तरही में ये अब तक का सबसे लम्बा खिंचने वाला मुशायरा साबित हो रहा है । और न केवल लम्बा बल्कि सबसे सफल भी हो रहा है ऐसा लोगों के मेल से पता चल रहा है । जब मिसरा दिया था तो लगा था कि इस बार कुछ कठिन बहर , रदीफ काफिया का काम्बिनेशन लोगों को परेशान करेगा और उतनी ग़ज़लें नहीं आएंगीं । लेकिन जब आना प्रारंभ हुई तो अंबार ही लग गया । अभी भी ऐसा लग रहा है कि इस एक अंक के बाद दो या तीन अंक और आएंगें । वो भी तब जब नयी ग़जलों के लिये अब मना करना पड़ा । नहीं तो अभी तो और चार पांच आनी थीं । खैर इस बार के मुशायरे में जैसा कि राकेश जी ने फोन पर कहा कई सारे शेर बहुत ही अच्छे और हासिले मुशायरा निकल कर आये । बल्कि ये कहें कि हर ग़ज़ल में एक या दो शेर इसी प्रकार के निकले । अब जब हम समापन की तरफ बढ़ रहे हैं तो आज फिर एक बार सिद्धहस्त रचनाकारों की जुगलबंदी सामने है । राकेश जी और देवी नागरानी जी ऐसे नाम नहीं हैं जिनका परिचय करवाया जाये । ये तो वे रचनाकार हैं जिनको केवल और केवल सुना ही जाता है । और तिस पर आज तो बोनस में राकेश जी की एक नज़्म भी है जो पूरी तरह से बरसाती नज़्म है ।
वर्षा मंगल तरही मुशायरा
फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं
राकेश खंडेलवाल जी
राकेश जी ने इस बार के तरही मुशायरे को एक दिन मुझे फोन करके बहुत सराहा । वे कहने लगे कि इस बार तो कई लोगों ने मानो चौंका ही दिया है । सच है जब उनके जैसी पारखी नज़रें ऐसा कह रहीं हैं तो फिर तो मानना ही पड़ेगा कि इस बार का तरही नई ऊंचाइयों को छू गया है । राकेश जी ने पहले तो एक बरसाती नज़्म भेजी थी फिर बाद में उन्होंने कहा कि इतनी सुंदर ग़ज़लें देख मैंने भी एक ग़ज़ल मिसरे पर लिख दी है । सो हमें नज़्म बोनस में प्राप्त हो गई आज चलिये दोनों का ही आनंद लेते हैं ।
ग़ज़ल
जिधर भी उठती नजर रेत के बगूले हैं
बरसती आग की सूरज से बस शुआयें हैं
ये रंगतों से चमन की है हो रहा जाहिर
जली यहां पे नई पौध की चितायें हैं
कभी यहां पे बहा करती थी नदी कोई
ये जाने कौन सी तारीख की कथायें हैं
उफ़क से लौटी है सूनी नजर ये टकरा के
करी कबूल नहीं इन्द्र ने दुआयें हैं
हुज़ूर ! आपने ये मिसरा तरह भेजा है
फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटायें हैं
नज़्म
किसी पहुँचे तपस्वी की फ़लित होती दुआयें हैं
फ़लक पे झूमतीं जो सांवली ऊदी घटायें हैं
किसी ने आज फिर मल्हार छेड़ी है कहीं पर क्या
किसी ने मेघदूतम आज क्या फिर गुनगुनाया है
किसी ने नीम की शाखों पे डाले क्या कहो झूले
किसी ने या दुपट्टा आज अम्बर में उड़ाया है
धरा की प्यास को क्या मिल रहा आकाश से उत्तर
किसी की आँख का काजल जरा सा लग गया बहने
किसी के कुन्तलों को छेड़ती शायद हवा चंचल
जलद निज प्रीत की बातें अचानक लग गया कहने
लुटेरे मौसमों की आज कुछ बन आई है लगता
लपेटे श्याम के रँग की चले आये नई चादर
कई कालिन्दियों की छांव नभ पर लग गई पड़ने
हजारों कंठ हैं जयघोष करते एक स्वर गाकर
किसी पहुँचे तपस्वी की फ़लित होती दुआयें हैं
फ़लक पे झूमतीं जो सांवली ऊदी घटायें हैं
क्या कहा जाये नज़्म के बारे में और क्या कहा जाये ग़ज़ल के बारे में । बहरे हजज़ पर लिखी हुई बरसाती नज़्म तो कमाल ही है । और ये कि तरही के मिसरे को भी उसके अनुरूप ढाल कर मुखड़ा बना दिया है । पूरी की पूरी ग़ज़ल सामयिक चिंतन ( ग्लोबल वार्मिंग ) में लगी है । दिनकर जी ने कहा था कि जिस कवि की रचनाओं में उसका समय न झलके उस कवि की रचनाओं को समय खत्म कर देगा । आज को जिस प्रकार चिंता बना कर ग़ज़ल में ढाला है वो अनूठा है । वाह वाह वाह ।
देवी नागरानी जी
एक और सिद्धहस्त शायरा को सुनने का आनंद लीजिये । देवी नागरानी जी हम सबकी चिर परिचित शायरा हैं । उनके दो ग़ज़ल संग्रह भी आ चुके हैं । प्रयोग करने में वे माहिर हैं । उनकी ग़ज़लों में हर बार कुछ न कुछ नया मिलता है । सो आइये इस बार क्या है ये देखते हैं ।
घटाएं सांवली जब भी फ़लक पे छाएँ हैं
बरस के धरती पे हरियालियाँ उगाएँ हैं
निभा सका न कोई दोस्ती मलाल नहीं
जो छल रहीं हैं वो उसकी हसीं अदाएँ हैं
उसे है नाज़ पली उसके घर में वीरानी
मुझे है नाज़ पली मेरे घर खिज़ाएँ हैं
ये कैसा दिल के समंदर में उठ रहा तूफाँ
कि जैसे टूटी मेरी सारी आस्थाएँ हैं
परिंदे आस के बुनते हैं आशियाँ फिर भी
भले ही तूफाँ उन्हें लाख आज़माएँ हैं
ज़मीर में जो कभी बंदगी हुई रौशन
अक़ीदतों के चरागाँ भी जगमगाएँ हैं.
वो गूँज बनके ध्वनित होती हैं मेरे घट में
खमोशियों से वही आतीं अब सदाएँ हैं
ऐ माँ मुझे जो मिली छाँव तेरे आंचल की
मुझे बचाती बलाओं से ये दुआएँ हैं
है राज़ दिल में छिपे कितने गहरे ऐ देवी
पता लगा कि गुफाओं में भी गुफ़ाएँ हैं
वाह वाह वाह पहले तो मकते का मिसरा सानी ही उलझा गया । गुफाओं में गुफाएं , उफ क्या प्रयोग किया है । आवृत्ित के प्रयोग हमेशा ही आनंद देते हैं । वो गूंज बन के ध्वनित होती है ये शेर भी बहुत सुंदर बना है । मगर फिर भी अपनी कहूं तो मकते का मिसरा सानी अभी मुझे बाहर नहीं निकले दे रहा ।
आप आनंद लीजिये और मुझे दीजिये इजाज़त ।
बिलकुल आज, बोनस और एक्स्ट्रा बोनस का दिन है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय खंडेलवाल जी ने क्या नज़ारें दिखाएँ है.
शानदार नज़्म ढेरो कथाएं समेटे हुए.
आदरणीय देवी नागरानी जी के ग़ज़ल पर क्या कहूँ, बस डूब कर आनंद ले रहा हूँ.
ये कैसा दिल के समंदर में उठ रहा तूफाँ...
ऐ माँ मुझे जो मिली छाँव तेरे आंचल की...
...पता लगा कि गुफाओं में भी गुफ़ाएँ हैं
लाजवाब!!!
पिछले कुछ दिनों से नेट से दूर रहा और इसी वजह से यहाँ तक पहुँचने में देरी हुई. आज आया और देखा तो दो महान हस्तियाँ तरही की खूबसूरत ग़ज़लें लिए इंतज़ार में हैं. आँखें और दिल दोनों तृप्त हुए. भाई राकेश जी की प्रशंशा के लिए शब्द न पहले मेरे पास थे न अब हैं...शायद बने ही नहीं...ऐसे विलक्षण रचनाकार की रचनाएँ पढना ही हमारे लिए सौभाग्य की बात है...जब जब पढता हूँ सर उनके सम्मान में झुक जाता है...
जवाब देंहटाएंनागरानी दीदी का तो कहना ही क्या...जितनी मिठास उनके व्यवहार में है उतनी ही उनके लेखन में...उनसे मिलिए तो लगता है दुनिया कितनी हसीन है...मेरी खुश किस्मती है के मुझे उनके साथ कुछ वक्त गुज़ारने का मौका मिला है...उनकी ग़ज़लें उन्हीं के मुंह से सुनना एक ऐसा अनुभव है जिस से गुजरने को बार बार दिल चाहता है...तरही का एक एक शेर बेशकीमत मोती है जिसे ग़ज़ल की माला में उन्होंने पिरोया है...और गुफाओं में गुफाएं वाला करिश्मा सिर्फ उन्हीं के बस की बात है...
आज इतना आनंद आया है के क्या कहूँ...भाव विभोर हो गया हूँ...
नीरज
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जवाब देंहटाएंआदरणीय राकेश जी और देवी नागरानी जी की उपस्थ्थी ने यहाँ मानो चार चाँद लगा दिए हैं. दोनों ही विलक्षण प्रतिभाओं को मेरा सादर नमन .
जवाब देंहटाएंदोनो महान हस्तियों की ग़ज़ल का बस आनंद ही लिया जा सकता है ... कोई टिप्पणी चाँद को दिया दिखाने वाली बात है ... बस आनद ही आनंद ले रहे हैं हम तो ....
जवाब देंहटाएंआज तो सच मे अलग ही आनंद था……………हर शेर बेशकीमती……………आभार्।
जवाब देंहटाएंआदरणीय पंकज जी, इस तरही में बेहतरीन कलाम पढने को मिल रहा है...मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं
जवाब देंहटाएंआज की पोस्ट में दोनों रचनाकारों ने कई उम्दा शेर पेश किए हैं...
जिनके लिए वे दाद के हकदार हैं.
बेहतरीन.....दोनों गज़ले अद्भुत है और नज़्म के तो क्या कहने...पढ़कर बस आनंदित हूँ|दोनों शायरों को सर झुकाकर प्रणाम|
जवाब देंहटाएंगीत सम्राट आदरणीय श्री राकेश खंडेलवाल जी को पढ़ना हमेशा ही सुखद रहा है .... आज इनकी ग़ज़ल और नज़्म ने वाकई तरही को ऊँचाई पर ला खडा किया है ... हर शे'र मुकम्मल और नज़्म को जिस बारीकी से तरह-ए-मिसरा के साथ बांध कर रखा है वाकई इनके बस की ही ये बात थी .... आदरणीय देवी नागरानी जी को हमेशा ब्लॉग पर पढता रहा हूँ , वाकई मतला शानदार है मगर दूसरा शे'र भी कम नहीं मैं इस शे'र से बहार नहीं निकाल पा रहा खुद को ..... दोनों ही अज़ीम शाईर को सलाम और खड़े होकर तालियाँ ........
जवाब देंहटाएंअर्श
गुरु जी प्रणम,
जवाब देंहटाएंदेर से आने के लिये माफ़ी चाह्ता हूं
मेरा ही नुक्सान हुआ :।
उस्तादों के लिये कुछ कह पाना हमेशा मुश्किल रहा है
आज भी यही सोच रहा हूं क्या लिखूं
राकेश जी की गज़ल का अन्तिम शेर पढ कर तो देर तक मुस्कुराता रहा :)
देवी जी की गज़ल का हर शेर झूमने को विवश कर रहा है और मक्ते के लिये तो एक ज़ोरदार सलाम...
तरही के ये अकं जो उचाइयां पा रहे है और जो मेह्नत इसमें लगी है उसके लिये आपको दोहरा सलाम.
ये रंगतों से चमन की है हो रहा जाहिर
जवाब देंहटाएंजली यहाँ पे नई पौध की चिताएं हैं
ये शे'र बेहतरीन लगा राकेश जी का ......!!
और नज़्म अपनी जगज़ खूबसूरती बिखेर रही है ....
सच है कई बार ग़ज़ल को दायरों में समेटते वक़्त भाव खिल नहीं पाते....
इस नज़्म में भाव पूरी तरह खुल कर आये हैं ....!1
देवी नागरानी जी से परिचय सुभाष नीरव जी के ब्लॉग से हुआ था ....
गजलों की रानी हैं ये ...
शे'र तो जैसे इनके हर लफ्ज़ से फूटते हैं ...
परिंदे आस के बुनते हैं आशियाँ फिर भी
भले ही तूफां उन्हें लाख आजमायें है
ये शे'र बहुत ही अच्छा लगा नागरानी जी का ....
राकेश जी की नज़्म और ग़ज़ल दोनों ही अच्छी लगीं.
जवाब देंहटाएंदेवी नागरानी जी की ग़ज़ल भी बहुत भाई.. "परिदे आस के.." वाला शेर बहुत अच्छा लगा.
आदरणीय राकेश जी, का कहना कि इस तरही में अच्छे शेर और ग़ज़लें कही गयी हैं और आशीर्वाद स्वरुप ग़ज़ल और नज़्म का मिलना ..अहा
जवाब देंहटाएंये रंगतों से चमन की है हो रहा जाहिर
जली यहां पे नई पौध की चितायें हैं
कभी यहां पे बहा करती थी नदी कोई
ये जाने कौन सी तारीख की कथायें हैं
उफ़क से लौटी है सूनी नजर ये टकरा के
करी कबूल नहीं इन्द्र ने दुआयें हैं
इन तीनो शेरों को बारहां पढ़ रहा हूँ और राकेश जी को प्रणाम कर रहा हूँ.
वाकई किसी पहुँचे तपस्वी की दुआयें ही हैं जो फ़लित हो गयी हैं..................................
आदरणीय नागरानी जी, को पढ़ते आया हूँ........
ग़ज़ल के शेर एक अलग एहसास लिए हुए हैं, बात को सहज शब्दों में असरदार ढंग से कहने को फ़न को सलाम.
परिंदे आस के बुनते हैं आशियाँ फिर भी
भले ही तूफाँ उन्हें लाख आज़माएँ हैं
ज़मीर में जो कभी बंदगी हुई रौशन
अक़ीदतों के चरागाँ भी जगमगाएँ हैं.
है राज़ दिल में छिपे कितने गहरे ऐ देवी
पता लगा कि गुफाओं में भी गुफ़ाएँ हैं
मक्ता के बारे में क्या कहूं, वाकई कितने आचे से बात कही है, बस पढ़ के वही सोचे जा रहा हूँ. पहली बार इस तरेह से आवृत्ित के प्रयोग देख रहा हूँ, और ये आवृत्ित मेरे मन में शेर की फिर से आवृत्ित कर रही है.