प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
सुलभ ने मुशायरे की बहुत सुंदर शुरूआत की है । राकेश जी ने एक बहुत ही दिलचस्प प्रश्न उठाया । ये तो सच है कि ग़ज़ल में हर शेर को स्वतंत्र माना जाता है । हर शेर दूसरे शेर से कोई रिश्ता नहीं रखता । रिश्ता बस एक ही होता है पूंछ का । पूंछ का रिश्ता अर्थात रदीफ और क़ाफिया का रिश्ता । इसके अलावा और कोई रिश्ता दो शेरों में नहीं होता है । और उस्तादों का ऐसा भी कहना है कि दो शेरों में ये रिश्ता होना भी नहीं चाहिये जब तक कि मुसलसल ग़ज़ल न कही जा रही हो । उस्तादों का कहना है कि यदि एक शेर के भाव ग़ज़ल के किसी दूसरे शेर में भी आ रहे हैं तो उसका मतलब है कि आप एक शेर में अपनी बात पूरी नहीं कर पाये और आपको उसके लिये एक और शेर भी कहना पड़ा । ये दोष है । हां यदि आप मुसल्सल ग़ज़ल कह रहे हैं तो वहां तो आपने पहले ही विषय से अपने आप को बांध लिया है गीत की तरह । यहां आप पर ये बंदिश हो जाती है कि आपको अब किसी भी शेर में विषय को छोड़ना भी नहीं है । कुछ उस्तादों की राय में मुसलसल ग़ज़ल उतनी प्रभावी नहीं होती है जितनी कि सामान्य ग़ज़ल होती है । उस्तादों की राय में ग़ज़ल वही है जिसका हर शेर किसी अलग विषय को लेकर बात कर रहा हो और उस बात को उसी शेर में पूरा भी कर रहा हो । इस हिसाब से हिंदी में मैंने शेर की जा परिभाषा गढ़ी है वो कुछ यूं है
'पहले से निश्चित किये गये मात्रिक भार ( वज्न) तथा पूर्व निर्धारित वाक्यांत ( रदीफ काफिया ) पर लिखा गया वो वाक्य जिसे दो टुकड़ों ( मिसरों ) में पढ़ा जायेगा । इस वाक्य में कोई भी अतिरिक्त शब्द मात्रिक भार को साधने के लिये रखा हुआ नहीं होना चाहिये, साथ ही वाक्य को व्याकरणीय दृष्टि से समग्र तथा निर्दोष बनाने के लिये आवश्यक हर शब्द को उपस्थित होना चाहिये । ऐसा न हो कि मात्रिक भार को साधने के लिये किसी ऐसे आवश्यक शब्द को नहीं रखा जाये जिसके बिना वाक्य अधूरा लगे । ये एक ऐसा वाक्य है जिसे बीच में एक विश्राम के साथ पढ़ा जायेगा, विश्राम के पहले तथा बाद के वाक्य खंडों को मिसरा कहा जायेगा । चूंकि यह एक ही वाक्य है अत: पहले वाक्य खंड तथा दूसरे वाक्य खंड को एक दूसरे का पूरक होना आवश्यक है । साथ ही ये भी कि चूंकि वाक्य है अत: बात पूर्ण विराम आने तक पूरी हो जानी चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये कि बात को पूरा करने के लिये आपको एक और वाक्य कहना पड़े । कुल मिलाकर शेर एक ऐसा पूर्ण वाक्य है जिसका भार तथा अंत पूर्व निर्धारित है ।'
राकेश जी ने जो गंभीर प्रश्न उठाया है वो विचारणीय है । इसलिये कि मुसलसल ग़ज़ल में विषय को पूरी ग़ज़ल में मुसलसल रखा जा रहा है । हर शेर एक ही विषय पर बात कर रहा है । इसलिये इसमें संबोधन की एकरूपता होना आवश्यक है गीत की तरह । हालांकि इसको लेकर मत विभिन्नता हो सकती है, किन्तु उन्हीं मत विभिन्नताओं पर की गई बहस से कुछ न कुछ सामने आयेगा । बहस यदि सकारात्मक हो तो उससे अच्छा कोई तरीका नहीं है ज्ञान बढ़ाने का । शुतुरगुरबा का दोष कहता है कि एक ही शेर में अलग अलग संबोधन ( तू तुम आप ) या अलग अलग कालखंड ( था, है ) नहीं होने चाहिये । ये बंदिश केवल एक ही शेर के लिये है । अब मुसलसल ग़ज़ल को लेकर क्या किया जाये इसको लेकर कहीं कोई स्पष्ट मत नहीं मिलता । उस्तादों से विमर्श किया जायेगा इस विषय को लेकर ।
चलिये ये तो हुई बहस की बात अब चलते हैं आज के शायर की ओर सुनते हैं उनसे एनकी ग़ज़ल । आज सौरभ शेखर अपनी एक लम्बी और सुंदर ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं ।
सौरभ शेखर
सौरभ हमारे मुशायरों के अब पुराने और लोकप्रिय शायर हो गये हैं । उनकी ग़ज़लों में कुछ एक अलग तरह के भाव देखने को मिलते हैं जो उनको भीड़ से अलग करते हैं । और एक बात जो अच्छी है वो ये कि वे दिन ब दिन बेहतर हो रहे हैं । 'यदि आप अपने आप से बेहतर नहीं लिख रहे तो लिखना बंद कर दें ।' ये साहित्य का ध्येय वाक्य है । और सौरभ इस चुनौती को पूरा कर रहे हैं । हर नई ग़ज़ल पिछली से बेहतर कह कर ।
द्वार पलकों की झालर टंगी है प्रिये
प्रीत की अल्पना भी सजी है प्रिये
दो महावर रचे पैरों की मुन्तजिर
आरजूओं की इक पालकी है प्रिये
ये तुम्हारी प्रतीक्षा के भीगे पहर
जैसे रिमझिम की कोई झड़ी है प्रिये
दिन की समिधा हृदय के हवन कुंड में
शाम क्या है प्रणय आरती है प्रिये
मेरी नींदें न जाने कहाँ उड़ गईं
रहगुजर पे लगी टकटकी है प्रिये
इक परिंदे ने यूँ शोर बरपा दिया
हर किसी को खबर हो चुकी है प्रिये
खुद महकती हवा ने बताया मुझे
छू के वो तुमको ही आ रही है प्रिये
दिल की दहलीज पर दीप जलने लगे
जह्नो-जाँ में हुई रौशनी है प्रिये
हर घड़ी हर पहर याद करना तुम्हें
काम इसके सिवा कुछ नहीं है प्रिये
कुछ जियादा ही मसरूफ हूँ इनदिनों
मसअला हर अभी मुल्तवी है प्रिये
चैन पड़ता कहाँ है मुझे एक पल
रूह तक में मची खलबली है प्रिये
धडकनों पे नियंत्रण में कैसे रखूं
पास आई मिलन की घड़ी है प्रिये
भेज दो आगमन की सहर भेज दो
रात काटे नहीं कट रही है प्रिये
बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है । गीत के भावों को ग़ज़ल में बहुत ही सुंदरता के साथ गूंथा गया है । दो महावर रचे पैरों की मुंतजिर, इस शेर में मानो हिंदी गीतों के स्वर्ण युग की ध्वनियों को चांदी की घंटियों में बसा कर टांक दिया गया है । दिन की समिधा हृदय की हवन कुंड में ये शेर भी बहुत सुंदर भाव लिये हुए है । और अंतिम शेर में मिसरा सानी 'रात काटे नहीं कट रही है प्रिये' इतना कसा हुआ है कि अहा अहा करने की इच्छा हो रही है । ये वही मुकम्मल वाक्य है जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है । बहुत सुंदर ग़ज़ल । बधाई ।
और एक सूचना । यदि आप भोपाल में हो तो आयें ।
सौरभ जी बहुत बहुत बधाई हो इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये
जवाब देंहटाएंविशेषत: ये दो शेर
दो महावर रचे पैर................
दिन की समिधा............
बहुत प्यारे हैं
पंकज आप से एक विनती है कृप्या कॉपी पेस्ट की सुविधा दे दें हमें :)
दीदी कॉपी पेस्ट की सुविधा पूर्व में दे रखी थी लेकिन लोग यहां से कॉपी करके अपने अपने ब्लाग बनाने लगे थे । एक सज्जन ने तो सारे पुराने पाठ उठा कर नया ब्लाग ही बना लिया था अपना । बस उसी कारण वो सुविधा बंद कर दी ।
हटाएंबहुत सुन्दर!!
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब , मक्ता तो लाज़वाब है।
जवाब देंहटाएं@पंकज ,
जवाब देंहटाएंइस का मतलब गेहूँ के साथ घुन को पिसना ही पड़ेगा :(
मुझे तो यही समझ नही आ रहा कि किस शेर की तारीफ करूँ किसे छोडूँ। हाँ ये समझ आ रहा है कि मुझे गज़ल लिखना छोड देना चाहिये। अद्भुत लाजवाब गज़ल के लिये सौरभ जी को बधाई। मै भी इस्मत जी से सहमत हूँ। पूरा शेर एक दम से याद नही होता बार बार हर शब्द देख कर लिखना मुश्किल लगता है मेरे लिये तो और भी जब केवल आधा घन्टा ही बैठने की इज़ाज़त हो। लेकिन इस गज़ल के लिये तो शाम को दोबारा आना ही पडेगा। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंआज ग़ज़ल से पहले बधाई देता हूँ शेर की परिभाषा के लिये। खूबसूरत परिभाषा के लिये। यह स्वयं के लेखन स्तर में निरंतर विकास होता रहना चाहिये, और लेखन क्या स्वयं का नैतिक विकास भी।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल निस्संदेह खूबसूरत है केवल 'नहीं ळे प्रिये' की चूक हुई है अन्यथा पूरी तरह सुगठित है। बधाई।
देखिये इसे कहते हैं छलनी में से पत्थर निकल जाना । नहीं है प्रिये जैसी बडी़ भूल मेरे पास से भी निकल गई ।
हटाएंकार्यभार के दबाव में बड़ी बड़ी चीजें निकल जाती है ये तो बिचारी शब्द से ही 'नहीं' है।
हटाएंगुरुदेव ये तिलक जी का नहीं उनकी आँखों पर लगे चश्मे का कमाल है...जो बारीक से बारीक चीजें भी पकड़ लेता है...चश्मा नहीं है खुर्दबीन है , आप के भी जिस दिन (भगवान् करे वो दिन बहुत सारे बरसों बाद आये) वैसा चश्मा लागेगा आपकी चलनी से भी पत्थर निकलने बंद हो जायेंगे. रहा सवाल हमारा,.. तो हमें चश्मा लगा कर चलनी ही नज़र नहीं आती पत्थरों की बात तो दूर की है, दरअसल हमारा चश्मा दूर का है और दूर के ढोल हमेशा सुह्वावने लगते हैं...:-)).
हटाएंनीरज
ये आप कब मार कर चले गये। फ़ूल कर कुप्पा तो कई बार हो चुका हूँ इस बार ड्रम हो गया। (ड्रम कुप्पे से बड़ा होता है ऐसा मेरा अनुमान है, वस्तुत: कुप्पा कभी देखा नहीं)
हटाएंभाई साहिब हमारे यहाँ आइयेगा कुप्पा भी दिखा देंगे।
हटाएंहिमाचल तो हुआ हिम का ऑंचल, कौन न आना चाहेगा ऐसे प्रदेश में, बस देखिये योग कब बनता है। कुप्पा भी देख लेंगे और आप भी इस ड्रम को देख लेंगी।
हटाएंतिलक जी कुप्पा इधर भोपाल के आस पास के ग्रामीण इलाक़ों का ही शब्द है । आप भोपाल में रहते हैं और आपने अभी तक कुप्पा नहीं देखा ये तो कुछ आश्चर्य चकित करने वाली बात है ।
हटाएंकहीं ये चमड़े का बना थैला तो नहीं जिससे खेतों में पानी देते बचपन में कभी देखा था।
हटाएंनहीं वो तो डोल कहलाता है । उस पर यूं कहा गया है कि
हटाएंथी ग़ज़ब की मुझमें फुर्ती ग़मे आशिकी के पहले
मैं घसीटता था ठेला तेरी दोस्ती के पहले
तेरी बाल्टी पकड़ने मैं खड़ा रहा था वरना
मेरा डोल भर चुका था तेरी बाल्टी के पहले
कुप्पी के पति को कुप्पा कहते हैं । पांच लीटर की छोटी जो होती है उसे कुप्पी कहते हैं । और जो प्लास्टिक का बड़ा 20-25 लीटर का होता है उसे कुप्पा कहते हैं । कुप्पी घासलेट रखने के काम आती है जबकि कुप्पा डीजल आदि के लिये काम आता है ।
हटाएंऔर मेरे जैसा 75 लिटर का तो फिर ड्रम ही हुआ न।
हटाएंदीवानगी का आलम लिये कत्अ:।
कुप्पा उसे भी कहते हौइं जो उपले या तूडी रखने के लिये मिट्टी का घर{ जिसका आकार तोंद जैसा हो} बनाया जाता है।
हटाएंसौरभ जी. बहुत बहुत बधाई. गज़ल बहुत ही खूबसूरत है.
जवाब देंहटाएंजिस ग़ज़ल में "दो महावर रचाए..." " दिन की समधी..." भेज दो आगमन..." जैसे कद्दावर शेर हों उस ग़ज़ल की किन लफ़्ज़ों में तारीफ़ की जाय ??? क्यूँ की इस ग़ज़ल के लिए प्रयुक्त तारीफ़ का हर लफ्ज़ छोटा और बेमानी सा लगता है...बहुत खूब सौरभ भाई, आपकी ग़ज़लें पढता आया हूँ और हमेशा उन्हें अलग अंदाज़ में पाया है...आपको ग़ज़ल कहने और पसंद करने की गहरी समझ है...मेरी ढेरों दाद कबूल करें...मुशायरा बुलंदियों की और तेज़ी से अग्रसर है...कहाँ पहुंचेगा खुदा जाने...
जवाब देंहटाएंराकेश जी ने सही बहस के लिए मंच प्रदान किया है, मेरी समझ में जो रदीफ़ काफिया आपने इस तरही के लिए दिया और जो पृष्ठ भूमि बताई है उसमें मुसलसल ग़ज़ल ही कही जा सकती है...मेरी समझ कितनी है ये आपसे छुपा थोड़े ही है :-))
"यदि आप अपने आप से बेहतर नहीं लिख रहे तो लिखना बंद करदें" मैं इसी बात का तहे दिल से अनुसरण कर रहा हूँ.
आपका निमंत्रण देखा...अपने भोपाल में न रहने का बहुत मलाल हुआ...
नीरज
ये जो शुतुरगुरबा शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन निकाले खड़ा हो गया है; गंभीर समस्या उत्पन्न कर रहा है। गीत में मुखड़े की पुनरावृत्ति होती है इसलिये अगर मुखड़े में संबोधन आया है तो अंतरे में उसका स्वरूप बदलना दोष की स्थिति बनाता है। मुसल्सल ग़ज़ल में विषय निरंतरता का बंधन तो है लेकिन कोई भी शेर अंतरा नहीं बनता इसलिये संबोधन के स्वरूप की निरंतरता की आवश्यकता असम्बद्ध प्रतीत होती है।
जवाब देंहटाएंयदा-कदा कुछ शायर ग़ज़ल प्रस्तुत करते समय मत्ले के शेर के मिस्रा-ए-सानी की पुनरावृत्ति करते सुने हैं लेकिन उससे ग़ज़ल का मूल व्याकरण प्रभावित नहीं होगा।
प्रश्न अच्छा उठा है, इसपर अरूज़ के जानकारों की राय खुलकर सामने आये तो कुछ स्पष्टता प्राप्त हो।
सबसे पहले तो सौरभ जी को इन शानदार अश’आरों के लिए बहुत बहुत बधाई। नहीं वाले शे’र से पता चलता है सुबीर जी सौरभ जी को कितना मानते हैं। केवल प्रेम में ही इतनी शक्ति है कि वो छलनी में से पत्थर निकाल दे। इसके लिए भी सौरभ जी को बहुत बहुत बधाई। आखिरी शे’र ने तो दिल लूट लिया और ग़ज़ल को भी एक नई उँचाई प्रदान की। इसकी बधाई अलग से।
जवाब देंहटाएंमतांतर को देखते हुए शुतुरगुरबा पर और प्रकाश डाले जाने की आवश्यकता है।
शे’र की परिभाषा सटीक बन पड़ी है बस एक जरा सी चीज और जोड़ दी जाय तो सोने पर सुहागा। ‘वाक्य’ के स्थान पर ‘एक वाक्य में लिखी गई कविता’ कर दिया जाय। बिना ‘कविता’ के शे’र केवल एक तरह का छंद है।
"यदि आप अपने आप से बेहतर नहीं लिख रहे तो लिखना बंद कर दें" इस वाक्य में भी छोटा सा संशोधन सविनय प्रस्तुत है।
"यदि आप अपने आप से बेहतर लिखने की कोशिश नहीं कर रहे तो लिखना बंद कर दें"। दर’असल हर बार खुद से बेहतर लिखना संभव नहीं होता। ऐसा होता तो सारे रचनाकारों की बाद की रचनाएँ पूर्ववर्ती रचनाओं से बेहतर होतीं। महत्वपूर्ण यह है कि आप ऐसी कोशिश कर रहे हैं या नहीं।
मुशायरा नई उँचाइयाँ छू रहा है। उड़ान जारी रहे।
अगर दो शेर एक कत्अ: के रूप में पढ़े जायें तो शुतुरगुर्बा की स्थिति अवश्य बन जायेगी। मुझे तो यही लगता है कि मुसल्सल ग़ज़ल में विषय की निरंतरता भर होती है अश'आर की परस्पर सम्बद्धता नहीं जैसी कि कत्अ: के मामले में होती है। कत्अ: में विषय ही निरंतर नहीं रहता कहन की निरंतरता भी होती है जो दूसरे शेर में पूरी होती है।
जवाब देंहटाएंअब पलड़ा तिलक जी की तरफ झुक रहा है।
हटाएंधर्मेनद्र जी, पलड़े का क्या है, जिधर जाना है जाये। जहॉं ठहरेगा अपन भी उसी तरफ़ हो जायेंगे। मुझे तो ये चर्चायें ही सीखने का उत्कृष्ट माध्यम लगती हैं इसलिये खुलकर व्यक्त होता रहता हूँ। बात सिर्फ़ सोच रखने तक की है।
हटाएंहम भी आपके साथ हैं।
हटाएंसौरभ शेखर.. वस्तुतः मेरे लिये मात्र एक नाम न हो कर स्व-इंगित सम्बोधन का रोचक भ्रम भी है. यही कारण है कि मैं सौरभजी की कोई रचना/ग़ज़ल अपनी समझभर की सम्पूर्णता में देखने का प्रयास करता हूँ.
जवाब देंहटाएंइक परिंदे ने यूँ शोर.. .. इस शे’र का इस साफ़गोई से हो जाना आनन्दित कर गया.
कितनी आसानी से इतनी जमी हुई बात सतह पर उभर आयी है ! अद्भुत ! हार्दिक बधाई !
चैन पड़ता कहाँ है.. . में प्रेमी सुलभ भावुकता और रोमांच का सुन्दर सामञ्जस्य है. इस अनुभूत प्रतीत होते-से शे’र के लिये पुनः हार्दिक बधाई.
भेज दो आगमन.. . इस आखिरी शे’र के विषय में एकतरह से सभी सुधीजनों ने सकारात्मक हामी भरी है. पंकजभाई साहब ने तो इस शे’र को इस मुशायरे के उन्वान का आदर दिया है. वस्तुतः, प्रेमी के एकाकी पलों की छटपटाहट को बड़े ही संयत ढंग से स्वर दिया गया है. इस शे’र के लिये जितना कहा जाय थोड़ा होगा.
एक और अद्भुत शे’र जो कहन की कसौटी पर इतना समृद्ध होते हुए भी मुझे एक शब्द में हुए अक्षरी-दोष के कारण खटक गया. यदि उसका ज़िक़्र न करूँ तो नैं स्वयं को संयत नहीं रख पाऊँगा.
दो महावर रचे पैरों.... शे’र के सानी में प्रयुक्त शब्द आरज़ूओं में अक्षरी-दोष हुआ है. 'आरज़ू' के बहुवचन का शुद्ध प्रारूप तो आरज़ुओं होगा न !
*
पंकजभाईसाहब द्वारा हिन्दी ग़ज़ल की परिभाषा स्पष्ट और सटीक है. हमसभी के लिये पाठ सदृश भी है. और, चर्चा के दौरान यह जानना भी रोचक रहा कि शुतुर्मुर्ग़ और बिल्ली की युगलबन्दी कैसे-कैसे अतुक रचती है ! .. . :-))))
चर्चा चले.. .
सादर
सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
सहमत। आरज़ू का बहुवचन आरज़ुओं ही होगा।
हटाएंफिल्म रजिया सुल्तान का एक गीत है ए दिले नादां आरजू क्या है जो जां निसार अख्तर ने लिखा है और जिसे खय्याम साहब ने संगीतबद्ध किया है और कमाल अमरोही साहब की ये फिल्म थी उसमें एक अंतरा यूं है
हटाएंऐ दिले नादाँ, ऐसी राहों में कितने काँटे हैं
आरजूओं ने हर किसी दिल को दर्द बांटे हैं
इसमें पूरा आरजूओं है और लता जी ने पूरा आरजूओं ही गाया है । मेरे विचार में जां निसार अख़्तर, खय्याम और कमाल अमरोही जैसे उर्दू के बड़े जानकार इतनी बड़ी ग़लती नहीं कर सकते । क्योंकि वज्न के हिसाब से भी वहां पर आरजूओं ही आ रहा है और यदि आप गीत सुनें तो लता जी ने भी आरजूओं ही गाया है ।
http://www.youtube.com/watch?v=x513v6_5Xq4
हटाएंभाई जी, मैं बस व्याकरणसम्मत बातें कर रहा हूँ. उदाहरणार्थ, भाई = भाइयों ; बाजू = बाजुओं ; हाथी = हाथियों , आदि-आदि..
हटाएंहिन्दी अक्षरी की नियमावलियों के अनुसार ईकारांत (दीर्घ ई) शब्द और ऊकारान्त (दीर्घ ऊ) शब्द बहुवचन प्रारूप में ’ओं’ या ’यों’ से जुड़ जाते हैं और उक्त मात्रिक अक्षर क्रमशः ह्रस्व इ और हर्स्व उ हो जाते हैं.
और, उपरोक्त टिप्पणी में मेरा सादर इशारा भी यही था कि ’आरजुओं’ करते ही उक्त शे’र का मिसरा-सानी बेबह्र हो जायेगा.
अब यह मेरी भी जिज्ञासा है कि उर्दू व्याकरण अथवा ग़ज़ल के अरूज़ में इस हेतु क्या कुछ अलग़ से कहा गया है?
पंकज भाईजी, जहाँ तक बात उक्त गीत की है तो उन पंक्तियों को मैंने भी सुना है. अत्यंत ही कर्णप्रिय गीत है. चूँकि आर्ष वाक्य विशेष अपवाद की तरह हर जगह स्वीकृत और मान्य हैं, मैं इसी तौर पर उक्त पंक्ति को लेता हूँ/था. भाषा व्याकरण के नियम अपनी जगह स्थावर हैं.
सादर
उर्दू में सही शब्द आर्ज़ू है जबकि आम बोलचाल में आरज़ू प्रयोग में है। उदाहरण गीत व ग़ज़ल दोनों जगह नियम हिन्दी का ही प्रयोग किया गया है। उदाहरण गीत से संबंधित तीनों व्यक्ति उर्दूभाषी होने से संभव है उनकी जानकारी में हिन्दी का नियम न रहा हो। एक नया प्रश्न चर्चा के लिये खड़ा हो गया।
जवाब देंहटाएंतिलकराजजी, इसी कारण, हमने उक्त गीत के पंक्ति-विशेष को आर्श वाक्य की तरह लिया था/है, जोकि मानसिकतः समृद्ध और विद्वानों द्वारा प्रयुक्त होने के कारण सुधीपाठक/श्रोताजनों द्वारा स्वीकार्य हुआ है. किन्तु, इस पंक्ति को उदाहरण बनाना और अन्यान्य द्वारा पुनरावृति सहज संभव न हो पाये. आगे आप सभी का मार्ग-दर्शन व उचित सलाह मुझ हेतु मान्य है.
हटाएंसादर
मुशायरे में अपनी ग़ज़ल देख कर ,ज़ाहिर है, बहुत ख़ुशी हुई और इसके लिए गुरुदेव के प्रति अंतर्मन में आभार का भाव है. गुरुजनों ने ग़ज़ल पर जो चर्चायें,प्रशंसा,समालोचना की है उसके लिए तो उन्हें प्रणाम ही कर सकता हूँ. सच तो यह है कि यह ब्लॉग और इस पर की जाने वाली टिप्पणियां मेरे जैसे छात्र के लिए इल्म की किताब हैं.आ.सौरभ पाण्डेय जी ने जिस भ्रम का जिक्र किया है वह उनके सन्दर्भ में मुझे भी कभी-कभी होता है.और हाँ,बड़े भाई धर्मेन्द्र जी ने बिलकुल ठीक कहा है..गुरुदेव का स्नेह मुझे जिस प्रकार प्राप्त हुआ है उससे सोचता हूँ कि पता नहीं मैं इसके योग्य हूँ भी की नहीं.बस अब एक साध उनसे भेंट की अधूरी है..देखता हूँ कब पूरी होती है...
जवाब देंहटाएं:-))) .. मेरी उम्र के ’सौरभ’ बहुत कम मिलते हैं, सौरभजी.. :-)))
हटाएंचर्चा स्वस्थ हो और मर्यादाओं का पालन हो तो भ्रान्तियॉं मिटती हैं, ज्ञान परिष्कृत होता है।
हटाएंउर्दू शब्दों का हिन्दी नियमों से बहुवचन बनाना सामान्य चलन में आ गया है, उर्दू का जन्म हिन्दी के बीच हुआ है इसलिये इस तरह के प्रयोग अनुचित नहीं कहे जा सकते। सौरभ जी ने आरज़ूओं को हिन्दी बहुवचन नियम से देखा, उदाहरण गीत की तरह आपका प्रयोग वज़्न कायम रखने की दृष्टि से स्वीकार्य है।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसही है, तिलकराजजी. अपवाद सदा से प्रकृति का हिस्सा रहे हैं. किन्तु, वे रूढ़ नियमों का बदल नहीं हो सकते.
हटाएंसंदर्भ लेना चाहूँगा सन् 52 की अति विशिष्ट फिल्म ’बैजू बावरा’ का.
इस फ़िल्म के गीतों से शकील बदायूँनी और नौशाद जैसे ’न भूतो न भविष्यति’ स्वनामधन्य इतिहासजनक जुड़े हैं. किन्तु, भाषा के लिहाज से एक गीत में एक शब्द अपनी मूल प्रकृति से इतर प्रयुक्त हुआ था. फिरभी, यह प्रयोग सर्वस्वीकृत हो आज इतिहास का हिस्सा बन चुका है.
गीत है - तू गंगा की मौज़ मैं जमुना का धारा.. .. जबकि ’धार’ या ’धारा’ की संज्ञा सदा से स्त्रीलिंग की तरह से प्रयुक्त होती रहती है.
किन्हीं विशेष परिस्थितियों में शकील जैसा भाषायी तौर समृद्ध व वरिष्ठ जानकार उस गीत में ’धारा’ का प्रयोग पुल्लिंग प्रारूप में कर गया. किन्तु, इससे इस शब्द की संज्ञा नहीं बदल गयी. बदली जानी भी नहीं चाहिये. आज भी ’धारा’ शब्द का प्रयोग पुल्लिंग की तरह हो जाय तो भाषा-दोष कहलाता है. जबकि, उक्त रचना में हुआ प्रयोग-विशेष अपवाद की तरह लिया जाता है. उसपर से आइसिंग ऑन द केक - यह गीत उस समय की ’बिनाका गीत माला’ में साल का सर्वश्रेष्ठ गीत चयनित हुआ था.
शकील साहब की भाषायी समृद्धि आज भी निर्विवाद है. हम सब इसी तरह से इतिहास बनता हुआ देखते हैं और सीखते हैं.
सादर
सौरभ जी ये उदाहरण बहुत क्षमा के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं ।
हटाएंआरजूएं दिल को पिघलाने लगीं
हाय क्यूं अंगड़ाईयाँ आने लगीं
जावेद अख्तर
आने लगा हयात को अंजाम का खयाल,
जब आरजूएं फैलकर इक दाम बन गईं।
बाकी सिद्दकी
अच्छा है डूब जाये सफीना हयात का,
उम्मीदो-आरजूओं का साहिल नहीं रहा।
'असर' लखनवी
खामोशी में निहाँ खूंगश्ता लाखों आरजूएं हैं,
चिरागे - मुर्दा हूँ मैं, बेजुबाँ गोरे-गरीबाँ का।
मिर्जा 'गालिब'
देखकर आपकी निगाहों को आरजूएं शराब होती है,
तोड़ता हूं मैं रोज तौबा को , रोज नीयत खराब होती है।'
मेरे दिल ए पुरउम्मीद में आरजूएं करवट बदल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे सीने से आह बन कर निकल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे होंठों पे खेलने को मचल रही हैं
ज़िया फतेहाबादी
आरज़ूओं के ख़्वाब क्या देंगे ?
ख़ूबसूरत सराब क्या देंगे
अब्दुल हमीद अदम
वस्ल की बनती है इन बातों से तदबीरें कहीं ?
आरज़ूओं से फिरा करतीं हैं, तक़दीरें कहीं ?
हसरत मोहानी
अब उस दिल-ए-तबाह की हालत न पूछिये
बेनाम आरज़ूओं की लज़्ज़त न पूछिये
मसरूर अनवर
गुलाब चेहरों से दिल लगाना
वो चुपके चुपके नज़र मिलाना
वो आरज़ूओं के ख़्वाब बुनना
वो क़िस्सा-ए-नातमाम लिखना
हसन
बुझा-बुझा -सा है अब चाँद आरज़ूओं का
है माँद-माँद मुरादों की कहकशाँ यारो!
'साग़र' पालमपुरी
शनासा रफ़्ता रफ़्ता मसलेहत से होता जाएगा
ये दिल फिर आरज़ूओं को कुचलना सीख जाएगा
मुमताज़ नाज़
इस क़दर सर्द न होती जो अगर दिल की फ़ज़ा
आरज़ूओं के ये अशजार भी फल सकते थे
मुमताज़ नाज़
हज़ारों आरज़ूओं से बसाया जिसको पहलू में
जिसे समझे थे हम दिलबर, वह निकला संग दिल क़ातिल
हसरत जयपुरी
याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम
कुछ दिनों तक ख़ुदा रहे हैं हम
आरज़ूओं के सुर्ख़ फूलों से
दिल की बस्ती सजा रहे हैं हम
बशीर बद्र
आरज़ूओं की बियाबानी है और ख़ामोशियाँ
ज़िन्दगी को क्यों सबाते-नक़्शे-पा देता हूँ मैं?
शमशेर बहादुर सिंह
आरज़ूओं की भीड़ में ‘साग़र’!
ज़ख़्म ख़ुर्दा जवानियाँ होंगी
साग़र पालमपुरी
उसने भी मुझको क़िस्से की सूरत भुला दिया
मैंने भी आरज़ूओं को दरगोर कर दिया
मुनव्वर राना
बाद मुद्दत उन्हें देख कर यूँ लगा
जैसे बेताब दिल को क़रार आ गया
आरज़ूओं के गुल मुस्कराने लगे
जैसे गुलशन में जाने-बहार आ गया।
सुदर्शन फाकिर
दश्त-ए-तलब में तोहफ़ा-ए-साया लिए हुए
हर सर पे आरज़ूओं का सूखा बबूल है
कौसर सिद्दीक़ी
इतने उदाहरण। पूरी पी एच डी हो गयी। मज़े की बात तो यह है कि इनमें कुछ जगह तो वज़्न की मॉंग भी नहीं है कि आरज़ूओं पढ़ा जाये फिर भी यही लिखा है। ऐसा लगता है कि इसे इसी रूप में स्वीकार किया गया है।
हटाएंनीरज जी की बद्दुआओं का असर है तिलक जी कि आज आपकी टिप्पणी भी पहली बार स्पैम में चली गई ।
हटाएंकुछ अजीब सी हालत है। यहॉं टिप्पणी दिख रही है। आपके उदाहरण नीचे एक और जगह दिख रहे हैं वहॉं मेरी टिप्पणी नहीं दिख रही।
हटाएंनीरज जी क्या, किसी की बद्दुआ हो अपने तो सर से फिसल कर निकल जाती है।
दिन की समिधा ह्रदय के हवन कुण्ड में
जवाब देंहटाएंशाम क्या है प्रणय आरती है प्रिये.
सौरभ जी बधाई इस खुबसूरत ग़ज़ल के लिए .
सौरभ शेखर जी के ग़ज़ल में आज जाने कितने रंग देखने को मिले.
जवाब देंहटाएंये तरही हिंदी गीतों से सम्बधता के लिए भी जाना जायेगा. ये प्रीत और प्रेम की महिमा है जो ढेर सारे अशआरों के रूप में हमें मिल रहे हैं.
दो माहवार रचे.... जैसे शेर ने बाँध लिया.
बहुत सुन्दर शेखर जी.
ग़ज़ल पर हुई तकनीकी चर्चा ने हमेशा की तरह ज्ञानवर्धन किया. लता जी द्वारा गाया यहाँ उल्लेखित गीत मेरे प्रिय गीतों में से एक है. मैं इस मुखरे को अक्सर गुनगुनाता हूँ.
आचार्य जी ने "आरजूओं " के माध्यम से हमें दूर तक पहुंचा दिया.
गुरुदेव आपकी हिंदी में शेर की व्याख्या और फिर सौरभ जी की गज़ल का गज़ल का कमाल जो इतनी दिलचस्प चर्चा चल रही है मंच पे आज ... कितनी कुछ नवीन जानने कों मिल रहा है गज़ल के गुरुकुल में आज ...
जवाब देंहटाएंऔर गज़ल तो ऐसे मानो हर शेर में प्रीत, प्रेम का रस स्वयं ही छलक रहा है ... दिन की समिधा ... वाला शेर पता नहीं क्यों पर मुझे ये शेर पढते हुवे दिल के कोने कने में प्रेमन का एहसास हो रहा है ... वैसे तो हर शेर पढते हुवे पता नहीं कितनी बार "उन्हें" याद कर चुका हूँ ....
मुशायरा शुरू होते ही २ सेकेण्ड में(२ एपिसोड में) ०-१०० किलोमीटर की रफ़्तार पे पहुँच गया है ...
गुरुदेव आपकी हिंदी में शेर की व्याख्या और फिर सौरभ जी की गज़ल का कमाल जो इतनी दिलचस्प चर्चा चल रही है मंच पे आज ... कितनी कुछ नवीन जानने को मिल रहा है गज़ल के गुरुकुल में आज ...
जवाब देंहटाएंऔर गज़ल तो ऐसे मानो हर शेर में प्रीत, प्रेम का रस स्वयं ही छलक रहा है ... दिन की समिधा ... वाला शेर पता नहीं क्यों पर मुझे ये शेर पढते हुवे दिल के कोने कने में प्रेम का एहसास हो रहा है ... वैसे भी हर शेर पढते हुवे पता नहीं कितनी बार "उन्हें" याद कर चुका हूँ ....
मुशायरा शुरू होते ही २ सेकेण्ड में(२ एपिसोड में) ०-१०० किलोमीटर की रफ़्तार पे पहुँच गया है ...
एक नशिश्त मे सौरभ को बहुत ही नज़्दीक से सुनने का मौक़ा मिला है , बेह्द ही संज़ीदा सा शख्स ! ख़ास तो ये भी है की ये मेरे हि शहर के हैं, दुख है की शादी मे इन्हे बुल नही पाया ! भेज दो आगमन की सहर भेज दो .... इस एक मिसरे ने जैसे मेरी पीडा बता दी हो.... इस शे'र के लिये जितनी तारीफ़ करूँ कम है सौरभ !पूरी ग़ज़ल ही कमाल की हुई है, बहुत बधाई इस प्रेम मे डूबी बेहतरीन ग़ज़ल के लिये !
जवाब देंहटाएंअर्श
टिप्पणियाँ पता नहीं स्पैम में क्यों जा रही हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सौरभ जी... ग़ज़ल के टेक्नीक के बारे में यहाँ जानकारी बढ़ी है... आपसे और भी उम्मीदें है.. आपको तो पिछले दस साल से पढ़ रहा हूं... और तब से ही आपकी प्रतिभा के प्रति आश्वश्त हूं...एक मुक्कमल ग़ज़ल देने लिए शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंदिन की समिधा और खुद महकती हवा के प्रयोगों से सजी गज़ल शेखर जी की प्रवीणता की मानक ही कही जा सकती है,
जवाब देंहटाएंतिलकजी एवं सौरभजी की टिप्पणियाँ ज्ञानवर्धक हैं
राकेशजी, सादर आभार.
हटाएंपरस्पर आत्मीय संवाद जिज्ञासा संतुष्टि का सबसे बेहतर जरिया हुआ करते हैं.
हम तो गेंदबाज़ी, बल्लेबाज़ी कर रहे हैं, अम्पायर भी तो कुछ बोलें।
हटाएंग़ज़ल के 9वे मिसरे में " काम इसके सिव कुछ नहीं है प्रिये" मे "नहीं" को काफ़िया बनाया गया है जो अदब के हिसाब से सही नहीं है, ऐसा लगता है सौरभ जी इसको अच्छे से जानते हैं , शायद वो हमारा टेस्ट ले रहे हैं कि हमें पता है कि नहीं।
जवाब देंहटाएंवाकई इस हवन कुंड की सुगन्ध ने मेरे दिमाग की खिडकियाँ खोल दी पंकज भाई को बहुत बहुत बधाई। ऐसे यज्य आयोजित करते रहें।
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar gazal kahi hai saurabh ji ne..bahut bahut abdhai..
जवाब देंहटाएंprstutikaran ke liye pankaj ji ka dhero aabhar...prnaam
सौरभ बड़ा ही प्यारा बच्चा है, उतनी ही प्यारी बातें करता है और उतना ही सुंदर लिखता है| बहुत अच्छे सौरभ.... जीयो ! बेहतरीन तरही कही है तुमने !!! इक परिंदे ने यूं शोर बरपा दिया वाले शेर पे खासम खास दाद...ये अपना सा लगा !
जवाब देंहटाएंशेर की ये विस्तृत हिन्दी-परिभाषा बहुत रोचक बन पड़ी है गुरूदेव...सब कुछ समाहित कर लिया है| टिप्पणियाँ पढ़ कर पता चलता है कि सब इस ब्लौग से कितना प्यार करते हैं|
//टिप्पणियाँ पढ़ कर पता चलता है कि सब इस ब्लौग से कितना प्यार करते हैं//
हटाएंदिल से निकली बात दिल तक पहुँची.. आगे दिलों तक पहुँचे.
पंकजभाईजी की देहरी पर जिस सहजता और आत्मीयता का माहौल है यह अति उन्नत संस्कार और अदम्य विश्वास का परिचायक है. भाईसाहब की आत्मीयता का मैं विशेष रूप से आभारी हूँ.
क्या सार्थक बहस चल रही है...वाह...लेकिन इसे बहस कहना गलत होगा...अनवरत ज्ञान गंगा बह रही है...जय हो
जवाब देंहटाएंनीरज
मुम्बई तो न गंगा जाती है न नर्मदा। धन्यवाद दें इंटरनैट को कि ये आप तक पहुँच रही हैं।
हटाएंसही कहा आपने नीरजभाईजी. अवश्य यह बहस नहीं है. प्रस्तुत चर्चा अनवरत जिज्ञासा का प्रवहमान प्रारूप है. हम सभी इसी तरह तो सीखते हैं.
हटाएंसादर
तिलकराज जी, मुम्बई की मीठी नदी भले आज जिस हाल में हो, महानगर में मीठा-मीठा माहौल का पर्याय तो है ही (गोड़-गोड़ बोलने का).. :-))
हटाएंकुछ उदाहरण जो आरजूओं के पक्ष में दलील दे रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंआरजूएं दिल को पिघलाने लगीं
हाय क्यूं अंगड़ाईयाँ आने लगीं
जावेद अख्तर
आने लगा हयात को अंजाम का खयाल,
जब आरजूएं फैलकर इक दाम बन गईं।
बाकी सिद्दकी
अच्छा है डूब जाये सफीना हयात का,
उम्मीदो-आरजूओं का साहिल नहीं रहा।
'असर' लखनवी
खमोशी में निहाँ खूंगश्ता लाखों आरजूएं हैं,
चिरागे - मुर्दा हूँ मैं, बेजुबाँ गोरे-गरीबाँ का।
मिर्जा 'गालिब'
देखकर आपकी निगाहों को आरजूएं शराब होती है,
तोड़ता हूं मैं रोज तौबा को , रोज नीयत खराब होती है।'
मेरे दिल ए पुरउम्मीद में आरजूएं करवट बदल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे सीने से आह बन कर निकल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे होंठों पे खेलने को मचल रही हैं
ज़िया फतेहाबादी
आरज़ूओं के ख़्वाब क्या देंगे ?
ख़ूबसूरत सराब क्या देंगे
अब्दुल हमीद अदम
वस्ल की बनती है इन बातों से तदबीरें कहीं ?
आरज़ूओं से फिरा करतीं हैं, तक़दीरें कहीं ?
हसरत मोहानी
अब उस दिल-ए-तबाह की हालत न पूछिये
बेनाम आरज़ूओं की लज़्ज़त न पूछिये
मसरूर अनवर
गुलाब चेहरों से दिल लगाना
वो चुपके चुपके नज़र मिलाना
वो आरज़ूओं के ख़्वाब बुनना
वो क़िस्सा-ए-नातमाम लिखना
हसन
बुझा-बुझा -सा है अब चाँद आरज़ूओं का
है माँद-माँद मुरादों की कहकशाँ यारो!
'साग़र' पालमपुरी
शनासा रफ़्ता रफ़्ता मसलेहत से होता जाएगा
ये दिल फिर आरज़ूओं को कुचलना सीख जाएगा
मुमताज़ नाज़
इस क़दर सर्द न होती जो अगर दिल की फ़ज़ा
आरज़ूओं के ये अशजार भी फल सकते थे
मुमताज़ नाज़
हज़ारों आरज़ूओं से बसाया जिसको पहलू में
जिसे समझे थे हम दिलबर, वह निकला संग दिल क़ातिल
हसरत जयपुरी
याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम
कुछ दिनों तक ख़ुदा रहे हैं हम
आरज़ूओं के सुर्ख़ फूलों से
दिल की बस्ती सजा रहे हैं हम
बशीर बद्र
आरज़ूओं की बियाबानी है और ख़ामोशियाँ
ज़िन्दगी को क्यों सबाते-नक़्शे-पा देता हूँ मैं?
शमशेर बहादुर सिंह
आरज़ूओं की भीड़ में ‘साग़र’!
ज़ख़्म ख़ुर्दा जवानियाँ होंगी
साग़र पालमपुरी
उसने भी मुझको क़िस्से की सूरत भुला दिया
मैंने भी आरज़ूओं को दरगोर कर दिया
मुनव्वर राना
बाद मुद्दत उन्हें देख कर यूँ लगा
जैसे बेताब दिल को क़रार आ गया
आरज़ूओं के गुल मुस्कराने लगे
जैसे गुलशन में जाने-बहार आ गया।
सुदर्शन फाकिर
दश्त-ए-तलब में तोहफ़ा-ए-साया लिए हुए
हर सर पे आरज़ूओं का सूखा बबूल है
कौसर सिद्दीक़ी
आपने तो समुन्दर परोस दिया ...
हटाएंभाईजी, मुझे इतना देख-पढ़ कर यही प्रतीत हुआ है कि हिन्दी व्याकरण के वचन से संबन्धित नियम उर्दू में आरज़ू शब्द पर नहीं लागू होते.
हटाएंयह समझ तो बन गयी. अब आगे पूछना है कि क्या यह अपवाद स्वरूप सिर्फ़ ’आरज़ू’ शब्द के लिये मान्य है या उर्दू में वचन की प्रणाली विशेष ढंग से चलती है ? जानकारी की इसी अपेक्षा के तहत हमने अपने पिछले पोस्ट में निवेदन किया था - अब यह मेरी भी जिज्ञासा है कि उर्दू व्याकरण या ग़ज़ल के अरूज़ में इस हेतु क्या कुछ अलग से कहा गया है ?
यदि उर्दू में वचन के नियम विशेष ढंग से मान्य हैं, तो फिर ’आरज़ू’ को लेकर वचन संबन्धित प्रयोग किसी शायर/विद्वान विशेष का इकलौता प्रयोग नहीं मानूँगा और न ही मैं इस तरह के किसी प्रयोग को आगे से आर्ष प्रयोग की संज्ञा ही दूँगा.
अपने उदाहरणों के माध्यम से आपने इस बात को मेरे मस्तिष्क में पूरी तरह से बैठा दिया है कि ’आरज़ू’ का बहुवचन हिन्दी व्याकरण नियमों के अनुसार ’आरज़ुओं’ न होकर ’आरज़ूओं’ ही होता है. लेकिन उपरोक्त प्रश्न आपकी प्रतिक्रिया तक खुले हैं.
पंकजभाईजी, इस सद्-प्रयास और आत्मीयता के लिये आपका सादर आभार.
अब लाइब्रेरी जाना कैंसिल ! ... :-))
तो फिर आरजूओं और आरजुओं उन शब्दों में से एक है जिन्हें दोनों रूपों में प्रयोग किया जा सकता है। ऐसे तो बहुतेरे शब्द हैं जिन्हें हम वजन की जरूरत के हिसाब से बदल लेते हैं। ये भी उनमें से एक है।
हटाएंधर्मेन्द्र जी मैं आपकी दोनों बातों से असहमत हूं । पहला तो ये कि शेर कुल मिलाकर एक वाक्य ही है वो कविता हो य न हो ये ज़रूरी नहीं है । मगर उसका वाक्य होना बहुत ज़रूरी है । चूंकि उसे बातचीत के लहज़े में ही कहा जाता है । ये अलग बात है कि उसे गा लिया जायेगा । दूसरा ये कि कोशिश करना ज़रूरी है बजाय करने से । तो उसके लिये मेरा कहना है कि लेखन में यदि आप कोशिश कर रहे हैं बेहतर लिखने की तो बेहतर लिखायेगा ही । यहां आप यदि कोशिश कर रहे हैं तो क्वालिटी बढ़ती ही है ।
जवाब देंहटाएंएक किस्सा है मेरे स्मरणानुसार स्वर्गीय माखन लाल चतुर्वेदी जी से जुड़ा हुआ। यह किस्सा मैं अक्सर सुनाता रहता हूँ, नये लेखकों को।
हटाएंपत्रिका में छापने के लिये ण्क नये कवि ने अपनी कविता भेजी जिसपर जवाब मिला कि कृपया छ: माह बाद इसे प्रकाशन के लिये भेजें। छ: माह कवि ने एक नई कविता भेजी ओर फिर वही हुआ। जब दो तीन बार ऐसा हो गया तो कवि सीधे पहुँच गये चर्चा के लिये। चर्चा में पाया गया कि कवि महोदय हर बार नयी कविता भेज देते थै। यह पूछने पर कि आपने पहले वाली कविता क्यूँ नहीं भेजी; कवि महोदय ने जवाब दिया कि पिछली कविता में दम नहीं था, इस बीच मुझे बहुत कुछ समझ आया कविता के तत्वों के बारे में और मेरे लेखन में सुधार हुआ। अब सम्पादक जी की बारी थी उन्होंने समझाया कि भाई आपको स्वयं आपकी कविता छ: महीने बाद स्तरहीन लगने लगती है तो मेरी स्थिति सोचें जो बरसों से साहित्य-सृजन में सतत् संलग्न है।
मैं औरों की तो नहीं कह सकता लेकिन जब मुझे कोई ग़ज़ल सुनाने को कहता है तो मुझे अपनी कोई ग़ज़ल इस योग्य नहीं लगती कि सुना सकूँ। हर ग़ज़ल में कुछ शेर निरर्थक लगते हैं।
मेरा मानना है कि यही बात है जो यहॉं उठाई गयी है, और इसे समझना जरूरी है।
समझ आ गयी तिलक जी की बात आसानी से ... अपने गिरहबान में कुछ कुछ समय बाद झाँक लेना अच्छा होता है ...
हटाएंमैंने भी बाद में सोचा कि ग़ज़ल तो महबूबा से बातचीत को कहते हैं तो मुझे भी लगा कि बातचीत में कविता का होना आवश्यक नहीं है। आपकी परिभाषा बिल्कुल सही है।
हटाएंदूसरी बात गिरहबान में झाँकने वाली तो ये बात बिल्कुल सही है कि अगर अपनी पुरानी रचनाएँ देखी जायँ तो लगता है कि ये क्या बकवास लिख दिया था मैंने। कोशिश करने से क्वालिटी बढ़ती है इसमें भी कोई संदेह नहीं। पर हर रचना पिछली रचना से बेहतर होगी ये बात निश्चित नहीं होती। हाँ ज्यादातर बेहतर होंगी और थोड़ी बहुत खराब। अगर ज्यादातर को तरजीह दी जाय तो इस हिसाब से बात मानी जा सकती है।
ब्लाग के पेज हिट्स 99955 तक आ गये हैं । अर्थात बस एक लाख होने को हैं ।
जवाब देंहटाएंआज शाम तक 100000 और कल आपके साथ सेलीब्रेट करते हैं।
हटाएंअब 99973 हो चुके हैं ।
हटाएंबस अब होने ही वाले हैं ... अडवांस में ही बधाई ... ब्लॉग पार्टी तैयार रक्खें ...
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंब्लाग पेज हिट्स एक लाख को पार कर चुके हैं, सेलीब्रेशन टाइम्स । मुझे लगता था कि ब्लाग के पांच साल अगस्त में पूरे हो रहे हैं तब तक ये आंकड़ा आयेगा । लेकिन ये तो अभी आ गया । सभी को बधाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत बधाई।
हटाएंहिट हितकारी है. उत्साहकारी है. रोमांचक है. भाईजी, लाख किसी रूप में हो आज भी किसी करोड़ से कहीं ज्यादा रोमांचित करता है. सो, मिठाई तो बनती है अब.. .
हटाएं(सर, मिठाई के आगे हम बौख जाते हैं.. हा हा हा.. )
बहुत बहुत बधाई
हटाएंउफ़ ये कैसी आरजू है. जैसी भी है बहुत ख़ूबसूरत है.
हटाएंज्ञान-गंगा सतत प्रवाहमान रहे.
लख लख बधाई आप सभी को.
मेरा इंटरनैट एक्सप्लोरर दर्शा रहा है कि ब्लॉग पर कुछ क्रास-साईट स्क्रिप्टिंग चल रही है। किसी विजेट की हरकत होना चाहिये।
जवाब देंहटाएंमेरी बधाई की टिप्पणी गायब।
जवाब देंहटाएंगुरुदेव प्रणाम,
जवाब देंहटाएंदेर आयद दुरुस्त आयद
ब्लॉग का रंग खिला खिला
ग़ज़ल मधुमयी
चर्चा लाजवाब
उदाहरण बेमिसाल
समुचित परिभाषा
लक्क्खा विजित
जय जय जय जय
तरही की शानदार शुरुआत के बाद उसकी अगली कड़ी सौरभ जी लेकर हाज़िर हैं.
जवाब देंहटाएं"दो महावर रचे पैरों की मुन्तजिर.............", वाह वा, क्या कहने. लाजवाब शेर.
"ये तुम्हारी प्रतीक्षा के भीगे पहर........" वाह वा
"......शाम क्या है प्रणय आरती है प्रिये". बहुत खूब
"भेज दो आगमन की सहर भेज दो..........", मिसरा-ऐ-उला जबरदस्त है और जब सानी उससे जुड़ रही है तो कमाल हो रहा है.
सौरभ जी ढेरों मुबारकबाद. मज़ा आ गया, क्या खूब शेर निकाले हैं.
जवाब देंहटाएं♥
प्रिय बंधुवर सौरभ शेखर जी
सस्नेहाभिवादन !
विलंब से ही सही … ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए मेरी बधाइयां स्वीकार करें ।
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
बेहतरीन ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंसौरभ जी बहुत ही प्यारी ग़ज़ल कही है आपने भाई। इस ग़ज़ल का ये शेर देखिए:-
जवाब देंहटाएं""हर घड़ी हर पहर याद करना तुम्हें
काम इसके सिवा कुछ नहीं है प्रिये""
इस शेर का क़ाफ़िया त्रुटिपूर्ण है। नहीं की जगह यही, रही, सही हो सकता है जो ग़ज़ल का हम क़ाफ़िया होगा।