बुधवार, 2 नवंबर 2016

इस बार तो लगता है कि बासी दीपावली का सिलसिला कुछ दिनों तक चलने वाला है, आइए आज दो गुणी शायरों की जोड़ी नीरज गोस्वामी जी और तिलकराज कपूर जी के साथ बासी दीपावली मनाते हैं।

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बासी दीपावली का अपना महत्व होता है। बासी दीपावली का मलब होता है, बचे हुए पटाखों को चलाना। हम लोग बचपन में बासी पटाखों को दिन में चलाते थे। यह देखने के लिए कि रात में तो यह राकेट केवल रोशनी की लकीर की तरह दिखता है लेकिन दिन के उजाले में जब इसे चलाएँगे, तो यह बाक़ायदा पूरा दिखेगा। बचे हुए बमों की बारूद को निकाल कर उसका एक अलग पटाखा बनाना और उसे चलाना, जो एक बहुत ख़तरनाक खेल था। कितना सुख मिलता था, जब रात को चलाई गई लड़ के कचरे में से कुछ जीवित बम मिल जाते थे। वही होता था हमारे लिए कारूँ का ख़ज़ाना। उन बमों को एकत्र करना और फिर एक-एक करके जलाना। बहुत सी यादें हैं, जो आज आ रही हैं। असल में त्योहार के बीत जाने के बाद मन ज़रा उदास हो जाता है। बीत जाने के बाद उदासी आ ही जाती है। उदासी इस बात की, कि अब जब आनंद के क्षण बीत गए हैं, तो एक बार फिर जीवन को उसी ढर्रे पर लौटना होगा। उसी दुनिया में, जहाँ नकारात्मकता भरी हुई है, जहाँ नफ़रतों का साम्राज्य पसरा हुआ है। शायद यह लौटना ही हमें अधिक उदास करता है। काश कि यह दुनिया इतनी अच्छी होती कि हर दिन हमारे मन में त्योहार वाली सकारात्मकता होती। काश कि हमें सकारात्मक होने के लिए किसी त्योहार की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। लेकिन हमारे काशों का कोई उत्तर होता कब है।

deepawali (16)उजाले के दरीचे खुल रहे हैं deepawali (16)[5]

इस बार का मिसरा बहरे हज़ज पर था। बहरे “हज़ज” जिसका कि स्‍थाई रुक्न होता है “मुफाईलुन” या 1222, यह बहर गाई जाने वाली बहर होती है। बहरे हज़ज का जो रुक्न है वह दो प्रकार के “जुज़” से बना है पहले एक “वतद् मज़मुआ” और उसके बाद दो “सबब-ए-ख़फ़ीफ़”। “12+2+2”, हमने बहुत पहले “जुज़” के बारे में जानकारी प्राप्त की थी उसमें इन “जुज़” का ज़िक्र आया था। “वतद् मजमुआ” उस तीन हर्फों वाली व्यवस्था को कहते हैं जिसके पहले दो हर्फ “गतिशील” हों तथा तीसरा “स्थिर” हो, “स्टेटिक्स” एंड “डायनेमिक्स” या “डामीनेंट” एंड “रेसेसिव” वाली थ्योरी। जैसे “अगर” शब्द में  “अ” और “ग” डामिनेंट हैं तथा “र” रेसेसिव है। तो “अगर” शब्द या इसके जैसी ध्वनि वाले सभी शब्द या व्यवस्‍थाएँ “वतद् मज़मुआ” कहलाएँगीं। अगर, मगर, चला, दिखा, रुका, नहीं, चलो, उठो, उठे। अब देखते हैं “सबब-ए-ख़फीफ़” को, बात ठीक पहले जैसी ही है लेकिन अंतर केवल इतना है कि यह दो हर्फों वाली व्यवस्‍था है जिसमें पहला “डामिनेंट” है और दूसरा “रेसेसिव”। उर्दू में इस “स्टेटिक” और “डायनेमिक वर्ण के लिए “मुतहर्रिक” और “साकिन” शब्द हैं। “मुतहर्रिक” मतलब “गतिशील” तथा “साकिन” मतलब “स्थिर”। तो “सबब-ए-ख़फ़ीफ़” में दो हर्फ हैं पहला “गतिशील” और दूसरा “स्थिर”। जैसे अब, हम, तुम, चल, हट, आ, जा, खा, तू, मैं, ये, ले, दे, के, वो, पी, ई, ऊ, ऐ। तो यदि हम हज़ज के रुक्न को देखें तो उसमें यही व्यवस्‍था है । 12+2+2  मुफा+ई +लुन

आइये अब अपनी इस बार की बहर पर ज़रा बातें करते हैं। इस बार की बहर का नाम है बहरे “हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़”। यह एक “मुज़ाहिफ़” बहर है, मतलब यह कि जिस बहर के किसी रुक्न में छेड़छाड़ की गई है, इस छेड़छाड़ को “जिहाफ़” कहते हैं और उसके द्वारा बनी बहर को “मुज़ाहिफ़” बहर कहा जाता है। “मुसद्दस” तो आप सब जानते ही हैं कि तीन रुक्नों वाली बहर को “मुसद्दस” कहते हैं। इसमें भी तीन रुक्न हैं तो यह हुई “मुसद्द्स”। यह जो पीछे “महज़ूफ़” की पूँछ लगी है यह क्या है ? असल में यह यही बताने के लिए है कि रुक्न में किस प्रकार की छेड़छाड़ की गई है। किसी भी रुक्न के अंतिम “सबब-ए-ख़फ़ीफ़” को ढिचक्याऊँ करके गोली मार देने को कहा जाता है “हज़फ़” करना। मतलब 1222 रुक्न के अंतिम 2 को हटा दिया गया और रह गया केवल 122, तो जो “जिहाफ़” किया गया उसका नाम था “हज़फ़” तथा उससे जो रुक्न बना उसका नाम है “महज़ूफ़” रुक्न।
“उजाले के” – (12+2+2)   12 उजा (वतद्-ए-मज़मुआ), 2 ले (सबब-ए-ख़फ़ीफ़), 2 के (सबब-ए-ख़फ़ीफ़) 

“दरीचे खुल” – (12+2+2)  12 दरी (वतद्-ए-मज़मुआ), 2 चे (सबब-ए-ख़फ़ीफ़), 2 खुल (सबब-ए-ख़फ़ीफ़)

“रहे हैं” (12+2)   12रहे (वतद्-ए-मज़मुआ), 2 हैं (सबब-ए-ख़फ़ीफ़) केवल एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है यहाँ

तो इस प्रकार से इस बार के मिसरे की बहर का नामकरण होता है बहरे “हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़” (कहीं कहीं “महज़ूफ उल आख़िर” या “महज़ूफ़ुल आख़िर” या “महज़ुफ़ुलाख़िर” भी कहा जाता है यह बताने के लिए कि जिहाफ़ किस स्‍थान पर, किस रुक्न में किया गया है, लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं है।)

deepawali (2)
तो आइये, हमने रेसिपी तो जान ली मिठाई की, अब हम मिठाई भी खाते हैं। आज मिठाई लेकर आ रहे हैं दो हलवाई, हलवाई जो जोड़ी के रूप में भी बहुत मशहूर हैं। नीरज गोस्वामी जी और तिलक राज कपूर जी। और हाँ अभी और भी कुछ शायर आने वाले दिनों में आपको यहाँ पढ़ने को मिलेंगे। एक सुखद सरप्राइज़ यह भी है कि हमें इस ब्लॉग परिवार के किसी सदस्य की अगली पीढ़ी की ग़़जल भी इस बार यहाँ पढ़नी है। और हाँ दौड़ते भागते भभ्‍भड़ कवि भौंचक्के भी इस बार गाड़ी पकड़ने के मूड में हैं। 

deepawali

neeraj goswami ji

नीरज गोस्वामी जी

deepawali (1)

सभी दावे दियों के खोखले हैं
अँधेरे जब तलक दिल में बसे हैं

पुकारो तो सही तुम नाम लेकर
तुम्हारे घर के बाहर ही खड़े हैं
  

अहा ! क़दमों की आहट आ रही है
“उजाले के दरीचे खुल रहे हैं”

है आदत में हमारी झुक के मिलना 
तभी तो आपसे हम कुछ बड़े हैं

बड़ा दिलकश है गुलशन ज़िन्दगी का
कहीं काँटे कहीं पर मोगरे हैं

भरोसा कर लिया हम पर जिन्होंने 
यक़ीनन लोग वो बेहद भले हैं

ग़मों के बंद कमरे खोलने को
तुम्हारे पास 'नीरज' क़हक़हे हैं 

deepawali (4)

यह तो तय है कि एक रंग अब ग़ज़लों का हो चुका है जिसे रंग-ए-नीरज कहा जाता है। नीरज जी की ग़ज़लों में बहुत ही सीधी-सादी बातें होती हैं, हमारी-आपकी ज़िंदगी से उठाई गई बातें। इसीलिए यह ग़ज़लें हमें अपनी-सी लगती हैं। इस बार तो नीरज जी बासी दीवाली मनाने आ रहे हैं। लेकिन हमारे लिए उनकी आमद ही महत्वपूर्ण है। इस पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आदरणीया भाभीजी शीघ्र पूर्णतः स्वस्‍थ होकर घर लौटें। आमीन। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी नीरज जी जैसे लोग मुस्कराने की वजह तलाश लेते हैं। ग़ज़ब का मतला है। सच कहा है जब तक अँधेरा हमारे अंदर है तब तक बाहर जलाए जा रहे इन हज़ारों दीपकों का कोई मतलब नहीं। उसके बाद का शेर एकदम रंग-ए-नीरज में आ गया है पुकारो तो सही तुम नाम लेकर, वाह क्या बात है। और उसके बाद गिरह का शेर भी कमाल है, क्या कमाल का जोड़ लगाया है क़दमों से उजालों के बीच। और उसके बाद एक बार फिर रंग-ए-नीरज का कमाल झुक कर मिलना और अपना क़द बढ़ा लेना। भरोसा कर लिया हम पर जिन्होंने में मेरा नाम जोकर याद आती है और वह पंक्ति भी अपने पे हँस कर जग को हँसाया। वाह क्या बात है। और मकते का शेर भी उसी रंग-ए-नीरज में रँगा हुआ है। ग़मों के बंद कमरे खोलने हेतु क़हक़हे लगाने की सलाह नीरज गोस्वामी के अलावा और कौन दूसरा शायर दे सकता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। कठिन समय में लिखी गई सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।

deepawali[4]

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलक राज कपूर जी

deepawali (1)[4] 

तरही ग़ज़ल-1

अंधेरे में उजाले जागते हैं
उजाले में अंधेरे सो रहे हैं

तरक्की आप जिसको कह रहे हैं
हक़ीक़त में वो झूठे आंकड़े हैं

मुखौटे हैं, खिलौने फुसफुसे हैं,
ये कैसे दीप हमने चुन लिए हैं

कभी कुछ तो हक़ीक़त में करें भी
बहुत कुछ भाषणों में बोलते हैं

मुवक्किल हम न हाकिम और न मुन्सिफ़
मसाइल क्यूँ हमारे सामने हैं

पलेवा के समय पानी नहीं था
फ़सल पकते ही बादल छा गये हैं

समय पिय से मिलन का हो रहा है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

deepawali (4)[4]

जैसा कि आपने शीर्षक में देखा होगा कि लिखा है तरही ग़ज़ल 1 तो इसका मतलब यह है कि अभी कुछ और भी ग़ज़लें तिलक जी की आने वाले दिनों में बासी पोस्टों में आएँगी। मतले पर तो जैसे फिदा हो जाने को दिल कर रहा है। उफ़ क्या कमाल की कहन। एक ऐसी बात जिसे आप चाहे जिस विषय से जोड़ दो, दर्शन, सूफ़ी, तंज़, कटाक्ष, मिलन, वस्ल जिस विषय से जोड़ दो यह मतला वैसा ही लगेगा। यह कमाल बहुत दिनों बाद किसी शेर में मिला है। ग़ज़ब। पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिसमें मिला दो लगे उस जैसा। उस पर जो विरोधाभास का सौंदर्य है वह तो सोने पर सुहागा ही है। ऐसा लग रहा है कि मतले के बाद आगे के शेरों के बारे में कुछ भी न बोलूँ, बोलने के के लिए कुछ बचा ही न हो तो ? बाद के तीनों शेर गहरे और तीखे तंज़ के शेर हैं। वास्तव में वह भी मतले के रूप में ही लिखे गए हैं हुस्न-ए-मतला के रूप में। और मतले से किसी रूप में कमजोर नहीं पड़ रहे हैं। तरक्की और झूठे आँकड़े के प्रतीकों को बहुत खूबसूरती से गूँथा गया है। कभी कुछ तो हक़ीक़त में करें भी में भाषणों का जिक्र खूब हुआ है। बहुत ही सुंदर। पलेवा के समय पानी नहीं होना और फ़सल के पकते ही बादल छाना, उफ़ सारी व्यथा को दो पंक्तियों में व्यक्त कर दिया गया है। ग़ज़ब। और गिरह के शेर का मिसरा क्या खूबसूरत है। अलग तरह की गिरह। वस्ल में भी तो उजाले के दरीचे ही खुलते हैं। वाह वाह वाह कमाल की ग़ज़ल। सुंदर।

Gar

तो यह हैं युगल जोड़ी की ग़ज़लें अभी और भी कुछ ग़ज़लें आनी शेष हैं। लेकिन आज का काम तो आपके पास आ गया है कि आपको दोनों ग़ज़लों का आनंद लेना है और उन पर दिल खोलकर दाद देनी है।

deepawali (5)

46 टिप्‍पणियां:

  1. Donon shaayar gazal ke maharathi hein...ek or Tilak ji ka nirala andaaz.. kya hi khoob..waah
    Doosari or neeraj ji ki hansti khelti gazal... jaese nadi chahachahaa rahi hi... ghar loutne jaesi feeling aati hae...dheron dher daad.....waahhhhh

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    1. एक प्रयास भ्‍ार है कद्रदानों के हवाले। आपको प्रयास अच्‍छा लगा, बहुत-बहुत आभारी हूँ पूजा जी।

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    2. मान्य तिलकजी,, आपमे कुछ समय पहले सोलह श्रुंगार पर एक रचना लिखी थी. क्या आप उसकी लिन्क भेज सकते हैं ? आभार

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  2. गोस्वामी जी और कपूर जी ये दोनों उस्ताद शायर कमाल करते रहे हैं। बधाई

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  4. नीरज जी का मतला और मक्ता तो ज़ोरदार है हीं , दूसरा और पांचवा शेर भी ज़बरदस्त है ! वाह !

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  5. तिलक राज कपूर जी का दूसरा ,चौथा और पांचवा शेर ज़ोरदार है ! वाह !

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  6. वाह वाह नीरज जी. कमाल कर दिया आपने. एक से बढ़कर एक शेर. पहले चारों तो बिल्कुल जानलेवा हैं.नमन है आपकी कलम को 👏👏👏

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  7. आदरणीय तिलक राज जी. बहुत बढिया गज़ल.मतले ने तो दिल ही चुरा लिया.सिस्टम पर बहुत ही असरदार शेर कहे हैं.और किसानी की मुश्किलों पर शेर. वाह वाह sir. आपकी तरही गज़ल-2 का इंतज़ार रहेगा.

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  8. आदरणीय तिलक राज जी. बहुत बढिया गज़ल.मतले ने तो दिल ही चुरा लिया.सिस्टम पर बहुत ही असरदार शेर कहे हैं.और किसानी की मुश्किलों पर शेर. वाह वाह sir. आपकी तरही गज़ल-2 का इंतज़ार रहेगा.

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  9. ये जुगल जोड़ी ही नहीं ... अलग अलग रंगों के दीप हैं तो सदा खिलते और खिलखिलाते शेर ले के आते हैं ... वो पटाखे जो एक बार में हजारों आवाजों की धुन बजाते हैं ...
    नीरज जी ने तो हमेशा की तरह सादी ... खरी और सच्ची ग़ज़ल कही है ... मतले में ही पते की बात कह दी और सच भी है ... असल तो दिल रौशन होना जरूरी है ... फिर प्रेम की सादगी ... पुकारो तो सही यहीं तो खड़े रहते हैं ... और गिरह तो बहुत ही कमाल है ... फिर जिंदगी का फलसफा ... कहकहों के साथ गज़ब की बात रखने का अंदाज़ ... जोरदार तालियाँ बजाने का मन कर रहा है ... बहुत खूब नीरज जी ....
    आदरणीय तिलक राज जी का तो कहना ही क्या ... ऐसा मतला की ग़ज़ल की दिशा ही बदल गयी ... क्या सोच है ... फिर तरक्की के आयामों पर सही प्रश्न करता शेर ... कभी कुछ तो कहीकत मिएँ करें फिर ... आज के समय पे जबरदस्त प्रहार है, बहुत ही सादगी से ...हालात पे लिखे शेर बहुत कमाल के हैं आयर आखरी शेर तो लाजवाब है ... पीया से मिलने का समय और गिरह की बंदिश ... जहे नसीब ... पूरी ग़ज़ल खिलता हुआ गुलदस्ता है .... तिलक जी को बधाई ...
    अभी तो बहुत मज़ा बाकी है ... इंतज़ार है भभ्भड़ कवी का बेसब्री से ...

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    1. बहुत-बहुत आभारी हूँ दिगम्‍बर जी। एकाएक न जाने कैसे दो परस्‍पर विरोधी स्थितियों का विचार आया और मत्‍ले का शेर बस हो गया। मेरा अनुभव यही रहा है कि अच्‍छा शेर खुद-ब-खुद आता हैै और उसकी छाप सप्रयास कहे गये शेर से भिन्‍न होती है। इसी कारण बहुत समय से यहॉं आयोजित तरही से अन्‍यत्र तरही ग़ज़ल नहीं कह पा रहा हूँ और स्‍वयं को इक्‍का-दुुक्‍का शेर पर सीमित कर लिया है।

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  10. यूँ तो इस ब्‍लॉग से मेरा संबंध गुरू-शिष्‍य का रहा है। यहॉं मैं पहली बार ग़ज़ल विधा पर समझ विकसित करने के लिये पहुँचा था लेकिन यहॉं जो अपनत्‍व मिला उसने मेरे लिये प्ंकज सुबीर को गुरू के स्‍थान पर पंकज भाई कहने का साहस दिया। ग़ज़ल में मेरे प्रयासों को जिस तरह यहॉं सराहा गया उसने ग़ज़ल के प्रति मेरे दायित्‍व को बढ़ाया और यही कारण रहा कि कई बार शेर को खारिज कर उसे अपनी क्षमता में निरंतर मॉाजने की आदत सी हो गयी है। जो कुछ प्रस्‍तुत कर पाता हूँ वह इसी का परिणाम है।
    आज की पोस्‍ट में आप सब ने जो मत व्‍यक्‍त किया अथवा पंकज भाई ने जो कहा वह मेरे लिये आगे का मानदण्‍ड निर्धारित करता है। आप सभी के प्रति हृदय से आभारी हूँ।
    नीरज भाई जिन्‍दादिल इन्‍सान हैं, जीने की कला जानते हैं और यही इनकी ग़ज़लों में खुलकर दिखता है। वाह-वाह और वाह, हर शेर के लियेे।

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  11. कहते हैं कि यदि एक झूठ बहुत बार बोला जाय तो वो सच लगने लगता है मेरी ग़ज़लों की तारीफ पाठक जब बार बार करते हैं तो सच मानने को जी करता है जबकि हकीकत में ऐसा है नहीं। निहायत सीधी सादी बिना किसी पेचो ख़म के कही मेरी ग़ज़लें तारीफ की हक़दार नहीं हैं। जब कभी दूसरे शायरों के कलाम पढता हूँ तो पता चलता है की मेरी ग़ज़लों में तो ग़ज़लियत ही नहीं है।

    अब दूर क्या जाना ? तिलक जी की ग़ज़ल को ही लेलें। मतले में ही कई ग़ज़लें समाई हुई हैं - ये है उस्ताद शायर की कलम का कमाल। कम कहते हैं लेकिन जब कहने पे आते हैं तो फिर कोई सामने नहीं टिकता। समाज को आइना दिखाते उनके अशआर पढ़ कर ढेरों दाद दिल से निकल रही हैं , अभी तो ये शुरुआत है मुझे पता है इसी तरही मिसरे पे अभी वो तीन चार ग़ज़लें और कहने वाले हैं।

    पंकज जी से मुझे हमेशा शिकायत रही है कि वो तिलक जी जैसे राजा भोज के साथ मुझ गंगू तेली की (जो तेल भी केरोसिन वाला बेचता है ) ग़ज़लें क्यों लगा देते हैं ? इससे मुझे अपनी दरिद्रता का एहसास बहुत शिद्दत से होता है।

    जो भी हो इस बार की तरही में बहुत मज़ा आ रहा है , जो पुराने परिवारजन शामिल नहीं हो रहे हैं उनसे निवेदन है कि वो लौट आएं और परिवार में रहने का आनंद लें।

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    1. आप बड़े भाई होने का फ़र्ज बखूबी निभा रहे हैं और मैं उससे आनंदित हूँ। आपकी भावनाओं का सम्‍मान करते हुए कुछ न कहते हुए भी इतना अवश्‍य कहूँगा कि सीधी सादी बात सीेधे-सीधे दिल में उतरती है और बस आपकी ग़ज़लों की यही खासियत मोहक है। ऐसा लगता है कि एक मुस्‍कान सामने खड़ी है जिसे देख मैं भी अपनी मुस्‍कान रोकने में विफ़ल हूँ।

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  13. गुरुदेव आपने बहर को बहुत विस्तार से समझाने का भागीरथी प्रयास किया है लेकिन मुझ मूढ़ बुद्धि की जटाओं में ज्ञान की ये गंगा उतरती ही नहीं :(

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    1. भाषा और शैली में ....अति सुंदर संगम मन भवन है...

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  14. आजका ही इंतज़ार था, लेकिन अपनी मौज़ूदग़ी जता रहा हूँ अब ! ऐसा भी होता है.

    आ० नीरज भाई की समझ और शायरी का अंदाज़ एक विशेष शैली की तरह विकसित हो गयी है. उसकी बानग़ी यह ग़ज़ल भी है.
    ’है आदत में हमारी झुक के मिलना..’ जैसे शेर यों ही नहीं हो जाते. फिर मतलाप्र कुछ भी क्या कहूँ ? क़ामयाब ग़ज़ल पर दिलखोल कर बधाई.

    आ० तिलकराज जी की शायरी वस्तुतः आध्यात्मिकता के विन्दुओं को तलाश कर उन्हें उद्धृत करती रही है. आपने जिस ऊँचाई से ग़ज़ल का मतला कहा है उस ऊँचाई तक अव्वल पहुँच पाना ही आम शायरों केलिए स्वप्न हुआ करता है.
    मैं बार-बार शेरों को सुन रहा हूँ आदरणीय ! बधाइयाँ !!

    और, जिस तरह से आज इस बार की बहर और उसके विन्यास पर विशद रूप से चर्चा हुई है वह उन दिनों की याद दिलाती हुई है, जब इस मंच का मुझे यूआरएल दे कर ग़ज़ल की बारीकियों को सीखने की उचित सलाह मिली थी. हम नत-मस्तक शिष्य बने उपस्थित हुए थे.
    आज कई सदस्य नये हैं तो उनके लिए आज पाठ बहुत कुछ बताता हुआ है. हर्दिक धन्यवाद आ० पंकज भाई.
    शुभ-शुभ

    -सौरभ, नैनी, इलाहाबाद.

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    1. बहुत सीमित शब्‍दज्ञान है मेरा उस सीमा में जो कहा उस पर आपकी सराहना आपकी मोहब्‍बतों के प्रति आश्‍वस्‍त करती है। बहुत-बहुत आभारी हूँ सौरभ भाई।

      हटाएं
    2. आपकी मोहब्‍बतों से प्राप्‍त उर्जा और सीमित शब्‍द ज्ञान से निकली ग़ज़ल की सराहना भविष्‍य के लिये और कठिन चुनौती है। बहुुत-बहुत आभारी हूँ सौरभ भार्इ।

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  15. नीरज बस वाह....अंधेर जब तलक दिल में बसे हैं...
    समय पिय के मिलन का....बहुत खूब ! तिलक राज जी
    ग़ज़ल के लिए सच में यह मंच अति उत्तम है..एक पाठशाला कि मानिंद

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    1. आदरणीया, ग़ज़ल के मेरे सफ़र में आपका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है ग़ज़ल की पुस्‍तको के माध्‍यम से। हृदय से आभारी हूँ।

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  16. है आदत हमारी झुक के मिलना, तभी तो आपसे हम कुछ बडे हैं । नीरज जी का ये शेर बेहतरीन लगा । तिलक जी का " तरक्की आप जिसको कह रहे हैं " वाला शेर बहुत अच्छा लगा ।

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  17. सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। पंकज जी, आपका ये आयोजन हमेशा की तरह सफल है, इस सिलसिले को मासिक करने का अनुरोध है।
    आदरणीय नीरज गोस्वामी जी और तिलकराज कपूर साहब के कलाम पर क्या कहा जाए। हर शेर बहुत उम्दा। वाह वाह

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    1. आपका बहुत-बहुत आभारी हूँ शाहिद भाई। स्‍नेह बनाये रखें।

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  18. Neeraj Goswamy:

    सुहाग रात (दीपावली की) जाने के बाद भी 'मोगरा' महक रहा है.......ताज़गी भरी ख़ुश्बू से बासी दवाली भी महक उठी है.
    ख़ालिस 'नीरजी' अन्दाज़ है, हर शेर दाद का मुस्तहिक़ है।

    "भरोसा था कि वो आयेंगे, आये
    हमारी बज़्म उनसे जगमगे है।
    भली आदत है 'नीरज' जी को पढ़ना
    कलामों में उन्हीं के मोगरे है।"

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  19. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  20. आदरणीय नीरज जी ने अपनी कहन मेंं जो हास्य मिश्रित व्यंंग्य का अंदाज़ विकसित कर लिया है उसके चाहने वाले हज़ारोंं हैंं और मैंं भी उन्हींं मेंं से एक हू‍ँ। "है आदत मेंं हमारी......" जैसे शे'र इस ग‌ज़ल को मुकम्मल गज़ल बना रहे हैंं। बहुत बहुत बधाई आदरणीय नीरज जी को।

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  21. Tilak Raj Kapoor:
    मतले से आख़री शेर तक सभी क़ाबिले दाद है.

    " जो हक़ गौ है वही बेबाक कहते
    इमरजन्सी से वो डरते नही है।"

    (किसी ने ख़ूब कहा है:-
    "मजबूरे ज़माना है अरबाबे ख़िरद लेकिन
    हक़ बात सरे महफिल कह देते है दीवाने ।")

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    1. आदरणीय हाशमी साहब। अब सेवानिवृत्‍त होकर तो आचरण नियम का बंधन भी समाप्‍त हो गया और 60 का होकर भी आदमी दीवाना न हो यह कैसे हो सकता है।
      आपको ग़ज़ल पसंद आयी मेरा कहना सफ़ल हुआ।
      बहुत-बहुत शुक्रिया।

      हटाएं
  22. Tilak Raj Kapoor:
    मतले से आख़री शेर तक सभी क़ाबिले दाद है.

    " जो हक़ गौ है वही बेबाक कहते
    इमरजन्सी से वो डरते नही है।"

    (किसी ने ख़ूब कहा है:-
    "मजबूरे ज़माना है अरबाबे ख़िरद लेकिन
    हक़ बात सरे महफिल कह देते है दीवाने ।")

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  23. आदरणीय तिलक जी ने कमाल का मत्ला कहा है। उसके बाद हुस्न-ए-मत्ला और शे'र दर शे'र कमाल किया है। "तरक्की आप....", "कभी कुछ तो.....", "मुवक्किल......", "पलेवा......." सभी शे'र शानदार हैंं। गिरह भी लाजवाब है। बहुत बहुत बधाई उन्हेंं इस शानदार ग़ज़ल के लिए।

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  24. दोनों गुणीजनों की बेहतरीन गज़लें....बहुत बहुत बधाई। आशा है और रंग देखने को मिलेंगे।

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  25. दोनों गुणीजनों की बेहतरीन गज़लें....बहुत बहुत बधाई। आशा है और रंग देखने को मिलेंगे।

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  26. पंकजजी-- इस बार आपसे सहमत नहीं हूँ कि ये पटाखे बासी दिवाली पर छोड़कर असर देखने के लिये हैं. भाई यह तो धुंआधार न्यूक्लियस पर पड़ते हुये एलेक्ट्रान के प्रहारोंी निरन्तर होती बारिशों जैसे शेर कहे हैं दोनों महानुभावों ने.मुखौटे हैं, खिलौने फ़ुसफ़ुसे हैं और सभी दावे दिये के खोखले हैं.
    दोनों अजीम शायरों को सलाम.


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    उत्तर
    1. क्या राकेश भाई आप भी चने के झाड़ पर चढ़ाने में माहिर हो गये हैं ! बहुत बहुत शुक्रिया !

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  27. वाह कमाल की ग़ज़लें..
    नीरज जी, बहुत खूबसूरत मतला. "तुम्हारे घर के बाहर ही खड़े हैं..", "तभी तो आपसे हम कुछ बड़े हैं..", "कहीं कांटे कहीं पर मोगरे हैं." "यकीनन लोग वो.." बहुत ही उम्दा शेर हैं.. मन खुश हो गया. मक्ता और गिरह भी कमाल है. दिली दाद एवं मुबारकबाद.

    तिलक जी की ग़ज़ल भी खूब है.
    बहुत बढ़िया मतला और फिर "झूठे आंकड़े हैं..", "भाषणों में बोलते हैं.."मसाइल क्यों हमारे सामने हैं." "फसल पकते ही बादल छा गए हैं..".. बहुत खूब शेर कहे हैं.. बहुत बहुत दाद और बधाई.

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