शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

आज की दोनों ग़ज़लें छत्‍तीसगढ़ से हैं बल्कि छत्‍तीसगढ़ में भी बहुत पास पास रायपुर से श्री गिरीश पंकज और दुर्ग से डॉ संजय दानी ।

तरही धीरे धीरे अपने अंतिम पड़ाव पर आ रही है । बस एक या दो पोस्‍ट और तथा उसके बाद समापन । इस बार हिंदी की ग़ज़लों में कई नये प्रयोग देखने को मिले । और काफी कुछ नया घटा । इस बीच देखते ही देखते दो माह बीत गये । ये सच है कि लम्‍बे समय तक कार्यक्रम चले तो उत्‍साह की कमी होने लगती है । गोष्ठियों में, नशिश्‍तों में भी यही होता है, जैसे जैसे समय बढ़ता है दाद कम होने लगती हैं । खैर ये तो प्रकृति का नियम है कि लम्‍बी प्रक्रिया थकाती है । इस बार पहले अंदाज़ नहीं था कि इतनी ग़ज़लें आएंगीं । मगर जब आईं तो खूब आईं ।

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प्रीत की अल्‍पनाएं सजी हैं प्रिये

आज हम सुनने जा रहे हैं दो छत्‍तीसगढि़या शायरों को । छत्‍तीसगढि़या से याद आया कि क्‍यों न एक मुशायरा बोलियों का करवाया जाये जिसमें अपने अपने अंचल की बोलियों का प्रतिनिधित्‍व शायर अपनी ग़ज़लों से करें । हो सकता है न । खैर तो आइये आज सुनते हैं दो शायरों श्री गिरीश पंकज जी और डॉ संजय दानी को ।

गिरीश पंकज
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गिरीश पंकज जी साहित्‍य की हर विधा में हस्‍तक्षेप रखते हैं । न केवल ग़ज़ल बल्कि व्‍यंग्‍य, लघुकथाओं में भी अपना उतना ही दखल रखते हैं । वे हमारे मुशायरों में आते रहे हैं । इस बार भी दौड़ते हुए आकर मुशायरे की ट्रेन में चढ़े हैं । आइये उनसे सुनते हैं उनकी ये ग़ज़ल ।

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द्वार पर भावनाएं खडी हैं प्रिये
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये

साथ तेरा मिला तो खिला ये सुमन
बाग़ की सारी कलियाँ खिली हैं प्रिये

अब न देरी करो मन की पीड़ा हरो
चंद साँसे हमें बस मिली हैं प्रिये

तुम न आई मगर अश्रु झरते रहे
हर घड़ी ये घटायें उठी हैं प्रिये

प्यार का सार तेरी हँसी में मिला
नित नयी कल्पनाएँ बनी हैं प्रिये

तुम न होते तो मैं भी न होता यहाँ
वैसे दुनिया में चेहरे कई हैं  प्रिये

शब्द मुखरित हुए सामने तुम खड़ी
काव्य-सरिताएं आकर बही हैं प्रिये

ज़िंदगी में मेरी रंग तूने भरा
मुझ पे तेरी कृपाएं रही हैं प्रिये

आ भी जाओ हृदय ने पुकारा तुम्हें
फिर से मादक हवाएं चली हैं प्रिये

वाह वाह सुंदर ग़ज़ल कही है । तुम न आईं मगर अश्रु झरते रहे बहुत सुंदर कहा है । और उसी खूबी से कहा गया है शेर प्‍यार का सार तेरी हंसी में मिला । और एक बड़ी बात तुम न होते तो मैं भी न होता यहां मिसरे में कह दी है गिरीश जी ने । बहुत सुंदर ग़ज़ल बनी है । सुंदर सुंदर ।

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डॉ संजय दानी

संजय जी से दुर्ग की एक बार की मुलाकात अभी भी दिमाग़ में है । संजय जी पेशे से डॉक्‍टर हैं लेकिन मरीज़ों से समय निकाल कर बीच बीच में ग़ज़लें भी कह लेते हैं । आइये सुनते हैं उनकी ग़ज़ल ।

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हिज्र की बारिशें थम गई हैं प्रिये,
बस मिलन की घटायें उठी हैं प्रिये,

दुश्मनी का अंधेरा सिमटने लगा
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये,

जब भी मैंने जलाया चराग़े-वफ़ा,
आंधियों की भुजाये तनी हैं प्रिये,

पाप जिस तेज़ी से बढ रहा दुनिया में,
पुण्य पर आस्थायें बढी हैं प्रिये।

फिर मिला राम को हुक्म वनवास का,
गांव की उर्मिलायें डरी हैं प्रिये।

लहरों से दिल लगाया हूं जब से,
साहिलों की निग़ाहें भरी हैं प्रिये।

बेटियों को बचाने वतन में सदा,
बाप से ज्यादा मांएं मरी हैं प्रिये।

जब से भ्रुण हत्या कानून लागू है,क्या
मुल्क में बालिकायें बढी हैं प्रिये।

दानी भगवान को मानने वाला है,
पर ख़ुदाई छतें भी मिली हैं प्रिये।

फिर मिला राम को हुक्‍म वनवास का में राम के वनवास से उर्मिला के डरने बिम्‍ब अच्‍छा बना है । चरागे वफा को देख कर आंधियों की भुजाएं तनने का प्रयोग भी अच्‍छा है । हालांकि इस बार की तरही संयोग श्रंगार पर थी लेकिन संजय जी ने सामाजिक समस्‍याओं पर ही अपनी कलम अधिक चलाई है । अच्‍छी बनी है ग़ज़ल । वाह वाह ।

12 टिप्‍पणियां:

  1. गिरीश जी पढने का सौभाग्य यदा कदा ब्लॉग जगत में मिलता रहता है. सरल शब्दों के माध्यम से मन के भाव प्रकट करने में उनका कोई सानी नहीं. उनकी कलम व्यक्ति से जुडी हर समस्या, देश और समाज पर चली है और खूब चली है. ग़ज़लों में हास्य का पुट देना भी उनकी विशेषता है. "तुम ना आई..." बेहद खूबसूरत शेर बन पड़ा है...बधाई बधाई बधाई...

    डा. संजय जी को तरही में अक्सर पढ़ा है वो भी ग़ज़ल विधा में महारत हासिल किये उस्तादों में से एक हैं. तरही के मिसरे पर लगा गिरह इस बात की पुष्टि करता है. " फिर मिला राम को..., "बेटियों को बचने में.." "पाप तेजी से बढ़ रहा ..." जैसे शेर कहना उन्हीं के बस की बात है. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है...उन्हें भी बधाई बधाई बधाई..

    नीरज

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  2. दोनों ही गजलें आनंदित करती हैं....
    सादर आभार।

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  3. दोनों ही ग़ज़लें शानदार हैं। गिरीश जी एवं संजय जी को बहुत बहुत बधाई

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  4. गिरीष पंकज जी की ग़ज़ल को पढ़ कर लगता नहीं कि वे ’दौड़ते-भागते’ ट्रेन पकड़ने की कोशिश में नमूदार हुए हैं. झूम कर ग़ज़ल पढ़ी है आपने. बधाई-बधाई-बधाई !
    वैसे, तरह-मिसरे को संभवतः मतले में इस्तमाल नहीं करते. सुना है.

    डॉ. संजय दानी साहब को एक अरसे से सुन रहा हूँ. आपने मुझे ग़ज़ल के क्रम में तिल-तिल सीखते देखा है. आपने विशेष ग़ज़लों को समर्पित प्रस्तुत मुशायरे में भी अपनी ग़ज़ल में सामाजिक विसंगतियों को बेहतरी से बुना गया है. आपके संदेश सटीक हैं. ’प्रिय’ से होती बातचीत को आपने एक नया आयाम दिया है. इसका उदाहरण आपके वे शेर हैं जिनमें ’प्रिय’ से वार्तालाप में राम के वनवास की सुन उर्मिलाओं के दहशत में आने की कल्पना की गयी है या भ्रूण-हत्या आदि पर चर्चा हुई है. ग़ज़ल हेतु बधाई.

    सादर

    -- सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  5. गिरीष पंकज जी की गज़ल के सभी शेर मस्त अदा में है !संजय दानी जी के शेर भी अच्छे हैं परन्तु उन्होंने श्रृंगार से हटकर गज़ल को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा है !

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  6. गिरीश जी, आप तरही में आयें और खूब आयें. मन की पीड़ा हरो.. प्यार का सार... शेर बहुत पसंद आये. सुन्दर ग़ज़ल.
    --
    दानी साहब, आप नियमित आते हैं और हम सबकी हौसला अफजाई करते हैं.
    आज आपकी तरही ग़ज़ल में बहुत से प्रश्न भी सामने खुलकर आयें हैं. मक्ता लाजवाब है.

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  7. गिरीष जी के मत्‍ले का शेर; सरल सीधे शब्‍दों में यह अभिव्‍यक्ति आमंत्रित करती है उतरने को और द्वार पर एक नया ही दृश्‍य उपस्थित होता है अल्‍पना के रंगों में भावना के विभिन्‍न रूपों की कल्‍पना मुखरित हो उठती है। यही संयोजन अंत तक आकर्षित करता है/
    डॉ; संजय दाणी ने ग़ज़ल को संवाद के उसी रूप में लिया है जिसके लिये ग़ज़ल जानी जाती है। संवाद के पात्र उन्‍हीं बिन्‍दुओं पर संवादरत हैं जो सभी के सरोकार के हैं। दोनों ग़ज़ल अपने-अपने उद्देश्‍य की पूर्ति में सफ़ल रही हैं।

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  8. गिरीश जी और संजय जी की ग़ज़लें सीधे और सरल शब्दों में ढली लाजवाब अभिव्यक्ति हैं ...
    प्रीत को बहुत ही मधुर रंग में रंग है गिरीश जी ने ...
    संजय जी का भी हर शेर नया अंदाज़ लिए है .. फिर मिला राम को हुक्म बनवास का ... बिलकुल नए अंदाज़ का शेर है ... पूरी गज़ल प्रीत को नए रूप में देख रही है ... बहुत लाजवाब ...

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  9. शब्द मुखरित हुये..... खूबसूरत प्रयोग.

    हिज्त की बारिशें----सुन्दर. दोनों शायरों को बधाई एवं शुभकामनायें

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