होली को लेकर जो कुछ भी सोचा था वो आप सब के सहयोग से पूर्ण हुआ । होली की धमाकेदार टिप्पणियों का क्या कहूं । मुझे तो लगता है कि रचनाओं पर भारी पड़ गईं टिप्पणियां । सबने जिस प्रकार बढ़ चढ़ कर भाग लिया उससे लगता है कि अब ये ब्लाग सचमुच ही उन सबका ब्लाग हो गया है जो इससे जुड़े हैं । होली और हास्य को लेकर कुछ लोग असहज मेहसूस करते हैं, ये स्वभावगत होता है । किन्तु मेरे जैसे लोगों को क्या किया जाये जो होली और हास्य के लिये पागल हैं । हां ये ज़ुरूर कोशिश रहती है कि किसी को ठेस न लगे किसी को चुभे नहीं । फिर भी बात वही है कि चूंकि हास्य, मजाक जैसी चीजों को लेकर कुछ लोग सहज नहीं होते हैं तो उनको शिष्ट हास्य भी चुभ जाता है । यदि पिछले तीन चार अंकों में किसी को भी कुछ भी बुरा लगा हो तो उसके लिये मन से क्षमा । क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पान । राकेश खंडेलवाल जी और तिलक राज कपूर जी की कुछ हास्य रचनाएं जो होली की पीडीएफ में शामिल थीं उनके साथ आज हम समापन करते हैं ।
श्री एवं श्रीमती राकेश खंडेलवाल जी
मिली धमकी अचानक ही हमें ईमेल के जरिये
जिसे भेजा रूआबों से मियाँ पंकज सिहोरी ने
तरही के वास्ते कुछ तो हमें लिखना पड़ेगा अब
मचायेंगे वो हंगामा,नया इस बार होली में
लगा यूँ छेड़ दी है एक दुखती रग किसी ने आ
उमड़ कर आगये कालेज के दिन फिर बने बादल
उमंगों की रवानी जब बहा करती शिराओं में
नयन हर रोज खड़काते नयन के द्वार की सांकल
गली में एक पनवाड़ी जहाँ महफ़िल सजा करती
सभी सहपाठियों की सांझ की दहलीज पर आकर
जहाँ सब नाजनीनों को दिया करते थे अपना दिल
नये अन्दाज़ से गाने, नई फ़िल्मों के गा गाकर
वहीं इक रोज देखी थी पड़ोसन की ननद हमने
उछल कर आ गया था दिल गले में एक झटके से
मुहब्बत का असर ऐसे अचानक हो गया हम पर
गये रह हम कि जैसे हों किसी खूँटी पे लटके से--
सजा कर तश्तरी में दिल नजर उसकी किया हमने
हजारों स्वप्न इक पल में उसी लम्हे सजाये थे
लगा बस मिल गई है मंज़िले मकसूद अब हमको
तमना जिसकी लेकर के बहुत से गीत गाये थे
वो होली थी लिखा उसको प्रथम खत प्रेम का हमने
नजर मिलते ही खिड़की पर इशारा था किया इसको
बना कर एक गुलदस्ता रखा चौखट पे जा उसकी
लिखा था सांझ ढलते ही मिले तो पूर्ण हर विश हो
उंड़ेली सांझ को अत्तार की दूकान ही खुद पर
नदी के तीर पर जाकर खड़े थे नीम के पीछे
उमीदों के घड़े भर कर कि हो दीदार चन्दा सा
तमन्ना थी कि चुपके से वो आये आंख आ मींचे
हुई कुछ सरसराहट सी उमंगें हो गईं ताजा
पगों की चाप, ढोलक पर लगाता थाप हो कोई
धुंधलके के धुंआसे में कई परछाईयां उभरी
नजर थी पार नदिया के कहीं पर दूर थी खोई
लगीं दोहत्थियां धप से अचानक पीठ पर आकर
किसी ने बाल अपनी मुट्ठियों में भींच कर खींचे
वो टोली आठ दस की थी दबे कदमों से जो आकर
हुई तत्पर हमें अपने शिकंजे में जकड़ भींचे
समझ में एक पल को तो नहीं कुछ भी हमें आया
हमारे होश के कौये गगन की ओर थे भागे
धपाधप थप्पड़ों की बोलियां गूँजी हवाओं में
हमारी पीठ पर थे,दर्द पा हम सोच से जागे
वो आशिक थे पड़ोसन की ननद के बोले धमकाकर
अबे किस खेत की मूली, इशक उससे लड़ाता है
दिखाई बन्द कर देना, गली के मोड़ पर जैसे
गधे के शीश पर दिख सींगकोई भी ना पाता है
हजारों लात घूँसे थप्पड़ो के रंग में भीगे
ठिठुरते काँपते उस रोज हम होली मनाते थे
सभी बरसानियाँ लाठी हमारी पीठ चूमे हैं
पलों की करवटों पर हम यही बस जान पाते थे
बरस बीत मगर होली के आते ही अचानक ही
वही माहौल आकर आँख में डेरा जमाता है
हमें घेरे हुये हुड़दंगियों की है बड़ी टोली
कोई जूता चलाता है कोई चप्पल जमाता है
ये तरही का बहाना ले, असल सीहोरिया साजिश
बड़े ही शान से लाकर यहाँ चौसर बिछाती है
ठठाती फ़ेंक कर पासे-नयन अपने नचा पूछे
कहो क्या चप्पलों की आज तक भी याद आती है
श्री तिलक राज कपूर जी
यह हज़लनुमा रचना मैनें तब कही थी जब ग़ज़ल का अ ब स भी मुझे नहीं आता था। इसे यथावत् 1986 के रूप में प्रस्तुलत कर रहा हूँ।
इसकी पृष्ठा भूमि यह है कि पत्नी मायके गयी हुई थी। उस ज़माने में चैट-इन्ट रनैट तो क्या फ़ोन पर भी बात करना दूभर था तो इसी रदीफ़, काफि़या और मीटर पर तीन ग़ज़लें पत्र में भेजी थीं। यह अंतिम थी और परिणाम की कल्प ना आप कर ही सकते हैं।
तेरे बारे में भला क्या सोचता हूँ क्या लिखूँ
रात भर तकिये पे किसको चूमता हूँ क्या लिखूँ।
जब से तू मैके गयी है, भूलकर खुद का पता
राहगीरों से पता क्यूँ पूछता हूँ क्या लिखूँ।
तू जो थी तो दो चपाती भी न खा पाया कभी
अब तेरे पीछे मैं क्या-क्या सूतता हूँ क्या लिखूँ।
प्याज़ काटूँ जब कभी तो ऑंख से ऑंसू बहें
कितनी मुश्किल से मैं आटा गूँधता हूँ क्यां लिखूँ।
षोडशी बाला कोई जब तंग कपड़ों में दिखे
फ़ाड़कर दीदे उसे क्यूँ घूरता हूँ क्या लिखूँ।
जब पड़ोसन के नयन के बाण संध्याँ को चलें
रात भर फि़र बेवजह क्यूँ खॉंसता हूँ क्याँ लिखूँ।
मुस्करा कर देख ले गर सुन्दरी महिला मुझे
कितनी उम्मीदें मैं उससे बॉंधता हूँ क्या लिखूँ।
और एक हास्य कविता (वास्तविक घटना पर आधारित)
आज शाम
साहब के कुत्ते ने मुझे काट खाया
चूँकि साहब सामने थे,
इसलिये मैं मुस्कराया।
मैं बोला,
साहब, ये कुत्ता कहॉं से पाया है।
वो बोले,
पत्नी के साथ दहेज में आया है।
मैनें कहा,
साहब, इसे अपने संस्कार सिखलाईये।
ये हीरे से कम नहीं है,
इसे ये बात समझाईये;
कि,
भविष्य में किसी कवि को काटा
तो पागल हो जायेगा।
अभी तक तो सिर्फ़ भौंकता है
फि़र कविता सुनायेगा।
आनंद लीजिये हास्य की इन तीनों रचनाओं का और दाद देते रहिये । मिलते हैं अगले अंक में कुछ और जानकारियों के साथ ।
भाई पंकजजी, इस बार जिस धूम से बहार आयी कि दिखा टेसू कुछ और ललिया गये हैं; सरसों को हल्दी लगी, कुछ और पियरा गयी है; चने की झाड़ कुछ और बड़ी दिखी, हम मताये खूब चढ़े. और.. और गुणीजनों के साथ सुर में सुर लगा हम भी हजलियाते दीखे.
जवाब देंहटाएंआप द्वारा मान दिया जाना और पारिवारिक जनों द्वारा स्वीकार्य होना, भाईजी, भावुक कर गया. ऋतु तो अब ’हे रामा’ के टेर में चैता गाने लगी है. हम सभी कुछ और सस्वर हों.
आदरणीय राकेशजी और तिलकराज जी के कहे पर हमभी बुक्का फाड़े फगुआ को बिदाई दे रहें हैं.
सादर
सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
Aadrniya Pankaj ji ...........dono rachnayen bahut sundar hain........
जवाब देंहटाएंRakesh ji.......
tilak ji .........aap dono ko tahedil se shukriya hasay se bharpur rachna dene k liye......
हृदय से आभारी हूँ, पंकज भाई का मर्यादित मंच संचालन के लिये, रचनाकारों का सक्रिय भाग लेने के लिये, टिप्पणीकारों का प्रोत्साहक टिप्पणियों के लिये।
जवाब देंहटाएंकाव्य रस दुधारी तलवार पर चलने की तरह होते हैं, जरा सी चूक हुई रस कड़वाहट पैदा कर देता है, ऐसे में इस इस खूबसूरती से सब कुछ सम्पन्न हुआ कि कोई भी विपन्न नहीं हुआ, आसन्न नहीं हुआ; यही आनन्द रहा इस तरही का।
एक बार पुन: सबको बधाई।
समापन रचनाओं का क्या कहना ... अभी अभी बीती होली की यादें दुगनी कर दीं ...
जवाब देंहटाएंये म्य्शायरा कई मायनों में यादगार रहा ... गज़लों के साथ साथ टिप्पणियों और प्रति-टिप्पणियों ने भी होली की हुड्गुदी और तेज करा के दम दिया ... आपके कुशल संपादन ने चुस्ती, हास्य, रोचकता और मर्यादा को बरकरार रखा ... इस सफल संचालन पे बबुत बहुत बधाई और होली की शुभकामनायें ... अगली तरही का अब सबको इन्तेज़ार है ...
वाह..आनन्द आ गया।
जवाब देंहटाएंइस बार का होली मुशायरा हास्य से भरपूर, कलात्मक विविधताओं से सराबोर, मनोरंजक और ऐतिहासिक रहा.
जवाब देंहटाएंपी.डी.एफ तो एक यादगार संकलन के रूप में रहेगा.
आदरणीय राकेश जी एवं तिलक जी ने अंतिम पन्ने को लाजवाब बना दिया है.
व्यापक प्रस्तुति और यूनिक संचालन के लिए आदरणीय सुबीर जी की जितनी भी प्रशंशा की जाये वो कम ही कहलाएगी.
:) सभी साथियो को रस प्रतिस्पर्धा के लिए बहुत बहुत बधाई!
खंडेलवाल जी और तिलक जी की रचनाएँ आनंदमयी हैं खासतौर पर तिलक जी की गज़ल का चौथा शेर और मक्ता अच्छा लगा ! अब क्योंकि बसंत की आहट हो रही है तो क्योँ न रोमानियत के रंगों में सराबोर मुशायरा हो जाये !निर्णय तो पंकज जी ही ले सकते हैं,हम तो केवल राय व्यक्त कर सकतें हैं !
जवाब देंहटाएंशानदार शुरुआत, शानदार मध्यकाल, शानदार समापन, शानदार संचालन, शानदार रसास्वादन, सब कुछ शानदार रहा। सबको बधाई। अश्चिनी जी की बात का घनघोर समर्थन।
जवाब देंहटाएंवाह... वाह... वाह...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.... बहुत बहुत बधाई.....
आपकी सभी प्रस्तुतियां संग्रहणीय हैं। .बेहतरीन पोस्ट .
जवाब देंहटाएंमेरा मनोबल बढ़ाने के लिए के लिए
अपना कीमती समय निकाल कर मेरी नई पोस्ट मेरा नसीब जरुर आये
दिनेश पारीक
http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/04/blog-post.html