से ! आखिर क्यूँ ! और जब उर्दू जबान में इसका विरोध होता है तो हमारे पास कोई तर्क नहीं रहता ! अच्छा लगता है जब शे'र सामान्य बोल चाल की भाषा में कही जाये मगर शब्द अपने मूलरूप में रहे और अर्थ ना बदले तो सही होगा !

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  31. इस्मत दीदी और गौतम भईया के बीच की बातें जानकारी से भरी हैं। गौतम भईया जो कह रहे हैं वो बात अपनी जगह सही है, मगर इस्मत दीदी का बिंदु शायद ये है कि हमें कम से कम जानकारी तो होनी चाहिये और फिर बात ये भी है शायद कि शावर का र सायलेंट करने न करने से दूसरा शब्द नही बनता मगर बाग़ का नुक्ता हटा देने से शब्द और अर्थ बदल जाते हैं।

    ये जानकारी मुझे नही थी। मगर ये जानकारी ज़रूरी है। हम जानकर छूट ले लें, वो अलग विषय है मगर फिलहाल आज से ये बात पता चली, जो ज़रूरी थी।

    शुक्रिया दीदी और वीर जी के भी तर्क ध्यान देने वाले हैं वैसे.....!!

    सौती समझ में आया या नही पोस्ट से अन्य जानकारियाँ अच्छी मिलीं।

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  32. इस्मत जी मुझे भी आज पहली मर्तबा ही मालूम पड़ा ये बाग वाला मामला| मुझे तो नुक्ता लगाना भी नहीं आ रहा| इस जानकारी को हमारे साथ बांटने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया इस्मत जी|

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  33. बहुत बढिया चर्चा चल रही है यहां तो. सार्थक बहस, जिससे हम सब को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा.
    मैं ग़ज़ल के क्षेत्र से जुड़ी हुई तो नहीं हूं, लेकिन भाषा के क्षेत्र से जुड़ी हूं. और यहां मसला भाषा का ही है, इसीलिये कुछ लिखने की हिम्मत जुटा पा रही हूं.
    हिन्दी-उर्दू शब्दों के प्रयोग से जुड़ी तमाम टिप्पणियां पढीं. गौतम जी जहां भाषाई आज़ादी चाहते हैं, वहीं इस्मत ने भाषा की शुद्धता बचाये रखने की बात कही है. मुझे लगता है कि इस्मत सही कह रही हैं.किसी भी भाषा के शुद्ध रूप को कम से कम लिखते समय जीवित रखना बहुत ज़रूरी है. फिर यहां तो मामला उर्दू भाषा का है, जहं केवल एक नुक़्ते से ही शब्द के अर्थ बदल जाते हैं. इस्मत ने कई उदाहरण दिये हैं कुछ मैं भी दे ही दूं-
    ज़ीना= सीढियाँ, जीना= ज़िन्दा रहना
    आज़= प्रचण्ड इच्छा, लोभ, आज= today
    बेगम= रानी, बेग़म= बिना ग़म का
    गुल= फूल, ग़ुल= शोर-ग़ुल
    राज= राज्य, राज़= रहस्य
    जरा= बुढ़ापा , ज़रा= थोड़ा सा
    गज =हाथी, ग़ज= नाप की इकाई
    ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं. अब ऐसे में हम नुक़्ते वाले श्ब्दों को नज़रंदाज करेंगे तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है.
    कुछ दशक पहले हिन्दी में नुक़्ते वाले शब्दों का चलन बन्द किया गया था, लेकिन ऐसा इसलिये किया गया था, क्योंकि उस वक्त की टायपिंग मशीनों में नुक़्ते की व्यवस्था नहीं थी. तब शब्द को उसके एक ही अर्थ में लेने की प्रथा भी शुरु हुई थी, मसलन यदि ’बाग’ लिखा गया है तो उसे केवल बगीचा ही समझा जायेगा, और यदि बागडोर लिखा है तो उसे शासन के परिप्रेक्ष्य में लिया जायेगा.
    लेकिन आज जब हमारे पास किसी भी भाषा को लिखने के आधुनिकतम साधन हैं , तब हम अशुद्ध भाषा को ही क्यों आगे की पीढियों तक पहुंचायें?
    गौतम जी, बिरहमन शब्द ब्राह्मण का तद्भव रूप है. इस श्ब्द का अर्थ भी ब्राह्मण ही है, लिहाजा स्वीकार्य है.
    पंकज जी अपने मत से अवगत करायें, तो बात बने.

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  34. Itni saarthak bahas chal rahi hai ki padh kar bahut kuch seekhne ko mil raha hai.....
    Aur Souti mushaayra to kamaal ka hone waala hai.
    Holi hai to Guru JI Kuch haasy ki niyam bhi lagaa den...
    Main bhi abhi Dubai mein nahi hoon... Mobile mein is post aur comments padhne ka aanand aur gyan le raha hun...
    Dubai loutne tak hamaari bhi raam raam..

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  35. इतनी गंभीर पोस्‍ट पर चर्चा चल रही हो तो 50 वर्ष से अधिक आयु वालों को छूट मिलनी चाहिये। वो छूट लेते हुए कहता हूँ कि ये होली के मौके पर सौतन की बात विचारणीय प्रश्‍न है।
    शब्‍दों के प्रश्‍न पर तो इतना ही कहूँगा कि किसी भी भाषा के मानक शब्‍दकोष में सम्मिलित सभी शब्‍द उसी भाषा के व्‍याकरण से नियंत्रित होंगे। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो हिन्‍दी के बहुत से शेर खारिज हो जायेंगे क्‍योंकि हिन्‍दी ग़ज़लों में अक्‍सर उर्दू शब्‍दों का बहुवचन हिन्‍दी व्‍याकरणानुसार बनाया जाता है जो ग़ल़त सिद्ध हो जायेगा।
    @नीरज भाई
    ये सौती ग़ज़ल तीन पत्‍ती के मुफ़लिस की स्थिति है, ग़ज़ल कहने के मामले में पूरी मुफ़लिसी सामने आयेगी तो सौती ग़ज़ल अच्‍छी बनेगी। मैं कोशिश कर रहा हूँ अपने मुफ़लिसी के ज़माने के कटोरे याद करने की, आप भी कीजिये।

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  36. यहाँ उपस्थित सभी छोटे बड़े साहित्य सेवकों का पुन: सादर अभिवादन|

    भाषाई संस्कारों को यथावत रखने को लेकर यहाँ कही गयी बातें बिल्कुल ही सही हैं| इस में गलत कुछ भी नहीं हैं| बाद में दूसरे मित्रों ने भी काफी कुछ प्रकाश डाला है जो कि निस्संदेह प्रशंसनीय है| कई सारी बातें हमारे लिए नई हैं यहाँ पर| हमारी जानकारी में इजाफा करने के लिए उन सभी का सहृदय आभार| पर इन सब के बावजूद करोड़ों लोगों द्वारा अरबों खरबों बार कहा / लिखा गया अब गलत तो साबित नहीं हो सकता ना|

    "रामायण सत कोटि अपारा" - सही है ना|
    महाकवि तुलसीदास जी या उन्हें जनकवि कहना ज्यादा स्युटेबल लगता है, के पहले और बाद में न जाने कितने सरस्वती पुत्रों ने इस क्षेत्र में प्रयास किए हैं| फिर तुलसीदास जी की रामायण ही क्यूँ अधिक प्रासंगिक है? उत्तर हम सभी जानते हैं|

    आज भाषा जिस क्षरण काल से गुजर रही है वहाँ हमें भूतकाल की तरफ मुड़ना चाहिए या वर्तमान को सहेजते हुए भविष्य के लिए सदुपाय करने चाहिए? इस पर भी विचार करने की परम आवश्यक्त है|

    ये विचार प्रक्रिया है, कोई निष्कर्ष नहीं है| सही बात जो होगी वो ही आगे बढ़ेगी| और वही सही पैमाना भी है किसी भी बात के सही या गलत होने का|

    एक और बात - आप सभी से जानना चाहूँगा - खास कर आज के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए :-

    आज के दौर में
    पब्लिक को साहित्य से जुडने की जरूरत है
    या
    साहित्य को पब्लिक से जुडने की जरूरत है?

    मैंने अपने मन की बात कही है, आप लोगों के मन की बात समझने की प्रतीक्षा है|

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  37. नवीन जी ,
    भाषा के प्रति आप की चिंता बिल्कुल जायज़ है लेकिन प्रश्न भूतकाल में जाने का नहीं बल्कि भाषा की जो विरासत हमें हमारे बुज़ुर्गों ने सौंपी है वो उसी सही रूप में अगली पीढ़ी को सौंप कर ज़िम्मेदारी निभाने की है ,
    जहां तक सवाल जनता का साहित्य से या साहित्य का जनता से जुड़ने का है तो मेरी छोटी सी बुद्धि के अनुसार दोनों बातें एक दूसरे की पूरक हैं यदि जनता अच्छा और मेयारी साहित्य पढ़ना चाहेगी तो साहित्यकार वही लिखेगा और
    दूसरी ओर अगर साहित्य अच्छा लिखा जाएगा तो जनता की पसंद भी मेयारी होगी क्योंकि ख़राब लेखन उपलब्ध ही नहीं होगा

    लेकिन इन सब के बाद भी ये बात स्पष्ट करना चाहूंगी कि जो कुछ लिखा है मैंने ये मेरी निजी सोच है ,सहमति असहमति का सभी को समान अधिकार है

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  38. मेरा मानना है कि भाषा किसी का स्‍वतंत्र अधिकार नहीं है और भाषा के मानक स्‍वरूप का सम्‍मान करना हम सभी का दायित्‍व है। उर्दू में अरबी से जो उच्‍चारण आये हैं उन्‍हें अगर हिन्‍दी में उच्‍चारित करने के भेद ज्ञात नहीं हैं तो ऐसे उच्‍चारणों को हिन्‍दी भाषा में सम्मिलित करना भी ग़ल़त है। नुक्‍ता तो हिन्‍दी में सम्मिलित है और मानक शब्‍दकोषों में भी है लेकिन अरबी लिपि के अन्‍य भेद हिन्‍दी में उच्‍चारित करने का समुचित प्रावधान न होने से अरबी फ़ारसी के शब्‍दों को हिन्‍दी शब्‍दकोष में सम्मिलित करते समय ध्‍यान रखा गया होगा और अगर ऐसा नहीं किया गया है तो यह एक चूक रही है जिसे सुधारा जाना आवश्‍यक है।
    मुझे लगता है कि प्रश्‍नाधीन चूक उनसे होती है जो उर्दू शब्‍दों को समझे बिना ग़ज़ल में बतौर काफि़या इस्‍तेमाल करते हैं।
    पोस्‍ट में जो उदाहरण दिये गये हैं उनमें ए कस्‍पष्‍ट भेद है काफि़या के हर्फ़ से पहले नुक्‍ता होने न होने का और यह तभी मायने रखेगा जब काफि़या मात्रा पर न होते हुए हर्फ़ पर हो।

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  39. मुख्य मुद्दा बहस पैदा करना ही था। वर्ना गुरूजी इतनी मेहनत से पोस्ट लिखते हैं और हमसब चलताऊ टिप्पणियां करके निकल लेते हैं। व्यक्तिगत रूप से तमाम सवाल उठाने के बावजूद मैं ग़ज़ल-विधा को उर्दु अदब में लिखने का ही हिमायती हूँ। प्रसिद्ध शायर तुफ़ैल चतुर्वेदी जी के दो शेर सुनाना चाहता हूँ:-

    सीधी-सादी शायरी को बेसबब उलझा लिया
    रात फिर हमने ग़ज़ल पर बहस में हिस्सा लिया

    हम कि नावाकिफ़ थे उर्दू ख़त से पर ग़ज़लें कहीं
    मोम की बैसाखियों से दौड़ में हिस्सा लिया

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  40. इस्मत जी लेखन को ले कर आप ने अपने तजुर्बे से बहुत ही गहरी बात कही है| तिलक भाई साब और गौतम ने भी कहा है की गजल को उर्दू भाषा के अनुसार ही लिखा जाए| ऐसे में मेरे जैसे व्यक्ति को जो कि देवनागरी तक ही सीमित हैं उन्हें अभी निष्कर्ष की प्रतीक्षा करना ही श्रेयस्कर रहेगा|

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  41. @नवीन जी
    मेरे कहने का आशय यह कदापि नहीं कि ग़ज़ल उर्दू में ही कही जाये। ग़ज़ल तो इंगलिश में भी कही जा रही है। किसी भी ऐसी भाषा में कही जा सकती है जो अरकान, रदीफ़ और काफि़या का पालन करने देती हो। मेरा सीमित आशय यह है कि यदि ऐसे शब्‍द प्रयोग में लाये जाते हैं जो ग़ज़ल कहने की भाषा के मानक शब्‍दकोष में न हों और अन्‍य भाषा से लिये गये हों तो उन शब्‍दों के प्रयोग में सावधानी आवश्‍यक होगी जिससे उस भाषा के नियमों का पालन हो सके।

    उदाहरणस्‍वरूप उर्दू का आस्‍मां हिन्‍दी में आसमान हो गया और उसका बहुवचन हिन्‍दी में आसमानों तो मान्‍य रहेगा लेकिन उर्दू ग़ज़ल में यह अस्‍वीकार्य है वहॉं आस्‍मां का बहुवचन उर्दू व्‍याकरण से नियंत्रित होगा।
    ऐसा करना ग़ल़त होगा कि शब्‍द आप एक भाषा का लें और व्‍याकरण अन्‍य भाषा की। इसलिये हिन्‍दी में ग़ज़ल कहने का सुरक्षित उपाय तो यही रहेगा कि हिन्‍दी के मानक शब्‍दकोष में सम्मिलित शब्‍द ही प्रयोग में लाये जायें। कोई ऐसा शब्‍द जो हिन्‍दी के मानक शब्‍दकोष में नहीं है उसपर हिन्‍दी व्‍याकरण का प्रयोग त्रुटिपूर्ण होगा अगर ऐसा प्रयोग उर्दू व्‍याकरण में अनुमत्‍य नहीं है।
    यह समस्‍या मुख्‍यत: काफि़या के प्रयोग में आती है।

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  42. एक बात और जो ध्‍यान रखने की है वह यह है कि हिन्‍दी में ग़ज़ल का कोई पृथक व्‍याकरण नहीं है और यह उर्दू के व्‍याकरण से ही नियंत्रित होती है।

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  43. बाकी बातें तो पोस्‍ट में लिखूंगा लेकिन आज बहुत दिनों बाद लगा कि ये ब्‍लाग जिस उद्देश्‍य को लेकर ( विचारों का आदान प्रदान) बनाया गया था उस पर अभी भी चल रहा है । सार्थक टिप्‍पणियां, जिनमें केवल ये नहीं हो कि बहुत अच्‍छा या अंग्रेजी में नाइस, कुछ विचार हों और उन पर एक सार्थक चर्चा हो । एक होती है सार्थक चर्चा और एक होती है निरर्थक चर्चा । इस बार की चर्चा पूरी तरह से सार्थक चर्चा है । जिसमें विषय विशेषज्ञ के रूप में इस्‍मत दीदी, तिलक राज जी शामिल थे और विषय प्रवर्तन करते रहे गौतम और नवीन जी । वीनस ने कुछ बेहतरीन मिसरे बनाये जिनमें से हम होली का मिसरा छांट सकते हैं । सबसे मज़ेदार कमेंट श्री नीरज जी का है कि हमारी तो सारी ही ग़ज़लें सौती होती हैं । खैर एक बहुत सार्थक चर्चा के लिये सभी वक्‍ताओं को बधाई, ये चर्चा अब समय की थाती हो गई है । इस ब्‍लाग में काम की जानकारियां पोस्‍ट से ज्‍यादा टिप्‍पणियों में है ये बात इस बार की पोस्‍ट से सिद्ध हो गई । हां कुछ लोग और जो चाहते तो चर्चा में हिस्‍सा ले सकते थे, लेकिन वे शायद कहीं और व्‍यस्‍त हैं खैर । सभी वक्‍ताओं को बधाई ।

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  44. हां वंदना जी को आभार देना तो भूल ही गया जिन्‍होंने अर्थ का अनर्थ होना उदाहरणों से स्‍पष्‍ट किया ।

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  45. कोई कहीं भी व्यस्त हो गुरू जी, नज़र सबकी इस चर्चा पर है। जैसे कोई कहीं भी व्यस्त रहा हो कल के भारत इंग्लैण्ड मैच पर नज़र सबकी थी।

    मगर चूँकि बात उर्दू की चल रही है और उर्दू की जानकारी जिन्हे है, वे बोल रहे हैं/ थे और हम धनहा कउवा जैसे मुँह ताक रहे थे।

    खैर एक बात जो कल से कहनी थी, नवीन जी की बात पर, मगर लिखने का समय ना मिलने के कारण नही लिख सकी वो ये थी कि, तुलसी दास के रामचरितमानस का जो उदाहरण उन्होने दिया वो खूब दिया। उनके सारे प्रश्नों के उत्तर उन्ही के प्रश्न में हैं।

    तुलसीदास ने अवधी में रामायण लिखी जो उस समय की बोलचाल की भाषा थी। मगर तुलसीदास ने ज्ञान की कमी कहीं नही आने दी, तभी तो आज सैकड़ों वर्ष बाद भी उस पर बड़े बड़े गुणी, महात्मा टीका करते हैं और विषय समाप्त नही हो रहा।

    कहना ये चाहती हूं कि ठीक है हम जनता के लिये लिखें, लेकिन जो लिखें उस का ज्ञान तो पूरा हो।

    याद रहे कि तुलसी दास जी ने रामायण भले ही अवधी में लिखी लेकिन संस्कृत जो मूल भाषा है रामायण की, उसे भूले नही। बल्कि उस का पूरा ज्ञान लेने के बाद ही अवधी रामायण लिखी और तभी तो वो अवधी के साथ साथ संस्कृत के नमामीशमीशान, श्री राम चंद्र कृपालु और श्री राम रमापति जैसे बड़े बड़े पद लिख सके जिन्हे गाते हुए मन मुदित हो जाता है। ये भी स्मरण रहे कि रामचरित मानस का प्रत्येक काण्ड संस्कृत के श्लोकों से ही आरंभ हुआ है।

    मैं बस ये कहना चाह रही थी पब्लिक साहित्य से तभी जुड़ेगा जब साहित्य पब्लिक से जुड़ेगा। मगर इसके लिये पब्लिक मेहनत नही करेगी मेहनत तो साहित्यकारों को ही करनी पड़ेगी। हम मनन, चिंतन, मंथन के बाद जो लिखेंगे वो पब्लिक को भी रास आयेगा। अच्छा होगा कि हम तुलसीदास की तरह जनकवि बनें, जनता के लिये लिखें, मगर तुलसीदास की ही तरह प्राचीन को आर्वाचीन से ऐसा मिलायें कि सैकड़ों वर्षों के लिये मिसाल बने।

    नोटः मैं ऐसा कुछ नही करती। इसीलिये मैं कुछ कहना नही चाहती। मगर अगर मैं गलत करती हूँ तो इसका मतलब ये नही कि मैं अपने ग़लत को सही ही मानती हूँ।

    आभार आप सभी गुणीजनों का......!!

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  46. बहुत दिन के बाद ऐसी सुन्दर चर्चा चली,

    वो, जिन्होंने इस चर्चा में भाग नहीं लिया वो भी इसे पढ़ कर अपना निष्कर्ष तो निकाल ही रहे होंगे

    मैंने जो समझा उसका सार यह है की

    -ग़ज़ल विधा (हिंदी भाषियों को) उर्दू से मिली है इसलिए हम तख्तीय करते समय उस नियम का पालन करते हैं जो उर्दू लिपि के हिसाब से सही होता है
    यहाँ बात केवल नुक्ते की न हो कर भाषा और लिपि की हो रही है तो ...

    "शहर" को अपने हिसाब से किसी ग़ज़ल में १२ और किसी ग़ज़ल में २१ के वज्न में बांधना शायर की कमियों और जुगाडपने को ही दर्शाती है
    शायर की अपनी मान्यता होनी चाहिए की वह क्या लिखना चाहता है
    यह गलती दुष्यंत के शेरों में देखने को मिलती है

    एक और बात जो कुछ दिन पहले अंकित भाई ने मुझसे फोन पर कही थी वह भी सही लगती है की... जब शायर अपने आप को दुनिया के सामने साबित कर देते हैं और उनका नाम बड़े शायरों में गिना जाने लगता है तो वही अलग अलग तरह की छूट लेने लगते हैं और धीरे धीरे यह नियम सा बन जाता है की नए शायर उसका अनुकरण करने लगते हैं,
    जबकि ग़ज़ल के मूल नियम वैसे नहीं होते तो नए शायर को उस छूट को कितना अपनाना चाहिए यह भी विचार करने की बात है

    जिन्हें उर्दू नहीं आती उनसे यह अपेक्षा करना ही गलत है की वो उर्दू लिपि के नियमों का पालन कर सकेंगे जो बात हमें पता ही नहीं है वो हम कैसे करें
    नुक्ते को लेकर हम यही सावधानी बरत सकते हैं की जब ग़ज़ल लिखी जाये तो उर्दू के शब्दों पर विशेष ध्यान रखा जाये और अगर कोई शंका हो तो किसी उर्दूदां से मशविरा कर लिया जाये

    क्रमशः ...

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  47. - यदि हमें उर्दू के किसी शब्द को लिखने का सही तरीका पता हो तो और सही वज्न पता हो तो हिंदी के तर्कों से अपने गलत को सही सिद्ध करने की जगह, ग़ज़ल में निश्चित ही उस सही तरीका का प्रयोग करना चाहिए

    - बची मूल चर्चा ,, बात नुक्तों पर चल रही है तो मुझे तो सभी कमेन्ट पढ़ कर यही लगा की सभी चर्चाकार इस बात से सहमत हैं की हम नुक्ते वाले शब्दों को नुक्ते के बिना नहीं लिख सकते क्योकि अर्थ बदल जाने पर दोष आ जाता है

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  48. इस चर्चा से एक बात तो स्‍पष्‍ट हो रही है कि चर्चा सार्थक हो तो नियमित कक्षा से रुचिकर भी होती है ज्ञानवर्धक भी; प्रश्‍न खुलकर सामने आने लगते हैं। शायद ही उर्दू की किसी कक्षा में भी इस तरह खुलकर बात होती हो।
    मेरा मानना है कि तक्‍तीअ को लेकर कुछ भ्रम व्‍याप्‍त है, यह न उर्दू से होती है न हिन्‍दी से और न किसी और भाषा या लिपि से, हर कोई इसे अपनी लिपि के माध्‍यम से करने का प्रयास करता है और यहीं समस्‍या पैदा हो जाती है। जब यह तय हो गया कि जुज़ और रुक्‍न ध्‍वनि पर आधारित होते हैं तो लिपि केवल मान्‍यता रह जाती है। उदाहरण के लिये 'तय' शब्‍द को ही लें इसमें 'त' में 'य' खो रहा है और 'तै' हो रहा है जबकि 'यह' में 'ह' खो रहा है और 'ये' हो रहा है। अगर लिपि के गणना सिद्धान्‍त को सामने रखें तो 'य' का एक सा महत्‍व होना चाहिये दोनों शब्‍दों में लेकिन ऐसा नहीं है। यहीं लिपि आधारित तक्‍तीअ गड़बड़ा जाती है और ध्‍वनि आधारित तक्‍तीअ महत्‍वपूर्ण हो जाती है। लिपि आधारित तक्‍तीअ सीखना आरंभिक ज्ञान के लिये तो पर्याप्‍त हो सकता है लेकिन अंतिम नहीं है। वज्‍़न को गिराकर पढ़ने का खेल भी उत्‍पन्‍न ध्‍वनि में छुपा है।
    लिपि आधारित तक्‍तीअ करें तो अरबी लिपि में शह् र 2 1 है जबकि हिन्‍दी के मानक शब्‍दकोषों में शहर की ध्‍वनि को देखें तो श हर है जो 1 2 है। अगर मानक हिन्‍दी शब्‍दकोष में 'शह्र' को मूल रूप में ही रखा जाता और 'शहर' न किया जाता तो यह अंतर पैदा न होता। यही स्थिति बहुत से अन्‍य शब्‍दों के साथ है। जहॉं तक शायर का दुनिया के सामने साबित होने और छूट लेने का प्रश्‍न है; शायर के स्‍थापित कद अनुसार ऐसी कोई छूट व्‍याकरण में तो नहीं है; प्रचलन में अवश्‍य है और मैं सहमत हूँ कि शायर जितना परिपक्‍व हो उसे छूट से उतना ही दूर रहना चाहिये और अगर ऐसा करना अपरिहार्य हो तो इसका कारण दर्शाना चाहिये अन्‍यथा एक ग़ल़त उदाहरण प्रस्‍तुत होता है।
    हिन्‍दी में ग़ज़ल कहने वालों के लिये उर्दू लिपि का प्रश्‍न केवल उन शब्‍दों के लिये आता है जो मानक हिन्‍दी शब्‍दकोश में न हों; और ऐसे शब्‍दों के लिये उर्दू शब्‍दकोश को देखना आवश्‍यक होगा। काफि़या के शब्‍दों के मामले में यह विशेष कठिन नहीं है क्‍योंकि उसके लिये उर्दू लिपि पढ़ना आना आवश्‍यक नहीं है, केवल अंतिम हर्फ़ों को चित्र के रूप में पहचानें; एकसे दिखना चाहिये।
    उर्दू लिपि तो मैं नहीं समझता लेकिन पोस्‍ट को देखें तो एक बात समझ में आती है कि काफि़या के हर्फ़ के पहले वाले हर्फ़ में नुक्‍ता (शायद ऐसा ही कुछ ज़ेर ज़बर का भी असर हो) आ जाने से ही 'से' और 'सीन'; 'ते' और 'तोय' वगैरह-वगैरह का अंतर पड़ता है।
    ये नुक्‍ता ही जान का दुश्‍मन है (और दोस्‍त भी); नुक्‍ताचीं है ग़मे दिल; लेकिन है सही।

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  49. वाह क्या बहस है ! मज़ा आ रहा है सभी को पढ़ कर ! शब्दों और लिपि पर ऐसी बहस शायद ही कहीं देखने को मिले ! तमाम तर्क पढने पर यही ज्ञात होता है की शब्दों को अपने मूलरूप से नहीं तोड़ना चाहिए ! उनके स्तीत्वा पर खतरा क्यूँ ! और ये तो हम सब मानते ही हैं की नुक्ता का गलत इतेमाल जानलेवा (घातक) है ! इस्मत दीदी की बात से पूरी तरह से सहमत हूँ , तिलक जी का कहना भी सही है , बहन कंचन ने जो उदाहरण दिए हैं मैं चकित हूँ ! इस सार्थक बहस के लिए गुरु के बारे में क्या कहूँ १
    तिलक जी के इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ की बड़े शईरों को तो इस छूट से बचना चाहिए कि वो सन्देश देंगे आगे और नए लिखने वालों को !छूट लेने कि प्रक्रिया वाकई किस भी व्याकरण में नहीं है ! मेरे ख़याल से सभी कम से कम इस बात का ख्याल तो रखेंगे ही आगे से जो गलतियां होती थी और हां जिसे बहुत हलके में लेते थे अब उस पर कम से कम एक बार तो ध्यान देकर ही गाडी आगे बढ़ेगी ! बहुत सारी बातें साफ़ हो गई है इस पोस्ट के माध्यम से !

    अर्श

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  50. @कंचन और अर्श,
    मेरे द्वारा ऊपर "इंजिनियर" और "शावर" जैसे शब्दों का उदाहरण देने पर, आपदोनों ने तर्क दिये कि इन शब्दों के उच्चारण की तरह लिखने से उनके अर्थ तो नहीं बदलते। दुरूस्त कहा आपदोनों ने, लेकिन ग़ज़ल होती ही ग़ज़ल है अपनी बहरों की वजह से, वर्ना फिर कविता न लिख लें हम।...और इन शब्दों का अगर करेक्ट ब्रिटिश प्रनाउंशियेशन करेंगे तो उनका वजन बदल जायेगा। आशा है, उस उदाहरण को देने का मतलब अब स्पष्ट है आप दोनों को।

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  51. कहा गया है की उर्दू के शब्द को उर्दू के हिसाब से ही इस्तेमाल करना चाहिए चाहे वो हिंदी लिपि के साथ आत्म सात ही क्यों न हो गया हो

    जैसे
    हिंदी ने "शहर" शब्द को "श+हर" के रूप में आत्मसात किया, मगर उर्दू के हिसाब से शह्र होता है "२१" तो ठीक है

    मगर कहा ये भी गया की उर्दू के व्याकरण के साथ हिसाब से ...

    तो एक शब्द है "ज़ज्बात" जो उर्दू के हिसाब से "जज़्बा" का बहुवचन है

    परन्तु हिंदी में "जज़्बात" शब्द प्रायः एक वचन में इस्तेमाल होता है और इसके बह्वचन के लिए "जज्बातों" शब्द का इस्तेमाल बेधडक किया जाता है, अब "जज्बातों" शब्द हिंदी के हिसाब से सही है और उर्दू के हिसाब से गलत

    यहाँ पर जानकार यह कह सकते हैं की उर्दू का शब्द है इस लिए उर्दू के हिसाब से ही लिखना चाहिए,,, मगर लोग ग़ज़ल में भी ऐसा खूब करते हैं

    अब बात यह है की रेल शब्द और क्लब शब्द को इंग्लिश व्याकरण के हिसाब से "रेल्स" "क्लब्स" कहा जाता है परन्तु हम गज़ल लिखते समय (हिंदी वाले और उर्दूदां दोनों) हिंदी व्याकरण को इस्तेमाल करके "रेलों" और "क्लबों" आदि लिखते है

    तो अब इस परिदृश्य में जब उर्दूदां को हिंदी में बहुचर्चित हो चुके इंग्लिश शब्द हिंदी व्याकरण के साथ स्वीकार्य है
    तो
    उर्दू के शब्द हिंदी में बहु चर्चित होने के बाद हिंदी व्याकरण के साथ स्वीकार्य क्यों नहीं है ???


    खोजता हूँ, अगर मिल सका तो इस विषय पर "अकबर इलाहाबादी" के कुछ शेर कोट करूँगा

    (यह इंग्लिश शब्दों वाली बात आज नवीन जी से फोन पर बात करते हुए हुई जो यहाँ कमेन्ट के रूप में लगा रहा हूँ )

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  52. अकबर इलाहाबादी के कुछ शेर देखें

    १- (मिसे)

    हैं गश में शेख देख के हुस्ने - मिसे - फिरंग
    बच भी गए तो होश उन्हें आएगा देर से

    2-(मिसे)

    कमरे में जो हँसते हुए आई मिसे राना
    टीचर ने कहा इल्म की आफत है तो यह है

    ३- (मेम्बरी)

    बनूँ कौंसिल में स्पीकर तो रुखसत किरअत मिस्त्री
    करूँ क्या मेम्बरी जाती है या कुरआन जाता है

    ४- (इस्पीचें)

    कुजा वह गेसुए - मुश्की कुजा यह ठेली इस्पीचें
    दिले वह्शीये अकबर फँस चूका ऐसी कमंदों से


    और ऐसे ही तमाम शब्द हैं जिनको हम व्याकरण के लिहाज से देखें तो गलत हैं मगर बोल चाल की भाषा में बिलकुल सही हैं

    बसों, करों, फ्रेमों, आफिसों, कमेंटों, ब्लागों आदि

    परन्तु मेरा कहना यह कदापि नहीं है की इस लिहाज से उर्दू के लिए "जज्बातों" भी सही हो गया
    मैंने पिछले कमेन्ट में ही कहा है

    "यदि हमें उर्दू के किसी शब्द को लिखने का सही तरीका पता हो तो और सही वज्न पता हो तो हिंदी के तर्कों से अपने गलत को सही सिद्ध करने की जगह, ग़ज़ल में निश्चित ही उस सही तरीका का प्रयोग करना चाहिये"


    परन्तु यदि कोई हिंदी में लिखने वाला "जज़बातों" जैसा कोई शब्द लिखता है तो उसे सिरे से नकारने से पहले यह समझने की जरूरत है की जो वह लिख रहा है उस उर्दू शब्द को हिंदी ने कितना आत्मसात किया है और उस शब्द के प्रयोग से हमारे शेर, कहन पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है

    जिस तरह हमने इंग्लिश के शब्दों को "मेम्बरी, बसों, करों, फ्रेमों, आफिसों, कमेंटों, ब्लागों" आदि के रूप में ग्रहण कर लिया यदि कोई दिक्कत न आ रही हो तो उर्दू के शब्द को भी हिंदी व्याकरण के साथ मानक स्वरूप में ग्रहण करने में कोई बुराई है क्या ?

    सोचिये !

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  53. मेरे ख्याल से ऐसी छूट लेनी ही नहीं चाहिए जिससे विवाद पैदा हो. गुरूजी ने ही एक जगह इसी ब्लॉग पर लिखा था "ऐसा ठूंठ ही क्यों पालो की जिसपे उल्लू बैठ जाए".

    और "जज़्बातों" का प्रयोग ग़लत ही है. "कारों" और "बसों" का प्रयोग और "जज़्बातों" का प्रयोग अलग अलग बातें हैं. कार और बस हिंदी में अपना लिए गए शब्द हैं. अतः कारों और बसों का बहुवचन में प्रयोग ठीक हुआ. लेकिन यदि कोई पहले से ही बहुवचन शब्द का फिर से बहुवचन बनाये तो ग़लत हुआ. जैसे 'कार' का अंग्रेज़ी में बहुबचन 'कारज़' है, अगर कोई हिंदी में इसे 'कारज़ों' कहे तो ग़लत ही नहीं हास्यप्रद भी हुआ. इसी तरह यदि हिंदी में 'जज़्बों' प्रयोग किया जाता तो मैं मानता की चलो ठीक है मान लिया. लेकिन पहले से ही बहुवचन 'जज़्बात' को 'जज़्बातों' करना ठीक नहीं है. इससे यही पता चलता है की प्रयोग करने वाले को 'जज़्बात' शब्द का अर्थ ही पता नहीं है.

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  54. यह बात और अधिक पुष्‍ट रूप में सामने आ रही है कि कि किसी भाषा का व्‍याकरण किसी शब्‍द पर तभी लगेगा जब वह शब्‍द उस भाषा के मानक शब्‍दकोष में अपना लिया गया हो अन्‍यथा उसपर उस भाषा की व्‍याकरण लगेगी जिससे वह शब्‍द आया है।
    एक मज़ेदार उदाहरण है 'अख़बार' जो उर्दू में ख़बर का बहुवचन है। हिन्‍दी में यही समाचार-पत्र है और अख़बार का बहुवचन अख़बारों के रूप में प्रचलित है जो दोषपूर्ण नहीं है। कारण स्‍पष्‍ट है कि अखबार हिन्‍दी और उर्दू में मूल शब्‍द के रूप में अपनाया गया है।
    अब तो लगता है कि इस चर्चा पर गुरूजी ने अपना प्रबोधन प्रस्‍तुत कर देना चाहिये।

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  55. @वीनस
    आपने जो उदाहरण दिये हैं अकबर इलाहाबादी की शायरी के वो अदब में मान्‍य नहीं हैं। महफि़ल, मुशायरों की मज़ाहिया शायरी में कलाम का यह रूप मान्‍य हो सकता है लेकिन अदब में खारिज है।

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  56. मैं राजीव की बातों से पूर्णतया सहमत हूँ | जो शब्द जिस रूप में प्रचलित हों, उन्हें उसी रूप में लेना उचित है। जज़्बातों, अहसासातों, अल्फ़ाज़ों आदि वगैरह एकदम गलत है प्रयोग में लाना। तिलक जी ने भी बातें स्पष्ट कर दी हैं। अब गुरूजी की नयी प्सोट आने ही वाली है इस बाबत...मेरे ख्याल से शेष बहस उसके बाद चले तो बेहतर है।

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  57. मैं राजीव की बातों से पूर्णतया सहमत हूँ | जो शब्द जिस रूप में प्रचलित हों, उन्हें उसी रूप में लेना उचित है।


    @ गौतम भैया

    मैं भी कुछ कुछ यही कहने की कोशिश कर रहा था :)

    उन्हें उस रूप में लेना "भी" उचित है।

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  58. आज ही ये पोस्ट देखी. एक सार्थक चर्चा को पढ़ के मन को अच्छा लगा और बहुत कुछ सीखने को मिला. निजी रूप से ये जान के अच्छा लगा कि सुबीर भईया, प्यारेलाल और कंचन सब मज़े में हैं और fighting fit हैं :)
    आप सबकी बातें ध्यान से पढ़ीं. जानकारी बढ़ी. धन्यवाद आप सबको. अपनी अंतिम टिप्पणियों में तिलक राज जी और गौतम भईया ने चर्चा के निचोड़ को सुन्दरता से पेश किया है. किसी भाषा और हुनर की गरिमा बनाए रखने का सन्देश प्रबल और स्पष्ट रूप से मिला. इसमें बस एक बात जोड़ना चाहती हूँ. ग़ज़ल की दृष्टि से तो कुछ नहीं जानती, पर साधारण भाषा की दृष्टि से एक आम आदमी की तरह ये सोच रखती हूँ कि भाषा निरंतर विकसित होती रहती है. आज परिवर्तन की गति पहले से बहुत अधिक है, जब तक कोई शब्दकोश सारे परिवर्तन दर्ज कर के तैयार होगा तब तक वो शायद outdated हो जायेगा. आप लोग, जो आज की नौजवान पीढी हैं और नए विषयों पे लिख रहे हैं, वे ये भी ध्यान रखें कि केवल शब्दकोष का आँचल थामे साहित्य सृजन संभव नहीं. भाषा को नए आयाम देने का दायित्व भी आप लोगों का ही है.
    दीदी हूँ, तो लेट-लतीफ़ और मूढ़ हो कर भी मन की बात कहने की हिम्मत जुटा ही ली.
    सादर शार्दुला

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  59. सौती काफिया के बारे में बड़ी दिलचस्प बातें बताई आपने..जानकारी बढ़ी मुझे तो इस बारे में कुछ पता ही नही था...कोशिश करूँगा कुछ लिखने का...प्रणाम

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  60. इस ब्लाग पर पहली बार कुछ लिख रहा हूँ. विद्वानों के बीच घुस कर बैठा तो बहुत दिनों से हूँ पर बोलने जी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. नियमित पाठक हूँ पर आज नुक्ते पर नुक्ताचीनी बहुत अच्छी लगी. मेरा काम बढ़ गया. अपनी सभी गज़लों को फिर से देखना पड़ेगा. मैं तो हिंदी में प्रचलित उर्दू शब्दों को साधिकार लेता रहा हूँ पर अब लग रहा है कि यह अधिकार नहीं है हमें. भाषा पर इस प्रकार का नियंत्रण होना चाहिए पर ब्राह्मण को बिरहमन कह कर उर्दू में कैसे प्रयोग किया जाता है यह मैं नहीं समझ पाया क्योंकि बिरहमन शब्द मुझे कम से कम मद्दाह साहब के शब्दकोष में तो नहीं मिला. अब बिरहमन को यदि हिंदी के अनुसार लें तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है.

    अर्थ का अनर्थ करने वाले उर्दू शब्दों के बारे में यदि पूर्ण ज्ञान नहीं है तो इनके प्रयोग से बच के चलना ही हिन्दी वालों के लिए श्रेयस्कर रहेगा. जैसे अज़ीज़ और अजीज़ ..... ये नुक्ते हैं कि लैंड माइंस... बच के चलें. साथ ही काफिये में प्रयोग नुक्ताचीनी करके ही करना चाहिए, यह समझ में आया.

    अब तो इस ब्लॉग को नियमित पढते रहना होगा. जो ज्ञानवर्धन यहाँ होगा वह कई पुस्तकों से भी मिलना संभव नहीं है.

    शेष धर तिवारी

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