शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

आइये आज सुनते हैं गीतकारों की रचनाएं । राकेश खंडेलवाल जी का गीत और रविकांत पांडेय की ग़ज़ल ।

तरही का अपना क्रम है । और कोई क्रम भी  नहीं है । जब जो ग़ज़ल या गीत लगना है सो लग गई । और इस बीच कभी मौज आ गई तो कुछ भूमिका लिख दी, जैसी पिछले अंक में लिख दी गई थी । कभी कुछ नहीं लिखा । आप लोगों को वो भूमिका पसंद आई उसके लिये आभार  । एक प्रश्‍न जो हमेशा मुझे मथता रहता है वो ये है कि हमारा ये जीवन क्‍या रवायतों, परम्‍पराओं, नियमों का पालन करने के लिये हुआ है । मुझे लगता है नहीं, हम सब जो कुछ बौद्धिक स्‍तर पर ऊंचा उठ गये हैं, हमारा जीवन नियमों का आकलन करने तथा उनमें से खराब नियमों को खारिज करने के लिये बना है । खैर आइये आज का क्रम आगे बढ़ाते हैं ।

''ये क़ैदे बामशक्‍कत जो  तूने की अता है''

शिकस्‍ते नारवा दोष इस बार की बहर में यदि ध्‍यान नहीं रखा जाए तो एक दोष बनने की संभावना है । इस दोष को शिकस्‍ते नारवा कहा जाता है । इस बार की बहर में हर मिसरा असल में दो खंडों में स्‍पष्‍ट रूप से बंटा हुआ है । अर्थात एक छोटे से विश्राम के बाद दूसरा खंड उठता है । जैसे कि ये कै़दे बामशक्‍कत.... (विश्राम) जो तूने की अता है । इस विश्राम को हम अल्‍प विराम  से दर्शा सकते हैं । किन्‍तु यदि किसी मिसरे में हमने कोई शब्‍द ऐसा ले लिया जो कि पहले खंड 221-2122 के पूरे होने पर भी पूरा नहीं हुआ जैसे यदि हमने लिखा 'ये क़ैद जो हमें तूने दी है उम्र भर की' । अब यदि इसको वज़न पर कसें तो रुक्‍न बनते हैं 221-2122-221-2122 मतलब वज्‍न ठीक है । किन्‍तु हो क्‍या रहा है कि 'तूने' शब्‍द का विच्‍छेद हो रहा है  'तू'  2122 में और 'ने' 221 में जा रहा है । इसके कारण क्‍या होगा कि हम 221-2122 के बाद विश्राम नहीं ले पाएंगे क्‍योंकि 'तूने' शब्‍द तो खतम हुआ ही नहीं है । इस प्रकार की बहुत सी बहरें हैं जिनमें ये दोष बनता है । 12122-12122-12122-12122 बहर जिस पर हमने एक बार होली पर काम किया था उसमें तो हर 12122 पर विश्राम होना चाहिये, मतलब मिसरा स्‍पष्‍ट रूप से चार खंडों में बंटा होना चाहिये ।

आज की तरही में हम सुनते हैं श्री राकेश खंडेलवाल जी का गीत और रविकांत पांडेय की ग़ज़ल । दोनों ही मूल रूप से गीतकार हैं । दोनों को एक साथ सुनने में अलग ही आनंद है ।

ravikant pandey

रविकांत पांडेय

सबकी जुदा है फितरत, हर शख्स रहनुमा है
जाए भला किधर ये, मुश्किल में काफिला है

हमने तरक्कियों की ऐसी लिखी इबारत
इंसान इस सदी का, रोबोट हो गया है

चांदी के चंद सिक्के करते हैं फैसले सब
बिकते हैं हम खुशी से, हैरत नहीं तो क्या है

किस्मत को कोसने से होगा न कुछ भी हासिल
ये जिंदगी हमारे कर्मों का सिलसिला है 

पूछा, मनुष्य क्या है, तो इक फकीर बोला
बस आग पानी मिट्टी आकाश और हवा है

कुछ और शेरे गम दे, हो ये गज़ल मुक्ममल
ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है

देखन में छोटे लगे घाव करें गंभीर । छोटी ग़ज़लों की अपनी मारक क्षमता होती है । पहली चर्चा मतले की । मतला बहुत विशिष्‍ट सोच के साथ गढ़ा गया है । बात इस प्रकार से कही गई है कि बस आनंद आ जाए । पूरा समय इस मतले में अभिव्‍यक्‍त हो गया है । कविता वही होती है जो अपने समय को अभिव्‍यक्ति प्रदान करे । फिर बात पंच तत्‍व वाले शेर की । बहुत सुंदर बात कही है  । मिसरा सानी सुंदर गढ़ा है । मिसरा उला पर कुछ और मेहनत हो जाती तो एक कमाल हो जाता । इंसान के रोबोट होने वाला शेर अपने समय पर बहुत गहरा कटाक्ष है । वाह वाह वाह ।

rakesh khandelwal ji

श्री राकेश खंडेलवाल जी

ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
मैं सोचता हूँ पाया किस बात का सिला है

दीवार हैं कहाँ जो घेरे हुए मुझे है
है कौन सी कड़ी जो बांधे हुए पगों को
मुट्ठी में भींचता है इस दिल को क्या हवाएं
है कौन सा सितम जो बांधे हुए रगों को
धमनी में लोहू जैसे जम कर के रुक गया है
धड़कन को ले गया है कोई उधार जैसे
साँसों की डोरियों में अवगुंठनों   के घेरे
हर सांस मांगती है मज़दूरियों के पैसे

ये कौन से जनम की बतला मुझे खता है 
ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है

हो काफ़िये के बिन ज्यों  ग़ज़लों में शेर कोई
बहरो वज़न से खारिज आधी लिखी रुबाई
इस ज़िंदगी का मकसद बिखरा हुआ सिफर है
स्याही में घुल चुकी है हर रात की जुन्हाई
आवारगी डगर की हैं गुमशुदा दिशायें
हर दर लगाये आगल उजड़े हुये ठिकाने
कल की गली में खोया लो आज ,कल हुआ फिर
अंजाम कल का दूजा होगा ये कौन माने

खाली फ़लक से लौटी दिल की हर इक सदा है
क्या कैदे बामशक्कत ये तूने की अता है

काँधे की एक झोली उसमें भी हैं झरोखे
पांवों के आबलो की गिनती सफर न गिनता
सुइयां कुतुबनुमा की करती हैं दुश्मनी  अब
जाना किधर है इसका कोई पता ना मिलता
हर एक लम्हा मिलता होकर के अजनबी ही
अपनी गली के पत्थर पहचान माँगते हैं
सुबह से सांझ सब ही सिमटे हैं दो पलों में
केवल अँधेरे छत बन मंडप सा तानते हैं

अपना कहीं से कोई मिलता नहीं पता है
क्या कैदे  बामशक्कत ये तूने की अता है।

राकेश जी के गीत पर लिखते समय मुझे बड़ी दुविधा होती है । किस बंद का जिक्र करूं, किस पंक्ति को उल्‍लेखित करूं और किसको नहीं करूं । राकेश जी परिमल गीतों के कवि हैं, किन्‍तु तरही के नियम का आदर करते हुए उन्‍होंने वर्तमान समय पर जिस प्रकार से गीत लिखा है वो अद्भुत है । कहीं किसी का नाम नहीं, कहीं कोई सीधा जिक्र नहीं । किन्‍तु ऐसा लगता है कि गीत हम सबकी कहानी कह रहा है । गीत हमारी ही पीर को शब्‍द देते हुए गुज़रता है । किसी ने कहा है कि कविता वही होती है जो हर किसी को अपनी ही कहानी लगे । ये गीत हम सब की कहानी है । 'अपनी गली के पत्‍थर पहचान मांगते हैं' ये पंक्ति पूरे गीत से अलग एक पूरा गीत है । हम सबका जीवन यही तो है कि हमारी ही गली के पत्‍थर हमसे ही पहचान मांग रहे हैं और हम यही कह रहे हैं कि 'अपना कहीं से कोई मिलता नहीं पता है' । क्‍या सुंदर गीत वाह वाह वाह ।

तो आनंद लीजिये दोनों रचनाओं का और देते रहिये दाद । जैसा कि पिछली बार हमने शिवरात्रि पर 'सुकवि रमेश हठीला शिवना सम्‍मान' श्री नीरज गोस्‍वामी जी को घोषित किया था जो 2 दिसम्‍बर को प्रदान किया गया । सम्‍मान  इस बार भी होना है । चयन समिति अपनी प्रक्रिया में है और महाशिवरात्रि के दिन हम इस वर्ष का सम्‍मान घोषित करने की स्थ्‍िति में होंगे ।

16 टिप्‍पणियां:


  1. किसी भी विशाल सुन्दर महल या युद्ध के बड़े मैदान में प्रवेश करने से पहले प्रवेश द्वार पर संक्षिप्त भूमिका का लिखा होना आवश्यक है। इस संवाद सेवा की विशेषता यही है कि यहाँ सीजनल तरही मुशायरे की छटा के भीतर एक विमर्श चलता रहता है जो हमारे बौद्धिक स्तर को आंकने का भी काम करता है, "कि हम कितने स्वतंत्र हैं? और कितने बंधे हुए हैं और कहाँ तक खुलने की जरुरत है या कब तक धैर्य पूर्वक बंधन में रहने के लिए प्रतिबद्ध हों।" ये सब हमारी वर्तमान परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिए। परंपरा, रवायतों का अपना महत्व और सौन्दर्य तो है ही लेकिन नियमित फ़िल्टर करते रहने के नए नियम भी विकसित होते रहने चाहिए। मतलब रूढ़ और कैंसर में तब्दील हो चुके परंपरा से निजात दिलाने की कोशिश हर काल खंड में नियमित चलते रहने चाहिए। स्वस्थ परम्परा की खोज जो जन सामान्य के लिए ग्राह्य हो, स्वस्थ पर्यावरण में सांस लेने के लिए सदैव अन्वेषण हों। परिवर्तन संसार का नियम है गीता सार में भी यही है - धर्मं: मतिव्य उधरित: "

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  2. आनंद नहीं परम आनंद रवि जी की ग़ज़ल का मतला और राकेश जी का गीत,,,अहा अहा अहा,,,और क्या चाहिए? भाई कमाल .

    रवि ने जिसतरह का मतला कहा है वो अद्भुत है उसके बाद वाले शेर एक ताकतवर रहनुमा के पीछे चलते मालूम होते हैं। सीधे सीधे शब्दों में बिना किसी आडम्बर के रवि आज के हालात पर बहुत ख़ूबसूरती से कटाक्ष करते हैं। रवि मूल रूप से गीतकार हैं लेकिन ग़ज़ल में भी समां बाँध देते हैं। उनके पास शब्द और भाव का अकूत भण्डार है और जिसके पास ये सब हो उसके लिए क्या गीत और क्या ग़ज़ल।

    राकेश जी के लिए जब भी कुछ कहने की सोचो शब्द गायब हो जाते हैं, सच तो ये हैं उनकी रचनाओं पर कहने के लिए शब्द बने ही नहीं , गूंगे के गुड़ सी स्तिथि हो जाती है। "हर सांस मांगती है मजदूरियों के पैसे" और " अपनी गली के पत्थर पहचान मांगते हैं " जैसी पंक्तियाँ अनूठी हैं और बताती हैं के इनका रचयिता किस पाए का कवि है। उन्हें और उनकी लेखनी को बारम्बार प्रणाम .

    नीरज

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  3. रवि भाई का इन्तजार इस मायने में भी होता है कि वे यहाँ अकेले शख्स हैं जो गीतनुमा ग़ज़ल शुद्धता के साथ कहते हैं।
    जाये भला किधर ये,,, बिकते हैं हम ख़ुशी से,,, बस आग पानी मिट्टी,,,,
    क्या खूब अश'आर हैं।
    ---
    आदरणीय राकेश जी, के बारे क्या कहूँ। वे अपने अंदाज में सबको पिड़ोना जानते हैं। ये कैदे बामशक्कत,,,, भी ऐतिहासिक हो गया है उनके गीतों में ढलकर।

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  4. वाह ... सामाजिक सरोकारों को लेकर लिखी गज़ल रवि जी को नया मुकाम दे रही है ... मतले से ही धामाकेदार शुरुआत कर के करार प्रहार लिया है तरक्की पर ... चांदी के चंद सिक्के ... कितना सही आंकलन है आज है के दौर का ... किस्मत को कोसने से ... चतावनी देता है मनुष्य को, सचेत करता है कर्म की प्रेरणा को ... पूरी गज़ल बहुत ही प्रभावशाली ..

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  5. राकेश जी तो शब्दों के जादूगर हैं ...जब आपको कठिनाई होती है एक बंध चुनने में तो हमारे जैसों का हाल तो आप समझ ही सकते हैं गुरुदेव ... पर ये सच है की पूरा गीत ओर गीत की कोई न कोई पंक्ति किसी न किसी के दर्द को ... मन की पीड़ा को परिलक्षित कर रही है ... बहुत ही उद्वेलित करता हुवा गीत ...

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  6. रविकांत पांडेय:

    'मनुष्य' को बहुत ख़ूब परिभाषित किया है:

    पूछा, मनुष्य क्या है, तो इक फकीर बोला
    बस आग पानी मिट्टी आकाश और हवा है

    [आगाज़ आदमी का अंजाम से जुड़ा है]

    ----------------------------------------------

    श्री राकेश खंडेलवाल जी

    पहली पंक्ती :

    ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है

    और आखरी पंक्ति :

    क्या कैदे बामशक्कत ये तूने की अता है।

    के दरम्यान

    आदमी की तमाम 'बेचारगी' और 'लाचारगी' सिमट आयी है ! एक अजीब दर्द का अहसास कराती हुई .

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  7. @रवि
    भाई क्‍या कमाल कर रहे हो। मत्‍ले का शेर और उसके बाद के दोनों शेर और चौथा शेर, इस उम्र में ये कमाल। दिल खुश कीता ए।

    राकेश जी के गीत पढ़ने के लिये होते हैं और इन पर टिप्‍पणी देना मतलब एक सम्‍पूर्ण निबन्‍ध लिखना। बहुत मुश्किल है।

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  8. कहते-बतियाते कुछ न कुछ ज्ञातव्य साझा करते रहना उत्तरदायित्व के परम निर्वहन का परिचायक है. लीजिये, शिकस्ते नारवा दोष बात की बात में मुझ जैसों के लिए पत्थर की लकीर हो गया. सादर धन्यवाद, पंकज भाईजी.

    आज ग़ज़ल और गीत का सुन्दर समुच्चय बना है. प्रविष्टियों का ऐसा चयन कत्तई अनायास नहीं हो सकता.

    भाई रविकांत ने तो अपने लिए, सही कहिये, शुभकामनाओं के कई-कई ’खुले स्लुइस’ का पुख़्ता इंतज़ाम कर रखा है.
    इस ग़ज़ल के मतले पर ही वाहवाहियों की बाढ़ आयी दीखती है. मौजूं हालात पर इतनी सादग़ी से बात कहना गहन चिंतन की निरंतरता को उजागर करती है.
    सही है भाई, एकदम हैरत नहीं होती ये देख कर कि आज का इन्सान इस तरक्की के बरअक्स चंद सिक्कों के लिए रोबोट होने को बाध्य है. रवि भाई, इस आसानी को बनाये रखियेगा.
    हार्दिक शुभकामनाएँ .. .


    आदरणीय राकेश भाईजी के कहे पर तो धुरंधरों तक ने कह दिया कि उनपर कुछ भी कहना सहज नहीं है. भाव, शब्द, कथ्य, शिल्प, प्रवाह और संप्रेषणीयता का अद्भुत संगम हैं आपकी पंक्तियाँ !
    एक निरुपाय-निस्सहाय की अंतर्वेदना को इतनी कारुणिक किंतु इतनी सम्यक अभिव्यक्ति मिली है कि इस सुगढ़ मुखरता पर मन सुनने की जगह सीखने को नत हुआ जा रहा है. पंक्तियों के वाक्यांशों में कई बिम्ब और कई-कई उपमायें अद्वितीय हैं और पाठकों को साग्रह चकित करती हैं. किस एक बंद को इंगित करूँ ! निर्द्वंद्व होने के पूर्व आपकी निर्विकार पंक्तियों को मन बार-बार सुन रहा है, सुनता ही जा रहा है.
    कहना न होगा, आदरणीय राकेशजी की प्रस्तुति मंच का मानक है.
    शुभ-शुभ !

    आज की दोनों प्रस्तुतियाँ मंच की गरिमा के अनुरूप हैं, पंकज भाईजी.
    सादर बधाइयाँ व हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  9. रवि जी का मतला बेहतरीन है ,हम सब को सोचनेहेतु बाध्य कर रहा है, कि हमारी तासीर भी कुछ ऐसी तो नहीं है।

    रकेश जी का छंदबद्ध गीत काबिले-तारीफ़ है।

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  10. रविकांत पांडेय जी,
    सुन्दर ग़ज़ल के माध्यम से सुन्दर चिंतन के लिए बधाई.
    मनुष्य की परिभाषा.....फ़कीर के द्वारा....बिल्कुल ठीक कहा....अनासिर... पंचभूत....ही तो है.
    मनुष्य का रोबोट में परिवर्तन इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी है.
    बधाई आपको .... आपने बहुत सरल किन्तु बहुत
    प्रभावशाली तरीके से अपनी ग़ज़ल कही है.


    आदरणीय भाई राकेश खंडेलवाल जी,
    आपके सुन्दर गीत का प्रत्येक मिसरा, अपने आप में एक संपूर्ण सूक्ति है,
    विचार की ऐसी अप्रतिम तितलियाँ हर कवि की कलम की नोंक पर आकर नहीं बैठ जातीं,आप धन्य हैं.
    और यह... अपनी गली के पत्थर पहचान माँगते हैं.....नतमस्तक हूँ.....

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  11. रविकांत भाई की ग़ज़ल अच्छी लगी।वर्तमान समय की विसंगतियों को बखूबी सामने रखा गया गया है।दाद हाज़िर है।राकेश खंडेलवाल जी की रचना के विषय में कहना ही क्या!हमेशा की तरह सुन्दर!

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  12. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है रविकांत जी ने। बहुत ही खूबसूरत मत्ला के साथ शुरुआत की है और उसके बाद तो बेहतरीन अश’आर कह गए हैं। बहुत बहुत बधाई रविकांत जी को।

    राकेश जी के गीतों का तो बस आनंद ही लिया जा सकता है। तारीफ़ करना तो अब उनके गीत की मानहानि करने जैसा लगता है। नमन है उनकी लेखनी को

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  13. रवि भाई ने लाजवाब मतला गढ़ा है, और उसके बाद वाला शेर "रोबोट" अकाट्य तंज है।
    "चांदी के चाँद सिक्के ................" वाह
    "पूछा, मनुष्य क्या है, तो इक फकीर बोला ................" सत्य
    अच्छे शेर कहे हैं रवि भाई।

    आदरणीय राकेश जी के गीत शब्दों से जादू रचते हैं।
    "धमनी में लोहू जैसे जम कर के रुक गया है
    धड़कन को ले गया है कोई उधार जैसे
    साँसों की डोरियों में अवगुंठनों के घेरे
    हर सांस मांगती है मज़दूरियों के पैसे"
    वाह वाह

    "काँधे की एक झोली उसमें भी हैं झरोखे
    पांवों के आबलो की गिनती सफर न गिनता
    सुइयां कुतुबनुमा की करती हैं दुश्मनी अब
    जाना किधर है इसका कोई पता ना मिलता"

    "हर एक लम्हा मिलता होकर के अजनबी ही
    अपनी गली के पत्थर पहचान माँगते हैं
    सुबह से सांझ सब ही सिमटे हैं दो पलों में
    केवल अँधेरे छत बन मंडप सा तानते हैं"

    अद्भुत पंक्तियाँ है।
    वाह वाह वाह
    रचना और रचनाकार को नमन।

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  14. एक ऐसा मतला जो रूक कर सोचने को मजबूर करे! कम मिलते हैं ऐसे मतले ! मतले ने ही बता दिया आगे क्या होने वाला है ग़ज़ल में, बहुत सुन्दर मतले के लिये दिल से करोडो दाद क़ुबूल हो रवि भाई !
    दूसरे शे'र का दोनों मसरे का अल्फ़ाज़ उर्दू और हिन्दी में है और वहीं एक इंगलिश का ! जो आपको चौकाने से नहीं रूक्ती! और क्या बख़ूबी इन्होने इन सबका इस्तेमाल किया है ! मौजू हालात को दर्शा रहा है यह शे'र ! बहुत बधाई !
    तीसरे शे'र मे क्या तंज कसा है इन्होने ! बहुत सुन्दर !
    पांचवे शे'र के बारे में क्या कहूँ पहले से ही गुरु देव ने कह दिया है ! इस शे'र के लिये खडे होकर तालियाँ !
    ग़ज़ल के लिये ग़म की बात आह क्या बात कही है भाई ने ! मक्ते ने एक अलग ही दर्द का एह्सास कराया ! वाह वाह !

    राकेश जी के गीत पर कुछ कहना मेरे जैसो के लिये ठीक नहीं , बस इस तरही के हवाले से हमे इनके गीतों के ज़रिये उनका आशिर्वाद मिलता रहे ! और हम धन्य होते रहें !

    अर्श

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  15. दोनों रचनाकारों के लिए बस एक ही शब्‍द............'अद्भुत'

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  16. वाह जी वाह!! आनन्द आ गया....गुरुवर के तो क्या कहने!!

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