दीपावली का इन्तज़ार पहले साल भर होता था। क्योंकि दीपावली पर ही हम बच्चों को नए कपड़े मिलते थे और घर में पकवान बनते थे । अब तो खैर साल भर शॉपिंग होती रहती है और पकवान बनने का भी कुछ तय नहीं, कभी भी बन जाते हैं। इसलिए आज के बच्चों को दीपावली को लेकर उत्साह नहीं रहता है। मुझे याद है कि कपड़े की दुकान वाला खुद एक ठेले पर कपड़े लाद कर हमारी कॉलोनी में आ जाता था और उसके बाद घर घर में जाकर अपनी दुकान फैलाता था। अब वही कपड़े वाला ऑनलाइन शॉपिंग के माध्यम से एक बार फिर से घरों में आ गया है। लेकिन अब उसके आने का कोई समय नहीं है, वह चाहे जब आ जाता है। खैर यह तो परंपरा है कि हर समय के अपने कुछ तरीके होते हैं और समय उन तरीकों के हिसाब से ही चलता है। पिछली पोस्ट पर जो फेसबुक और ब्लॉगिंग की तुलना की थी वह भी शायद इसी परिप्रेक्ष्य में थी ।
आइये आज तरही मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं। आज हम तीन रचनाकारों के साथ इस क्रम को आगे बढ़ा रहे हैं। धर्मेंद्र कुमार सिंह, सौरभ पाण्डेय और सुलभ जायसवाल के साथ। तीनों ही बहुत गुणी रचनाकार हैं और तरही में नियमित रूप से आते रहते हैं। आज धन तेरस के साथ दीपावली शुरू हो रही है और आज हम भी तीन रचनाकारों के साथ धन तेरस मना रहे हैं।
श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह
दौड़ेगा रवि का घोड़ा, इक बार मुस्कुरा दो
जल्दी से हो सवेरा, इक बार मुस्कुरा दो
बिन स्नेह और बाती, दिल का दिया है खाली
फिर भी ये जल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो
बिजली चमक उठेगी, पल भर को ही सही, पर
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो
लाखों दिये सजे हैं, मन के महानगर में
ये जल उठेंगे जाना, इक बार मुस्कुरा दो
होंठों की आँच में यूँ, ‘सज्जन’ पिघल रहा है
हो जाएगा तुम्हारा, इक बार मुस्कुरा दो
ऐसा नहीं है कि प्रभाव छोड़ने के लिए बड़ी बड़ी रचनाएं ही लिखी जानी चाहिए। छोटी ग़ज़लें भी अपना प्रभाव छोड़ती हैं। बल्कि उसका इम्पैक्ट कहीं ज्यादा होता है। जैसे यही गज़ल है जिसमें मतले और मकते को हटा कर कुल तीन ही शेर हैं लेकिन तीन भी सचमुच के शेर हैं। पहले बात उस मिसरे की जो खन्न से मन में उतर गया । असल में एक ही शब्द कभी कभी रचना का पूरा रंग बदल देता है 'लाखों दिये सजे हैं मन के महानगर में' में जो महानगर आया है उसने मिसरे में जादू जगा दिया है। मन का गांव सुना है मन का शहर सुना है किन्तु मन का महानगर पहली बार सुना और लुभा गया यह महानगर। उतनी ही सुंदरता के साथ मकते का शेर भी कहा गया है। हो जाएगा तुम्हारा इक बार मुस्कुरा दो। वाह वाह वाह क्या बात है।
श्री सौरभ पाण्डेय
रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो
खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो
पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं
घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो
आपत्तियों के रुत की है कुछ अजीब फितरत
समझो अगर इशारा, इक बार मुस्कुरा दो
मालूम है तुम्हें भी कितना कठिन समय है
फिर भी तुम्हारा कहना, ’इक बार मुस्कुरा दो’ !
पत्थर के इस शहर में जो धुंध इस कदर है
’मिट जायेगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो’
निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समन्दर
बहका रहा किनारा, इक बार मुस्कुरा दो
अभिव्यक्ति ज़िन्दग़ी की - दीपक तथा अँधेरा !
अब जी उठे उजाला, इक बार मुस्कुरा दो
स्वीकार हो निवेदन, अनुरोध कर रहा है
ये रोम-रोम सारा.. इक बार मुस्कुरा दो
सौरभ जी की रचनाओं में शब्द आ आकर चौंकाते हैं। जैसे मतले में ही जो बेतहाशा शब्द मिसरा सानी में आया है वह अद्भुत है। उस शब्द ने मानो वह सब कुछ कह दिया है जो शायर कहना चाह रहा था। और अगले ही शेर में बादलों का 'फाहा-फाहा' घुलना, ग़ज़ब है। यह जो फाहा फाहा है यह बहुत ही कमाल का बिम्ब रच रहा है, यूँ लग रहा है जैसे आंखों के सामने ही बादल घुले जा रहे हैं। और मालूम है तुम्हें भी कितना कठिन समय है में एक अजीब सी उदासी भरी है । यह उदासी अंदर तक उतर जाती है। इसमें कठिन समय का प्रयोग बहुत अच्छा हुआ है, । निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समंदर में मिसरा सानी एकदम सधे तरीके से रचा गया है। बहुत ही कमान की गजल है आखिरी शेर में रोम रोम को पुलकित कर देती है। वाह वाह वाह ।
श्री सुलभ जायसवाल
तुम ही हो नैनतारा, इक बार मुस्कुरा दो
तुम ही से है उजाला, इक बार मुस्कुरा दो।
नैया बढ़ेगी आगे, मिल जाएगा किनारा
जीवन नया मिलेगा, इक बार मुस्कुरा दो।
कुछ मुझको है कमाना, कुछ तुमको है जुटाना
बाकी भरेंगे दाता, इक बार मुस्कुरा दो।
पैरो में रच महावर तुम पहनो पीली साड़ी
माथे पे रख के अँचरा, इक बार मुस्कुरा दो।
माँ है पिता है भैया भाभी से घर भरा है
समझो यही है मयका, इक बार मुस्कुरा दो।
दीये की लौ जली है, कंदील भी सजी है
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो।
सुलभ ने कमाल का काम किया है। घर में रच दिया है पूरी ग़ज़ल को । मां पिता भाई भाभी और पत्नी को और घर को केन्द्र में रख कर खूब ग़ज़ल कही है। कुछ मुझको है कमाना, कुछ तुमको है जुटाना, वाह भारतीय गृहस्थी का एक सुदंर चित्रण। कमाना और जुटाना यह दो ही तो होते हैं। यदि इन दोनों में सामंज्स्य हो जाए तो फिर तो जीवन स्वर्ग बन ही जाएगा। पैरों में रच महावर और पीली साडी़ पहनने वाले शेर में माथे पर जो अंचरा रखा गया है वह सादगी और भोलेपन से दिल में उतर गया है। और परिवार का शेर मां हैं पिता है भैया भाभी से घर भरा है में पत्नी को अपने ससुराल को ही मायका मान लेने की जो सलाह है वह भी मन को भा गई। सुलभ ने बहुत ही अलग प्रकार की ग़ज़ल कही है। वाह वाह वाह। कमाल की ग़ज़ल ।
तो आज की तीनों ग़ज़लों का आनंद लीजिए और दाद देते रहिए । मिलते हैं अगले अंक में।
तीनों गजलकारों को बेहतरीन गजलगोई के लिये मुबारकबाद व बधाइयाँ ।
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद, डॉक्टर साहब.
हटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
शुक्रिया दानी जी
हटाएंतीनों गजलकारों को बेहतरीन गजलगोई के लिये मुबारकबाद व बधाइयाँ ।
जवाब देंहटाएंवाह, तीनों ही गजलें बेहतरीन, रचनाकारों को मुबारकबाद
जवाब देंहटाएंहृदय तल से धन्यवाद, भाईजी.
हटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
वाह, तीनों ही गजलें बेहतरीन, रचनाकारों को मुबारकबाद
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सिद्धू जी
हटाएंअपने अलग अलग अंदाज़ में तीनो शायरों की ग़ज़लें बहत खूब हैं !
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र कुमार सिंह जी की ग़ज़ल का ये दूसरा शेर :
"बिन स्नेह ...और मक्ता " होंठो की आंच में.."
सौरभ पाण्डेय जी की ग़ज़ल का पांचवा शेर "पत्थर के इस शहर में .. " और मक्ता "स्वीकार हो निवेदन .."
सुलभ जायसवाल जी की ग़ज़ल का मतला " तुम ही हो नैनतारा..." तीसरा शेर "कुछ मुझको है कमाना .".पांचवा शेर "मां है पिता है भैया...;.." ---ख़ास तौर से अच्छे लगे !
भाई अश्विनीजी, आपसे प्रस्तुति पर स्वीकृति मिली, मन प्रसन्न हुआ.
हटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ, भाईजी.
बहुत बहुत शुक्रिया रमेश जी
हटाएंधर्मेन्द्र, सुलभ और सौरभजी को अपनी अपनी विशेषतायें लिये सुन्दर गज़लों के लिये बधाई और दीपपर्व की अनन्य शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद, आदरणीय राकेश भाईजी.
हटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय राकेश जी
हटाएंआपको भी दीपपर्व की अनन्य शुभकामनाएँ
हटाएंआसान कही और दिखने वाली वस्तु कितनी किलिस्ठ हो सकती है, इसी बात का एक उदाहरण है इस बार का रदीफ़ । पर संचालक महोदय के इस छुपे वार का गुणीजन क्या खूब जवाब लेकर आये हैं, ये इस बार की रचनाएँ बता रही हैं । धर्मेन्द्र जी ने कमाल ही कर दिया किसी की मुस्कान में बिजली के चमक उठने की ताक़त का विश्वास दिखा कर । घुप्प अँधेरे में एक पल के लिए चमकने वाली बिजली किसी के जीवन का आधार भी हो जाया करती है । ऐसी ही कमाल की सोच की पूरी ग़ज़ल। बहुत सुन्दर । धर्मेन्द्र जी शुभकामनायें ।
जवाब देंहटाएंरोशन हो दिल हमारा,एक बार मुस्कुरा दो
खिल जाये बेतहाशा, एक बार मुस्कुरा दो कितना इशरार भरा नाज़ुक सा मतला वाह ।
आपत्तियों की रुत की है कुछ अजीब फितरत ……… इशारा समझें तो वाकई कमाल शेर. खूब ।
स्वीकार हो निवेदन। …। वाह वाह । बहुत अच्छी गजल सौरभ जी शुभकामनायें ।
ममता भरे मतले से शुरू कर सुलभ जी ने जैसे शेर दर शेर इस गजल को मकते तक पहुँचाया घर-आँगन उतर आया गजल में और नैनो के कौर भिगो गया ।
नैया बढ़ेगी आगे…… पैरों मे रच महावर.......… माँ है पिता है ……। बहुत सुन्दर गजल सुलभ जी शुभकामनायें ।
पारुलजी, आपको प्रस्तुति पसंद आयी, यह मेरे लिए भी तोषदायी है. हार्दिक धन्यवाद
हटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ पारुल जी
हटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंसौरभ जी, धर्मेन्द्र और सुलभ जी ने कमाल की ग़ज़लें कही हैं.:
धर्मेन्द्र जी का "मन के महानगर में" बहुत पसंद आया. सौरभ जी का "पलकों की कोर पर जो बदल बसे हुए हैं.", "कठिन समय है.." वाले शेर बेहद पसंद आये. सुलभ के "मायका" और "पीली साडी" वाले शेर. वाह. कमाल..
हार्दिक बधाई.
राजीव भाई, आपसे प्रस्तुति पर अनुमोदन पाना अत्यंत तोषदायी है. हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
बहुत बहुत शुक्रिया राजीव जी
हटाएंतीनों की कमाल की ग़ज़लें। तीनों को बहुत-बहुत बधाई!!!!
जवाब देंहटाएंआदरणीया सुधाजी, आपकी प्रशंसा कैटेलिस्ट का काम करती है.
हटाएंसादर धन्यवाद ।
दीपावली की शुभकामनाएँ
सादर धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
जिस मुशायरे में धर्मेन्द्र जी सौरभ जी और सुलभ जी जैसे शायरों की शिरकत हो और जिनकी ग़ज़लों में
जवाब देंहटाएंबिजली चमक उठेगी ----, दिल के महानगर में -- , घुल जाएँ फाहा फाहा -- , कितना कठिन समय है ---, ये रोम रोम सारा ---, कुछ मुझको है कमाना ---, माँ है पिता हैं भैय्या ---, जैसे अद्भुत शेर कहे गए हों वो मुशायरा कामयाब होना ही है।
हमेशा की तरह सबसे अलग अनूठा दिलकश और बेजोड़ मुशायरा चल रहा है इस बार भी - आनंद नहीं परम आनंद पैदा हो रहा है। बधाई बधाई बधाई दीपावली शुभकामनाएं।
नीरज
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नीरज जी
हटाएंभाईजी, देर से हम बाट जोह रहे थे ! .. आपने हमें शबरी बना दिया !
जवाब देंहटाएंप्रस्तुतियों पर आपका आगमन उत्फुल्ल कर देता है. हृदयतल से धन्यवाद.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
"इक बार मुस्करा दो" यानी पूरा मफ़ऊलु फ़ायलातुन रदीफ़ घेर ले और शायर फिर भी शेर निकाल ले, क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता। इस आश्चर्य को यथार्थ में बदलती पिछली पोस्ट और ये तीन ग़ज़लें आश्वस्त करती हैं कि संभव है; संभव है।
जवाब देंहटाएंतीनों ग़ज़ल एक से एक खूबसूरत प्रयोग प्रदर्शित कर रही हैं और पुष्टि करती हैं कि पूर्ण मनोयोग से कही गयी हैं तीनों ग़ज़ल। शब्दों का ऐसा अभिनव प्रयोग ऐसी कठिन स्थिति में कम ही देखने को मिलता है।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय तिलक जी
हटाएंआदरणीय तिलकराजजी, आपसे मिली हौसलाअफ़ज़ाई से दिल खुश हो गया. हार्दिक धन्यवाद
हटाएंदीपावली की शुभकामनाएँ
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़लें कही हैं आदरणीय सौरभ जी और सुलभ जी ने। आदरणीय सौरभ जी ने पलकों की कोर से जो शे’र निकाला है कि दिल फाहा फाहा हो गया। सुलभ जी ने समझो यही है मयका कहकर दिल जीत लिया। दोनों शायरों को बहुत बहुत बधाई इन शानदार अश’आर के लिए।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आदरणीय सज्जन धर्मेन्द्रजी.
हटाएंदीपावली की शुभकामनाएँ
शुक्रिया
जवाब देंहटाएंमुझे अचानक कहीं जाना पड़ गया और टिप्पणी अधूरी रह गयी।
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी, सौरभ जी और सुलभ को बहुत-बहुत बधाई इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिये।
शुक्रिया... शुक्रिया... शुक्रिया... !! गजल पर आप सभी की टिप्पणी मिली , यही दीपोत्सव है जो तरही मे पूरा घुल कर आता है।
जवाब देंहटाएंश्री धर्मेंद्र जी और श्री सौरभ जी ने विभिन्न शब्द, अंदाज और भाव से जो गजल मे बात कही है...मन मुग्ध हो गया।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद सुलभ भाई
हटाएंदीपावली की शुभकामनाएँ
शुक्रिया सुलभ जी
हटाएंआदरणीय धर्मेन्द्रजी एवं सुलभ भाई को उनकी प्रस्तुतियों के लिए हृदयतल से दाद दे रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंदीपावली की शुभकामनाएँ
शुक्रिया सौरभ जी
हटाएंशानदार तरही चल रही है।
जवाब देंहटाएंमैंने आने में देर कर दी।
तीनों ग़ज़लें शानदार हैं।
धर्मेन्द्र कुमार जी ने दिल के महानगर में लाखों प्रेम की दीपक जलाकर दीवाली मनाई।
अच्छी ग़ज़लें पढ़ने का मज़ा अलग ही होता है।
आपत्तियों की रुत पर इशारों में आदरणीय पाण्डेय जी का शे'र क़माल कर रहा है।
कठिन समय में मुस्कुराने की गुज़ारिश सिर्फ सच्ची मुहब्बत ही करती है। क्या शे'र हुआ है।
सुलभ जी ने भाभी जी (अपनी पत्नी) को केंद्र में रख कर गज़ब की ग़ज़ल कही है। ऐसी ग़ज़लें अब कम पढ़ने को मिलती हैं। पत्नियों के साथ आम तौर पर मिज़ा ही पढ़ने मिलता है। हार्दिक बधाई
नकुल गौतम
नाहन से
बहुत बहुत शुक्रिया नकुल जी
हटाएंआदरणीय धर्मेन्द्र जी की शायरी का कायल तो मैं उनके ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर" पढ़कर हो गया था,पर आदरणीय सौरभ जी ने तो चौंका दिया। मैं इनकी कविताओं और छंदों पर सिद्धहस्तता से तो परिचित था, पर आज इनके एक अन्य स्वरूप का भी सुखद दर्शन हुआ।
जवाब देंहटाएंश्री सुलभ जायसवाल जी ने भी बहुत सुन्दर कहा।
बधाई आप सब को।।