शनिवार, 7 अगस्त 2010

आप भी पक्‍की रवायाती शायरी के शौकीन हैं तो आज सुनिये तरही मुशायरे में दो शायरों को डॉ त्रिमोहन तरल को और मुस्‍तफा माहिर को ।

आसमान रिमझिमा रहा है पिछले तीन दिनों से । रिमझिमा रहा है मतलब ये कि यूं बरस रहा है कि बरसता तो दिख रहा है लेकिन बहता हुआ नहीं दिख रहा है । अपने ही लिखे हुई एक बहुत पुराने गीत की पंक्तियां याद आ गयीं ''इक बादल जाने कैसा था, बरसा तो बहुत पर बह न सका'' बरसात का मौसम सारे मौसमों का राजा होता है । झींगुरों की चिकमिक, मेंढकों का दूर से टर्र टर्र करना और रात के अंधेरे में पेड़ों की पत्तियों पर झिमिक झिमिक करते हुए बूंदों का बरसना । बरसात के पास सबसे मनमोहक ध्‍वनियां हैं । बरसात तो अपने आप में ही कविता होती है । फुहारों के रेशमी दुपट्टे जब दरख्‍़तों के जिस्‍मों से लहर लहर के लिपटते हैं तो ऐसा लगता है कि वस्‍ल का इससे शानदार और तरीका और कुछ हो ही नहीं सकता ।

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रेडियो वाणी के यूनुस भाई दुर्लभ वर्षा गीतों में अक्‍सर एक गीत का जिक्र करते हैं 1984 में आई फिल्‍म तरंग  में श्री वनराज भाटिया के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर जी का गाया गुलज़ार साहब का लिखा गीत बरसे घन सारी रात,  मैंने भी ये गीत कई बार रेडियो पर सुना है पहले । कुमार शाहनी जी द्वारा निर्देशित इस फिल्‍म में अमोल पालेकर जी और स्‍व. स्मिता पाटील की मुख्‍य भूमिकाएं थीं ।  अब तो ये गीत काफी दिनों से नहीं सुना । लेकिन सुनने की ऐसी तीव्र उत्‍कंठा है कि बस । नेट पर कहीं ये गीत उपलब्‍ध नहीं है । गीत यदि आप सुन लेंगें तो वर्षा के सारे गीतों को भूल जाएंगे । तिस पर वनराज भाटिया जी का संगीत तो होता है सितारों से आगे का है । जिनके पास ये गीत उपलब्‍ध हो वे यदि इस गीत को सुनवाने की व्‍यवस्‍था करते हैं तो मुझ पर उनका बहुत बड़ा उपकार होगा इस सावन में । यूनुस भाई, मनीष कुमार जी, तरुण जी, सजीव सारथी जी, अमिताभ मीत जी, छोटे चोर जी, दिलीप जी, संजय पटेल जी, विमल वर्मा जी जैसे संगीत के धुरंदर महारथियों से भी निवेदन है कि यदि ये गीत यदि आप सब में से किसी के पास भी हो कृपया कृपया कृपया इसे सुनवा कर इस बार के सावन को आनंदमय बना दें मेरे भी और बाकियों के भी ।

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वर्षा मंगल तरही मुशायरा

फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

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मुस्तफा "माहिर"

अंकित सफ़र के मित्र मुस्‍तफा माहिर को पहले भी तरही में सुन चुके हैं, अंकित के ही शब्‍दों में मुस्‍तफा माहिर का परिचय कुछ यूं : एक बहुत अच्छा इंसान, बेहद उम्दा शायर, अज़ीज़ दोस्त और पंतनगर में मेरा पडोसी. वर्तमान में पंतनगर से मैनेजमेंट में PhD कर रहा है. ग़ज़ल की एक किताब भी आ चुकी है, "दुआ कीजे" के नाम से.

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हो दूर तीरगी हर लब पे ये दुआएं हैं

मगर दिए के तअक्कुब में तो हवाएं हैं

उतर के देख ज़रा तू तेरे लिए दिल में

मुहब्बतें हैं, तमन्नाएं हैं, वफायें हैं

रकीबे- वक़्त इन्हें तार तार ना कर दे

बदन पे पेड के जो मौसमी रिदाएँ हैं

तुम्हारी याद के साधू का बन गयीं डेरा

हमारी सोच के परबत में जो गुफाएं हैं

झुलस रहे हैं क़दम,  राह में कहीं शायद

किसी के खाब की जलती हुई चिताएं हैं

सभी को भीड़ में चलने का फन नहीं आता

जो रहबरों में थे वो आज दायें बाएं हैं

ज़मीन! तशनालबी ये तेरी घडी भर है

''फलक पे झूम रहीं सांवली घटायें हैं''

वाह वाह वाह ऐसा लगता है कि अपने तख़ल्‍लुस का सार्थक कर दिया है । किस शेर की बात करें और किस की नहीं करें । अपने मित्र को मात दे दी है । मात दे दी है साधू और गुफा के शेर में । अंकित सफर ने साधू और गुफा का बहुत अच्‍छा प्रयोग किया था लेकिन अंकित के मित्र ने उस शेर से आगे बढ़ कर शेर कह दिया है । तुम्‍हारी याद के साधू का बन गईं डेरा हमारी सोच के परबत में जो गुफाएं हैं वाह वाह वाह क्‍या कहन है । सभी को भीड़ में चलने का फन नहीं आता, उतर के देख जरा तू तेरे लिये दिल में और फिर गिरह का शेर किस की बात करें । माहिर की महारत देख ली ।

डॉ० त्रिमोहन 'तरल'

हिंदी में गीत, ग़ज़ल, दोहे और मुक्तक आदि विधाओं में काव्य-सृजन। कवि सम्मेलनों, मुशायरों में सक्रिय सहभागिता। सरस काव्य- पाठ एवं स्तरीय रचनाओं के कारण साहित्यिक कार्यक्रमों में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ने में सफल। हिंदी के कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती रहतीं हैं।कई प्रसिद्ध जाल पत्रिकाओं में भी रचनाओं का प्रकाशन. आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से गीतों , ग़ज़लों का कई बार प्रसारण। गीत और ग़ज़लों का एक-एक संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। सम्प्रति : आगरा कॉलेज, आगरा के अंग्रेजी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत । ये तो त्रिमोहन जी का ऐकेडेमिक परिचय हो गया लेकिन उनकी ग़ज़ल को पढ़कर ये जाना कि वे बहुत ही मंझे हुए और सिद्धहस्‍त शायर हैं उनकी शायरी में रवायती और प्रगतिशील दोनों का अनूठा सम्मिश्रण है । उनसे केवल मोबाइल पर ही बात हुई है लेकिन बात करके बहुत अच्‍छा लगा । तरही में पहली बार आ रहे हैं लेकिन ऐसी जबरदस्‍त इण्‍ट्री कि हम तालियां बजाने के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकते ।

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''फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटायें हैं''
ज़मीं के ज़ख्म भरेंगीं ये वो दवायें हैं

कहीं पे बाढ़ कहीं मछलियाँ भी हैं प्यासीं 
ये बादलों की पुरानी वही अदायें हैं
तुम्‍हें जो गीत, ग़ज़ल या कि नज़्म लगतीं हैं
वो दिल पे खाई हुई चोट की सदायें हैं
गुलों के बीच बमों की बिरादरी निकली
वफ़ा की  ओढ़े हुए चादरें जफ़ायें हैं
ग़रीब सोच रहे हैं कि भाग बदलेगा
हुकूमतों की बनीं इतनी योजनायें हैं
हवेलियों के दरीचों को खोल लो अब तो
फ़ज़ा में आज नई चल रहीं हवायें हैं
तुम्हारे पास ठहाके हैं, कहकहे हैं अगर  
'तरल' के पास सिसकतीं हुई कथायें हैं

वाह वाह वाह तीनों भुवन जीत लिये कितनी तरलता और सरलता  के साथ । पहले तो मकते के शेर ने ही बांध लिया । ऐसा पहली बार हुआ कि मकते के शेर ने इस प्रकार से उलझा लिया कि बहुत देर बार बाकी के शेरों की ओर देख ही नहीं पाया । फिर जब देखा तो मतले में ही वो गिरह बांधी है कि दिल बाग बाग हो जाये । ज़मीं के ज़ख्‍म भरेंगीं ये वो दवाएं हैं ।  क्‍या मिलाया है बादलों और के साथ धरती के रिश्‍ते को । फ़ज़ा में आज नई चल रहीं हवाएं हैं । हवाओं का क्‍या कहना । इसे ही कहते हैं धमाकेदार प्रवेश । आज की दोनों ही ग़ज़लों ने तरही को एक दम ऊंचाई पर पहुंचा दिया है ।

चलिये साहब तो आज तो आनंद हो गया । अब प्रतीक्षा करें अगले अंक की ।

21 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर!! मुस्तफ़ा माहिर जी के ये शेर तो गज़ब ढा रहे है
    मगर दिये के ताआक्कुब मे तो हवायें है...क्या बात है
    तुम्हारी याद के साधू....सोच के परबत.....क्या कहने इस परवाज ए तखय्युल के।

    _______________________________
    डा. ’तरल’ की गज़ल का मकता और मतला ही बाकी सारे शेरों से सीधी टक्कर ले रहा है। इनसे बहुत कुछ सीखने को मिला.

    दोनो गज़लो को पढ्कर सुखद अनुभूति हुई।

    गाने की प्रतीक्षा मुझे भी है।

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  2. मुस्तफा माहिर जी ने कमाल के शेर कहें हैं.
    इस तरही में एक कामयाब खिलाड़ी की तरह प्रदर्शन किया है.

    डा. त्रिमोहन तरल साहब को आज पहली बार सुना, और जब सुना तो आनद ही आनंद छा गया.

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  3. वाह भाई वाह...मुस्तफ़ा जी और त्रिलोचन जी आप दोनों शायरों की जितनी तारीफ करूँ कम है..सुंदर शब्दों के प्रयोग से आज की तरही मुशायरा सजी पड़ी है...बेहतरीन प्रस्तुति...आप दोनों शायरों को दिल से बधाई..

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  4. दोनों ही ग़ज़लें बेहद अच्छी हैं. गज़ब के शेर हैं. आनंद आ गया. डा. त्रिमोहन जी और मुस्तफा जी को बधाई एवं इतनी अच्छी गज़लों के लिए धन्यवाद.

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  6. वाह वा...आज तो उस्तादों के उस्ताद शायरों के कलाम पढने का मौका मिला...माहिर साहब की महारत के आगे ये सर बड़ी अदब से झुक रहा है...ये उम्र और ये तेवर...उफ्फ्फ्फ़...खुदा खैर करे...जिक्र करने लगूंगा तो ग़ज़ल के किसी शेर को नहीं छोड़ सकूँगा इसलिए सिर्फ इतना ही कहता हूँ कि इतनी मुकम्मल,दिलकश और लाजवाब ग़ज़ल मुद्दतों बाद पढने को मिली....काश इन का ग़ज़ल संग्रह कहीं से मिल जाए तो उसके बारे में अपनी किताबों की दुनिया में लिखूं...मेरी गुहार अंकित सुन कर जरूर मेरी मदद करेंगे...

    तरल साहब का कलाम पहली बार पढने को मिला...मतले से मकते तक का इतना खुशगवार सफ़र बहुत कम ग़ज़लों में मिलता है इस मायने में तरल साहब की ग़ज़ल पूरी तरह से खरी उतरी है...मतले में अब तक पहली बार किसी शायर ने गिरह लगाई है और क्या खूब लगाई है...दिल बाग़ बाग़ हो गया...

    इन दोनों अज़ीम शायरों को मेरा सलाम और आपका शुक्रिया जिनकी बदौलत ये नायाब हीरे हम अपने खजाने में ज़मा कर पा रहे हैं...

    नीरज

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  7. दोनों ही ग़ज़ल बहुत अच्‍छे अंदाज़ लेकर आई हैं।
    इसमें कोई शक नहीं कि गुफ़ाओं वाला शेर बहुत खूबसूरत है।
    कहीं पे बाढ़ कहीं मछलियॉं ... भी बहुत खूबसूरत शेर है।

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  8. उतर के देख ज़रा तू, तेरे लिए दिल में
    मुहब्बतें हैं तमन्नाएं हैं वफ़ाएं हैं......
    शेर पढ़कर....
    बेसाख्ता ज़बान से यही निकला...
    वाह...वाह
    हर शेर दिल को छूता गया....
    मुस्तुफ़ा माहिर साहब..
    मुबारकबाद कबूल फ़रमाएं...
    डा. त्रिमोहन ’तरल’ साहब का कलाम तो माशा अल्लाह बहुत ही पुख़्ता रहा है.
    हर शेर शानदार....
    ये खास तौर पर अच्छा लगा-
    तुम्हें जो गीत ग़ज़ल या कि नज़्म लगती हैं,
    वो दिल पे खाई हुई चोट की सदाएं हैं.
    पंकज जी..इस शानदार आयोजन के लिए बधाई.

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  9. वाकई दोनों गज़लें तरही को उंचाइयां बख्श रही हैं !.. कल रात जिस तरह से आप इन दोनों शाईरों के बारे में तारीफ़ कर रहे थे , रश्क हो रहा था सच कहूँ तो मगर सच तो ये है के आप सच कह रहे थे रात भर सो नहीं पाया इनकी ग़ज़ल पढ़ने की लालसा लिए .... सुबह से ही ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ बार बार इन दोनों की ...
    फिर बहन जी को भी बताया ...
    माहिर जी ने वाकई अपनी माहिरी को दिखाया है .. उतर के देख ज़रा तू तेरे लिए दिल में ...
    वाह वाह दिल कह उठा ... हर शे'र की तारीफ़ करना चाहता हूँ इनकी ... और दोस्त दोस्त निकला अंकित के दम से गुफाओं वाली बात ... बेशक कमाल का बन पडा है ... बधाई माहिर जी को ...
    तरल जी को पहली दफा पढ़ रहा हूँ मगर सच कहते हैं गुरु देव कलम ही तो अस्ल पहचान होती है किसी भी लिखने वाले के लिए ...
    और तरल साब ने अपनी पूरी तरलता दिखलाई पूरी ग़ज़ल तरलता से दिल में समाती चली गयी ...
    तुम्हे जो गीत ग़ज़ल या कि नज़्म लगती हैं
    वो दिल पे खाई हुई चोट कि सदायें हैं ...
    वाह जी वाह क्या बात कही ... मजा अगया
    और अपने मकते से वाकई समा बांध दिया इन्होने ...
    दोनों को ढेरो बधाइयां...

    अर्श

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  10. वाह ! क्या बात है !
    सचमुच दिलकश ग़ज़लें ! बधाई !

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  11. हो दूर तीरगी हर लब पे ये दुआएं हैं
    मगर दिये के त’आक़ुब में तो हवाएं हैं
    वाह ख़ूबसूरत मतला

    उतर के देख ज़रा तू तेरे लिये दिल में
    मुहब्बतें हैं ,तमन्नाएं ,हैं वफ़ाएं हैं
    बहुत ख़ूब !इतनी गहराई तक उतरना ही बड़ी बात है

    ख़ूबसूरत ग़ज़ल है माहिर साहब मुबारक्बाद क़ुबूल करें

    तुम्हें जो गीत ग़ज़ल या कि नज़्म लगती है
    वो दिल .......
    बहुत ख़ूब!

    ग़रीब सोच रहे हैं कि भाग बदलेगा
    हुकूमतों की बनी.............
    वाह!

    तरल जी बधाई हो सुंदर ग़ज़ल

    धन्यवाद सुबीर जी

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  12. मुस्तफ़ा भाई की तरही ने हक्का-बक्का कर दिया...इन काफ़ियों पर इतने बेहतरीन शेर निकाले जा सकते थे, सोच भी नहीं सकता था मैं। उनकी कलम को सलाम...

    तरल साब की ग़ज़ल भी खूब लगी। विशेष कर उनका "योजनाएं" काफ़िये का इस्तेमाल...

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  13. ‘ज़मीं के जख्म भरेंगी ये वो दवाएं हैं।‘
    अब तक के पूरे मुशायरेे का हासिल मिस्रा जहां ख़याल का नयापन है।
    ये मिस्रा इससे आगे जाने ही नहीं देता।
    त्रिमोहनजी को बहुत-बहुत बधाई

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  14. पंकज जी इस गीत को मैंने भी रेडिओ पर ही सुना है। वैसे अब चूंकि आपने इसका जिक्र किया है तो फिर से सुनने की इच्छा तीव्र हो गई है। अगर ये गीत कभी मिला तो आपको अवश्य सूचित करूँगा।

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  15. मेरा कमेन्ट कहाँ गया ?

    कोई गल नहीं फिर से लिख देते है :)_

    बढ़िया गजल को फिर से बढ़िया कहने में कैसा संकोच :)

    @ माहिर भाई,

    उतर के देख ज़रा ....
    तुम्हारी याद के साधू ....
    सभी को भीड़ में चलाने का फेन नहीं आता ....

    वाह..वा.... क्या बात है मज़ा आ गया

    और जो गिरह बांधी है कि

    ज़मीन तशनालाबी ये तेरी घड़ी भर है ...

    क्या बात है मज़ा आ गया

    ---------------------------------

    @ त्रिमोहन जी,

    सबसे पहले आपका बहुत बहुत स्वागत है

    गरीब सोच रहे हैं कि भाग बदलेगा
    हुकूमतों कि बनीं इतनी योजनाएं है

    बा-कसम कहता हूँ जब जब ये शेर दोहराता हूँ सोचता हूँ काश यह शेर मेरा होता
    काश यह मेरी कलम से निकला होता

    दिल खुश हो गया

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  16. कमाल के गज़लकारों से रूबरु करवा रहे हैं अँकित की तरह उसके दोस्त ने भी कमाल की गज़ल लिखी है
    उतर के देख ज़रा----
    सभी को भीड मे चलने का फन नही------ वाह शायद माहिर साहिब अपने लिये सही कह रहे हैं दिल को छू गयी उनकी गज़ल
    डाक्टर त्रिमोहन तरल जी की कल्म मे तो जैसे जादू है। बार बार पढे जा रही हूँ
    तुम्हें जो गीत-----
    गरीब सोच रहे हैं----
    बहुत अच्छी लेगी दोनो गज़लें। दोनो को बधाई

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  17. ांकित और रवी की गज़लें भी आज पढी हैं। दोनो ने कमाल कर दिया। क्यों न करें जब उनके गुरूजी भी कमाल पर कमाल किये जा रहे हैं। गज़ल की दुनिया मे सुबीर की पाठशाला का नाम सुनहरे अक्षरों मे लिखा जायेगा। आशीर्वाद।

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  18. ओह...किस शेर की बात करूँ,किसे छोड़ दूं....
    आनंद आ गया आनंद !!!

    कोटिशः आभार पढवाने के लिए...

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  19. तुम्हारी याद के साधु का बन गयीं डेरा ..... क्या कमाल के शेर कहे हैं मुस्तफ़ा जी ने ... और डा. तरल ने तो रोज़ रोज़ की जिंदगी से शेर निकाले हैं .... मज़ा आ गया दोनो को पढ़ कर ....

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  20. मुस्तफा भाई पहले तो बधाई कबूल करें, बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है.
    मात कबूल है, "माहिर" वाकई जादुई कलम से लिखता है, और कहन के तो क्या कहने, हर महफ़िल लूट लेता है और मैं फक्र करता हूँ. किस शेर की तारीफ करूं, हर शेर बेहतरीन है, और ग़ज़ल सहेजने लायक है.

    तरल जी, पहली बार आये हैं और धमाल कर दिया है.
    बहुत अच्छे शेर निकलें हैं, इन शेरों के तो क्या कहने "कहीं बाढ़, कहीं मछलियाँ..............", "तुम्हें जो गीत.........."
    बधाई स्वीकारें.

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