मंगलवार, 26 जून 2012

एक लाख ब्‍लाग पेज हिट्स का आज आनंद उत्‍सव मनाया जाये । ये ब्‍लाग एक साझा मंच है इसलिये ये उत्‍सव सभी का है । तो आइये आज केवल उत्‍सव का आनंद लिया जाये ।

LOVE 33

प्रीत की अल्‍पनाएं सजी हैं प्रिये

देखते ही देखते ब्‍लाग पेज हिट्स एक लाख का आंकडा़ पार गये । यूं लगता है जैसे ये कल की ही बात हो कि पांच साल पहले अगस्‍त 2007 में किसी मित्र के कहने पर ब्‍लाग शुरू किया था । ब्‍लाग पर पांच साल में एक लाख हिट्स आये इसका मतलब लगभग बीस हज़ार हिट्स प्रति वर्ष के हिसाब से या लगभग 70 हिट्स प्रतिदिन के हिसाब से । इस ब्‍लाग के संयोजन में मैंने अपने पत्रकारिता के गुरू स्‍व. ऋषभ गांधी द्वारा सिखाई गई एक बात पर हमेशा ध्‍यान रखा । वे कहा करते थे कि संपादक अपने समाचार पत्र या पत्रिका में अपनी ही रचनाएं छापने से सदैव बचना चाहिये । वे तो ये कहते थे कि बचना नहीं चाहिये बल्कि छापना ही नहीं चाहिये । यही कमेंट मैंने एक बार एक पत्रिका के संपादक को दे दिया था तो हंगामा हो गया था संपादक ने अपने समर्थन में ढेरों पत्र छपवा दिये थे । ऋषभ गांधी जी अपने समाचार पत्र में कभी अपना नाम कहीं किसी रूप में नहीं छापते थे । वे कहते थे कि प्रधान संपादक के रूप में मेरा नाम जा ही रहा है । आपने अपने संपादन में निकलने वाली पत्रिका में अपनी ही कहानी या ग़ज़ल को छाप लिया तो उसमें संपादन कहां हुआ, आपने लिखी, आपने भेजी, आपने चयनित की और आपने ही छाप ली । शायद यही कारण था कि भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के को अवतरित होना पड़ा ।

Strawberry-Cake copy

पिछली पोस्‍ट पर काफी बहस हुई । और बहस के दौरान ये बात सामने आई कि 'भाई' जैसे शब्‍द को जब बहुवचन किया जाता है तो ई की मात्रा को छोटा कर दिया जाता है । हिंदी के लब्‍ध प्रतिष्ठित आलोचक तथा वागर्थ के पूर्व संपादक डॉ विजय बहादुर सिंह की आदत है कि जब भी बाज़ार से पैदल निकलते हैं तो दवा की दुकान देख कर रुक जाते हैं और दुकान मालिक के पास जाकर कहते हैं कि भाई आपने जो 'दवाईयां' लिख रखा है ये ग़लत है इसे दवाइयां कर लीजिये । अमूमन हर दवा की दुकान पर दवाईयां ही लिखा होता है । एक बार उन्‍होंने सीहोर में घूमते समय जब तीन चार दुकानदारों को टोका तो मैंने कहा भाई साहब वे नहीं बदलने वाले । इस पर उन्‍होंने उत्‍तर दिया कि न बदलें, मगर मैंने उनके मन में ये चोर तो छोड़ ही दिया कि उन्‍होंने जो लिखा है वो ग़लत है । अगली बार जब दुकान का बोर्ड बनवाएंगे तो वे दवाइयां ही लिखवाएंगे । और मैंने देखा कि ऐसा हुआ भी । सौरभ पांडे जी ने जो प्रश्‍न उठाया वो हिंदी व्‍याकरण के हिसाब से बिल्‍कुल ठीक है । किन्‍तु मैंने देखा कि आरजू को बहुवचन के रूप में ग़ज़ल में आरजूओं ही प्रयोग किया जाता है बहुत कम आरजुओं को प्रयोग होता है । यहां तक की ग़ालिब 

खमोशी में निहाँ खूंगश्ता लाखों आरजूएं हैं,
चिरागे - मुर्दा हूँ मैं, बेजुबाँ गोरे-गरीबाँ का।

और हसरत मोहानी

वस्ल की बनती है इन बातों से तदबीरें कहीं ?
आरज़ूओं से फिरा करतीं हैं, तक़दीरें कहीं ?

जैसे दिग्‍गजों ने भी आरजूओं का ही प्रयोग किया । जबकि ग़ज़ल में बाजू के बहुवचन में बाजुओं ही प्रयोग में आता है बाजूओं नहीं ।  मैंने जब शब्‍द के ध्‍वनि विज्ञान पर गौर किया तो पाया कि आरजुओं शब्‍द का उच्‍चारण टंग ट्विस्‍ट करता  है आपको 'र' पर रुक कर ही पढ़ना होता है । और ग़ज़ल में टंग ट्विस्‍ट करने वाले विन्‍यास को ऐब माना जाता है । उसके मुकाबले में आरजूओं शब्‍द प्रवाह में आता है । प्रश्‍न ये उठता है कि जब बाजुओं में बाधा नहीं है तो फिर ये आरजुओं में क्‍यों आ रही है । दरअसल बाजू सीधा 22 मात्रिक है जिसे बाजुओं में 212 करने में दिक्‍कत नहीं है । आरजू 212 है और आरजुओं 2112 होगा जिसमें कहीं बीच के जो दो लघु हैं वो अवरोध उत्‍पन्‍न करेंगे । आप कहेंगे कि बीच के दो 11 तो मिल कर 2 हो रहे हैं । तो मेरे विचार में बाधा वहीं आ रही है । ये बात मैं केवल शब्‍दो के ध्‍वनि विज्ञान के आधार पर कह रहा हूं । आरजुओं में बीच के दो 11 बहुत परफेक्‍ट तरीके से बांडिंग करके 2 नहीं हो पा रहे हैं । और जब हम उनको 2 में पढ़ने की कोशिश करेंगे तो टंग ट्विस्‍ट हो जायेगी । ( ये बातें मैं केवल ध्‍वनि विज्ञान के आधार पर कह रहा हूं इसका आधार अरूज़ नहीं है । ) दवाई को जब दवाइयों किया जाता है तो 122 का 1212 होता है दोनों लघु मात्राएं अलग अलग आ रही हैं । हो सकता है कि ध्‍वनि विज्ञान के इसी पेंच को देखते हुए विद्वानों ने आरजूओं के उपयोग पर सहमति जताई हो । वैसे भी आरजू हिंदी का नहीं है सो इस पर हिंदी का व्‍याकरण चले ये ज़ुरूरी नहीं है ।

धर्मेंद्र कुमार सिंह ने शेर की परिभाषा में ये जोड़ने को कहा था कि ये भी जोड़ें की वो कविता हो । तो मेरा कहना ये है कि शेर का कविता होना आवश्‍यक नहीं है । वो तो जितना ज्‍यादा बातचीत के लहज़े के समीप होगा उतना प्रभावशाली होगा । इसलिये मेरे विचार में शेर का कविता होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है । हो तो भी ठीक न हो तो भी ठीक । शेर का एक मुकम्‍मल वाक्‍य होना बहुत ज़रूरी है । एक मुकम्‍मल वाक्‍य जिसे ठीक बीचों बीच से एक अर्द्ध विराम लगा कर दो हिस्‍सों में बांट दिया गया है । रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्‍या है, ये एक बहुत सुगठित वाक्‍य है । वाक्‍य की सारी परिभाषाओं को पूरा करता हुआ ।

आज पूर्व निर्धारित ग़ज़ल कोई दूसरी थी लेकिन कल एक लाख ब्‍लाग हिट्स होने पर श्री राकेश खंडेलवाल जी की ये ''डायनिंग टेबल ग़ज़ल'' मिली तो लगा मिठाई की मांग करने वालों के लिये इससे बेहतर नाश्‍ते की प्‍लेट कोई दूसरी नहीं हो सकती । वैसे प्रेम के रस में पगी राकेश जी की ग़ज़ल अभी आगे आने के लिये सुरक्षित रखी है ।

Rakesh2

श्री राकेश खंडेलवाल जी

cake4 copy

सुब्‍ह आओगी तुम  रात भर की जगी
इसलिये ये कचौड़ी  तली है  प्रिये

ये जलेबी अधर के रँगों से रँगी
प्रीत की चाशनी में पगी है प्रिये

चाय पीलो कि लस्सी नहीं बन सकी
आजकल कुछ दही की कमी है प्रिये

दाँत में तुम  दबा मठरियाँ तोड़ती
ये नजर बस वहीं पर थमी है प्रिये

ये गज़ल भाई नीरज नहीं कह सके
सोच पर लग गई  चटखनी है प्रिये

हलवा गाजर का सौरभ हड़प कर गये 
मेज पर प्‍लेट ख़ाली रखी है प्रिये

देखना अब तिलक जी कहें क्या नया
खुर्दबीनी के वे तो धनी हैं प्रिये 

अब क्‍या कहूं मैं इस ग़ज़ल पर । बेहतर होगा कि जिनके नाम ले लेकर उत्‍सव के मौके पर  बाकायदा छेड़ की गई है वे लक्ष्‍मीकांत प्‍यारेलाल..... क्षमा करें जुगलकिशोर तिलकराज..... क्षमा करें नीरज गोस्‍वामी तिलक राज कपूर जी ही उत्‍तर दें । बाकी जो नाश्‍ते की डिमांड लोगों की थी वो तो ग़ज़ल में पूरी हो ही रही है । तो आज उत्‍सव का आनंद लें और अगले अंक में पुन: रेगुलर ।

57 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे महाराज को दही की कमी में भी.....रायता फैलाने की ऐसी आदत...कि दिख ही गई...जय हो गुरुदेव राकेश खण्डेलवाल की और मास्साब सुबीर जी की..इस उत्सवी मौके पर..मिठाई चबाते...आपको बधाई...बाकी ड्यू रखियेगा...आकर खावेंगे आपसे और वाशिंग्टन जाकर ले आवेंगे राकेश गुरुदेव से!!


    जय हो जय हो!!

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    1. dadda apne 'due' se itne 'issue' jaroor karayen ta-ke kuch thora balak ke hisse me bhi aaye......


      pranam.

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  2. वाह वाह राकेश जी की डाइनिंग टेबले ने तो उत्सव की रवानगी बढा दी। मेरे केक का टुकडा पंकज भाइ आप खा लेना मेरे लिये मना है। एक लाख पर दस करोड बधाईयाँ। हाँ बधाईयाँ को क्या लिखा जायेगा? बधाईयाँ या बधाइयाँ? शुभकामनायें।

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  3. पंकज को और हम सभी को बहुत बहुत मुबारक हो
    दुआ है कि ये ब्लॉग दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी करे (आमीन)

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  4. ये बेचारा इंटरनैट ही है जिसे हिट प्‍यारे हैं, वरना एक हिट भी कोई पसंद नहीं करता।
    ज़ीरो जितने एक लाख में उतनी तुम्‍हें बधाई
    उन सबका आभार जिन्‍होंने महफिल यहॉं जमाई।
    महफिल यहॉं जमाई, पेश कर तरही ग़ज़लें
    जिनसे पैदा हुई यहॉं पर हिट की फ़सलें।
    कह 'राही' कविराय बने कितने ही हीरो
    एक हुए हैं आज ग़ज़ल में जो थे ज़ीरो।

    राकेश जी की ह़ज़ल पर लौटता हूँ एक बैठक के बाद।

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  5. लाख लाख शुभकामना, हिट होते हिट लाख |
    भभ्भड़ कवि भौंचक खड़े, निश्चय बाढ़े साख |
    निश्चय बाढ़े साख, गुरु का वंदन करता |
    शिरोधार्य आदेश, ब्लॉग पर रहा विचरता |
    मस्त सुबीर संबाद, होय सब मंगल मंगल |
    प्रस्तुति पर है दाद, बढे शब्दों का दंगल ||

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  6. गर्म ’गाजर का हलवा’ मुझे है मिला
    प्यार भरपूर है, स्वाद भी है प्रिये

    प्यालियों में लगे स्वर्ग ही आ बसा
    चाय की चुस्कियाँ बोलती है प्रिये.. .

    शुभ हुआ है, मगन है, घड़ी आजकी
    गा रही हैं बहारें, खुशी है प्रिये

    हार्दिक शुभकामनाएँ व बधाइयाँ
    सादर..

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    1. हैं! आप दोनों की प्रियाएँ एक कैसे हो सकती है!!!!

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    2. जेनेरिक डाटाटाइप जैसी प्रियाएँ हैं, बन्धु.
      आपने मार्क किया होगा, पहला शेर एकवचन वाला काफ़िया रद्दीफ़ में है. तो दूसरा शेर बहुवचन वाला काफ़िया रद्दीफ़ वाला है. तीसरा शेर पुनः एकवचन वाला काफ़िया रद्दीफ़ लिये हुए है. अब आप पूरी तरह से समझ गये होंगे.
      :-)))))

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  7. राकेश जी मैं ये तो नहीं कहूँगा कि मेरे ही मामले में चूक कर गये मेरी खुर्दबीन परखने के चक्‍कर में लेकिन मुझे परखने के लिये जो 'है' को 'हैं' किया उसे मैनें ऐसे 'है' किया है:

    देखना अब तिलक ने नया क्‍या कहा
    खुर्दबीनी का वो तो धनी है प्रिये।

    खुर्दबीनी नहीं दूरबीनी चले
    तू हमें दूर से ही मिली है प्रिये।

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    1. कृपया चलें को चली पढ़ें वरना उर्दू के भारी भारी शब्‍द हैं ऐब-ए-तकब्‍बुल-ए-रदीफ़ ।

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    2. आदरणीय आप अपने आप के लिये है कह सकते हैं किन्तु मेरी ऐसी हिम्मत कैसे हो सकती है इसलिये जानते हुये भी आपके लिये हैं का प्रयोग आवश्यक है. हाँ सौरभजी भी चाय की प्यालियाँ -हैं ही कह सकते हैं न क्योंकि वे आपको भी पेश कर रहे हैं :-)

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    3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    4. राकेश भाईजी, आपके कहे में छिपे मर्म को समझ गया. तिलकराजजी को चाय की प्यालियाँ हमने दिल से पेश की हैं.
      वैसे, मेरी प्यालियों में चूँकि स्वर्ग आ बसा है, सो, सारा कुछ स्वर्गीय हो गया है.
      ख़ैर, पूरा हाल मैंने अभी-अभी धर्मेन्द्र भाईजी से साझा किया है कि ऐसा हुआ कैसे .. हा हा हा.. .
      :-))))

      अब मुझे छिपाने के लिहाज़ से मेरा ये ख़याल अच्छा है.

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    5. भाई सौरभजी और तिलकजी के साथ रह कर शायद गज़ल कहना भी आ जाये तब तक तिलक जी के हुज़ूर में यही कहना है
      नाश्ता हो चुका वक्त खाने का है
      तो बनाई चिकन की करी है प्रिये

      और पंकजजी नीरज जी वैजी रहे
      उनके खाने को बस राबड़ी है प्रिये

      बूँद दो हमको देकर तिलकजी कहें
      अपनी खातिर ये बोतल धरी है प्रिये

      बिल मिले जब भुगतना उसे हैं तुम्हें
      सात वचनों में हामी भरी है प्रिये

      रंग खरबूज के अब बदलने लगे
      इसलिये ही हजल ये कही है प्रिये

      हटाएं
    6. कमाल है, इधर तो ध्‍यान ही नहीं गया; बहरहाल त्‍वरित उत्‍तर लें इसपर भी:

      मैं कहूँ मेरी मुर्गी गई है कहॉं
      तुमने बोला कि वो कट गयी है प्रिये।

      सुन रहा हूँ कि लालू जी नाराज़ हैं
      घर से गायब हुई राबड़ी है प्रिये।

      आपके ही यहॉं से ये आई यहॉं
      मेरी बोतल में पेप्‍सी भरी है प्रिये।

      सात वचनों में था इक वचन आपका
      बिल की चिंता न करना कभी है प्रिये।

      रंग खरबूज बदलें या गिरगिट यहॉं
      ये ह़ज़ल तो हमें भी जमी है प्रिये।

      हटाएं
  8. नीरज जी की सोच पर चटखनी नहीं लगी है, उन्‍होंने जो ग़ज़ल लिखी वो कटखनी लगी इसलिये चुप बैठे हैं।

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    1. उनने सोचा ग़ज़ल कटखनी है प्रिये
      इसलिये ये लगी पटखनी है प्रिये
      तुम ही आकर के खोलो ज़रा अब इसे
      सोच पर जो लगी चटखनी है प्रिये

      हटाएं
  9. राकेश जी ने जैसे मेरी मन की व्यथा को शब्द दे दिए...सोच पर चिटखनी जिनके लग जाती है वो ही इस पीड़ा को समझ सकते हैं...भाई तिलक जी के भागीरथी प्रयास भी मेरे भेजे से ग़ज़ल गंगा को अवतरित करवाने में विफल रहे...राकेश जी ने ब्लॉग के एक लाख हिट्स पर दी गयी दावत पर एक से बढ़ कर एक स्वादिष्ट व्यंजन परोस दिए हैं...ये ज़लेबी अधर के रंगों से रंगी..अहहः...जैसा अद्भुत मिसरा भाई राकेश जी अलावा और कौन कह सकता है... और दांतों में दबा कर मठरियां तोड़ने वाली बात भाई कमाल की नज़र है...जय हो...

    बधाई बधाई बधाई...एक लाख से दस लाख और दस लाख से एक करोड़ हिट्स की कामना में

    नीरज

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    1. ये तिलक जी का कहना है मेरा नहीं
      के ग़ज़ल आपकी कटखनी है प्रिये
      और राकेश जी हंस के ये कह रहे
      आपकी सोच पर चटखनी है प्रिये
      कोई कुछ भी कहे मैं कहूंगा यही
      मिल के दोनों ने दी पटखनी है प्रिये

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    2. अरे टिप्‍पणी तो आ गयी।
      और आपने छक्‍का भी मार दिया।

      हटाएं
    3. हमने मान लिया... मैं पटखनी खा कर चित हूँ...कोई मुझे उठाओ रे...

      हटाएं
  10. ये एक पन्ना है, जो हमारा अपना पन्ना है। हम सब का। इस पन्ने ने कम से कम मुझे बहुत कुछ दिया है। एक गुरु, दो बड़े भाई, कुछ बहुत प्रिय छोटे भाई। शार्दूला दी, इस्मत दी जैसी बहने। कितने सारे शुभचिंतक। साहित्य के पन्नों तक छोटी छोटी इबारतों का रास्ता। मंचों पर एक छोटा सा कोना....! और, और इन सब से बढ़ कर रोज की जिंदगी में एक बार मुस्कुरा लेने का कारण।

    तो बधाई खुद मुझ को और धन्यवाद गुरू जी आपको, पाँच वर्ष पहले कभी इस पन्ने का संकलन करने के लिये।

    सादर

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  11. इस अलग से पर्व पर अति माननीय राकेश जी का अलग सा रंग....!!

    सुंदर...आनंद...!!

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  12. नीरज जी की टिप्‍पणी नहीं आ रही है। क्‍या उसके लिये वो ही वाली चुरकट ग़ज़ल चिपकानी पड़ेगी।

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  13. हो बधाई सभी को बधाई प्रिये .... ब्लॉग पे लाख चटखे लगे हैं प्रिये ... आज तो अलग ही नूर बिखरा हुवा है ... मिठाइयों की बहार है ... स्वाद ले रहे हैं हम भी ...

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  14. नीरज भाई ओर मुझे उत्‍तर का दायित्‍व सौंपा गया था।
    लीजिये उत्‍तर जिसमें पूरब पश्चिम और दक्षिण भी है।

    रात भर घर से बाहर रही है प्रिये
    इस खुशी में कचौड़ी तली है प्रिये।

    ये न पूछो कि किसके अधर से रंगी
    ये जलेबी जो घर में मिली है प्रिये।

    वक्‍त इतना न था मैं जमाऊँ दही,
    चाय पी लो वही बन सकी है प्रिये।

    शोर में मठरियों के दबे पॉंव वो
    द्वारा पिछले से छुपकर भगी है प्रिये।

    भाई नीरज शराफ़त के पुतले बने
    क्‍या सुनायें ग़ज़ल जो रची है प्रिये।

    प्‍लेट खाली तुम्‍हें जो मिली मेज़ पर
    नाम सौरभ के हमने जड़ी है प्रिये।

    ये तिलक की शरारत का परिणाम है
    रात अपनी तेरे बिन कटी है प्रिये।

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    उत्तर
    1. सही उत्‍तर दिया है एक ठो शेर हमारी ओर से भी
      दूध कुत्‍ते ने झूठा किया था जो कल
      चाय उसकी ही तो ये बनी है प्रिये

      हटाएं
    2. मर गए...गुरुदेव आप तो हमें शिकंजी ही पिलाया करो...सुना है कुत्ता नीम्बू नहीं खाता...

      हटाएं
    3. तिलक जी तो लठ्ठ लेकर मेरे पीछे पड़ गए हैं...कोई उन्हें बताये के उनके यहाँ बंधी भैंस मैंने नहीं चुराई है...

      हटाएं
    4. तभी स्वर्ग उतरा लगा था.. ओऽऽऽक् !!
      :-))))

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  15. हर बार नए कीर्तिमान गढ़ना "सुबीर संवाद सेवा" और गुरुदेव आपकी आदत बन चुका है. ब्लॉग से जुड़े सभी लोगों को बधाइयाँ, विशेषरूप से आपको, क्योंकि एक सूत्रधार और एक सारथी के बिना ये सब संभव न होता. आगे की विस्तृत टिपण्णी के लिए फिर से लौटूंगा. :-)

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    उत्तर
    1. आदरणीय राकेश जी की डायनिंग टेबल शेर बहुत ही लज़ीज़ बने हैं. हर वो पोस्ट यादगार हो जाती है जिसमे उत्साहपूर्वक आई टिप्पणियां अपना अलग ही रंग जमा देती हैं. इस तरही की हर पोस्ट में खूबसूरत ग़ज़लों के साथ छोटी छोटी बारीकियां भी मालूम चल रही हैं.
      उम्मीद है इस बार तरही में भकभौं जी भी अपने जलवे बिखेर्रेंगे, पिछली बार तो गच्चा देके निकल लिए थे मगर इस दफा न छोड़ा जायेगा.

      हटाएं
  16. एक लाख का आंकड़ा मुबारक हो जी

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  17. आहा निरंतर आनंद और आज उत्सव की शाम, ढेर सारे पकवान.
    राकेश सर जी का ऐसा कमाल... वाह वाह
    और करामात पे करामात किये जा रहे हैं तिलक सर.
    -
    आज की पोस्ट में दुसरे पैरा की पहली लाइन पढ़ते हुए मुझे पहले जो आभास हुआ उसका खुलासा आगे आचार्य जी ने किया है. बाद में
    मुझे बचपन में स्कूल के दिनों की घटना याद आ गयी, ये ध्वनि विज्ञान प्राकृतिक है और स्वयं सीखने का माध्यम भी. उनदिनों मैं वर्ड स्पेलिंग के अभ्यास में अक्सर सोचता था,
    Nation (ने-शन) से National बनने वाला शब्द ने-शनल न बन कर "नेश-नल" बन जाता है.
    ये समझ समझ की बात है जो अनुभवों और पुराने रिकार्डों से समृद्ध होती जाती है तभी तो ये ब्लॉग अपना लगता है, निकट-दूर सभी रिश्तों की उष्मा से भरपूर.
    -
    वैसे अब केक खाने के बाद एक और बात कहना चाहूँगा, 1966 की फिल्म आरजू मुझे विशेष पसंद है, अब तो आरजूएं ही आरजूएं है.
    बधाइयां ही बधाइयां ! हम सभी को यहाँ बहुत कुछ
    प्रीत की रोशनी में दिखी है प्रिये !!

    - सुलभ

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  18. कल की सुन्दर चर्चा और आज पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि “आरजूओं” के मात्रिक विन्यास कि दुरूहता पर भी बात उठेगी ...

    ‘राम-पुल’ में गिलहरी का पार्ट अदा करती यह मेरी टिप्पणी स्वीकार हो ...

    आरजुओं का शुद्ध मात्रिक वज्न २११२ है परन्तु तब इसे और इस जैसे अनेक शब्दों को ५ मुफरद बह्रों में इस्तेमाल नहीं कर सकते क्योकि १+१ = २ नहीं कर सकते| इसलिए यहाँ यह सर्वमान्य है कि ऐसे शब्द में जहाँ उच्चारण का दोष न आ रहा हो, मात्रिक विन्यास २१२२ भी शुद्ध माना जायेगा

    लुगत में देखें तो अक्सर यह लिखा मिलता है
    "यह शब्द शुद्ध है"
    और कहीं लिखा मिलाता है “दोनों शुद्ध है” और यह भी कि, "यह भी प्रचिलित परन्तु अशुद्ध है"

    हम लोग भी जानते हैं कि,
    "तलक" और “तक” दोनों शुद्ध है
    "दीवाली" और "दिवाली" दोनों शुद्ध है,
    "दीवाना" "दिवाना" दोनों शुद्ध है
    “सहीह” और “सही” दोनों शुद्ध है
    इनमें से कुछ तत्सम तद्भव रूप में एक दूसरे के पूरक हैं तो कुछ मात्रिक दुरूहता के कारण सर्वमान्य शुद्ध हैं
    इनमें मात्रा को गिराया नहीं गया है बल्कि “सहीह” “सही” रूप में उस प्रकार शुद्ध है जैसे “तलक” “तक” होने पर भी शुद्ध है और होने पर ...
    और “दीवाना” और “दिवाना” उसी प्रकार शुद्ध हैं जैसे “राहबर” “रहबर” होने पर भी शुद्ध है

    अब प्रश्न यह उठता है कि मात्रा गिराना तो ध्वनि सम्मत है “उठाया” जाना अर्थात लघु को दीर्घ करना क्या उचित होगा ?
    तो इसका उत्तर “इजाफत” से मिलाता है, इजाफी हर्फ़ अनिवार्य लघु होता है परन्तु सर्वमान्य दीर्घ रूप में भी प्रचिलित है| अरूजानुसार जिहाफ में भी हर्फ़ में “ज्यादती” (मात्रा बढ़ाना) की जाती हैं

    चर्चा में कहीं पर यह प्रश्न भी उठा था कि “आरजूओं” इस मामले में अपवाद तो नहीं है ?
    जी नहीं अपवाद नहीं है क्योकि इसके जैसे और शब्द भी हैं जो मात्रिक दुरूहता के कारण दो मात्रिक वज्न में प्रयोग होते हैं और उनमें “शहर-शह्र” वाला विवाद नहीं है
    जैसे --
    खुशबुओं – खुशबूओं
    दीवाना - दिवाना
    राहबर – रहबर
    राहजन – रहजन
    पर – प
    यहाँ – याँ
    वहाँ – वाँ


    ( मैंने खुद पढ़ा है कि ग़ालिब अपने पत्रों में “याँ” “वाँ” लिखते थे जबकि पत्र में मात्रिक क्रम की कोई जरूरत नहीं थी) {“ग़ालिब के पत्र” प्रकाशक - हिन्दुस्तानी एकेडमी}

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    1. ग़ालिब सा‍हब ने तो यॉं वॉं का खुलकर उपयोग ग़ज़ल में भी किया है।
      आपकी दी गयी जानकारी और पोस्‍ट में दी गयी जानकारी मिलकर काम आसान करती है शब्‍द प्रयोग का।

      हटाएं
    2. मान्यताओं के प्रति हामी या परिपाटियों को होने देना एक ओर तो दूसरी ओर स्थावर (रूढ़) हो गये नियमों के आलोक में सप्रसंग व्याख्या, इन दोनों के मध्य मान्य अंतर हुआ करता है. सभी मान्यताएँ प्रतिपादित नियमों को पुष्ट नहीं करतीं. इसी सूरत में अपवाद के ’होने’ का कारण बनता हैं.

      वीनस की चर्चा परिपाटियों और मान्यताओं की अच्छी सूची प्रस्तुत कर रही है. यह पिरियोडिक टेबुल का स्मरण कराती है जहाँ ऐसे कुछ तत्वों का होना एक तथ्य है जो टेबुल में हैं मग़र निहित नियम को नहीं मानते. समूह से इतर चलते हैं. क्या यह सबभी ऐसा ही कुछ नहीं है ?
      यदि नहीं, तो मैं इन्हीं संदर्भो में और-और स्पष्ट होना चाहूँगा.
      (यहाँ शब्द चर्चा भी ऐसे कुछ शब्दों में से है. स्त्रीलिंग, किन्तु, उर्दू की समझ से पुल्लिंग. सही न ?)

      सम्बद्ध नियमों, स्वीकृत हो गयी मान्यताओं और अपने प्रेडिक्टेबल-अनप्रेडिक्टेबल प्रारूप के कारण ग़ज़ल इस कद्र एल्योर करती रही है. उपट कर !!
      तभी तो इस कोने में एक और आशिक़ दिखा है.. :-))))

      सादर

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  19. सुबीर जी और ब्लाग के सभी सहयोगी मुबारक बाद के मुस्तहक़ हैं, साथ ही आज राकेश जी की गज़ल एक नये स्वाद लिये हुवे है जिसकी मिठास बहुत दिनों तक हमारी ज़ुबान को सुकून देती रहेगी।

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  20. आरजुओं और आरुाजूओं पर लिखी ये विस्तृत व्याख्या भविष्य में इस विषय के लिए मील का पत्थर साबित होगी। अब वाकई लगता है कि ऐसा क्यों हुआ होगा।
    राकेश जी के गीतों की तरह ग़ज़ल का स्वाद भी लाजवाब है। यम्म्म्मी।
    शे’र की परिभाषा से मैं पूरी तरह सहमत हूँ। पहले मैंने थोड़ा मिसअंडरस्टैंड कर लिया था।

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  21. एक लाख हिट की बधाई और दुआ कि अगले साल तक ये दो लाख हो।

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  22. अतिशय बधाईयाँ लाख संदेशों के लिये..

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  23. प्रतिदिन सत्तर के करीब आनेवाले , यही बात अपने आप में बहुत कुछ कह जाती है हमारे इस प्यारे ब्लौग के लिए....खुश हूँ, खूब खुश हूँ....गुरूदेव को बधाई !

    राकेश जी के नए रंग ने तरही मुशायरे की मुस्कान को अट्टहास में परिवर्तित कर दिया है :-)

    शब्द-विशेष पर विस्तृत व्याख्या और फिर वीनस की टिप्पणी .... वाह ! आनंदम !! आनंदम !!

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  24. चंद शब्दों के दोनों रूप स्वीकार्य हैं शायरी में, वीनस की ही फ़ेहरिश्त को आगे बढ़ाते हुये :-

    रखा - रक्खा
    लिखा - लिक्खा
    नशा - नश्शा
    नदी - नद्दी
    तरह - तर^ह
    .....और तेरा मेरा वगैरह को तो 22, 12, 21, और यहाँ तक कि 11 पे गिनने का रिवाज है....

    बात वही है कि बड़े करें तो ठीक हम और सौरभ जैसे नौसिखिये करें तो गलत :-)

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  25. चंद शब्दों के दोनों रूप स्वीकार्य हैं शायरी में, वीनस की ही फ़ेहरिश्त को आगे बढ़ाते हुये :-

    रखा - रक्खा
    लिखा - लिक्खा
    नशा - नश्शा
    नदी - नद्दी
    तरह - तर^ह
    .....और तेरा मेरा वगैरह को तो 22, 12, 21, और यहाँ तक कि 11 पे गिनने का रिवाज है....

    बात वही है कि बड़े करें तो ठीक हम और सौरभ जैसे नौसिखिये करें तो गलत :-)

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  26. वीनस भाई ... क्या गज़ब का अध्यन है आपका भी ... भई आनद आ गया आपकी व्याख्या पढ़ के ...

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  27. वीनस के ग़ज़ल ज्ञान से हतप्रभ हूँ...ये बच्चा प्रतिभाशाली है ये तो पता था लेकिन इतना प्रतिभाशाली है ये नहीं पता था...जियो.

    नीरज

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  28. .


    एक लाख से अधिक ब्लॉग पेज हिट्स के आनन्द उत्सव की
    दस लाख बधाइयां !


    आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी की हास्य ग़ज़ल मज़ेदार है …

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  29. ग़ज़ल पर स्वस्थ बहस इस ब्लौग के अलावा कहीं और देखने को नहीं मिला है मुझे ! अगर कोई चाहे तो यहाँ से मिले ज्ञान से शोध भी कर सकता है ! कमाल की बातें .... बहुत सुन्दर चर्चा चल रही है ! राकेश जी का ये रूप पहली बार देख रहा हूँ .... जितने गम्भीर रूप को देखा था इनके लेखन का उसी मे चुटकी लेते हुए देख मन आनन्दित हो गया ! ब्लोग के लखपति होने पर सभी को बधाई !

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  30. इन्टरनेट की पहुँच से दूर होने के कारण देर से आ पाया हूँ. इस ब्लॉग पर जैसा ज्ञानवर्धन हो रहा है उस लिहाज से एक लाख तो छोटी संख्या है. मैं तो कहूँगा कि अगर लोगों को सही से जानकारी प्राप्त हो तो १० लाख का आंकड़ा भी दूर नहीं है. आ.राकेश जी ने अपने गीतों की तरह यहाँ ग़ज़ल में भी हमारे लिए उदहारण प्रस्तुत कर दिया है. ऐसे बुजुर्ग अगर आगे हैं तो हमारा हौसला भी लगातार बढ़ता रहता है.

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