शुक्रवार, 10 मार्च 2023

आइए आज मनाते हैं बासी होली डॉ. रजनी मल्होत्रा नैयर, गुरप्रीत सिंह 'जम्मू' और सौरभ पाण्डेय के साथ।

होली का मुशायरा हर बार की तरह हर तरह के रंगों का गुलदस्ता लेकर आया है। रंगों का यह त्योहार उमंग और उल्लास से भरा होता है। इस बार हमने इस त्योहार की उन परंपराओं को मिसरे में लिया है, जो परंपराएँ पीछे छूटती जा रही हैं। उमंग और उल्लास से भरी हुई पुरानी होलियों की यादों को अपने मुशायरे में इस बार जगह प्रदान की है। होली असल में एक संधिपर्व होता है, जो ग्रीष्म और शिशिर के संधिकाल में आता है। जिस प्रकार दीपावली आती है, वर्षा और शिशिर के संधिकाल में। आइए आज अपने तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं।
"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
आइए आज मनाते हैं बासी होली डॉ. रजनी मल्होत्रा नैयर, गुरप्रीत सिंह 'जम्मू' और सौरभ पाण्डेय के साथ।

डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर
धीरे धीरे सारे पर्वों का जादू ख़तरे में है
"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
बिन सोचे धो डाला तूने चौराहे के गुंडों को
वो सब तुझ पर टूट पड़ेंगे अब तो तू ख़तरे में है
कितनी अंधी और करेगी भौतिकता की दौड़ हमें
जीवनदायी साफ़ हवा, पानी हर सू ख़तरे में है
बनकर आया जिन बच्चों को बेच दिया करती हैं जो
आया से पलने वाला वो  हर बाबू  ख़तरे में है
गैस, शुगर, बीपी सबको, कैसा सबका जीवन है ये
बेदम साँसें थमती धड़कन बेकाबू ख़तरे में है
मतले में ही गिरह को बहुत सुंदर तरीक़े से लगा कर उसी चिंता की तरफ़ इशारा किया गया है, जो चिंता हम सब की चिंता है कि हमारे जीवन से पर्व समाप्त हो रहे हैं। उसके बाद चौराहे के गुंडे को धोने के बाद के ख़तरे की तरफ़ ठिठौली में इशारा किया गया है। पर्यावरण की चिंता आज हमारी प्राथमिकताओं के होनी चाहिए, साफ हवा और पानी कब तक मिलता रहेगा यह सोचना चाहिए। अगले शेर में बिन माँ-बाप के पल रहे बच्चों के सिर पर मँडरा रहे ख़तरे की बात अच्छे से कही गई है। और अंतिम शेर तो जैसे हमारे समय का एक कड़वा सच है। बहुत ही शानदार ग़ज़ल वाह वाह वाह।

गुरप्रीत सिंह 'जम्मू'
जानवरों के घर, उनके पुरखों की भू खतरे में है
जंगल की तो बात ही छोड़ो अब तो ज़ू खतरे में है
तुझ को लगता है सरहद के पार अदू खतरे में है
अपना मुस्तकबिल तो देख ले भईए तू खतरे में है
माली को बस एक ही रंग के फूल चाहिएं गुलशन में
यानी सब फूलों की मिली जुली खुशबू खतरे में है
राजा जी की सोच से सब का सहमत होना है लाज़िम
जो उसके विपरीत दिखेगा वो पहलू खतरे में है
जब खतरे में होती है नेताओं की कुर्सी तो वो
चिल्लाते हैं मुस्लिम खतरे में, हिंदू खतरे में है
देश की जनता धीरे धीरे जाग रही, हक मांग रही
अब सत्ता और सत्ता का हर इक पिट्ठू खतरे में है
आप गुरु जी ठीक ही फरमाते हैं, सच्ची बात है ये
रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू खतरे में है
उसके पीछे पड़ने वाला है सारा सरकारी तंत्र
उसने सच तो बोल दिया पर अब 'जम्मू' खतरे में है
मतले में पर्यावरण की चिंता पर बहुत अच्छे से बात कही गई है। और हुस्ने-मतला में अदू की चिंता छोड़ कर अपना घर बचाने की सलाह सुंदरता से दी गई है। एक ही रंग के फूलों वाली बात क्या शानदार कटाक्ष है हमारे आज के रहनुमाओं पर, ख़ूब। और राजाजी की सोच से सहमति वाला इसी रंग का अगला शेर भी एकदम सटीक प्रहार है, कमाल। कुर्सी जब ख़तरे में आए तो हिंदू मुस्लिम करने की चाल को अगले शेर में बख़ूबी उजागर किया गया है। देश की जनता के जागने और हक़ माँगने पर इतना ही कहा जा सकता है... आमीन। गिरह का शेर क्या नए तरीक़े से लगाया गया है, एकदम बातचीत के अंदाज़ में, कमाल कमाल। और मकते का शेर भी हमारी वर्तमान सत्ता की कार्यप्रणाली को एकदम खोल कर सामने ला रहा है। वाह वाह वाह, शानदार ग़ज़ल।

सौरभ पाण्डेय
छोड़ो यारा क्या कहना किनके पहलू खतरे में हैं
भ्रष्ट प्रशासक, गुंडे नेता, खल-साहू खतरे में हैं
सब ही चाहें चैन-अमन की बंसी बाजे गली-गली
चैन-अमन के अर्थ मगर, सुन लो दद्दू, खतरे में हैं
एक समय था मिलजुल फगुआ खेल-खेल सब गाते थे
फोन-मुबाइल से त्यौहारों के जादू खतरे में हैं
अब तक नदिया बेचारी थी, लेकिन नाम कमाई थी
अब तो जल, जल-जीवन क्या, तट औ’ बालू खतरे में हैं
सूने हैं चौपाल बगीचे संस्कारों के ढंग गजब
रंग अबीर गुलाल फाग रसिया टेसू खतरे में हैं
पत्रों में तब हाल दिलों का अक्षर-अक्षर चूता था
मैसिज की अब होती भाषाएँ चालू, खतरे में हैं
अपने-अपने सूबे के सब राजे क्या, महराजे हैं
लेकिन अब मनबढ़ुओं के सब टिम्बकटू खतरे में हैं
मतले में ही विरोधाभास के साथ कटाक्ष को अच्छे से पिरोया गया है। अगले शेर में चैन-अमन को लेकर एक बार फिर बहुत अच्छे क़ाफ़िये का प्रयोग करते हुए ग़ज़ल के अंदाज़ में बात कही गई है। मोबाइल के आने से पर्वों का आनंद किस प्रकार कम हो रहा है उसको लेकर पूरी चिंता के साथ अगला शेर सामने आता है। प्रकृति का दोहन करता मानव और नदी से बालू निकाल कर पर्यावरण को असंतुलित करता इंसान, अगला शेर हमारे आने वाले भयावह कल की चेतावनी के रूप में है। अगला गिरह का शेर छीजते हुए रिश्तों की बात को सुंदरता के साथ कह रहा है। पत्र और सोशल मीडिया मैसेज के बीच का अंतर बताता हुआ अगला शेर अंदर से भावुकता पैदा कर रहा है। और अंतिम शेर एकदम तीखे तीर की तरह पार उतर रहा है। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

तो आज के तीनों रचनाकारों ने होली का रंग जमा दिया है। आप भी दाद दीजिए और होली का आनंद लीजिए। बासी होली मनाने इस बार भभ्भड़ कवि भौंचक्के भी आ सकते हैं। फ़िलहाल भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपने इस नये उपन्यास 'रूदादे-सफ़र' के प्रमोशन में जुटे हैं, जिसकी अमेज़न पर प्रीबुकिंग इस लिंक पर प्रारंभ हो चुकी है-  https://www.amazon.in/dp/B0BXP1VZXM पढ़ने की इच्छा हो तो पिता-पुत्री के भावनात्मक संबंधों पर आधारित यह उपन्यास आप भी बुक कर सकते हैं। 







10 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों ही रचनाकारों की समसामयिक मसअलों पर उठाई गई ग़ज़ल के हर शेर लाज़वाबहैं

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  2. तरही मिसरे ने एक अच्छी खासी चुनौती खड़ी कर दी फिर भी गंभीर प्रयास हुए और उन प्रयासों के परिणामस्वरूप विभिन्न रंगों में रंगे हुए अच्छे शेर सामने आए। प्रस्तुत शेर आश्वस्त करते हैं कि शायरी में सरोकारों का दायरा पारंपरिक सीमाओं का बंधन तोड़ चुका है और शायर मर्यादित भाषा की सीमा में रहते हुए खुलकर व्यक्त हो रहा है।
    आज के तीनों शायरों को बधाई इस उपलब्धि की।

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  4. बिन सोचे धो डाला तूने चौराहे के गुंडों को
    वो सब तुझ पर टूट पड़ेंगे अब तो तू खतरे में है
    ठिठोली करते-से इस शे’र में निरापद सामाजिकता के प्रति बनी आश्वस्ति और लुच्चों के एकजुट हो कर प्रतिकार करने को लेकर बनी फिक्र बेजोड़ ढंग से शाब्दिक हुई है. डॉ० रजनी की प्रस्तुति सामाजिक खतरों को शिद्दत से सूचीबद्ध करती हुई सामने आयी है. जिनमें निराश्रित बच्चों को लेकर पाप कर्म में मुब्तिला लोगों की कारगुजारियों की ओर इशारा भी स्पष्ट है.
    हार्दिक बधाइयाँ, डॉ० रजनी.

    गुरप्रीत सिंह ’जम्मू’ जी के मतले की सानी ’जंगल की तो बात ही छोड़ो अब तो जू खतरे में है’ प्रदत्त मिसरे के रदीफ को खुल कर निभाती हुई है. इनके हरेक शे’र से लगातार गढ़े जा रहे नैरेटिवों के सापेक्ष हर नागरिक की चिंता को स्वर मिलता हुआ प्रतीत हो रहा है. यह रचनाकर्म की सार्थकता ही है. कोई खतरा नहीं है, ’जम्मू’ भाई.
    हा हा हा..
    सहज और साफ प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ, गुरप्रीत भाई.

    एक बात, रदीफ का आखिरी लफ़्ज ’है’ या ’हैं’ है ?
    हमने तो ’हैं’ कह कर निभाया है. सुधीजन ’है’ के साथ निभा रहे हैं. तरह के मिसरे में कई संज्ञाओं के शुमार होने के कारण मुझे वाक्य बहुवचन का लगा है.

    इस पटल के सुधीजनों को होली की हार्दिक बधाइयाँ

    सौरभ

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  5. कमाल की गजलें कही हैं तीनों ही रचनाकारों ने। तीन अलग अलग रंग के शायरों ने मिलकर इंद्रधनुष सा बना दिया है अपने अशआरों से। बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ जी, गुरप्रीत जी एवं रजनी जी को।

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  6. सारे ग़ज़ल कारों को उनकी बेहतरीन ग़ज़लों के लिए बधाइयाँ।

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  7. सभी साथियों का बहुत धन्यवाद

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  8. कितनी अंधी और करेगी भौतिकता की दौड़ हमें
    जीवनदायी साफ़ हवा, पानी हर सू ख़तरे में है
    वाह वाह। सच्चा शेर। आदरणीय रजनी मल्होत्रा जी ने बहुत खूबसूरत ग़ज़ल पेश की है।

    आदरणीय सौरभ पांडे जी ने भी अपने अंदाज़ में हमेशा की तरह लाजवाब ग़ज़ल कही है।

    सब ही चाहें चैन-अमन की बंसी बाजे गली-गली
    चैन-अमन के अर्थ मगर, सुन लो दद्दू, खतरे में हैं
    वाह वाह बहुत ख़ूब।

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