कुछ लोग पूछते हैं कि ये दुष्यंत की परम्परा क्या है । इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही कठिन है । दरअसल दुष्यंत की परम्परा कहीं भी कबीर और ग़ालिब से अलग कोई नई परम्परा नहीं है । हमारी राजनैतिक व्यवस्था में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष जैसा कुछ नहीं होता । वहां एक ही पक्ष होता है 'सत्ता पक्ष' । जो प्रतिपक्ष है वो भी सत्ता में ही है । राजनीति में जो कुछ भी सत्ता पक्ष है या सत्ता प्रतिपक्ष है वो दरअसल जनता के विपक्ष में है, एक स्थाई विपक्ष । स्थाई विपक्ष जो राजा रजवाड़ों से अंग्रेजों और अंग्रेजों से लोकतंत्र तक आने के बाद भी नहीं बदला, उसी प्रकार आमजन के विपक्ष में रहा । ऐसे में इस सत्ता का विपक्ष कौन है, प्रतिपक्ष कौन है ? प्रतिपक्ष होती है 'कविता' । जो इन 'सत्ता पक्ष' और 'सत्ता प्रतिपक्ष' के विपक्ष में स्थाई रूप से, सतत खड़ी होती है । कविता जनता के पक्ष में खड़ा एक स्थाई प्रतिपक्ष है । इस बात के द्वारा हम कबीर से गालिब और गालिब से नागार्जुन, दुष्यंत की पूरी परम्परा को समझ सकते हैं । अब इस स्थाई विपक्ष के लिये सबसे आवश्यक बात ये है कि ये व्यक्ति के विरोध में न होकर व्यवस्था के विरोध में हो । दोष व्यक्ति का नहीं होता बल्कि व्यवस्था का होता है । हम चुनावों में व्यक्ति को बदल कर सोचते हैं कि अब सब बदल जाएगा । किन्तु सब कुछ वैसा का वैसा ही रहता है । कुछ नहीं बदलता । कविता किसी का नाम ले लेती है तो वो कमजोर हो जाती है । कविता को किसी का नाम नहीं लेना है । हमें चयन करना होगा कि हमें व्यक्ति के विरोध में रहना है या व्यवस्था के । व्यक्ति के विरोध में लिखी गई कविता व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है, व्यवस्था के विरोध में लिखी गई कविता बरसों बरस जिंदा रहती है । राजनीति का प्रयास ये होता है कि विद्रोह जब भी हो तो वो व्यक्ति के विरोध में हो, व्यवस्था के विरोध में न हो । कहीं कोई भी विद्रोह यदि व्यवस्था के विरोध में हो गया तो वो क्रांति में बदल जाएगा । राजनीति के लिये आसानी होती है व्यक्ति के विरोध में हो रहे विद्रोह को शांत करना । उसे केवल व्यक्ति ही तो बदलना है । तो बस इतना याद रखें कि व्यवस्था चेहरा है और व्यक्ति उस चेहरे का मुखौटा । आचरण क्या होगा ये चेहरा तय करता है । इसलिये वो कविता कमजोर होती है जो मुखौटे के विरोध में लिखी जाती है । और इसीलिये दुष्यंत जब कहते हैं कि 'सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये' तो वे मोमबत्ती और मशाल के बीच के फर्क को स्पष्ट कर देते हैं । चौराहों पर मोमबत्ती जलाने से 'हंगामा खड़ा' हो सकता है किन्तु यदि 'सूरत बदलनी है' तो कविता को मशाल बनना होगा ।
'ये क़ैदे बामशक्कत जो तूने की अता है'
इस बार के मिसरे में चार शब्द बहुत काम मांग रहे हैं 'क़ैद', 'बामशक्कत' 'तूने' और 'अता' । 'तूने' को व्यापक अर्थों में उपयोग करना होगा । और 'अता' शब्द भी जान बूझकर रखा गया है । मेरी इच्छा है कि ऊपर लिखी गई बातों के संदर्भ में इन चारों शब्दों और इस मिसरे को फिर से देखें ।
आइये आज सुनते हैं शार्दूला नोगजा जी और दिगम्बर नासवा जी से उनकी ग़ज़लें । यदि आप ध्यान से ध्वनियों को सुन पाएं तो आप पाएंगे कि दोनों ग़ज़लें दो अलग अलग रचनाकारों की भले हों किन्तु, दोनों की अंर्तध्वनियां एक सी हैं । दोनों एक ही सुर में रची गई हैं । कुछ शेर चौंकाने वाले तरीके से सामने आते हैं ।
शार्दुला नोगजा जी
ये कैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है
उसमें ग़रीब होना, मौला बड़ी सज़ा है
"मेरे दलान पर से, भूखा न जाए कोई"
अम्मा गई सिकुड़ती, बाबा का कद बढ़ा है
आराम-कुर्सियों पे कब, इन्कलाब बैठा
वो धूल-स्वेद लिपटा, बस में चढ़ा, चला है
मजदूर दंगई की, करता शिनाख्त कैसे
घर जल गया, हुआ क्या, कुनबा अभी बचा है
है पी चुका समुन्दर, मरुथल भी दुह चुका है
अब तेल का कुआं वन, देहात में खुदा है
लिखने की दौड़ इतनी, के पढ़ सके न पूरा
जिसने तुम्हें सराहा, तुमको वही जंचा है ?
भरपेट, ऊँचे घर से, हूँ लिख रही गज़ल मैं
कब सोच पाई मितरो, जो तूने हंस सहा है
पहले बात उस शेर की जिसके मिसरा सानी में आया शब्द 'सिकुड़ती' स्त्री के पक्ष में लिखी गईं कई कई कविताओं पर भारी है । ये एक शब्द पूरी कविता है । फिर बात धूल और स्वेद की । इन्कलाब की परिभाषा गढ़ने में ये दोनों शब्द बहुत प्रभावी होकर सामने आये हैं । तीसरा शेर जो बिना कुछ कहे सब कुछ कह गया है । 'कुनबा अभी बचा है' में दंगई की पहचान नहीं करने और कुनबे के बचे होने का जो चित्र है वो उस मजदूर की पूरी कहानी कह जाता है । ये शेर उस परम्परा का है जिसकी हमने ऊपर बात की । तीनों शेर एक के बाद एक धड़ धड़ करके अपने समय की तीन समस्याओं पर चोट करते हुए ग़ुज़र जाते हैं । प्रभावशाली ग़ज़ल । खूब बहुत खूब ।
दिगंबर नासवा
बीठें पड़ी हुई हैं, बदरंग हो चुका है
इंसानियत का झंडा, कब से यहाँ खड़ा है
सपने वो ले गए हैं, साँसें भी खींच लेंगे
इस भीड़ में नपुंसक लोगों का काफिला है
सींचा तुझे लहू से, तू मुझपे हाथ डाले
रखने की पेट में क्या, इतनी बड़ी सज़ा है
वो काट लें सरों को, मैं चुप रहूँ हमेशा
सन्देश क्या अमन का, मेरे लिए बना है
क्यों खौलता नहीं है, ये खून बाजुओं में
क्या शहर की जवानी, पानी का बुलबुला है
बारूद कर दे इसको, या मुक्त कर दे इस से
ये क़ैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है
सपने वो ले गए हैं सांसें भी खींच लेंगे, में एक के बाद एक दो शब्द पहले सपने और उसके बाद सांसें । यदि मैं जिस प्रकार से इन शब्दों को ले रहा हूं, उसी प्रकार से आप लेंगे तो ये शेर आपको बहुत कुछ दे जाएगा । वो काट लें सरों को मैं चुप रहूं हमेशा उस सशस्त्र क्रांति के ठीक पहले की मनोवस्था को बता रहा है । और उसके ठीक बाद पानी के बुलबुले का आना । सशस्त्र क्रांति अपने समय में कभी स्वीकृत नहीं हो पाती उसे हमेशा बाद में मान्यता मिलती है । अंतिम शेर में जो गिरह बांधी है उसमें मिसरे में जो पीड़ा है वो बहुत प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त हो गई है । पूरी की पूरी ग़जल एक ही सुर में गूंज रही है । खूब बहुत खूब ।
तो इन दोनों ग़ज़लों को महसूस कीजिए (मैं आनंद लीजिए नहीं कह रहा हूं) । महसूस करके दाद दीजिये । दाद दीजिए क्योंकि आप दाद देने में इस मुशायरे में अभी तक कुछ कमजोर साबित हो रहे हैं । ऐसा न हो कि आगे से मुशायरे के आयोजन पर विचार करना पड़े । थोड़ा कहा बहुत समझना ।
दोनों ग़ज़लों ने कमाल कर दिया है।
जवाब देंहटाएंशार्दूला दी, ने गिरह को मतले में बहुत अच्छे और अलग ढंग से बाँधा है। और उसके बाद आने वाला शेर का सानी मिसरा वाकई अद्भुत है, अपने में एक मुकम्मल कहानी।
"आराम कुर्सियों .........", सोशल नेटवर्किंग साईट से इन्क़लाबी नारों का उद्घोष करती जनता पर सटीक तंज।
"मजदूर दंगई .......................", आह
"लिखने की दौड़ ................", बहुत खूब शार्दूला दी, ब्लॉग और फेसबुक और ऐसी ही तमाम साईट पर लगी पोस्ट की ज़मीनी हकीकत।
आखिरी शेर भी बहुत खूब बना है।
बहुत शानदार और जानदार ग़ज़ल कही है, जिसका हर शेर ज़ेहन में एक गूँज छोड़ जा रहा है। ढेरों बधाइयाँ
दिगम्बर जी ने मतला बहुत खूब गढ़ा है। वाह वाह
"सपने वो ले गए हैं ..................." वाह वाह वाह क्या खूबसूरत मिसरा है। जिंदाबाद
"वो काट ले सरों को ................", वाह क्या बात है, हाल में घटित घटनाक्रम और उसके बाद उबले गुस्से को बहुत अच्छे से बयाँ किया है।
"क्यों खौलता नहीं ...................." वाह वाह
गिरह भी उम्दा बाँधी है।
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है दिगम्बर जी, बधाई स्वीकारें।
आज की दोनों ग़ज़लें एक अलग जादू जगा गई हैं। आज के दिन की शुरुआत बहुत अच्छी हुई है।
आज भूमिका में हर वो बात जिसे पूरा स्पेस मिलना चाहिए था हर उस अर्थ को यहाँ देख पढ़ बहुत संतुष्टि मिल रही है।
जवाब देंहटाएं...
शार्दूला दी,
आप हर बार की तरह मुशायरे का मान रखती हैं और न सिर्फ मान रखती हैं उसमे जान डाल देती हैं। आपके सभी अश'आर वर्तमान सरोकारों से जद्धोजहद करते हुए आपके काव्य धारा को इमानदारी से ग़ज़ल में परिलक्षित किया है। विशेष कुछ शे'र बहुत कुछ सोचने को विवश करते हैं ...
मेरे दलान पर से, भूखा न जाए कोई" अम्मा गई सिकुड़ती, बाबा का कद बढ़ा है/ आराम-कुर्सियों पे कब, इन्कलाब बैठा वो धूल-स्वेद लिपटा, बस में चढ़ा, चला है / अब तेल का कुआं वन, देहात में खुदा है / लिखने की दौड़ इतनी, के पढ़ सके न पूरा जिसने तुम्हें सराहा, तुमको वही जंचा है ?/भरपेट, ऊँचे घर से, हूँ लिख रही गज़ल मैं
बहुत खूब।।।
दिगंबर जी की सोच और लेखनी बहुत व्यापक है। ये में आये दिन देखता रहता हूँ। परन्तु आज तो उन्होंने जनतंत्र में दर्द और क्रान्ति के अहसास को उकेर कर रख दिया है।
जवाब देंहटाएंबीठें पड़ी हुई हैं, बदरंग हो चुका है / सपने वो ले गए हैं, साँसें भी खींच लेंगे
इस भीड़ में नपुंसक लोगों का काफिला है / सींचा तुझे लहू से, तू मुझपे हाथ डाले
रखने की पेट में क्या, इतनी बड़ी सज़ा है/ वो काट लें सरों को, मैं चुप रहूँ हमेशा
सन्देश क्या अमन का, मेरे लिए बना है /
क्यों खौलता नहीं है, ये खून बाजुओं में क्या शहर की जवानी, पानी का बुलबुला है /
बारूद कर दे इसको, या मुक्त कर दे इस से ये क़ैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है
क्या कहूँ क्या कहूँ मैं !!
शार्दूला दी ने मतले में जो मिसरा सानी लगाया है वो एक बेवसी को उजागर कर रहा है ! जिसे पढ़ते हे आह निकल पड़े !
जवाब देंहटाएंदूसरा शे'र एक पूरे परिवेश की बात कर रहा है , एक पूरी कहानी है इसमे , वाकई यह शे'र महसूस किये बगैर समझा ही नहीं जा सकता है , घर की वो बात सामने राखी है इन्होने जिसपर अगर बारीक नजर ना पड़े तो फिर अन छुआ ही रह जाए ! यह शे'र ना भूल पाने वाला शे'र है !
तीसरा शे'र हकीकत बयान कर रहा है , और क्या ही बखूबी बात कही है इन्होने वाह बहुत सुन्दर शे'र है यह !
चौथे शे'र का मिसरा उला पर खड़े होकर तालियाँ अहा क्या मिसरा है वाह वाह .... आलातरीन शे'र है यह !
हर बार की तरह इस बार भी इन्होने एक देसज शब्द शामिल किया है इन्होने ग़ज़ल में ,... और क्या ही खूब इसका इस्तेमाल किया है अहा अहा ... दुहा ने इस शे'र का मज़ा दुगना कर दिया है !
व्यंग का हलाजा यही होना चाहिए 'जंचा' बहुत देर तक इस शे'र पर हंसता रहा , तंज के मिजाज़ को सलाम वाह !
आखिर का शे'र बहुत मुश्किल होता है लिखना , पूरी ग़ज़ल ही कमाल है .... बहुत सुन्दर बन पड़ी है ग़ज़ल दी !
नसवा साब प्रेम की ग़ज़ल बहुत अच्छी लिखते है यही सोचता था मगर इस ग़ज़ल ने इस भ्रम को तोड़ दिया है क्या ही खूब ग़ज़ल कही है इन्होने मतले से लेकर मक्ते तकपूरी ग़ज़ल आलातरीन है .....
मतला क्या ही कमाल है ... वाह साब वाह ... खूबसूरत मतला और जबरदस्त मतले के लिए बहुत बधाई नसवा साब १
दूसरे शे'र का मिसरा उला बेहद खूबसूरत है बेहद कमाल का मिसरा है ...
तीसरा शे'र पढ़कर देर तक ठिठका रहा .... नि:शब्द हूँ क्या कहूँ समझ नहीं पा रहा १
चौथा शे'र खीज है ख़ुद में एक झुंझलाहट है बहुत सुन्दर शे'र है करोडो दाद कबूल करें नसवा साब !
पांचवा शे'र बाक़माल लाजवाब है फिर से ढेरों दाद कुबूल फरमाएं साब !
और अभी तक की सबसे जबरदस्त गिरह लगाईं है इन्होने मेरे हिसाब से १ पूरी ग़ज़ल लाजवाब साब ! वाह वाह !
अर्श
है पी चुका समन्दर----कब सोच पाई मितरो--- और वो काट ले सरों को ---क्यों खौलता नहीं है
जवाब देंहटाएंअद्वितीय भावों से भरपूर गज़लें. दोनों रचनाकारों को बधाई और शुभकामनायें
आज सुबह इस पोस्ट को पढ़ा था,,,एक दम से कमेन्ट नहीं लिख सका,,,ऐसे शेर रोज़ रोज़ नहीं रचे जाते , ये खास हैं और इनपर कुछ कहने के लिए वक्त चाहिए। अभी ऐसा नहीं है के मैं कुछ कहने लायक हो पाया हूँ क्यूँ के इन पर कुछ कहा ही नहीं जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है .
जवाब देंहटाएंशार्दूला जी ने अपनी कलम का लोहा एक बार नहीं अनेक बार मनवाया है ,माँ सरस्वती की अपनी इस लाडली बेटी पर विशेष कृपा रही है जब कलम उठाती हैं कमाल कर जाती हैं। "अम्मा गयी सिकुड़ती बाबा का कद बढ़ा है " जैसे मिसरे कहे नहीं जाते ऊपर से उतरते हैं, धूल-स्वेद में लिपटे इन्कलाब की बात हो या दंगे की, या फिर आज के युग में हर जगह "तू मुझे खुजा मैं तुझे खुजाऊं वाली परम्परा की शार्दूला जी ने उसे अपने अंदाज़ में क्या खूब बयां किया है वाह वाह वाह वाह
दिगंबर जी मेरे बहुत प्रिय शायर हैं उन्हें पढना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है। आज के दौर में इंसानियत को झंडे के बिम्ब से जिस तरह उन्होंने बयां किया है वो अद्भुत है , नपुंसक भीड़, नारी की पीड़ा, और जवानी को पानी का बुलबुला बता कर उन्होंने ग़ज़ल को नयी ऊँचाई बक्शी है। और फिर लाजवाब गिरह याने कमाल कमाल कमाल
आज सुबीर संवाद सेवा सुबीर जी के फन्ने खां रूप को दर्शा रही है , कसम उड़ान झल्ले की भोत ही क़यामत टाइप चीज़ लग रिये हो मियां। चश्म-ऐ-बद्दूर
नीरज
आज की भूमिका कई-कई तथ्यों को सुगढ़ प्रखरता के साथ प्रस्तुत कर रही है. किसी व्यवस्था का यह धर्म ही है कि वह सामान्य जन के प्रति आग्रही हो. यदि व्यवस्था या व्यवस्थापक अपने गुण-धर्म से विलग हो कर्तव्यच्यूत हो जायें तो एक संवेदनशील मनस उसके विरुद्ध आवाज़ उठाता है. और यहीं एक दुष्यंत कुमार, एक अदम गोंडवी या एक नागार्जुन या ऐसे ही कुछ मुखर नाम प्रासंगिक हो उठते हैं.
जवाब देंहटाएंभाई पंकजजी, आपकी आजकी इस विशिष्ट और स्पष्ट समीक्षा ने आज के मुशायरे के स्तर को अन्यतम ऊँचाई दी है. या, आज के दोनों ग़ज़लकारों की प्रस्तुति के पहले आपने उचित ज़मीन तैयार की है, कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी.
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज के दोनों ग़ज़लकार अपनी-अपनी प्रविष्टियों से न केवल चकित व उद्वेलित करते हैं, बल्कि आश्वस्त भी करते हैं कि अपना यह परिवार अत्यंत गहनता से बहुत ही सुगठित पौध-पंक्ति तैयार करने में निमग्न है.
आदरणीया शार्दुलाजी को मैं जितनी दफ़े जहाँ भी पढ़ा हूँ, मुग्ध हुआ हूँ और आपकी रचनाधर्मिता के प्रति सिर नत हुआ है. आपके किसी एक शेर को उद्धृत करना मेरे लिए अभी संभव नहीं है. प्रस्तुत ग़ज़ल के हर शेर में आज की विभिन्न विसंगतियों पर सटीक प्रहार हुआ है. मैं पूरी ग़ज़ल को अपने साथ रख रहा हूँ.
भाई दिगम्बर नासवा जी के बारे में यही कहूँगा कि आपकी ग़ज़ल के शब्दों की धार अत्यंत प्रखर हैं. किन्तु ये सान पर चढ़े एकदम से नहीं दिखने लगते, बल्कि इनकी खासियत है कि इनका होना तिल-तिल कर रिसता हुआ मग़ज़ को देर तक झकझोरता रहता है.
आपकी इस पूरी ग़ज़ल के लिए हृदय से बधाई और सादर शुभकामनाएँ.
आज की पोस्ट की भूमिका और दोनों ग़ज़लें आने वाले लम्बे समय तक प्रस्तुतियों की ऊँचाई का अन्यतम उदाहरण होंगीं.
सादर
‘अम्मा गई सिकुड़ती ...’ आमंत्रित करता है भाव में उतरने को।
जवाब देंहटाएं‘आराम कुर्सियों पर... वो धूल स्वेद लिपटा .. ‘ की बेबाक अभिव्यक्ति एक चुनौती दे रही है इन्कलाब का दावा करने वालों को।
‘मज़दूर दंगई.... ‘ की मजबूरी और ‘लिखने की दौड़ ...’ की सपाटबयानी। यह सही है कि भरपेट व्यक्ति उस इंतिहा तक नहीं पहुँच सकता जो कई अन्य हँसकर सह जाते हैं लेकिन ग़जल में प्रस्तुत भाव तो वहॉं पहुँचे हैं।
सपनों के बाद श्वॉंसें हारने का भय लिये इंसान खुदगर्ज़ काफि़ले से क्या आस रख सकता है।
‘सींचा तुझे लहू से ... ‘ में एक ऐसा मंज़र आपने पेश किया कि इंसानियत का सर शर्म से झुक जाये।
‘क्यों खौलता नहीं हैं ...’ का प्रश्न एक गंभीर चुनौती दे रहा है।
‘बारूद कर .. ‘ में क्रॉंति की दीवानगी देखते ही बनते है।
दोनों ही ग़ज़लें प्रभावित करती हैं।
//* कहीं कोई भी विद्रोह यदि व्यवस्था के विरोध में हो गया तो वो क्रांति में बदल जाएगा । *//
जवाब देंहटाएंऐसी ही किसी क्रान्ति की अपेक्षा आजकल हम उनसे कर रहे हैं जो खुद सत्ता के पक्ष में खड़े होने को लालायित हैं ,...
गुरुदेव कम शब्दों में आपने कई कई अर्थों को उधेडा है ...
अब बात ग़ज़ल की हो तो एक नज़र में साधारण सी दिखने वाली दो ग़ज़लें,, जो अपने शब्द चयन से संतुष्ट करती हैं... मगर जब अशआर में नया अर्थ तलाश किया जाये तो पता चलता है कि असाधारण रूप से वो अर्थ निकल रहे हैं जो स्पष्ट रूप से सत्ता के विपक्ष की आवाज को मुखर कर रहे है ... और इन माइनों में ही दोनों ग़ज़लें सार्थक हैं, आवश्यक हैं
इन दोनों ग़ज़ल के लिए अपना एक शेअर याद आता है
सारे इल्ज़ाम खुद पे ले बैठा
बस इसी बात पर ख़फा हैं वो
आजकल सत्ता पक्ष का भी यही हाल है ...
बेहतरीन ग़ज़लों के लिये शार्दुला जी और नासवा जी को बहुत बहुत बधाइयां।
जवाब देंहटाएंशार्दुला जी-- लिखने की दौड़ इतनी के पढ ना सके पूरा ,बहुत अच्चा लगा।
नासवा जी -- क्यूं खौलता नहीं है ख़ून बाजुओं में और मक्ता का शे"र लाजवाब लगा।
गुरुदेव आपकी इस पोस्ट में लिखी आपकी भूमिका किसी ग़ज़ल से कम नहीं
जवाब देंहटाएंशार्दुला जी,
जवाब देंहटाएंकुनबा अभी बचा है...दंगई की शिनाख़्त कैसे हो?.... बहुत प्रभावशाली ढंग से बात कही है आपने.
अम्मा का सिकुड़ते जाना . करती भी क्या बेचारी?
''अपने मेहमान को भरपेट खिलाकर खाना,
उसने अपने लिए पत्थर ही उबाले होंगे ''
लेकिन...बाबा का क़द बढ़ने में अम्मा का यह जो योगदान है वह भारतीय नारी की महानता है. यह अलग बात है कि इस योगदान को शायरी में बहुत कम लोग परिलक्षित कर पाए हैं. आपको बधाई.
भाई दिगम्बर नासवा जी, आप आन्दोलित करने वाली अभिव्यक्ति लेकर आए हैं. हर शेर ख़ूबसूरत है..... बधाई.
आदरणीया शार्दुला जी और आदरणीय दिगंबर नासवा साहब, पहली बात यह कि आप दोनों की ग़ज़लें पढ़ आदमी पहले जैसा नहीं रह जाता। जो कहना और सुनाना है पाठक तक वही जाता है। मेरे जैसे पाठक को बड़ा सुकून मिलता है जब शायरी घटाटोप बिंबों के कुहासे में गुम न होकर सूरज की बींधने वाली किरणों की तरह पाठक के ज़ेहन से टकराती है। अग्रज पंकज सुबीर जी ने यह कह कर सही फ़रमाया है कि इन ग़ज़लों का आनंद नहीं लिया जा सकता। ये फूल की महक पर मर मिटने वाली शायरी नहीं है, हमारी दुखती नसों की टोह लेने वाली शायरी है। आपका हार्दिक आभार और आपको हार्दिक बधाई औ धन्यवाद श्री पंकज सुबीर जी का। दाद कुबूल करें।
जवाब देंहटाएंजब शायरी घटाटोप बिम्बों के कुहासे में गुम न होकर सूरज की बींधने वाली किरणों की तरह पाठक व् श्रोताओं के ज़ेहन से टकराती है, तब ही यह वर्तमान जगत से तादातम्य स्थापित कर पाती है।
हटाएंभाई नवनीत जी, आपके कथन से मन प्रसन्न हुआ और आपको नियमित सुनते रहने की जिज्ञासा बढ़ गयी है।
आदरणीय शार्दुला जी , बहुत अच्छी गजल कही है आपने बधाई
जवाब देंहटाएं"मेरे दलान पर से, भूखा न जाए कोई"
अम्मा गई सिकुड़ती, बाबा का कद बढ़ा है
आराम-कुर्सियों पे कब, इन्कलाब बैठा
वो धूल-स्वेद लिपटा, बस में चढ़ा, चला है
मजदूर दंगई की, करता शिनाख्त कैसे
घर जल गया, हुआ क्या, कुनबा अभी बचा है
वाह वाह क्या बात है
आदरणीय दिगंबर नासवा जी
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी गजल के लिए बधाई
सपने वो ले गए हैं, साँसें भी खींच लेंगे
इस भीड़ में नपुंसक लोगों का काफिला है
क्यों खौलता नहीं है, ये खून बाजुओं में
क्या शहर की जवानी, पानी का बुलबुला है
बारूद कर दे इसको, या मुक्त कर दे इस से
ये क़ैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है
ये शेर खास तोर पर पसंद आये है बहुत बहुत बधाई
कमाल की ग़ज़लें कही हैं दोनों ही शायरों ने। ये अश’आर बहुत अच्छे लगे।
जवाब देंहटाएं"अम्मा गई सिकुड़ती.."
"वो धूल स्वेद लिपटा...."
"घर जल गया..."
"सपने वो ले गए..."
"क्यों खौलता...."
"बारूद कर दे..."
दोनों शायरों को बहुत बहुत बधाई इन बेहतरीन ग़ज़लों के लिए।
आज के पोस्ट की भूमिका में कई सामयिक सवालों के उत्तर निहित हैं,जिनसे हम सभी साहित्यप्रेमी दो चार होते रहते हैं। जितना सारगर्भित उतना ही पठनीय।आज की दोनों ग़ज़लें भी अच्छी लगीं।शार्दूला जी और नासवा जी को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंआदरणीय शार्दूला जी की गज़ल पढ़ने के बाद गूज बंप उठने लगते हैं ... परंपरा की लीक से हट कर लिखे शेर बहुत देर तक उद्वेलित करते रहते हैं ...
जवाब देंहटाएंमतले का शेर पढते ही समझ आने लगता है की गज़ल किस ओर खींच रही है...
मेरे दलान पर से ... ओर फिर अम्मा सिकुड गई है ... कितनी बड़ी हकीकत कह रहा है ...
मजदूर दंगाई की ... कुनबा अभी बचा है .. उस मजदूर के दिल में जलती हुई आग की बात कर रहा है जो सब कुछ खो कर भी क्रांति की बात कर रहा है ...
अंतिम शेर बेबस कवि मन की संवेदनशीलता बयान कर रहा है ...
पूरी की पूरी गज़ल जैसा की गुरुदेव ने कहा .... दुष्यंत की परंपरा का निर्वाह कर रहा है ...
गुरुदेव आज के मुशायरे की जैसी भूमिका बाँधी है वो इतना कुछ कर रही है की जितनी बार पढ़ रहा हूं .. उतना ही आश्चर्यचकित हो रहा हं ... उतना ही नया दृष्टिकोण पा रहा हूं गज़ल के प्रभाव ओर गज़ल या गज़लकार के कन्धों पे रक्खे भार को ले कर ...
जवाब देंहटाएंसमाज की घटनाओं से प्रभावित हुवे बिना काव्य की रचना नहीं हो सकती ओर न होनी चाहिए ... ओर काल ओर समय के रचनाकारों का ये कर्तव्य है की वो ये भार भविष्य के लिए वहन करें ...
गुरुदेव आपका ओर सभी का आभारी हूं की आपने मेरी गज़ल के मर्म को नया आयाम दिया ... ये मुशायरा अपनी उड़ान शुरूआती गज़ल से ही ले चुका है ... वर्तमान को बयान करने में ये तरही इतिहास में अपना अलग स्थान रखने वाली है ...
जवाब देंहटाएंदोनों शायरों ने सुबीरजी की फरमाइश का सम्मान कर वक़्त की नब्ज़ पर हाथ रख कर हकीक़त पसंद शायरी से इस तरही मुशायरे के पाठकों को मह्जूज़ किया है. बहुत ख़ूब.
जवाब देंहटाएंशार्दुला नोगजा जी
मजदूर दंगई की, करता शिनाख्त कैसे
घर जल गया, हुआ क्या, कुनबा अभी बचा है
सच कहा है शर्दुलाजी .
[मजदूर ने जो करदी पहचान दंगई की,
घर ही जला था पहले अब खुद भी जल गया है.]
दिगंबर नासवा :
जगाने वाले , झंझोड़ने वाले अशआर.
वाक़ई पंकज ने सही कहा है की इन ग़ज़लों को महसूस किया जाना चाहिये
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब !!
आनन्द आ गया......महसूस किया!!
जवाब देंहटाएं