जब सौती को लेकर पोस्ट लगा रहा था तब भी नहीं पता था कि ये पोस्ट कैसा धमाल मचाने वाली है । लेकिन हो गया धमाल भी । धमाल विचारों का । विचारों के आदान प्रदान का जो धमाल पिछले दिनों से चल रहा था उसने कई सारी बातों को स्पष्ट कर दिया है । इस्मत दीदी से इस बीच कई बार बात हुई और कई सारी बातों का उनसे ही पता चला । जैसे उन्होंने बताया कि सौत शब्द का अर्थ होता है ध्वनि और सौती का अर्थ होता है ध्वनि से संबंधित । तो इससे ये तो समझ में आया कि एक ऐसी ग़ज़ल जो कि ध्वनि पर चलती हो उसको हम सौती ग़ज़ल कहेंगें । लेकिन फिर ये ध्वनि पर आधारित ग़ज़ल हो क्या । सभी ग़ज़लें तो ध्वनि पर ही आधारित होकर चलती हैं । हालांकि अभी इस मामले में मेरे पास उस पुस्तक में छपे वो अंश ही हैं और ये अंश परम आदरणीय उपेन्द्रनाथ अश्क साहब ने परम आदरणीय फ़ैज़ एहमद फ़ैज़ साहब के बारे में लिखे अपने एक संस्मरण में लिखे हैं । उसमें लिखा है कि '' सौती मुशायरे का मतलब ये था कि कवि उसमें जो कविताएं पढ़े उनमें आवाज़ और लहजा तो कवि का अपना अपना हो, पर उनके किसी अक्षर समूह का कोई अर्थ न हो । राशिद ने मुझे भी कविता लिखने को कहा, फ़ैज़ को भी, चिराग़ हसरत और शायद अख़्तरुल ईमान को भी । मैंने निराला की प्रसिद्ध कविता 'तुम और मैं' की पैराडी की जो बाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन अबोहर के कवि सम्मेलन में बहुत पसंद की गई और स्वयं निराला ने उसकी दाद दी । फ़ैज़ ने भी अपने रंग में कविता लिखी, जिसमें फ़ैज़ के काव्य की रोमानियत और प्रगतिशीलता दोनों झलकते थे, लेकिन कविता का कोई अर्थ नहीं था । ज़ाहिर है यारों ने उसे फ़ैज़ से बार बार सुना और ख़ूब दाद दी । '' इसी अंश को लेकर मैंने जब कुछ इधर उधर के सूत्र टटोले तो पहले तो कुछ विशेष नहीं मिला । लेकिन मुझे दो बातें कह रही थीं कि कहीं न कहीं कुछ तो है । पहला तो ये कि अश्क जी ने लिखा है और दूसरा ये कि फ़ैज़ साहब के बारे में लिखा है । कहीं से कहीं तक ग़लत होने की गुंजाइश तो है ही नहीं । जिन बातों ने मुझे उद्वेलित किया वो थीं 'किसी अक्षर समूह ( रुक्न ) का कोई अर्थ न हो '' और '' लेकिन कविता का कोई अर्थ नहीं था '' ।
धीरे धीरे कुछ पता चलना शुरु हुआ कि हां ऐसा कुछ होता तो था लेकिन अब उसके बारे में कुछ बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है । कुछ उस्तादों ने बताया कि सौती का मतलब ये होगा कि ग़ज़ल कहन को छोड़कर केवल ध्वनि का पालन करे । ये बात मेरे भी दिमाग़ में बैठ गई । क्योंकि अश्क साहब ने लिखा भी यही था कि 'किसी अक्षर समूह का कोई अर्थ न हो ।' सौती काफिये के बारे में तो पता था कि जो काफिया नियम को तोड़कर उपयोग में लाया जा रहा हो तथा जो कि ध्वनि की शर्तों का पालन कर रहा हो । मुझे लगा कि ऐसा ही कुछ हो सकता है । फिर एक दो लोगों ने जब बात को पुष्ट कर दिया तो बात को और बल मिल गया । एक उस्ताद ने वही कहा जो कि मेरे मन में था कि ' ऐसी ग़ज़ल जो बहर में तो सौ टंच खरी उतरती हो लेकिन कहन में जीरो टंच हो' ( उन्हीं के शब्द हैं, हमारे यहां सोने को टंच से परखते हैं । ) मुझे इनकी बात ने भी उत्साहित कर दिया और अश्क साहब का संस्मरण तो था ही । और बस मुझे लगा कि ये प्रयोग होली पर किया जा सकता है ।
पिछली पोस्ट पर जो कमेंट आये हैं वे बहुत ज्ञानवर्द्धक हैं । विचारों का आदान प्रदान ऐसे ही होता है । मेरे विचार इस मामले में ज़रा मिश्रित हैं । मैं लोक पर ज्यादा विश्वास करता हूं । लोक अर्थात जनता । मैंने भाषा के इतिहास को पढ़ते समय देखा कि संस्कृत अपनी क्लिष्टता के कारण लुप्त हो गई और उसके स्थान पर भाषा ( भाखा ) आ गई ( संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर - कबीर ) । यही ये भाषा जो कि बाद में हमारी हिंदी बनी ( आचार्य रामविलास शर्मा जी इस स्थापना के विरोधी हैं, वे कहते हैं कि संस्कृत, हिंदी, मराठी आदि भाषाओं का सह अस्तित्व था । ) संस्कृत के लुप्त होने का कारण था उसकी रिजिडता । संस्कृत के विद्वान आज भी इधर उधर आपको टोकते मिल जाएंगें कि श्लोक अशुद्ध तरीके से पढ़ा जा रहा है । खड़ी बोली में बात गा गा कर होती थी । ऐसा प्रतीत होता था कि बात नहीं हो रही है गाया जा रहा है । आप आज भी लखनऊ के पुराने लोगों की हिंदी सुनेंगें तो ऐसा ही लगेगा कि गा रहे हैं ( कंचन की माताजी से बात करते समय मुझे भी यही लगा था । ) फिर आई उर्दू, जिसको लाना मजबूरी थी । क्योंकि मुगल शासकों तथा भारतीय सैनिकों के बीच संवाद का कोई सेतु ही नहीं था । तो लश्कर के लिये लाई गई ये लश्करी भाषा । भाषा जिसने अपने सारे संस्कार अरबी और फारसी से लिये यहां तक कि लिपि भी । लेकिन उसको भारतीयता के हिसाब से गढ़ा गया । मगर फिर भी उर्दू और संस्कृत में एक साम्यता ये थी कि ये दोनों ही नियम क़ायदों पर बहुत रिजिड रहीं । संस्कृत अपने कठिन शब्दों के कारण अलोकप्रिय हो गई तो उर्दू भी अरबी फारसी के शब्दों के कारण । आज हालत ये है कि उर्दू से कठिन अरबी फारसी के शब्द लुप्त प्राय हो गये हैं । पूर्व से प्रचलित भाषा ने नई आई उर्दू से कुछ बातें लीं और अपने को धीरे धीरे और बदलते हुए वर्तमान की हिंदी में परिवर्तित कर लिया ( याद रखें कि हिंदी, हिंदुस्तान जैसे शब्द भारत में मध्य पूर्व एशिया से आये हैं, इनका सीधा संबंध सिंध नदी से है । स अक्षर को ह उच्चारित करने के कारण ये सब हुआ, आज भी गुजरात के कुछ हिस्सों में स को ह ही उच्चारित करते हैं ।) कुछ शब्द ऐसे थे जो लोकभाषा में पूर्व से प्रचलित थे तथा उर्दू के आने के बाद उनका रूप कुछ और आया । जैसे जाति शब्द पुराना है, जाति का अपभ्रंश चला जात ( जात न पूछो साधु की, पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात ) । अब ये जो जात है इसमें नुक्ता नहीं लगा है जबकि उर्दू में ये ज़ात है । तो फिर सही कौन है कबीर या कि उर्दू का व्याकरण । ये एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर तलाशने में बहुत बहस होंगीं और परिणाम ढाक के तीन पात ही होगा । हां एक बात ये तो स्थापित है कि भाखा ( भाषा) के होने के प्रमाण सातवीं सदी के आस पास से मिलने लगते हैं जबकि उर्दू बारहवीं सदी के आसपास संकेत के रूप में मिलती है तथा तेरहवीं सदी में विकसित होती है । मेरे विचार में भाषा के व्याकरण तय करने का अधिकार जनता के पास होता है । जनता ही तय करती है कि कौन सा शब्द कैसे उपयोग में आयेगा । पूरी हिंदी पट्टी में आज भी जात हो उपयोग में आता है ज़ात नहीं । एक दूसरा शब्द जिस पर सबसे ज्यादा बहस होती है वो है शहर । बहस का कारण ये है कि वास्तव में शब्द का वज्न 21 है तथा हिंदी पट्टी मे उसे 12 उच्चारित किया जाता है ( बहस तो न और ना को लेकर भी है ) । मेरे विचार में हमें कबीर के बताये मार्ग पर ही उसका हल मिलेगा भाखा बहता नीर ।
सौती को लेकर कई सारे कमेंट मिले हैं तिलक राज जी ने इस मुशायरे को ही सौतन मुशायरे का नाम दिया है । उन्होंने एक बात कही है जो मुझे किसी और ने भी कही है कि वाफर को कहीं कहीं पर 12112 के स्थान पर 121, 12 की तरह भी उपयोग किया जाता है । तिलक जी ने अपने मेल में भी यहीं लिखा है कि ''
मफायलतुन् (12112) वाली बह्र-ए-वाफिर का शेर दो और तरह से कहा जा सकता है:
फऊलु मफ़ा, फऊलु मफ़ा, फऊलु मफ़ा, फऊलु मफ़ा 121 12, 121 12, 121 12, 121 12
मफ़ा फयलुन्, मफ़ा फयलुन्, मफ़ा फयलुन्, मफ़ा फयलुन्, 12 112, 12 112, 12 112, 12 112, 12 112''
तिलक जी ने जो कहा है उसकी पुष्टि कुछ और लोगों ने भी की है । यदि हम रुक्न की बात करें तो वाफर का रुक्न जो है वो दो प्रकार के जुज़ से बना है । 12 और 112, अर्थात वतद मजमुआ और फासला-ए-सुगरा । वतद मजमुआ ( 12 जब तीन हर्फी व्यवस्था में पहले दो हर्फ स्वतंत्र हों तथा तीसरा संयुक्त हो ) फासला-ए-सुगरा ( 112 जब चार हर्फी व्यवस्था में पहले तीन हर्फ स्वतंत्र हों तथा चौथा संयुक्त हो । ) से मिलकर बनता है बहरे वाफर का रुक्न । इसलिये कह सकते हैं कि रुक्न के जुज के आधार पर भी लिख सकते हैं ग़ज़ल । और लिखी भी जाती हैं । हर रुक्न में दो शब्द हों पहला 12 के वज्न पर हो दूसरा 112 पर । और इस प्रकार से हम वाफर का ही रुक्न बनायेंगें ।
लेकिन अभी कुछ लोगों का ये मानना है कि यदि कुछ अर्थ ही नहीं होगा तो ग़ज़ल का मतलब क्या होगा । तो मेरे विचार में कुछ ऐसा कर सकते हैं कि अर्थ हो तो लेकिन वो अनर्थ के रूप में ही हो । अर्थात उसके होने से तो ना होना ही अच्छा । वज़न में हम 12,112 भी ले सकते हैं और 12112 भी ।
और हां यदि आपको ऐसा लगता है कि वाफर पर सौती की जगह मज़ाहिया मुशायरा करना है तो वैसा कर लेते हैं । जो करना है जल्द करें । कयोंकि लोगों को लिखने में भी समय लगेगा ।
भाषा की चर्चा को फिलहाल विराम देकर केवल मुशायरे के स्वरूप पर इस बार बात करें ताकि हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचें ।
इस पोस्ट से काफी बातें साफ़ हुईं. लेकिन मुझे अभी भी सौती मुशायरे का उद्देश्य क्या होता था, यह समझ नहीं आया.. केवल शायर की आवाज़ सुनना, शायर का बह्र/रुक्न/जुज का ज्ञान परखना या बस शायर से मिलना जुलना? क्योंकि अगर कहन में कुछ है ही नहीं तो गज़ल 'कहना' क्या और गज़ल सुनना क्या. और फिर दाद किसको दें? बिना वाह वाह के मुशायरा कैसा?
जवाब देंहटाएंमेरे लिये तो सभी जानकारियाँ नई हैं और इस अथाह स्मुद्र से मोती चुन कर सहेज लिये। धन्यवाद और शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंपंकज भाई नमस्कार|
जवाब देंहटाएंये 'रिजिडता' वाला प्रयोग तो सर चढ़ के बोल रहा है सर जी| एक बार इसी तरह का अन्य प्रयोग करने पर अपने एक सीनियर जी की डाँट खा चुका हूँ मैं| पर ये सही था तो आज आपने भी इस्तेमाल कर लिया|
आपने जो 'भाखा' का ज़िक्र किया है, अनवरत भाषाई विकास की प्रक्रिया के लिए इस से बढ़िया नज़ीर हो नहीं सकती|
गुजराती में 'स' का 'ह' होना सही है, खास कर काठियावाडी [सौराष्ट्र] इलाक़ों में| एक और मज़े की बात आप लोगों से शेयर करना चाहूँगा:-
गुजराती शब्द - सारू સારૂ
अर्थ - अच्छा
बहुप्रचलित गुजराती में इसे सारू ही कहते हैं
सौराष्ट्र / काठियावाड में इसे हारू कहते हैं
कुछ गुजराती लोग और खास कर पारसी लोग इसी को वारू कहते हैं
गुजराती शब्द - साथे સાથે
अर्थ - संग में
सौराष्ट्र / काठियावाड में इसी को 'हाथे' के साथ साथ 'हारे' भी कहते हैं
और पारसी में भी इस के लिए 'हारे' ही इस्तेमाल होता है
भाषाओं के कुछ और मजेदार नुस्खे:-
अपुन लोग बोले तो जो सही लगे उस को कहते हैं 'बरोबर'
और यही 'बरोबर' मराठी में हो जाता है 'साथ में'
हिन्दी में कहेंगे - वो मेरे साथ है
मराठी में कहेंगे - तो माझ्या बरोबर आहे
गुजराती में कहेंगे - ए मारी साथे छे
काठियावाडी में कहेंगे - ई मारी हारे से [यहाँ गुजराती का 'ए' हो गया 'ई' और 'छे' हो गया 'से']
ब्रजभाषा में कहेंगे - बौ मेरे संग है
मारवाड़ी में इसे कहेंगे - औ म्हारा गोडे से [इस बारे में शायद में ग़लत भी हो सकता हूँ, सही जानकारी मारवाड़ी भाषा के बारे में आप लोगों में से भी कोई मुहैया करा सकता है]
सौती मुशायरा अब लग रहा है मज़ाहिया मुशायरा [हास्य कवि सम्मेलन] होने जा रहा है| होली पर इस से बढ़िया और कोई विकल्प शायद है भी नहीं|
@राजीव जी
जवाब देंहटाएंऐसा समझें कि बॉंसुरी पर बह्र-ए-वाफि़र की इतालवी भाषा में कोई ग़ज़ल सुनना। अब इतालवी तो हम जानते नहीं, तो होगा यह कि केवल ध्वनि पर ध्यान जायेगा शब्दों पर नहीं। अभी जो हम हिन्दी गानों को वाद्ययंत्रों पर सुनते हैं तो शब्द पूर्व से ज्ञात होने के कारण साथ साथ गुनगुनाने लगते हैं। बॉंसुरी पर इतालवी गाना सुनने से ऐसा नहीं होगा (अब आप इतालवी गीत भी जानते हों तो बात ओर है)।
मैं सौती को सौत से ही जोड़ रहा था इस पोस्ट में यह अच्छा खुलासा हो गया।
अब एक बात बिल्कुल साफ़ नज़र आ रही है कि सौती का उद्देश्य बह्र को समझना होता था। इसीलिये इसमें शब्द गौण होकर बह्र से उत्पन्न ध्वनिक्रम महत्वपूर्ण हो जाता है।
मेरा मानना है कि सही सौती ग़ज़ल में रस का अभाव रहेगा इसलिये मज़ाहिया ग़ज़ल ठीक रहेगी वह भी स्वतंत्र रदीफ़ काफि़या के साथ।
तिलक जी बांसुरी बाले उदाहरण पर निसार । मेरे विचार में मजाहिया ही ठीक रहेगी जो आप कह रहे हैं । तो लाद दे लदान दे वाली कहावत को सही करते हुए अनुरोध कि अब वाफर पर मिसरा-ए-तरह भी आप सुझाएं ।
जवाब देंहटाएंगुरु जी प्रणाम,
जवाब देंहटाएंइस हिसाब की एक कहावत तो हमारे तरफ ये भी चलती है की
"जो बोले सो कुंडी खोले" :)
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मुझे लगता है, सौती मुशायरे की सार्थकता उसे पढ़े जाने में ज्यादा निहितार्थ लग रही है जब शायर शब्दों को धीमें तेज और उठा गिरा कर पढ़े
और नेट पर यह लिख कर भेजने की वजह से संभव नहीं है
अगर आडियो क्लिप ले कर लगाए तो सौती मुशायरा अपने आप में कमाल का हो जाएगा
और फोन तो सभी के पास है रिकार्डिंग के लिए
हाँ यह बात है की सभी के लिए अतिरिक्त मेहनत हो जायेगी
अगर शुद्ध मजाहिया कर दिया तो वाफर में लिखना भी तो मुश्किल होगा
क्या यह किया जा सकता है की मिसरों के अर्थ निकले मगर दोनों मिसरों में रब्त न हो और जो अर्थ निकल रहे हों वो मजाहिया हो और थोडा बहुत बेवकूफी टाईप के भी
तो यह सौती और मजाहिया का मिश्रण हो जायेगा
परन्तु अगर यह किया गया तो लिखने में पसीने छूट जायेंगे :)
मगर मज़ा भी तो तभी आएगा :):)
एक आप्शन यह भी है की दोनों तह लिखने की छूट दे दी जाये
जो चाहे सौती लिखे, जो चाहे मजाहिया, और जो चाहे मिश्रित
- वीनस
प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएं@पंकज भाई
जवाब देंहटाएंहमारी आश्रम व्यवस्था में 50 वर्ष के आयु के बाद वानप्रस्थ का प्रावधान है और जो वन-प्रस्थान कर गया उसपर लाद दे लदान दे कैसे लागू हो सकता है। दरवाज़ा खालने वाली कहावत भी लागू नहीं होती- वन में कहॉं घर और कहॉं दरवाज़ा।
बहरहाल आपका आदेश है तो प्रयास कर के देख लेता हूँ, आशा कभी रखता नहीं इसलिये निराश कभी होता नहीं। हो सकता है इस प्रयास में कुछ नया ही अनुभव प्राप्त हो।
तिलक जी मैंने तो सुना है शायर पर ५० वर्ष के बाद ही जवानी आती है
जवाब देंहटाएंइस लिहाज़ से तो अभी ...:)
और शायद ये बात "आपने" ही कही थी ;)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंगुरुदेव ... ये और इससे पहले वाली पोस्ट .... दोनो को पढ़ कर लगा की कितने ज्ञानी लोगों के बीच बैठा हूँ ... इतना सार्थक बहस किसी भी ब्लॉग पर ... किसी भी विषय में नही देखी ... शायद ये अपने गुरुकुल का प्रभाव है जो सभी को संवेदनशील और खुले विचार वाला बना देता है .... आज से पहले वाली पोस्ट उदाहरण है ब्लॉग जगत के लिए ...
जवाब देंहटाएंइस विषय पर आपके और सब के विचार पढ़ कर बहुत सी नई बातें जानने को मिलीं जो बहुत काम आने वाली हैं .... सोती मुशायरे के बारे में भी बहुत नई नई बातें जानीं .... अब तो बस इंतेज़ार है मुशायरे के शुरुआत का ... और हाँ ... वो मुकेश का गीत लगता है १४ फ़रवरी को गाया गया है .... आशा है वेलिंटाइन सफल रहा होगा ...
तिलक भाई साब - साठा सो पाठा............अरे अभी तो आप जवान हैं सर|
जवाब देंहटाएं@नवीन जी...
जवाब देंहटाएंराजस्थानी में इसे 'ओ म्हारे साथै है ' कहेंगे..
@पंकज जी..
ग़ज़ल के बारे में आपके ब्लॉग से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है...
आभार..
तिलक जी, आपने बांसुरी का बहुत अच्छा उदाहरण दिया.
जवाब देंहटाएंकुछ और बातें जो अभी भी सपष्ट नहीं हुईं है वो यह हैं की अगर शायर का बहर/रुक्न ज्ञान परखना उद्देश्य हो तो राशिद जी फैज़ जैसे प्रतिष्ठित शायर का बहर ज्ञान क्यों परखेंगे? दूसरा यह की आगे कहते हैं "फैज़ ने भी अपने रंग में कविता लिखी जिसमें फैज़ के काव्य की रोमानियत और प्रगतिशीलता दोनों झलकते थे, लेकिन कविता का कोई अर्थ नहीं था." अगर अर्थ नहीं था तो रोमानियत और प्रगतिशीलता कैसे झलक रहे थे... "यारों ने उसे फैज़ से सुना और खूब दाद दी." किस बात पर दाद दी, जब किसी शब्द समूह का अर्थ ही नहीं था? तीसरा यह के अश्क जी कहते हैं "मैंने भी पैरोडी लिखी जो ..कवि सम्मलेन में बहुत पसंद की गयी" अब अर्थहीन पैरोडी को कवि सम्मलेन के श्रोता क्यों पसंद करेंगे? केवल बहर के लिए? अधिकतर श्रोता तो शायद बहर समझते भी नहीं हैं.
कहीं ऐसा तो नहीं की ये सब मजाहिया शायरी ही कर रहे हों और 'कोई अर्थ' न होने से भाव कोई 'गहरा और गंभीर अर्थ' न होना हो?
प्रिय राजीव बहरे मुतकारिब पर एक मतला है जो तुम्हें समझ में आ जायेगा कि ये मज़ाहिया भी है, सौती भी है, निरर्थक भी और इस पर दाद भी दी जा सकती है ।
जवाब देंहटाएंइकत्तर बहत्तर तिहत्तर चोहत्तर
पिचत्तर छिहत्तर सतत्तर अठत्तर
दरअसल में तुम उस युग की तरह से नहीं सोच पा रहे हो जब हास्य हमारे जीवन का एक अंग होता था । मेरे पास ऐसे ऐसे उदाहरण हैं कि बड़े बड़े शायर दोस्तों की महफिल में ऐसी शायरी करते थे जो केवल मित्रों के हास परिहास के लिये होती थी । मुम्बई के उस प्रसिद्ध चाय-पान वाले की दुकान की शायरी को कौन भुला सकता है जो हर दिन किसी की शायरी से प्रसन्न होकर उसे मुफ्त चाय पान करवाता था । और वहां पर उस दौर के सभी बड़े शायर शाम ढलते आते थे । और एक दिन की वो असंसदीय ग़ज़ल जिसे सुनकर वह दाद में लोट पोट हो गया था, वो भी तो एक बड़े शायर ने ही कही थी । हमारे बाद वाली पीढ़ी शायद हमसे ये भी पूछे कि अच्छा आप हंसते भी थे, किसलिये ? आपको और कुछ काम नहीं था क्या ।
जी अब बात समझ आई की शेर में हास्य होना और कुछ चौंकाने वाला होना ज़रूरी है, केवल निरर्थक और बहर में होना काफी नहीं. अन्यथा "जहाज मना, दुकान सुनी, गुलाब उठा, किवाड़ किला / उछाल सुना, मकान छिला, सुहाग दिखा, उधार सुला" जैसे शेर पे कोई क्या दाद दे, ऐसा कहने के लिए तो किसी का शायर होना भी ज़रूरी नहीं. यही मेरे दिमाग में था.
जवाब देंहटाएंएक और प्रश्न: अगर कोई रुक्न अर्थहीन न हो तो? मान लीजिये उपर के उदाहरण में 'गुलाब खिला' और 'मकान गिरा' रुक्न होते तो क्या ये शेर ख़ारिज हो गया होता क्यों की इन अरकान का कोई अर्थ है?
सच पूछिये गुरूदेव तो राजीव ने मेरे मन की बात लिख दी है अपनी दोनों टिप्पणियों में। लगभग यही सब कुछ मैंने भी आपको अपने मेल मे लिखा था। हास्य तो बिल्कुल ठीक है, लेकिन निरर्थक मिस्रों में मेरी समझ से हास्य कम असहजता ज्यादा होगी पाठकों को। आपका दिया हुआ उदाहरण फिर भी सहज हास्य पैदा करता है, किंतु महज बहर पर फिट करने के लिये "पलंग उड़ी" {बुरा मत मानना वीनस}जैसे मिस्रे मुझे नहीं लगता स्वतंत्र ढ़ंग के रुक्न में कोई हास्य पैदा कर पायेंगे। जहां तक बहर को समझने की बात है, मेरे ख्याल से यहां तरही भेजने वाले सारे शायर कम-से-कम इतनी समझ तो रखते ही हैं।
जवाब देंहटाएंये मेरा व्यक्तिगत विचार है। बाकि आपने तिलक जी पर लाद दिया ही है मिस्रा-ए-तरह का जिम्मा। राजीव की बातों का पुनः समर्थन करते हुये कि तरही आएंगी और अगर सौती वाली हो तो हम दाद किस पर देंगे, बहर और वज़न को बरकरार रखने के लिए या फिर रुकनों की निर्थकता पर? वैसे यहां वोटिंग करवाया जा सकता है की कितने लोग सौती चाहते है और कितने मजाहिया ...हा! हा!!!
जहां तक बहर को समझने की बात है, मेरे ख्याल से यहां तरही भेजने वाले सारे शायर कम-से-कम इतनी समझ तो रखते ही हैं।
जवाब देंहटाएंये बात पूरे होशो हवास में लिख रहे हो न गौतम
बहुत कठिन है डगर पनघट की। न उम्र का ख्याल किया न टक्कल का और लाद दिया सर पर घड़ा ओर कॉंधे पर रस्सी। इस उम्र में पनघट तो दूर चार कदम पर कोई हसीना दिखे तो उसे भी आदमी दूर से सलाम कर के काम चला लेता है।
जवाब देंहटाएंतमाम रात मैं खोया रहा सवालों में
मगर न शेर कोई आ सका ख्यालों में।
मज़ाहिया हो ये तरही या फिर वो हो सौती
इसी पे आप भी बँटने लगे हैं पालों में।
अजी हुजूर सौती को मज़ाहिया बनाना कुछ मुश्किल न होगा, समस्या है बह्र की। ये बह्र इतनी टेढ़ी है कि मैनें तो इसपर एक भी ग़ज़ल कहीं नहीं देखी है।
गौतम भैया और गुरु जी के संवाद ने हंसा हंसा कर लोट पोट कर दिया
जवाब देंहटाएंखूब हंसा :)
खैर
गौतम भैया,
आपको शायद पता नहीं है की हमारे यहाँ बचपन में पलंग भी उड जाती थी
खेल का नाम तो मुझे याद नहीं रहा पर
हम सब एक गोले में बैठते थे और कोई एक कबूतर से शुरू करता था और उड़ने वाली सभी चीज का नाम लेता था और हमें उंगली से उडाना पडता था और बीच में वह पलंग या साईकिल भी उड़ा देता था और जिसने पलंग को उंगली से उड़ा दिया उसके साथ "पकन पकैया" किया जाता था बेचारा बहुत परेशां होता था
तो अब ये मिश्रा पढ़िए
जहाज उड़ा, पतंग उड़ी, पलंग उड़ी दिमाग दही
अब बाकी के मिसरों का अर्थ मत पूछियेगा ,,,, हा हा हा
गुरूदेव, नो कमेंट... :-)
जवाब देंहटाएंअभी तो फिलहाल आपके द्वारा अपनी पीठ ठोंके जाने पर इतरा रहा हूँ....सातवें आसमान पे उड़ रहा हूं।
गौतम जी .... भई हम जैसे नोसिखिये भी हैं गुरुकुल में ... जो अभी का खा गा में ही अटके हुवे हैं ... फिर आप तो इस कठिन बहर को निभाने की बात कर रहे हो ...
जवाब देंहटाएंवैसे ग़ज़ल कुछ मतलब होते हुवे भी बिना मतलब के हो ... मजाहिया ही हो तो मज़ा आएगा ...
तिलक जी .... अब तो कमान आपके हाथ में है तीर जल्दी छोड़ दो .... कम से कम हमारे जैसों को कुछ ज्यादा समय मिल जाएगा सोचने का .
तिलक जी के मिसरे का इंतज़ार करूँगा ... और हाँ वो पलग उड़ वाला खेल मैं भी खेल चूका हूँ ...! गुरु जी द्वारा पीठ ठोके जाने पर आपको बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएंअर्श
हा हा हा
जवाब देंहटाएंअर्श भाई का समर्थन मिल गया
और किसी ने भी खेला हो तो मुझे समर्थन दें और मेरी पार्टी को मजबूत दावेदारी के साथ पार्लियामेंट में धकेलने में सहयोग दें
:)
गुणीजन इस पर एक विचार करें कि यह मीटर में है कि नहीं:
जवाब देंहटाएंचलो कुछ रंग तो भरलें, भले उनसे अदावत है
सुना सबसे यही हमने ये (य) उत्सव इक इबादत है।
मैं वीनस के समर्थन में हूँ। लगभग यही खेल मैं बच्चो से उनके बचपन में खेलता था। उनसे कहता चिडि़या उड़ी वो कहते फुर्र इसी तरह पंछियों के नाम लेते लेते एकाएक कुछ न उड़ने वाली चीज या प्राणी का नाम आ जाता था और वो बोलते थे 'नहीं..ई..ई'। कभी कभी चूक भी जाते थे।
असली मज़ा तो तब आता था जब कोई चूक जाता था :)
जवाब देंहटाएंधन पकैया होती थी और बल भर होती थी ,, हा हा हा
चलो कुछ रंग तो भरलें, भले उनसे अदावत है
जवाब देंहटाएंसुना सबसे यही हमने ये उत्सव इक इबादत है।
तिलक जी ये मतला तो मुझे शुद्ध हजज में लग रहा है
हजज मुसद्दस सालिम
@वीनस
जवाब देंहटाएंयही तो समस्या आ रही है इस वाफिर बह्र में, वाफिर के सही वज़्न में रखो तो शब्द-प्रवाह नहीं मिलता। कोशिश जारी है।
अभी तो ट्रेलर में ही दिक्कत आ रही है
जवाब देंहटाएंपूरी फिल्म तो भगवान भरोसे
हा हा हा
अगर इस बार की बह्र बदल कर २२१२, १२११, २२१२ १२ कर दी जाए तो मज़ा ही आ जाए, आजकल ये धुन दिमाग में सेट है :)
जवाब देंहटाएंमैं तो पूरा दिमाग़ दही करने के बाद इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि इस तरही पर बह्र और तरही मिसरे का दायित्व नौजवान पीढ़ी के जिम्मे ही रहना चाहिये। वरना होली तो हो ली।
जवाब देंहटाएंइकासी, बयासी, तिरासी, चोरासी
जवाब देंहटाएंतुम्हें मेरी कोशिश लगेगी जरा सी।
सर अन्दर करने से पहले एक प्रयास और किया है, वाफर में ही सौती के करीब पहुँचने का।
शबाब मिला, हिजाब मिला, निकाह हुआ, हिजाब गया
किताब पढ़ी, वक़ार मिला, कसीद हुए, खिताब गया।
शबाब : युवावस्था, जवानी
हिजाब : आड़, पर्दा, लाज, शर्म, झिझक
वक़ार : मान मर्यादा, इज़्ज़त
कसीद : जिसका चलन न रहे
ये चिड़िया उड़ वाला गेम तो मैंने भी खेला है। मेरा भी वोट गिना जाय।
जवाब देंहटाएं@तिलक भाई साब
जवाब देंहटाएंरंग, अदावत, उत्सव एंड इबादत वाह क्या शब्द संयोजन बिठाया है तिलक भाई साब................
@पंकज भाई
मुझे लगता है इसे हास्य कवि सम्मेलन की तर्ज पर लेना ज़्यादा ठीक रहेगा, और होली का मज़ा भी आएगा| बहर कठिन ली - तो लोग 'रुस्तमी' दिखाने को बाध्य हो जाएँगे| फिर होली वाला माहौल नहीं जम पाएगा - दिमाग़ के दही के कुंड वाला| जबकि ये मुशायरा तो कुछ ऐसा होना चाहिए कि इज़्ज़त के साथ एक दूसरे से ठिठोली भी हो सके|
तिलक भाई साब के सुझाव पर विचार कर के देखना चाहिए एक बार|
लगे हाथों ज़रा माहौल को शायराना करने का प्रयास करता हूँ:-
होली पे भद्दे रंगों का इस्तेमाल नहीं करते
दिल की महफ़िल में शस्त्रों का इस्तेमाल नहीं करते
जिन्हें समझने की खातिर हम शब्द कोष की ओर तकें
पोय्ट्री में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते
मैने अपना सुझाव दिया है, बाकी आप लोग जितना जल्दी हो फाइनल कर दें ताकि हम लोग काम पर लग सकें|
@वीनस
मैं २-३ दिन मथुरा रहना वाला हूँ, प्लीज़ मुझे मिसरा और मीटर मसेज कर देना मेरे मोबाइल पर दोस्त|
ये चिड़िया फुर्र वाला गेम बचपन की याद दिलाता है वाकई| पर वही बात है कि होली के माहौल में ग़जलिया रुस्तमी से पाला पड़ जाएगा| हँसने हँसाने का मौका शायद उतना न मिल पाए जितना किसी सरल बहर के साथ मिल सकता है|
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जवाब देंहटाएंसोमवार को मिसरा-ए-तरह घोषित होगा । बहर तो यही रहेगी । फार्मेट कुछ सौती कुछ मज़ाहिया मिक्स रहेगा ।
जवाब देंहटाएंhaazriin e mehfil aur Pankaj ji!
जवाब देंहटाएंnamaskaar!
is post par ek adabee bahs dekh kar behad khushee bhee ho rahee hai aur pasho pesh meN bhee huN.
jahaaN tak meraa mehdood ilm hai, shaayroN kee apnee aawaaz (saut) meN unkaa kalaam padhnaa sauti mushaara kahlaataa hai. zaahir hai ki aam taur mushaaira sauti hee hotaa hai, so use mushaira hee kah lete hai. qadeem shaairee aur unse juDe articles meN 'sauti mushaire' ke kisee zik'r ko talaashne meN, maiN naakaamyaab rahaa.
jab internet par shaairee shuruu huee to pehle sirf type kar ke hee ghazal adaa hotee thee, magar ab internet par apnee aawaaz meN ghazal lagaanaa baDaa aasaan ho gayaa hai, to is tarah ke mushaaire ko aam internet mushaaire se judaa dikhaane ke liye sauti-mushaaire kaa naam dete hue zaroor sunaa hai.
jaisaa Pankaj ji ne kahaa ki, misroN kaa koee saarthak matlab na ho magar radeef/qafiye barkaraar rahe. aise kalaamoN ko shaairee hee kaise kahaa jaa saktaa hai?
albat'ta mazaahiya sher o shaairee ke bhee apne maane hai aur mazaahiya mushaairoN ke baare meN bhee sun'na aam hai.
is baare meN maine maahir e fan o arooz muhtaram Dr. Tabish Mehdi aur Sarwar Alam Raz saHeb se bhee baat kee. unheN bhee ye jaan kar hairat huee. pichhle daur kee shaairee meN mushaaire ke aise kisee classification ke baare meN in buzurg shura ne bhee naheeN sunaa.
meraa maqsad kisee tarah kii tanqeed nah hokar mehz ek guzaarish hai ki agar is baare meN koee article/misaal ho to dene kee zehat kareN taaki mere aur baakee dostoN ke ilm meN izaafa hoN.
धीर जी आपने बहुत काम की जानकारी दी है । ऐसी ही कुछ जानकारी मुझे भी कुछ उस्तादों ने दी थी । और सोती का मुशायरे के संबंध में उपयोग भी मैंने यहां ही देखा था । लेकिन मेरे पास चूंकि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित नया ज्ञानोदय में अश्क साहब का लेख है इसलिये मुझे लगता है कि अश्क साहब ने यदि लिखा है तो कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो होता ही होगा । आप के हिसाब से सौती का जो अर्थ आ रहा है वो हर मुशायरा ही सौती होगा । क्योंकि हर मुशायरे में शायर अपनी ही आवाज़ में अपने ही अंदाज़ में पढ़ता है । और मुशायरों की परंपरा तो बरसों पुरानी है फिर ये सौती शब्द अलग से यदि है तो इसका कुछ कारण तो होगा ही । बस वही मेरी जिज्ञासा है । अश्क साहब का आलेख आप एक बार देखें जो मैंने इसी पोस्ट के प्रारंभ में दिया है । हो सकता है कि सौती का अर्थ ये न हो जो हम सोच रहे हैं लेकिन किसी मुशायरे में शायर द्वारा अपना कलाम पढ़ने को भा शायद सौती नहीं कह सकते । अश्क जी का ये संस्मरण लगभग पच्चीस तीस साल पुराना है । सौती पर मेरे विचार अपने नहीं हैं ये केवल अश्क जी का लेख पढ़ कर उपजे हैं । क्योंकि इससे पहले सौती काफिया तो मैंने खुब सुना था लेकिन सौती मुशायरा पहली बार अश्क जी के आलेख से ही जाना । परम श्रद्धेय डॉ ताबिश साहब और आदरणीय सरवर साहब से आप ये जानने का प्रयास करें कि सौती मुशायरा और सामान्य मुशायरा में क्या अंतर होता है । मैं भी यही जानने का प्रयास कुछ उस्तादों से कर रहा हूं ।
जवाब देंहटाएंdhanyavaad Pnkaj jii!
जवाब देंहटाएंaapkaa behad shukriyaa ki aapne meraa khat mere uddeshya ke anuroop constructive liyaa.
maiN is baare meN aur maaloomaat karuNgaa. aur aapkaa kathan bhee saheeH hai ki agar Ashq saHeb ne likhaa hai aur khudaa e shaairee Faiz saHeb kaa zikr hai to kuchh baat zaroor hogee.
saadar
-Dheer
पंकज जी,मेरे लिए सब कुछ एक खजाने जैसा है.. जितनी भी जानकारी आपने दिया और उस पर बड़े लोगों के कमेंट सब कुछ ज्ञानवर्धक है..ऐसी जानकारी के लिए आपका बहुत बहुत आभार..प्रणाम स्वीकारें..
जवाब देंहटाएंआता हूँ, जाता हूँ, बस ज्ञान के सागर से कुछ सहेजने की कोशिश करता हूँ.
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एक बात कहना चाहूँगा, चूँकि मौसम होली का है, तो सौती में हास्य तो होगा ही. चाहे अर्थ का अनर्थ करके हो. चूँकि बहर का पालन करना है तो ग़ज़ल तो कहलाएगी. मतलब, होली विशेष सौती मुशायरा जिंदाबाद!!
वीनस, मैं तो आज भी ये खेल खेलता हूँ, जब भी घर पर बच्चो संग होता हूँ, ... सबसे पहले मैं सायकिल उड़ाता हूँ. कभी बचपन में कहा करता था. "तेज हवा में मकान उड़..."
जवाब देंहटाएंबहरहाल, तिलक जी के प्रयास देख उनको साधुवाद !! यहाँ प् आये नए "अदबी उरूज पसंद टिप्पणीकारों" से मिल बहुत ख़ुशी हुयी.
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मैं तो अब वीकली पसेंजर हूँ, ब्लॉग पर आने जाने के लिए. फिर भी अधिकाँश टिप्पणियाँ पढ़ लेता हूँ. माहौल अभी चरम पर है तो बस हास्य के लिए एक लाइन सुना जाये -
सलाम तुझे शराब मुझे, मिजाज कभी किसी से मिला...!! हा हा हा !!