शनिवार को एक फोन आया । फोन आया बहुत स्नेह और प्रेम से बोलने वाली बहन जी का । फोन था सरहद पार से । उस पार से जिसे हम अपना शत्रु समझते हैं । बहन जी ने मेरी कहानियों का उर्दू में अनुवाद किया है, वे खुद भी साहित्यकार हैं । वे एक बुज़र्ग हैं । पिछले साल दिल का दौरा झेल चुकी हैं । बात करती हैं तो इतना मीठा बोलती हैं कि बस सुनते रहो । बहन जी से जब शनिवार को बात हुई तो बात होते होते अचानक उनकी आवाज़ में उदासी छा गई । गहरी और स्याह उदासी । कहने लगीं कि बेटा हम तो यहां खून के दरिया और मौत के अंधेरे में जी रहे हैं पता नहीं कब क्या हो जाए। हालात बदलने की कोई सूरत नहीं नज़र आती । उनकी आवाज़ कांप रही थी। उनकी आवाज़ की उदासी ने सारा दिन मुझे उदास रखा । उनका एक वाक्य बेटा तुमसे मिलने की बहुत इच्छा है लेकिन...... । उस लेकिन शब्द की उदासी मेरे मन में आज भी फैली है ।
ये क़ैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
आज की ग़ज़ल उसी फोन के संदर्भों को आगे बढ़ाती है । डॉ आज़म ने जब ग़ज़ल पर काम शुरू किया तो किसी और मानसिकता में थे किन्तु, उसी बीच हैदराबाद हो गया । और पूरी मानसिकता बदल गई । आज की डॉ आज़म की ग़ज़ल और सरहद पार की बहन जी की वो बात कि हालात बदलने की कोई सूरत नज़र नहीं आती, ये दोनों एक ही सुर में हैं । दर्द के सुर में । बहन जी की पीड़ा रह रह कर मुझे सालती है । मैं उनके लिये कुछ नहीं कर सकता । कोई इस पूरी पीड़ा के लिये कुछ नहीं कर सकता । काश काश काश ये सभ्यता का पूरा विकास समाप्त हो जाए, काश इन्सान के बनाए हुए ये धर्म ये देश ये जातियां ये सब समाप्त हो जाएं । काश काश काश । मगर, लेकिन, किन्तु.........।
डॉ आज़म
अरे भाई गज़ल लिख ही रहा था कि हैदराबाद का खूनी वाक़ेया हो गया...तो गज़ल का रुख़ ही बदल गया....पहले गज़ल के चंद शेर पेश है....
सब की नज़र में आज़म, माना बहुत बुरा है
लेकिन यहां कोई भी, क्या दूध का धुला है ?
क्या पिछले जन्म की कुछ, मुझ को मिली सज़ा है
''ये क़ैद-ए-बा-मशक़्क़त, जो तूने की अता है''
कहते हैं कुछ 'विचारक', होती जहां जि़ना* है
भारत नहीं वो हरगिज़, वो मुल्क इंडिया है
आदत ही पड़ गयी है, चलने की लड़खड़ा कर
हालांकि देखिए तो, हमवार रास्ता है
हरकत में इस तरह है, जैसे मशीन कोई
जीने की आरज़ू में, हर शख्स मर रहा है
इतने ही शेर हुए थे की ग़ज़ल का रुख़ बदल गया
इक बार फिर से हावी, आतंक हो गया है
हिन्दोस्तां का चेहरा, फिर खून से सना है
हर शख्स डर रहा है, हर शह्र कांपता है
कब तक बताएं कब तक, खूनी ये सिलसिला है
आहें, कराहें, चीखें, और चीथड़े बदन के
मंज़र तमाम जैसे, इक क़त्ल-गाह का है
ज़ेह्नों में दुख के बादल, आंखों में खूं के आंसू
दिलसुख नगर का मंज़र, दिल दुख से भर गया है
कैसे रुकेगा आख़िर, पूछें ये हाकिमों से
भारत की अस्मिता पर, जो हमला हो रहा है
आतंकियों से पूछें, पूछें जेहादियों से
इंसानियत का जज़्बा, क्या उन का मर गया है
''मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना ''
सफ्फाक ज़ालिमों को, क्या ये नहीं पता है
अम्न-ओ-अमां रहे बस, हिन्दोस्तां में क़ायम
आज़म की तुझ से इतनी, फरयाद ऐ खुदा है
ग़ज़ल जो सवाल उठा रही है उनके उत्तर कौन तलाशेगा । आतंकियों से पूछें पूछें जिहादियों से, आज़म जी ने बहुत गहरा प्रश्न किया है । आतंक का कोई धर्म कोई मज़हब नहीं होता है । आतंक केवल आतंक होता है । नीचे की पूरी मुसल्सल ग़ज़ल एक प्रार्थना के रूप में उस दहशत के विरोध में उठने का प्रयास कर रही है । दहशत जो इस पूरे उपमहाद्वीप में फैली है और हम सब इसके लिये एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं । इकबाल के मशहूर मिसरे को बहुत सुंदरता के साथ आज़म जी ने अपने शेर में गिरह लगा कर गूंथा है । बहुत सुंदर । और अंत में मकते का शेर एक दुआ के रूप में गूंजता है । काश ये गूंज पूरे उप महाद्वीप में फैल जाए । काश ये प्रार्थना क़ुबूल हो जाए । काश काश काश ।
तो सुनिये इस गज़ल को और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये । शामिल होइये इस दर्द के सुर में जो हम सबका साझा है ।
समसामयिक ,बेहतरीन ग़ज़ल के लिये डा: आजम साहब मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं।
जवाब देंहटाएंBahot marmsparshi gazal.
हटाएंआदरणीय डा आजम का आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति पर -
मसले सुलझाने चला, आतंकी घुसपैठ ।
खटमल स्लीपर सेल बना, रेकी रेका ऐंठ ।
रेकी रेका ऐंठ, मुहैया असल असलहा ।
विकट सीरियल ब्लास्ट, लाश पर लगे कहकहा ।
सत्ता है असहाय, बढ़ें नित बर्बर नस्लें ।
मसले होते हिंस्र, जाय ना खटमल मसले ।
शायर तलाश में था, कोई मिले तसव्वुर
जवाब देंहटाएंमंजर नजंर से देखा, इक प्रश्न बन गया है।
डॉ आज़म ने एक दृश्य को जिस तरह एक ग़ज़ल का रूप दिया वह एक उदाहरण है कि जब कोई दृश्य शायर के ज़ेह्न में उतरता है तो शायर उसमें कैसे उतरता है।
समसामयिक घटनाक्रम से प्रश्न का रूप लेकर बहुत से प्रश्न उपस्थित हुए हैं।
फोन वाकये पर दुखी व् उदास होना ये हमारी नियति का हिस्सा है, दो नागरिक और दो वतन दोनों का दुःख है इसमें जो इतिहास से विरासत में मिला है. सहसा मुझे अपनी एक पंक्ति याद आई
जवाब देंहटाएं"सरहद सरहद दुश्मन दुश्मन; जाने कैसे वतन चलता है। "
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डा० आज़म जी को तब से सुन रहा हूँ जब से ये मंच मुझे नसीब हुआ है. एक ऐसे शायर जहाँ शायरी, ग़ज़ल और अरूज़ उनके एक आँख में है तो दुसरे आँख से वो सम्पूर्ण हिन्दोस्तान का दर्द देखते हैं। उनके प्रश्नों ने झकझोर कर रख दिया है. अंतिम पंक्तियों में दुआओं से मन भीग गया है.
सामाजिक परिवेश का असर कैसे होता है ये स्पष्ट है इस गज़ल के माहोल से ... परिस्थितियाँ कैसे एक रचनाकार की मन:स्थिति में बदलाव ले आती है ... वो संवेदनशील होता है इसलिए परिवेश में भागीदार होता है ...
जवाब देंहटाएंआज़म साहब के हर शेर में एक पीड़ा है ... एक प्रश्न है समाज से जो हर संवेदनशील इंसान करना चाहता है ... कोई एक शेर हो तो लिखा जाए यहाँ तो आक्रोश, दर्द का सैलाब है जो उमड़ रहा है ...
अंतिम शेर हर किसी के दिल से निकली फ़रियाद है ... काश काश काश ... अमन हो देश में ...
बहुत खूब आज़म साहेब!
जवाब देंहटाएंमेरी टिप्पणी गायब हो गई ...
जवाब देंहटाएंमगर लेकिन किन्तु परन्तु ---ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब ही नहीं है। अगर मामला इंसानों के बीच होता तो शायद जवाब मिल भी जाता लेकिन ये मामला इंसानों और हैवानों के बीच का है और हैवान कब अपनी हैवानियत दिखला दें कौन बता सकता है?
जवाब देंहटाएंजब से इंसान इस धरती पर आये हैं तब से उनके साथ ही हैवान भी आये हैं कभी इंसानों का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी हैवानों का--ये मामला अनंत काल से चलता आ रहा है और शायद यूँ ही चलता रहेगा .
आजाम साहब ने जो सवाल पूछे हैं वो हम सब के हैं--ऐसी ग़ज़ल पे क्या कहा जाय जो सीधे दिल से कही गयी है।लाजवाब।
नीरज
आदरणीय आजम जी , आपकी इस गजल के बारे में क्या कहु। में कहने के लिए बहुत छोटा हूँ आप से, आप की पुस्तक आसन अरुज में जिस तरह की मेहनत आपने की है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता . आपको गजल विधा की बहुत अच्छी जानकारी है। और आप और हमारे आदरणीय पंकज जी जैसे लोगो की वजह से मुझ जैसे कई लोगो को गजल के बारे में जानकारी मिली है।
जवाब देंहटाएंसब की नज़र में आज़म, माना बहुत बुरा है
लेकिन यहां कोई भी, क्या दूध का धुला है ?
क्या बात है सर , मतले में ही मजा आ गया
हरकत में इस तरह है, जैसे मशीन कोई
जीने की आरज़ू में, हर शख्स मर रहा है
सच कहाँ सर,बहुत बढ़िया शेर , फिर से पडता हूँ इसे
आपकी गजल का रुख बदला और क्या बदला है वाह . हैदराबाद का वो मंजर मैंने अपनी आँखों से देखा है और उस माहोल को आपने जिस तरह अपनी गजल में समेटा है वो तारीफे काबिल है .
हर शख्स डर रहा है, हर शह्र कांपता है
कब तक बताएं कब तक, खूनी ये सिलसिला है
सच है सर उस दिन मैं ऑफिस में था और हर शख्स डरा हुआ था यहाँ और सब की निगाहे यही पुछ रही थी की आखिर कब तक?
ज़ेह्नों में दुख के बादल, आंखों में खूं के आंसू
दिलसुख नगर का मंज़र, दिल दुख से भर गया है
सच है
''मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना ''
सफ्फाक ज़ालिमों को, क्या ये नहीं पता है
वाह वाह
अम्न-ओ-अमां रहे बस, हिन्दोस्तां में क़ायम
आज़म की तुझ से इतनी, फरयाद ऐ खुदा है
उपर बहन जी से हुई अपकी बात पर क्या कहूँ ! काश की आप दोनो मिल पाते !
जवाब देंहटाएंआज़म साब वाक़ई आज़म है ग़ज़लों के लिये! क्या ही ख़ूब ग़ज़ल कही है इन्होनें हर नज़रिये से , अपनी ग़ज़ल मे हर आम फहम की बातों को जिस तरह से वो रख्ते हैं वो वाक़ई औरों के लिये मुशक़िल सबब होता है!
हर शे'र ख़ुद में बेमिशाल है !
एक शे'र का ज़िक्र करूंगा ... आहें कराहें चीखें... अहा क्या शे'र बुना है आज़म साब ने ! कुछ और कहने को रह नही जाता ! इनकी ग़ज़लों से हमेशा कुछ न कुछ सिखने को मिलता है !
बहुत बधाई आज़म साब को !
अर्श
कुछ ग़ज़लों पर वाह...वाह निकलती है....कुछ पर श्रोता केवल आह भर कर रह जाता है। डॉ. आज़म साहब की यह ग़ज़ल सुन कर क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी....उसे मैं कोई शब्द नहीं दे पा रहा हूं। शायद यही इस ग़ज़ल की कामयाबी है कि यह वाह...और आह.... की हद से निकल चुकी है और न सिर्फ सीधी ज़ेहन के किवाड़ खटखटा रही है बल्कि दो टूक सवालिया लहजे में मुखातिब है।
जवाब देंहटाएंमैं एक गंभीर श्रोता या पाठक की हैसियत और थोड़ा-बहुत लिख लेने की कोशिश करने में जुटे एक आम हिंदुस्तानी की हैसियत से इस ग़ज़ल के लिए शायर डॉ. आज़म को इस ग़ज़ल पर दिल से शुक्रिया कहता हूं।
कोई शे'र इसलिए कोट नहीं कर रहा हूं क्योंकि ऐसा करना दूसरे अश्'आर के साथ नाइंसाफी होगा।
धन्यवाद आ. पंकज सुबीर साहब का जिन्होंने यह मंच दिया।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार26/2/13 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है
जवाब देंहटाएंआजम साहब की सोच और उनकी संवेदना पर उन्हें बधाई क्या कहूँ, उनके कहे में अपनी सम्मति घोलता हूँ.
जवाब देंहटाएंमतले के अंदाज़ से ही मन भरा-भरा हो गया. बाद के कई-कई मिसरे चुप करते जाते हैं.
वातावरण सहज हो..
बिल्कुल समसामयिक और बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आज़म साहब ने। ऐसे मुद्दों को जिस तरह शे’र में बाँधा है वो लाजवाब है। हर शे’र कामयाब है। उनके प्रश्न बहुत दिनों तक दिल-ओ-दिमाग में गूँजते रहेंगे। बहुत बहुत बधाई आज़म साहब को इस शानदार ग़ज़ल के लिए।
जवाब देंहटाएंउम्दा ग़ज़ल हुई है आज़म साहब! एक आम हिन्दुस्तानी के दर्द और भय को बेहतर अभिव्यक्ति दी है आपने।बधाई स्वीकार करें!
जवाब देंहटाएंआज के हालत का आम आदमी की बे बसी का दर्द लिए है ये गजल -
जवाब देंहटाएंकैसे रुकेगा आखिर ,पूछें ये हाकिमों से ,
भारत के अस्मिता पर ,जो हमला हो रहा है .
जबरदस्त!! उम्दा!
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