इस बार का तरही मुशायरा कुछ परेशानियों से जूझता हुआ आगे चल रहा है । इस बीच कई सारी व्यस्तताएं भी आ रही हैं । 6 फरवरी को इंदौर में पर्यावरण पर आधारित कवि सम्मेलन में भाग लेने जाना पड़ा । एक अच्छे काम के लिये किये गये कवि सम्मेलन में भाग लेना अच्छा लगा । नदी को मैं सबसे ज्यादा प्रेम करता हूं । इसलिये मैंने नदी पर ही सब कुछ पढ़ा । कुछ मुक्तक और एक गीत नदी पर । अभी वापस आकर आफिस में बैठा हूं । और अब ये तरही को लिख रहा हूं । क्योंकि फिर 9 को निकलना है यमुना नगर के लिये । और फिर पूरे सप्ताह की व्यस्तताएं हैं । खैर चलिये आज तो चलते हैं चार शायरों के साथ । और फिर अगले अंक में समापन करते हैं तीन शायराओं के साथ तरही का ।
नववर्ष तरही मुशायरा
नए साल में नये गुल खिलें, नई खुश्बुएं नया रंग हो
कंचन चौहान
प्रणाम गुरू जी,
लीजिये, हर बार की तरह ना ना कहते हुए, भी कुछ अशआर....! अपने गुरूभाईयों की नाक रखने को
जो लकीर खींचे वो मैं रहूँ, जो भी बुत गढ़े मेरा ढंग हो
तो नही फरक, मुझे है कोई, तू कहीं रहे, कोई संग हो।
तेरे ही लिये मैंने तुझको भी, ले तुझे तुझी को है दे दिया
जरा खुद को खुद से बचाना खुद, खुदी के लिये नया संग हो
तू रहे निगाह के सामने, तुझे छू सकूँ कि न छू सकूँ,
है मेरी तरफ ही तेरी नज़र, मेरा ये भरम नही भंग हो।
मेरा बाग वो ही पुराना हो, नई फुनगियाँ, नई बेल हो,
नये साल में नये गुल खिलें, नई हो महक, नया रंग हो।
बने राडियाओं से दूरियाँ, रहे कलमाड़ी का फलक़ अलग,
मेरे देश में रहें शेर सब, नहीं आसतीं के भुजंग हो
रहे हर बरस सभी रुत भरी, वो शरद हो या कि हों बारिशें,
फगुआ उड़े, पुजे कजरियाँ, औ बसंत मस्त मलंग हो।
रविकांत पांडेय
गुरुजी, प्रणाम। आलोचक "अर्श" की फेवरिट बहर ने जान निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शेर ही नहीं बन पा रहे हैं। लिहाज़ा कुछ शेर पेश हैं, बगैर मतले के (इस बार तो मुशायरे से क्षमा मांग लेने को जी चाह रहा था ) -
यही सोचकर है रकीब को यूं गले से मैंने लगा लिया
मैं कहा हूं चंदन अगर नहीं मेरे पास कोई भुजंग हो
हैं फकीर हम, हमें आती है सभी ठौर नींद यूं एक सी
वो जमीन हो, कि हो चारपाई, चटाई हो कि पलंग हो
न हो रूप पर तू फ़िदा शलभ नहीं रूप का है भरोसा कुछ
यूं बुला के पास जलाने का ये नया शमा का न ढंग हो
जो ये सोचते हैं कढ़ेगा कवि यूं कसीदे ताज की शान में
फिर उन अकबरों को बताओ ये कि तुम आज भी वही "गंग" हो
यूं सलाम कर, यूं दुआयें दे, दो हज़ार दस ने विदा लिया
नये साल में नये गुल खिलें, नई हो महक, नया रंग हो
है उड़ा रहा कोई शख्स तो कोई चाहता इसे काटना
तू संभल रवी तेरी जिंदगी यूं है जैसे कोई पतंग हो
नोट- कवि गंग (पूरा नाम गंगाधर) से एक दिन अकबर ने "आस करो अकबर की" इस वाक्यांश पर कविता लिखने को कहा। सोचा तो था कि मेरी प्रशंसा में कुछ लिखेगा किंतु हुआ उल्टा। कवि गंग ने यों लिखा-
एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।
अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥
कवि ‘गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की।
जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकब्बर की॥
अकबर ने खुद को अपमानित महसूस करते हुये इसका अर्थ पूछा। कवि गंग ने कहा-
एक हाथ घोड़ा, एक हाथ खर
कहना था सो कह दिया, करना है सो कर
अपनी स्पष्टवादिता के चलते कवि को (संभवतः जहांगीर ने) हाथी से कुचलवा कर मरवा दिया गया जिसका वर्णन कई परवर्ती कवियों ने किया है। जैसे-
सब देवन को दरबार जुरो तहँ पिंगल छंद बनाय कै गायो।
जब काहू ते अर्थ कह्यो न गयो तब नारद एक प्रसंग चलायो
मृतलोक में है नर एक गुनी कवि गंग को नाम सभा में बतायो।
सुनि चाह भई परमेसर को तब गंग को लेन गनेस पठायो
(हाथी = गणेश)
प्रकाश सिंह अर्श
गुरु जी प्रणाम ,
जैसे तैसे तरही लिख पाया हूँ ! अब आपके हवाले !
जो गिला है दर्द है पास में जो पुरानी याद बेरंग हो !
उसे छोड़ कर चलो हम मिले जहां बेक़रारी उमंग हो !!
मेरे सायबाँ मेरे हमनवां मेरे राज़दां मेरे पास आ ,
तेरे प्यार का मुझे आसरा भले और कोई न संग हो !
तुझे सोचना तुझे चाहना तुझे देखना तुझे पूजना ,
मेरी ज़िंदगी में है और क्या मेरे जीने का यूँ ही ढंग हो !
ये तमाम शह्र ही आजकल लगने लगा है अजीब सा ,
जिसे देखिये वही भागता फिरता है जैसे की जंग हो !
मेरे वास्ते कहीं कुछ न हो मेरी चाह है मरे मुल्क में ,
नए साल में नए गुल खिलें नई हो महक नया रंग हो !
बड़े नाज़ुकी से गुलाब भी करने लगे थे शिकायतें ,
ज़रा देखिये ज़रा सोचिये कोई आपसे नहीं तंग हो !
मेरे पास मेरा उसूल है तेरे पास तेरी शिकायतें ,
किसे छोड़ दूँ किसे थाम लूँ कोई डोर कोई पतंग हो !
वो परख रहे हैं मुझे ज़रा कोई उनको भी ये बताये तो ,
मेरा इश्क अपने मिजाज़ का यूँ लगे की जैसे तरंग/दबंग हो !
मैं उसे हयात-ऐ- सुख़न कहूँ या वरक़-वरक़ मैं पढ़ा करूँ ,
जिसे देखता हूँ मैं गौर से तो लगे मेरा ही वो अंग हो !
वो कभी कभी आ जाता है मेरे ज़िंदगी के मज़ार पे ,
मुझे आदतें भी इसी की है तुम ऐ जहां क्यूँ दंग हो !
सुलभ जायसवाल
कहीं मुश्किलें कभी आफ़तें, कहीं राह में कोइ जंग हो
चाहे जीत हो चाहे हार हो, तेरी रौशनी मेरे संग हो
नइ आस हो नइ ताजगी, नइ हो पहल नया ढंग हो
नए साल में नए गुल खिले, नइ हो महक नया रंग हो
कोइ जिंदगी न सुरंग हो, न ये कारवाँ ही अपंग हो
बरसे वहां धूप प्रेम की, जो ठिठुरता कहीं अंग हो
तेरे हाथ में मेरा हाथ हो, जो थके कभी जो गिरे कहीं
तेरे वास्ते हो जिगर मेरा, क्यूँ दोस्ती भला तंग हो
मैं हूँ नींद में तू है खाब में, मैं हूँ गीत में तू है राग में
चलें उम्र भर यूँ ही हर कदम, जैसे थाप सह मिरदंग हो
ये सवाल है कश्मीर का, और हिंद के अभिमान का
मुंह तोड़ कर दे जवाब हम, कितना बड़ा ही भुजंग हो
हूं बहुत अच्छे शेर कहे गये हैं और हर एक ने अपने ही अलग अंदाज़ में कहे हैं । कई को कोट करने की इच्छा हो रही है लेकिन क्या करें इस बार के तरही को लेकर जो नियम बनाये हैं उनका पालन करना ही होगा । तो दीजिये दाद और प्रतीक्षा कीजिये अगले समापन अंक का ।
कमाल के अशाअर कहें हैं चारों शायरों ने यह देखते हुए कि इस बार का तरही बड़ा मुश्किल था। कंचन जी का "जो लकीर...." वाला शे’र दिल को छू गया। रविकांत जी का "है उड़ा रहा..." वाला शे’र क्या खूब है। प्रकाश जी का "तुझे सोचना...." खास है। सुलभ जी का "तेरे हाथ में..." वाला शे’र शानदार है।
जवाब देंहटाएंचारों शायरों को बहुत बहुत बधाई
गुरूवर,
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम,
कल रात कवि सम्मेलन में आप अपने नीले कुर्ते में बहुत लुभा रहे थे। मैं उस वक्त वहाँ पहुँच पाया जबकि श्री बुच साहब का उद्बोधन अपने अंतिम चरण था, फिर मंचासीन सभी क्वियों का स्वागत। तत्पश्चात श्री कवि गोष्ठी की शुरूआत रावताभाटा से पधारे हुये श्री ललित जी कविता बीज तक तो मैं वहाँ रहा था।
कार्पोरेट कभी मज़बूरियों को ढोते रहने का नाम भर लगता है, चूंकि कार्यक्रम किसी अन्य कर्पोरेट का है वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज नही करा सका। पूर्व की चर्चानुसार यदि फार्च्यून लैण्डमार्क्स में ही रहता तो कोई बंदिश नही होती। मैं उस कार्यक्रम के मध्य आपको डिस्टर्ब नही करना चाहता था।
आपके दर्शन मिला बस यही उस शाम की खासियत रही।
अबकी जरूर सीहोर आने की सोच रहा हुँ केवल आपसे मिलने और आशीर्वाद लेने।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
इस अंक की पोस्टों को पढना अभी बाकी है.........
कन्चन जी और सभी शायर गण को बधाई अपने अपने उम्दा अशआर के लिये।
जवाब देंहटाएं॰कंचन जी -है मेरी तरफ़ ही तेरी नज़र मेरा ये भरम नहीं भंग हो।
॰रवि जी -हैं फ़कीर हम हमें आती सभी ठौर नींद यूं एक सी।
॰अर्श जी-दूसरा और चौथा मिसरे अच्छे लगे।
॰सुलभ जी -मैं हूं नींद तू है ख़ाब ,मनभावन है।
उत्सव जारी आहे।
जवाब देंहटाएंकामिल बहर का कमाल जारी है|
जवाब देंहटाएंकंचन चौहान जी, रवि कांत पाण्डेय जी, प्रकाश सिंह अर्श जी और सुलभ जायसवाल जी को बहुत बहुत बधाई| सभी की कहन [सम्प्रेषण] गजब का है|
रवि भाई आपने 'गंग' कवि जी का ज़िक्र करके कई सारे लोगों को इतिहास के पन्नों को पलटने को मजबूर कर दिया है|
प्रवीण भाई............उत्सव जारी आहे..........तुम्ही खरं म्हटला हो......मन्डणी अज़ून ही जमलेली आहे.............
हालाँकि कहीं कहीं अटकाव / भटकाव महसूस हो रहा है, पर अपनी पहले कही बात को ही दोहराना चाहूँगा:-
नयों को हौसला भी दो, फकत ग़लती ही ना ढूँढो|
बड़े शाइर का भी हर इक शिअर आला नहीं होता||
पंकज जी मैं तो अब आप की अगली तरही के बारे में सोचने लगा हूँ, जो होली को ले कर होने वाली है| वो तरही तो वाकई एक ऐतिहासिक तरही होने के चांस हैं पूरे पूरे १००%|
cool work frd__________:P
जवाब देंहटाएंकंचन: तू रहे निगाह के सामने...
जवाब देंहटाएंरवि: जो ये सोचते हैं...
अर्श: तुझे सोचना तुझे चाहना...
सुलभ: मैं हूँ नींद में तू है खाब में...
जिस गुरुकुल में ऐसे चमकदार सितारे हों उस गुरुकुल की चमक का क्या कहना...आपको अपने विद्यार्थियों पर निसंदेह गर्व होना चाहिए...देख रहा हूँ सभी उस्ताद होते जा रहे हैं...मेरी सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.
नीरज
तौबा तौबा सुबीर जी आपके गुरूकुल के विद्द्यार्थी तो सब से बाजी मार गये। इनके लिये मै तो कम से कम सिवा तालियाँ बजाने के और कुछ नही कह सकती। चारों की गज़लें एक से बढ कर एक है। फिर किसी एक आध शेर को कोट करना मुनासिब नही होगा। कख्चन रवी सुलभ और अर्श चारो को बहुत बहुत बधाई। सब से अधिओक बधाई तो इनके गुरूजी को है जिन्हों ने ये हीरे तराशे है।
जवाब देंहटाएंएक बार फिर से
जवाब देंहटाएंमन की भावनाओं का बहुत सुन्दर शब्दों में इज़हार ....
हर ग़ज़ल पढ़ लेने लाईक़...
"तू रहे निगाह के सामने तुझे छू सकूं क न छू सकूं
है मेरी तरफ ही नज़र तेरी, मेरा ये भरम नहीं भंग हो"
कंचन जी का ये शेर उनकी नफ़ीस सोच की तर्जुमानी
कर रहा है....वाह !
"यु सलाम कर, यु दुआएं दे, दो हज़ार दस ने विदा लिया..."
रविकांत जी ने अपनी अलग अंदाज़ से गिरह बाँधी है
सराहनीय......
और
"तुझे सोचना, तुझे चाहना, तुझे देखना, तुझे पूजना
मेरी जिंदगी में हो और क्या, मेरे जीने का यही ढंग हो.."
अर्श साहब ..... कैसा नाज़ुक़ शेर कह दिया आपने
बार बार गुनगुना कर भी मन नहीं भरता ... !!
"कही मुश्किलें, कभी आफतें, कही राह में कोई जंग हो
चाहे जीत हो, चाहे हार हो, तेरी रौशनी मेरे संग हो.."
सुलभ जी के विचार , दुआओं की तरह जगमगाते नज़र आ रहे हैं
सभी के लिए ढेरों मुबारकबाद .
वाह वाह! बहुत शानदार शेर कहें हैं चारों शायरों ने...............हमें अभी बहुत कुछ सीखना है.
जवाब देंहटाएंकंचन जी ,रविकांत जी ,अर्श जी ,सुलभ जी सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंगुरु जी प्रणाम
जवाब देंहटाएंसमापन यह शब्द जब तरही के साथ जुड कर आता है तो बड़ा बुरा लगता है
दीदी -
जो लकीर खींचे वो मैं रहूँ, जो भी बुत गढ़े मेरा ढंग हो
तो नही फरक, मुझे है कोई, तू कहीं रहे, कोई संग हो।
तू रहे निगाह के सामने, तुझे छू सकूँ कि न छू सकूँ,
है मेरी तरफ ही तेरी नज़र, मेरा ये भरम नही भंग हो।
दीदी आप इतने सेंटी शेर लिख देती हैं की शब्द खोजने पड़ते हैं की क्या लिखूं और अक्सर हार जाता हूँ (जैसे आपकी नई पोस्ट दो बार पढ़ी, बिना कुछ कहे चुपचाप सरक गया, आप वही इमोशन उतनी ही खूबसूरती के साथ शेर में भी डाल देती हैं जो मेरे लिए तो रश्क की बात है)
रवि भाई -
यही सोचकर है रकीब को यूं गले से मैंने लगा लिया
मैं कहा हूं चंदन अगर नहीं मेरे पास कोई भुजंग हो
हैं फकीर हम, हमें आती है सभी ठौर नींद यूं एक सी
वो जमीन हो, कि हो चारपाई, चटाई हो कि पलंग हो
खास कर "चन्दन" शब्द के वज्न (२२) को जिस खूबसूरती के साथ कामिल(११२१२) के शेर में बखूबी निभाया गया है किसी जादूनिगारी से कम नहीं है
अर्श भाई गुजारा वक्त फिर फिर लौट कर आता है
जवाब देंहटाएंयाद करिये पिछले साल को, यही तरही का माहौल था, फरवरी का महीना था, आपने कातिल शेर कहे थे और मैंने याद दिलाया था १४ फरवरी आने वाली है
आज ये शेर पढ़ के फिर से याद दिला दूं की बस कुछ ही दिन बचे हैं शायद - ६ :)
कोई ये शेर पढ़ेगा तो यही कहेगा
मेरे सायबाँ मेरे हमनवां मेरे राज़दां मेरे पास आ ,
तेरे प्यार का मुझे आसरा भले और कोई न संग हो !
तुझे सोचना तुझे चाहना तुझे देखना तुझे पूजना ,
मेरी ज़िंदगी में है और क्या मेरे जीने का यूँ ही ढंग हो !
तो पिछले साल का कमेन्ट इक बार फिर से :)
पूरी गजल पर वसंतागमन की महक है १४ फरवरी भी आ रही है मौक़ा बढ़िया है खुल कर एलान करने का दिन है
बात समझ रहे हैं ना ???
कहीं मुश्किलें कभी आफ़तें, कहीं राह में कोइ जंग हो
जवाब देंहटाएंचाहे जीत हो चाहे हार हो, तेरी रौशनी मेरे संग हो
नइ आस हो नइ ताजगी, नइ हो पहल नया ढंग हो
नए साल में नए गुल खिले, नइ हो महक नया रंग हो
सुलभ जी
हार जीत की चिंता से दूर 'उसकी'(:}) रोशनी से सराबोर यह शेर पसंद आया
गिरह भी बढ़िया बांधी है पसंद आई
वाह बहुत बढ़िया. गुरुकुल की बात ही अलग है. अच्छी गज़लों के लिए बधाई. एकदम अलग अलग अंदाज़ की ग़ज़लें हैं. कुछ शेर कोट करना चाहूँगा:
जवाब देंहटाएंकंचन:"तू रहें निगाह के सामने.." बहुत अच्छा लगा.
रविकांत:"यही सोच कर है रकीब को..", "न हो रूप पर तो फ़िदा.." बहुत पसंद आये.
अर्श: "मेरे सायबाँ मेरे हमनवां..", "ये तमाम शह्र ही आजकल..", "मेरे पास मेरा उसूल.." बहुत अच्छे लगे. गिरह भी बहुत अच्छी बाँधी है. अर्श भाई का शेर कहने आ अंदाज़ बहुत अच्छा है.
सुलभ: "कहीं मुश्किलें, कभी आफतें..", "मैं हूँ नींद में तू है ख्वाब में.." बहुत अच्छे लगे.
@ कंचन दी,
जवाब देंहटाएंतू रहे निगाह के सामने, तुझे छू सकूँ कि न छू सकूँ,
है मेरी तरफ ही तेरी नज़र, मेरा ये भरम नही भंग हो।
वाह वा दीदी, क्या खूब कहा है, एकदम लाजवाब कर दिया है इस शेर ने.
@ रवि भाई,
जो ये सोचते हैं कढ़ेगा कवि यूं कसीदे ताज की शान में
फिर उन अकबरों को बताओ ये कि तुम आज भी वही "गंग" हो
आप का ये शेर, आप के ज्ञान का एक छोटा सा प्रमाण है, आप हर बार कोई ना कोई ऐसा कमाल करते है जो कि हमारे लिए किसी सुनहरे ख्वाब सा होता है.
@ अर्श भाई,
मेरे सायबाँ मेरे हमनवां मेरे राज़दां मेरे पास आ ,
तेरे प्यार का मुझे आसरा भले और कोई न संग हो !
क्या सादगी से शेर कहा है जनाब, इस शेर को पढ़ रहा हूँ और आँखें बंद करके सोच रहा हूँ तो आप ये शेर पढ़ते हुए नज़र आ रहे हैं. वाकई इस बार १४ फरवरी को ये शेर दिल्ली और उसके आस-पास की जमुनी रंग वालियों पर बिजलियाँ गिरा देगा.
@ सुलभ जी,
नइ आस हो नइ ताजगी, नइ हो पहल नया ढंग हो
नए साल में नए गुल खिले, नइ हो महक नया रंग हो
सुलभ जी, आपने अच्छी गिरह बाँधी है. एक ताजगी है मिसरा-ए-उला में जो सानी के साथ बहुत खूबसूरती से निखर रही है.
वाह, तो गुरूकुल आ गया पूरा का पूरा। कंचन की ग्तरही तो पहले ही पढ़ ली थी मैंने। फिर से पढ़ना अच्छा लगा। सबसे पुरानी स्टुडेंट होने के बावजूद उसकी वजन और बहर पर की गलतियाँ अखरती है। लेकिन मैडम ने पहले ही अनाउंस कर दिया है इस ज़ानिब तो क्या कहा जाये... :-)
जवाब देंहटाएंरवि की ग़ज़ल भी हमसब पहले देख चुके थे। उसके भुजंग और पलंग वाले काफ़ियों ने तब भी हैरान किया था, अब फिर से...। और मिथक में तो खैर रवि का कोई सानी ही नहीं।
अर्श...उफ़्फ़्फ़! थोड़ा सा निराश हुआ उसकी तरही पढ़कर। अब जाकर बहर की गलतियां...न! ये स्वीकार्य नहीं है अर्श। ये तमाम शहर ही लगने वाला मिस्रा...और एक-दो मिस्रे एकदम से भटक रहे हैं बहर से। गुरूजी, इसे मोटे-मोटे डंडे लगाइये।
सुलभ...लाजवाब! दिल से तरीफ़ें...!
लेकिन मैडम ने पहले ही अनाउंस कर दिया है इस ज़ानिब तो क्या कहा जाये... :-)
जवाब देंहटाएंmeri islaah to sir ne hi ki thi.... tab kyo nahi batayaa tha shrimaan :)
baaki sabki ghazalo par tippani fresh mood me karungi, abhi thoda sa pareshan hun...!!!
But one Thing
GOD BLESS ALL MY YOUNGERS... FEELING PROUD TO HAVE YOU ALL.