मित्रों हर शुरुआत का एक समापन भी पूर्व निर्धारित होता है। जो शुरू होता है उसे अंत तक भी आना होता है। समयावधि कम ज्यादा हो सकती है। दीपावली की यह तरही भी लगभग अपने अंत तक आ चुकी है। जैसा मैंने पहली पोस्ट में कहा था कि दीपावली कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाला त्योहार है तो आज की यह पोस्ट और यदि रविवार तक भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल आ गई तो हम उनके साथ कार्तिक पूर्णिमा को तरही का समापन कर लेंगे। और उसके बाद देखते हैं फिर नए साल की ओर कि नए साल का स्वागत किस प्रकार करना है।
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
आइए आज हम दो और ग़ज़लों के साथ मनाते हैं बासी दीपावली। आज तिलकराज कपूर जी की तृतीय ग़ज़ल और नवीन चतुर्वेदी जी की ब्रज भाखा में लिखी गई ग़ज़ल के साथ हम बासी दीपावली मना रहे हैं।
नवीन सी चतुर्वेदी
नयन क्यों आप के तर है रहे हैं।
ये अँसुआ तौ हमारे भाग के हैं॥
बने हौ आप जब-जब भोर के पल।
हम'उ तब-तब सुमन जैसें झरे हैं॥
तनिक देखौ तौ अपनी देहरी कों।
जहाँ हम आज हू बिखरे परे हैं॥
हृदय-सरवर मधुर क्यों कर न होवै।
किनारे आप के रस में पगे हैं॥
उलझ कें आप सों नयना हमारे।
सियाने सों दिवाने है गये हैं॥
हृदय-प्रासाद में आए हौ जब सों।
"उजाले'न के झरोखा खुल रहे हैं"॥
अरे ऊधौ हमें उपदेश दै मत।
हमारे भाग में दुखड़ा लिखे हैं॥
निश्चित रूप से स्थानीय बोलियों तथा भाषाओं का अपना सौंदर्य होता है, जब वे साहित्य की मुख्य धारा में आती हैं तो वे भाषा को सजाने का काम करती हैं। नवीन जी ने ब्रज की भाषा में ग़ज़ल कही है, यह भी एक सुंदर प्रयोग है। मतले में ही बहुत सुंदर तरीके से प्रेम के समर्पण की भावना को व्यक्त किया गया है। और उसके बाद का शेर भी बहुत गहरे अर्थ लिए हुए है किसीकी भोर होना और किसीका सुमन जैसे झर जाना। उलझ कें आप सों नयना हमारे में बहुत ही सुंदर तरीके और भाव के साथ प्रेम की बात कह दी गई है जो आनंद उत्पन्न कर रही है। और उसके बाद गिरह का शेर भी बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है तरही मिसरे को ब्रज में देख कर बस आनंद ही आ गया। ग़ज़ब। ब्रज की बात चले और ऊधो नहीं आएँ, गोपियाँ नहीं आएँ ऐसा कभी हो सकता है, अंतिम शेर उसी भाव से भरा हुआ है, बहुत ही खूबसूरत तरीके से गोपियों की मन की व्यथा को व्यक्त करता हुआ शेर । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
तिलक राज कपूर
अगर है दौड़ना तो दौड़ते हैं
मगर सोचें किधर हम जा रहे हैं।
सवालों से भरी इन बस्तियों में
चलो हम कुछ के उत्तर खोजते हैं।
उधर सुरसा किसी की चाहतों की
ज़रूरत पर इधर ताले लगे हैं।
हमें भी इन पुलों से है गुजरना
दरारें नींव में क्यूँ डालते हैं।
लगाऊँ किस तरह सीने से उनको
जो खंजर पीठ पीछे मारते हैं।
समन्दर में लगाते हैं जो डुबकी
वही गहराई इसकी जानते हैं।
दुपहरी कट गयी अंधियार में, अब
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं।
मतले के साथ ही तीसरी ग़ज़ल को बहुत ऊँचाइयों के साथ उठाया है, आज के समय पर गहरा कटाक्ष करता हुआ मतला, अगर है दौड़ना तो दौड़ते हैं, मगर सोचें किधर हम जा रहे हैं, वाह क्या बात है, दिशाहीनता को लेकर इससे बेहतर और क्या कहा जा सकता है। एक दिशाहीन समय पर खूब तंज़। सवलों से भरी बस्तियों में उत्तर तलाशने का साहस और अनुरोध केवल कवि ही कर सकता है, क्योंकि कवि हमारे समय का स्थाई प्रतिपक्ष होता है। उधर सुरसा किसीकी चाहतों की में दूसरी तरफ ज़रूरतों पर लगे हुए ताले खूब प्रयोग है। सच यही तो है हमारा आज का समय। पुलों वाला शेर भी उसी तंज़ से भरा हुआ है जिसको इस पूरी ग़ज़ल में देखा जा सकता है। लगाऊँ किस तरह सीने से उनको में पीठ पीछे खंजर मारने की बात ही अलग है। यह शेर दूर तक जाने वाला शेर है। अंतिम शेर गहरे विरोधी स्वर लिए हुए है, दुपहरी का अँधेरे में कटना और रात को उजाले के दरीचे खुलना, वाह क्या बात है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
तो यह है अंत से पहले की प्रस्तुति। यदि भभ्भड़ कवि का पदार्पण होता है तो हम कार्तिक पूर्णिमा, गुरुनानक जयंती आदि आदि त्योहार उनके साथ मनाएँगे। देखें क्या होता है।
आदरणीय नवीन भाई ने शानदार अश’आर से सजी हुई मुकम्मल ब्रज ग़ज़ल कही है। शे’र दर शे’र दिली दाद के साथ मुबारकबाद स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंधरम प्रा जी बहुत-बहुत शुक्रिया।
हटाएंआदरणीय तिलक जी ने तीसरी ग़ज़ल भी बेहद शानदार कही है। "लगाऊँ किस तरह....." जैसे शे’र मुशायरे को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कर रहे हैं। बहुत बहुत बधाई आदरणीय तिलक जी को।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सज्जन धर्मेन्द्र जी। वो बेचारा फिल्मों वाला भी सज्जन ही था। :)
हटाएंबहुत लाजवाब गजलें हैं ,...नवीन जी की ब्रिज भाषा की ग़ज़ल के तो क्या कहने ... गिरह का शेर और फिर आखरी शेर जिएमें उधो की बात है, दिल खींच रहे हैं ... तालियाँ ही ताइयां बजाने का मन कर रहा अहि नवीन जी ....
जवाब देंहटाएंआदरणीय तिलक राज जी के गहरे, सादगी भरे शेर सीधे दिल में उतर रहे हैं ... किसी एक शेर की नहीं बल्कि हर शेर तारीफ़ के काबिल है ... दिली दाद निकलती है ...
धन्यवाद दिगम्बर जी। हर बार जब तरही का समय आता है तो यह चुनौती रहती है कि नया क्या कहा जाये। आस-पास का वातावरण किसी न किसी रूप में पहले ही प्रस्तुत कर ही चुका हूँ; लेकिन कुछ न कुछ मिल ही जाता है। कितना कुछ घट रहा है। अब ये करेंसी की बात आ गयी। आगे कहने के लिये कुछ नया मिला।
हटाएंभाई दिगम्बर नासवा जी बहुत-बहुत शुक्रिया
हटाएंतरही के समापन से एक कदम पूर्व भाई नवीन चतुर्वेदी की ब्रज ग़ज़ल के रूप में नवीनता का आगमन इस आभासी दुनिया की ताकत का एहसास कराता है। ग़ज़ल जैसी विधा जो गुरु-शिष्य परंपरा की पारंपरिक व्यवस्था में सीमित शिष्य तैयार कर पाती थी उसे भूमंडलीय कक्षा मिली जिससे इस विधा की व्यापक पहुँच हो सकी। परिणाम हम आज देख रहे हैं कि स्थानीय बोलियों तक में ग़ज़ल कही जा रही है और खूब कही जा रही है।
जवाब देंहटाएंअब प्रस्तुत ग़ज़ल की बात करूँ तो मत्ले का शेर
नयन क्यूँ आप के तर हो रहे हैं
ये ऑंसू तो हमारे भाग के हैं।
यह मैनें प्रचलित हिन्दी में मात्र यह स्पष्ट करने के लिये लिखा कि ब्रज को कुछ अलग न समझें।
आत्मीय संबंधों की उस गहराई पर उतरता है जो समानुभूति और सहानुभूति के अंतर को स्पष्ट करती है। इसी और स्पष्ट करने के लिये देखें तो पीडि़त की पीड़ा से सहानुभूति दर्शाना और उस पीड़ा को अनुभव करना दो पृथक स्थिति हैं। हम अपने आस-पास सामान्य जनजीवन में सहानुभूति तो बहुत देखते हैं लेकिन जिस दिन यह समानुभूति में परिवर्तित हो जायेगी उस दिन आयेगा वास्तविक बदलाव। बहुत खूबसूरत शेर है।
दूसरा शेर मत्ले की समानुभूति की तुलना में एक नैसर्गिक कंट्रास्ट प्रस्तुत करता है जिसे हरसिंगार में स्पष्टत: देखा जा सकता है जो भोर के समय धरती पर अपने फूलों की चादर बिछा देता है। नैसर्गिक संदर्भ मानवीय संबंधों से जोड़ता हुआ खूबसूरत शेर है।
बधाई विशेषकर इन दो शेरों के लिये।
ब्रज माधुर्य सम्पूर्ण ग़ज़ल में है।
आदरणीय तिलक राज कपूर जी बहुत-बहुत शुक्रिया। सहानुभूति और समानुभूति की विवेचना ने मन मोह लिया। हरसिंगार वाले रूपक का खुलासा कर के आप ने मेरे साथ फेवर किया है। मैं हरसिंगार विवेच्य मिसरे में नज़्म नहीं कर पा रहा था। आप ने इस मुश्किल को आसानी सेशहल कर दिया। बहुत-बहुत आभार।
हटाएंनयन क्यों आप के तर है रहे हैं।
जवाब देंहटाएंये अँसुआ तौ हमारे भाग के हैं॥
बने हौ आप जब-जब भोर के पल।
हम'उ तब-तब सुमन जैसें झरे है
हृदय-सरवर मधुर क्यों कर न होवै।
किनारे आप के रस में पगे हैं॥
उलझ कें आप सों नयना हमारे।
सियाने सों दिवाने है गये हैं॥
अरे ऊधौ हमें उपदेश दै मत।
हमारे भाग में दुखड़ा लिखे हैं॥
चतुर्वेदी जी ,वाह ब्रज में मज़ा आ गया।
भाई अश्विनी रमेश जी बहुत-बहुत शुक्रिया।
हटाएंअगर है दौड़ना तो दौड़ते हैं
जवाब देंहटाएंमगर सोचें किधर हम जा रहे हैं।
सवालों से भरी इन बस्तियों में
चलो हम कुछ के उत्तर खोजते हैं।
हमें भी इन पुलों से है गुजरना
दरारें नींव में क्यूँ डालते हैं।
लगाऊँ किस तरह सीने से उनको
जो खंजर पीठ पीछे मारते हैं।
समन्दर में लगाते हैं जो डुबकी
वही गहराई इसकी जानते हैं।
तिलक राज कपूर जी आपके ये शेर बहत खूब हैं ,वाह ।
धन्यवाद अश्विनी जी। स्नेह बनाये रखें।
हटाएंनवीन सी चतुर्वेदी
जवाब देंहटाएं-----------------------
ग़ज़ल यानि 'प्रेमालाप' , उसी को सार्थक करते अशआर, फिर ब्रज भाषा की मिठास, क्या कहने।
सुन्दर लेखन, बासी दिवाली पर ताज़ी हवा का झरोखा खोल दिया है।
बहुत-बहुत शुक्रिया हाशमी साहब
हटाएंतिलर राज कपूर
जवाब देंहटाएं---------------------
# "अगर है दौड़ना तो दौड़ते हैं
मगर सोचें किधर हम जा रहे हैं।"
विवशता में भी सोच की अलख जगाये रखने का आव्हान......... बहुत सलीके से कहा गया है।
# सवालो की बस्ती में उत्तर खोजना भी उसी सिलसिले की कड़ी है........शायरी बनाम ज़िन्दगी, उद्देश्यपूर्ण शायरी।
आदरणीय हाश्मी साहब, बहुत-बहुत शुक्रिया।
हटाएंअरे वाह नवीन जी कि ब्रज भाषा में गज़ल पढ़ के अलग ही मज़ा आया.वाकई स्थानीय भाषाओं का अपना ही स्वाद है. मुझे भी पंजाबी में लिखना बहुत पसंद है. और बहुत ही कमाल के शेर हुए हैं इस गज़ल में.बहुत ही प्रभावशाली मतला और आगे के दोनों शेर तो एकदम लाजवाब. "उलझ के आप सों नयना हमारे" भी बहुत ही मजेदार शेर लगा. बहुत पसंद आय.और बहुत ही शानदार गिरह का शेर.कुल मिलाकर सारी कि सारी गज़ल ही लाजवाब है.बहुत बहुत बधाई नवीन जी को.
जवाब देंहटाएंभाई गुरुप्रीत सिंह जी बहुत-बहुत शुक्रिया।
हटाएंवाह वाह आदरणीय तिलक राज जी कि एक और गज़ल पढ़ने को मिल रही है.मज़ा आ गया.एक बार फ़िर से शानदार मतले से गज़ल कि शुरुआत.बिल्कुल सही.इस दौड़ में किसी के पास इतना वक्त नहीं कि रुक कर ये तो सोचें कि हम दौड़ क्यों रहे हैं.और अगला शेर भी उतना ही असरदार.सारी ही गज़ल बहुत खूबसूरत.हमें इतनी अच्छी रचनायें देने के लिए तिलक राज जी का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंप्रियवर भाई पंकज सुबीर जी मेरे सामान्य से प्रयास को अपने सनेह से सराबोर करने के लिये आप का बहुत-बहुत आभार। आप की तरहियों में उपस्थित होने का आनन्द अलग है। पुनः-पुनः आभार।
जवाब देंहटाएंलाज़वाब ! आंचलिक भाषाओं में अभिव्यक्तियों की शैली मुग्धकारी है. आ. नवीनजी के प्रति सादर भाव हैं.
जवाब देंहटाएंआ. तिलकराज जी की यह दूसरी ग़ज़ल विशेष रूप से प्रभावी लगी है. हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
बहुत-बहुत आभारी हूँ आदरणीय
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