मंगलवार, 22 मार्च 2016

कल पांच शायरों ने होली का रंग जमाया तो आज चार शायर आ रहे हैं उस सिलसिले को आगे बढ़ाने।

सबसे पहले यह ज़रूरी काम
मैं अत्‍यंत कड़े शब्‍दों में Nusrat Mehdi को लेकर भोपाल के शायर मंज़र भोपाली द्वारा कही गई बात तथा अभद्र भाषा की निंदा करता हूँ। विचारधारा की टकराहट में यदि हम भाषा का संयम नहीं रख पा रहे हैं तो फिर हम साहित्‍यकार कहलाने के योग्‍य नहीं हैं। जब हम विचार शून्‍य स्थिति में आ जाते हैं तभी हम गालियों तथा अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं। हमारी भाषा यह बताती है कि हमारे पास अब तर्क नहीं बचे हैं, हम अपने विचारों के पक्ष में तथा अपने सामने वाले के विचारों के प्रतिपक्ष में कुछ भी कह नहीं पा रहे हैं। चिंता का विषय तब होता है जब समाज को दिशा दिखाने वाला साहित्‍य समाज इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करने लगता है। चूँकि विचारधाराओं की टकराहट में भाषा का संयम, समाज साहित्‍यकारों से ही सीखता है इसलिये साहित्‍यकारों के लिये और भी आवश्‍यक होता है कि वे क्रांतिक समय में सचेत रहें। यह सावधानी उस समय और अधिक रखनी होती है जब आप किसी महिला को लेकर कोई टिप्‍पणी कर रहे हों। मंज़र भोपाली ने जो कुछ भी कहा वह घोर निंदनीय है। नुसरत मेहदी को लेकर जिन गंदे शब्‍दों का उपयोग भोपाल के एक सार्वजनिक साहित्यिक (?) मंच पर मंज़र भोपाली ने किया वह अक्षम्‍य है। नुसरत मेहदी हमारे समय की एक महत्‍त्‍वपूर्ण लेखिका हैं। उनकी ग़ज़लों में उनके लेखन में स्‍त्री की स्‍वतंत्रता तथा उसके प्रतिरोध मुखर होकर सामने आते हैं। ''आप शायद भूल बैठे हैं यहां मैं भी तो हूँ'' जैसी ग़ज़लों से पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देने का काम उन्‍होंने किया है। एक बात जो मैंने देखी है साहित्‍य की दुनिया में वह यह कि पुरुष लेखक यह मानने को तैयार ही नहीं है कि स्‍त्री भी लिख सकती है। सुभद्र कुमारी चौहान से लेकर परवीन शाकिर तक हमेशा पुरुष लेखक इस बात की चर्चा में लगे रहते हैं कि यह लेखिका किससे लिखवाती है। वह यह मानने को ही तैयार नहीं रहते कि कोई स्‍त्री स्‍वयं भी लिख सकती है। जब कोई सूत्र नहीं मिलता तो चरित्र हनन तो एक सीधा उपाय है ही। मेरा मानना है कि इस मामले के सारे ठोस सबूत उपलब्‍ध हैं, ऐसे में Nusrat Mehdi जी को कानून का सहारा लेना चाहिये और अंत तक इस लड़ाई को लड़ना चाहिये। यही सबसे ठीक उत्‍तर होगा।

आइये इस ज़रूरी काम के बाद हम आगे बढ़ते हैं आज के मुशायरे की ओर। आज हम होली के त्‍योहार को आगे बढ़ा रहे हैं। चार गुणी शायरों के साथ। तीन हमारे चिर परिचित हैं और चौथे हमारे चिर परिचित के सुपुत्र हैं। आज जो चार शायर आ रहे हैं वे हैं धर्मेंद्र कुमार सिंह, दिगंबर नासवा, सौरभ पाण्‍डेय और अंशुल तिवारी। इनमें अंशुल तिवारी मुकेश तिवारी जी के सुपुत्र हैं जिनकी ग़ज़ल आपने कल सुनी। इनका पहला कदम है सो स्‍वागत कीजिये मन से। 

हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे

 
सौरभ पाण्डेय
आ गये अचानक ही छम-से वो खुशी जैसे
यों लगा मुझे पल भर, रुक गयी घड़ी जैसे !

याद है मुझे उनका बादलों-सा बिछ जाना
गेसुओं में  उलझें हम चाँद फागुनी जैसे

भोर के धुँधलके में अनमने पड़े हैं हम
जग रहे इशारे हैं राग भैरवी जैसे

दे रहे हैं होठों से वो नरम-नरम अहसास
गर्म चाय के कप की चुस्कियाँ भली जैसे

वो यहीं कहीं हैं क्या.. घुल रही है सरगम-सी..
’हौले-हौले बजती  हो,  बाँसुरी  कोई  जैसे !!’

मार्च के महीने में  गुलमुहर-पलाशों  के
अंग अदबदाये हैं  कनखिया हँसी जैसे

हम न हों मगर दर पर, साँझ-दीप रखना तुम
राबिता रहे अपना मौत-ज़िन्दग़ी जैसे

आ गये अचानक ही छम से वो खुशी जैसे, वाह क्‍या कमाल की तुलना है। खुशी जैसे । वाह। मतले को लेकर जो उलझन थी लोगों की कि दोनों मिसरों में जैसे कैसे आएगा तो देखिये ऐसे आएगा। बादलों से बिछ जाना, उफफ क्‍या कर डाला महोदय। इस प्रयोग पर वारी वारी। भोर के धुंधलके में अनमने कमाल कमाल। कहां से लाते हैं यह प्रयोग। मार्च के महीने में अदबदाना, सौरभ जी आपकी ग़ज़लों की प्रतीक्षा ही रहती है किसी न किसी देशी शब्‍द का प्रयोग सुनने के लिये। और यह अदबदाना, मार डाला। गिरह का शेर भी बहुत खूब बन पड़ा है। बहुत ही कमाल की ग़ज़ल है । वाह वाह वाह। अति सुंदर।


धर्मेन्द्र कुमार सिंह

थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे
फिर तो चन्द लम्हे भी हो गये सदी जैसे

चाँदनी से तन पर यूँ खिल रही हरी साड़ी
बह रही हो सावन में दूध की नदी जैसे

राह-ए-दिल बड़ी मुश्किल तिस पे तेरा नाज़ुक दिल
बाँस के शिखर पर हो ओस की नमी जैसे

जान-ए-मन का हाल-ए-दिल यूँ सुना रही पायल
हौले हौले बजती हो बाँसुरी कोई जैसे

मूलभूत बल सारे एक हो गये तुझ में
पूर्ण हो गई तुझ तक आ के भौतिकी जैसे

ख़ुद में सोखकर तुझको यूँ हरा भरा हूँ मैं
पेड़ सोख लेता है रवि की रोशनी जैसे

एक बार फिर से वही बात कि जिन लोगों को मतले में जैसे का प्रयोग दोनों मिसरों में करने में कठिनाई आ रही थी वह ये देखें। ग़ज़ब प्रयोग किया है। कमाल का शेर है अगला । सावन में दूध की नदी बहने का प्रयोग मेरे विचार में पहली बार किया गया है। क्‍या ही कमाल का प्रयोग है । मेरी तो आंखों के सामने घूम भी गया। गिरह के शेर में मिसरा उला बहुत ही नफ़ासत के साथ बुना गया है। बहुत नाज़ुक और बहुत सुंदर। और हां हम तो भूल ही जाते हैं कि शायर तो इंजीनियर भी है तो लीजिये भौतिकी का एक कमाल कमाल प्रयोग। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, वाह वाह वाह।
 

दिगंबर नासवा

रात के अँधेरे में, धूप हो खिली जैसे
यूँ लगे है कान्हा ने, रास हो रची जैसे

ज़ुल्फ़ की घटा ओढ़े, चाँद जैसे मुखड़े पर
बादलों के पहरे में, सोई चांदनी जैसे

सिलसिला है यादों का, या धमक है क़दमों की
होले-होले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे

चूड़ियों की खन-खन में, पायलों की रुन-झुन में
घर के छोटे आँगन में, जिंदगी बसी जैसे

यूँ तेरा अचानक ही, घर मेरे चला आना
दिल के इस मोहल्ले में आ गयी ख़ुशी जैसे

दुश्मनी भुला के सब, दिल से दिल मिलाते हैं
बैर सब मिटाने को, होली है बनी जैसे

बहुत ही कमाल के मतले के बाद का शेर उफ उफ बना है। क्‍या क्‍या कमाल के बिम्‍ब एक ही शेर में उतार लिये गये हैं। चांद चांदनी बादल जुल्‍फ नींद। किसी ने सच ही कहा है सच्‍ची कविता वह होती है जो आंखों के सामने तस्‍वीर खींच दे। और चूडि़यों की खन खन तथा पायलों की रुन झुन में घर में घूमती जिंदगी का शेर तो मानो एक पूरा का पूरा दृश्‍य है। आंखें बंद कीजिये और इस दृश्‍य का मज़ा लीजिये। गिरह भी बहुत ही सुंदर तरीके से लगाई गई है। यूँ तेरा अचानक ही घर मेरे चले आना, इस अचानक से जो खुशी मिलती है उसको बहुत खूब लिया है शेर में। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।
 

अंशुल तिवारी
मुकेश कुमार तिवारी के सुपुत्र अंशुल तिवारी, मैकेनिकल इंजिनियर है और मान ट्रक्स एण्ड बसेस (इ) प्रा. लि., पुणे(महाराष्ट्र) में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं...

इश्क लेके आया है ताजगी नई जैसे
धुन कोई नई सी है दिल में बज रही जैसे

जिंदगी में सब कुछ है, अब नहीं कमी कोई
स्‍वप्‍न से भरी आंखें आज शबनमी जैसे

मन की सूनी गलियों में अब सुरों का है मौसम
हौले हौले बजती हो बाँसुरी कोई जैसे

मीठी धूप फैली है दिल में, घर में, आँगन में
घर में है उतर आई चाँद की परी जैसे

तुमको पाके जाना है जिंदगी का ये मतलब
तुम तलक ही जाते हैं रास्‍ते सभी जैसे

यह हमारी ग़ज़ल का सबसे युवा स्‍वर है तो ज़ाहिर है इस युवा स्‍वर के बिम्‍ब भी नई पीढ़ी के होंगे। लेकिन अंशुल ने दो समयों में संतुलन साधा है और सुंदरता के साथ साधा है। मतला बहुत ही अच्‍छे से गढ़ा है। इस उम्र में दिल में धुन बजना बहुत सी स्‍वाभाविक सी बात है। बात गिरह के शेर की, मेरे विचार में यह इस मिसर पर लगाई गई सबसे अच्‍छी गिरहों में से एक है। एक पूरा चित्र सुरों का मौसम बहुत ही खूब है। मीठी धूप में प्रेम का बहुत खूबसूरत मंज़र सामने आया है। और उतना ही सुंदर प्रेम है अंतिम शेर में भी जब सारे रास्‍ते एक ही दिशा में जाने लगें । वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।


तो मित्रों यह हैं आज के रचनाकारों की ग़ज़लें । चारों ने बहुत ही कमाल की ग़ज़लें कही हैं। बहुत कमाल। होली का मूड बना दिया है। तो आप भी आनंद लीजिये और खुल कर दाद दीजिये इन रचनाकारों को। कल होली के दिन हम मिलते हैं कुछ और रचनाकारों के साथ। होली है।
 

49 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बात में दम है. मंज़र भोपाली की जितनी निंदा की जाए , कम है. सभी शायरों को होली की बधाई . इस बार न जाने क्यों ग़ज़ल उतरी ही नहीं, सो चाह कर भी कुछ भेज न पाया.इसका दुःख है. अब अगले साल

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  2. ''जैसे'' रदीफ़ के साथ मत्ले का शेर बॉंधना सरल नहीं पर बहुत खूबसूरती से चारों ग़ज़ल में बॉंधा गया। शेष के लिये शाम को फिर आता हूँ।

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  3. शर्म आनी चाहिये मंज़र भोपाली और उन के जैसे लोगों को यूँ तो बहुत अश’आर लिखे उन्होंने बेटियों के लिये क्या यही इज़्ज़त है बेटियों की ? "बेटियों के भी लिये हाथ उठाओ लोगो " कैसे उठें हाथ जब इतनी अभद्र्ता का प्रदर्शन करने वाले समाज में मौजूद हों ? स्वयं को साहित्यकार कहते हैं ,,मैं पूछती हूँ ये कौन सा साहित्य ,कौन सा अदब है ? मैं उन के इस कृत्य की कड़े से कड़े शब्दों में निन्दा करती हूँ

    ग़ज़ल के लिये फिर आती हूँ

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  4. सबसे पहले तो आजके पोस्ट की भूमिका पर अपनी सम्मति ’फिर से’ दूँ ।
    शाइरों की ग़ज़लों पर फिर से आऊँगा ।
    --
    अभी कल सायं की ही बात है, पंकज भाई । एक कार्यक्रम के सिलसिले में फोन पर भोपाल के एक आत्मीय के साथ मेरी बातचीत हो रही थी । भोपाल शहर से सम्बन्धित ग़ज़ल विधा में स्थापित रचनाकारों की बात चलने लगी । उसी क्रम में नुसरत दीदी का भी अनायास ज़िक़्र हुआ । हमने कहा कि जिस उदार, नम्र किन्तु विचारों से दृढ़ व्यक्तित्व में गरिमा और बड़प्पन अत्यंत सहजता से समाहित हों, जिनके सामने पड़ते ही स्वयं को ले कर मन में उच्चता के भाव जगने लगें, वो दीदी हैं हमारी नुसरत आपा । उनके प्रति हमारे मन में अगाध श्रद्धा के भाव हैं ।

    और अभी.. आपके पोस्ट से ऐसे असंयत, उच्छृंखल, अभद्र व्यवहार करते घटिया शख़्स की चर्चा हुई है, जिसको सुन कर हमारे मन में जुगुप्साकारी भाव भर गये हैं ! सही कहिये तो हम दंग हैं, पंकजभाई ।

    दीदी हमारे बीच गरिमा स्वयं पर्सोनिफ़ाइड हैं, जिनसे अनुप्राणित हुए हम ऊर्जस्वी महसूस करते हैं । घर-समाज में दीदियों का होना आदमी की तमाम लापरवाहियों को लगाम हुआ करता है । लेकिन कोई आदमी हो तब !

    किसी ने ’क्या कहा’ की जगह, ऐसा शख़्स किस सोच के वशीभूत कुछ कहता है, हम इस पर हम मनन करें और तदनुरूप व्यवहार करें । आपके पोस्ट के माध्यम से हम ऐसे निन्दनीय विचार-वाहकों का घोर विरोध ही नहीं करते, बल्कि लानत भेजते हैं ।

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  5. ये मंज़र भोपाली है किस चिड़िया का नाम ? और ये जनाब होते कौन हैं नुसरत जी के बारे में अभद बात कहने वाले ? कोई मवाली ही रहे होंगे जो शायर का भेस बदल कर लोगों को उल्लू बनाता आ रहा है , भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया ! काश मुझे मामले की पूरी जानकारी होती पर आपने अगर किसी पर अंगुली उठाई है तो फिर वो कोई हो, ताड़न का अधिकारी होगा ही।

    लौटते हैं तरही पर , कहाँ अबीर गुलाल के बीच कीचड़ का जिक्र छेड़ बैठे हैं ,
    सौरभ भाई कहाँ हो ? गले लग जाओ भाई - जियो !!! क्या ग़ज़ल कही है ? वाह वा हम बिछ गए बादलों से आपके क़दमों पर।
    धर्मेन्द्र जी के मतले ने और सावन में दूध की नदी बहा कर चमत्कृत कर दिया !! बेजोड़ ग़ज़ल भाई वाह
    संगीत के सुरों की बरसात करती इस सितार सी बजती ग़ज़ल के लिए दिगंबर जी की जय हो , एक एक शेर रस की चाशनी से भीग हुआ - वाह वा
    तुम तलाक ही जाते हैं रास्ते सभी जैसे - इस नए हस्ताक्षर का स्वागत है ! वैसे भी एक इंजीनियर जब ग़ज़ल कहेगा तो कुछ हट के ही कहेगा - मैं अपनी नहीं मुकेश की बात कर रहा हूँ - जियो बेटा - और लिखो

    नीरज

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    1. नीरज भाई ज़िन्दाबाद !
      तोतली ज़ुबान में मेरा बड़े लोगों वाली बातें करना भाया.. हा हा हा..
      शुक़्रिया भाई साहब.. तो फिर होली का मज़ा लीजिये !
      :-))

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  6. आज की पोस्ट की शुरूआत जिस मुद्दे से हुई है, उस पर ऐसी बेबाक और ऐसी गंभीर सोच ही इस मंच की शोभा बढ़ाती हैं.....

    आज कि गजलों में सौरभ पाण्डेय जी का निराला मूड....वाह

    धर्मेन्द्र जी का भौतिकी का पूरा हो जाना.....

    दिगम्बर नासवा जी के कोमल भाव यूँ अचानक घर चले आना या पायल की रुन-झुन...वाह

    गुरू पारस ही होतें हैं...अपने स्पर्श मात्र से ही लोहे को कंचन बना देने की खूबी होती है.....यही कुछ मेरे मन में था तभी मैंने अंशुल से तरही का जिक्र छेड़ा और यह सुझाव दिया कि फेस्बुक पर तो तुम्हें वाह वाह मिलेगी ही भले ही तुम कोरा कागज पोस्ट कर दो लेकिन जो सीखने को मिलेगा वो जगह यहाँ है गुरू परिवार में....

    आप सभी के आशिर्वचन उसे मिलें, आप सभी का सानिध्य उसे सिखाए यही कामना हैं...

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  7. होली क़ब्ल ही 'मंज़र', बन के चल गये ख़ंजर
    क़त्ल ख़ुद को कर बैथे, आबरू गई जैसे.

    'जीत' ही तो 'नुसरत' है, कोई क्या हरायेगा
    सुर्ख़-रू हुई 'मेहदी', शान बढ़ गई जैसे

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  8. सौरभ पाण्डेय:

    वो यही कही है क्या...
    विस्मय भरी पंक्ति! विस्मित करता शेर (तरही को बांधने वाला)

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    उत्तर
    1. तहे दिल से शुक़्रिया जनाब मन्सूरी हाशमी साहब !

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  9. थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे
    फिर तो चन्द लम्हे भी हो गये सदी जैसे
    वाह! धर्मेन्द्र जी.
    पर्व तो है रंगो का, रस में डूबे बैथे है
    मिल गई शहद की है, आपको नदी जैसे!

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  10. दिगम्बर नासवाजी:
    सिलसिला है यादों का, या धमक है क़दमों की
    होले-होले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे

    (यादों का सिलसिला है कि आहट है क़दम की
    क्या खूब गिरह बांधी है मिसरे पे ग़ज़ल की )

    जवाब देंहटाएं
  11. दिगम्बर नासवाजी:
    सिलसिला है यादों का, या धमक है क़दमों की
    होले-होले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे

    (यादों का सिलसिला है कि आहट है क़दम की
    क्या खूब गिरह बांधी है मिसरे पे ग़ज़ल की )

    जवाब देंहटाएं
  12. अंशुल
    तुमको पा के जाना है जिंदगी का ये मतलब
    तुम तलक ही जाते हैं रास्‍ते सभी जैसे

    (शायरी की महफिल में आपका स्वागत है
    आ के यां पे मिटते है, फासले सभी जैसे.)

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  13. धर्मेन्द्रजी के मतले से जो तस्वीर उभरी है वह निहायत मीठी है ! शुगर न हो जाये !
    और अगले ही शेर में दूध की जैसी गदबदायी हुई नदी बही है, कि हम द्वापर में ही पहुँच गये हैं । आपकी भौतिकी-प्रियता तो सबके सामने आ गयी, लेकिन जिस तरह से आप ’क्लोरोफिल’ की हरीतिमा को घूँट-घूँट निगल कर लगातार तृप्त हुए हरे-भरे होते गये हैं, और आखिरी शेर में ’प्रकाश-संश्लेषण’ की प्रक्रिया का जैसा बखान हुआ है, इसे भी रेखांकित किया जाना ज़रूरी था ! एक ’प्रेमी’ यदि ’बोटैनिक’ भाव रखता हो, तो उसकी आश्वस्ति-प्रक्रिया भंगिमाओं को कैसे ’चबा-चबा’ के आनन्द लेगी, इसका अद्भुत उदाहरण है, धर्मेन्द्र भाई का आखिरी शेर ! वाह भाई वाह ! प्रकृति की सँज्ञाओं से आपने बढ़िया होली खेली है.. शुभ-शुभ !

    दिगम्बर नासवा जी ने जिस खूबसूरती से ’रात के अँधेरे’ में ’धूप की चकाचौंध’ को साझा किया है वह अनुपम है । जिस मनोयोग से आपकी ग़ज़ल में प्राकृतिक दृश्यावलियों का बिम्बात्मक प्रयोग हुआ है वह चमत्कृत करता है । इस बार का प्रदत्त ’मिसरा’ स्वयं में गुनगुनाता हुआ है, दिगम्बर भाई की ग़िरह का शेर मानों किंकिणियों तक के ’सस्वर’ होने का माहौल तारी करवा दिया है ! बहुत खूब भाई साहब ! आपके कई शेर खनखनाते, रुनझुनाते और गुनगुनाते हुए हैं !
    हार्दिक बधाइयाँ, दिगम्बरभाईजी..

    अंशुल तिवारी होली के बावज़ूद हम सभी ’चचाओं’ के सामने शिष्टवत उपस्थित हुए हैं, यह उनके संस्कार ही हैं । खुश रहेंं अंशुल जी ! पापाजी पूरी ठसक भरे बेजोड़ लऊर देहाती दम के मुखर ग़ज़लकार, तो बेटा सवा लग्गी की मानकीय डाँठ वाला शाइर ! वाह वाह !
    ग़ज़ल जब घुट्टी में हो तो ऐसी ही प्रस्तुतियाँ हुआ करती हैं । क्या पाँव दिखे हैं पूत के.. पालने में ही ! मतले ने ही अंशुल की ग़ज़ल का माहौल बना दिया है । मुग्धावस्था कितना निहाल कर देता है, ठीक अगला शेर ही इसे बखानता हुआ बन पड़ा है - ज़िन्दग़ी में सबकुछ है, अब नहीं कमी जैसे ! वाह-वाह ! .. और ये तक़ाज़ा भी - घर में उतर आयी, चाँद की परी जैसे ! क्या कमाल है साहब ! बहुत खूब ! वाह वाह ! तुम तलक ही जाते हैं रास्ते सभी जैसे ! बहुत उम्मीद जगा गये अंशुल जी !
    शुभेच्छाएँ

    ऐसे तेवर और अंदाज़ की ग़ज़लों के ग़ज़लकारों के साथ स्थान दे कर पंकज भाई, आपने हमें पता नहीं कहाँऽऽ चढ़ा दिया है ! वैसे हम यहाँ अटके-अटके खुश तो हो रहे हैं, अलबत्ता घबरा के डर भी रहे हैं ! ना ना, एक्रोफोबिया नहीं है । लेकिन रोमांच को हम बोलचाल की भाषा में ’घबराहट’ ही कहते हैं .. और घबराहट के मारे ’डर’ लगना स्वाभाविक ही है .. :-)))
    हार्दिक धन्यवाद आदरणीय ! होली की अनेकानेक शुभकमनाएँ
    शुभ-शुभ

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  14. सबसे ज़रूरी बात सबसे पहले, अगर कोई भी किसी के लिए वाहियात बात कहे मुझे नागवार गुज़रता है, किसी स्त्री के लिए तो बिल्कुल भी सहन नहीं होता!
    गज़ल के बारे मेॉ बाद में!

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  15. सौरभ जी जितना गज़लों में मज़ा आता है उतना ही नफ़ासत से लिखी टिप्पणियों में! आपकी टिप्पणी का खास इंतज़ार रहता है! होली मुबारक!

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    उत्तर
    1. और मुझे इंतज़ार रहता है आपकी गज़ल का ! ..
      शार्दुलाजी, सही कहूँ तो आप सभी से खूब खूब बतियाने का मन करता है, सो टिप्पणियों के द्वारा अपनी इच्छा पूरी करता रहता हूँ ।
      संवाद बना रहे ..
      होली की शुभकामनाएँ

      हटाएं
  16. मंज़र भोपाली के जिस बयां की बात आपने उठाई वह मैनें स्थानीय अखबारों में पढ़ी। सभी अख़बारों ने इस बयां की भर्त्सना की।
    मुझे आश्चर्य है की ऐसी घटिया बात कोई कैसे कह सकता है। उम्र के साथ मर्यादा की आवश्यकता बढ़ती जाती है। यह अपेक्षा का न्यूनतम स्तर होता है कि साहित्य सृजन से जुड़े व्यक्ति सामान्य अभिव्यक्ति में भी मर्यादाओं को समझें और उनका पालन करें।
    जो अभिव्यक्ति का स्तर अख़बारों के माध्यम से सामने आया है वह सामजिक बहिष्कार की मांग करता है।

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  17. नुसरत जी जैसे गरिमामयी व्यक्तित्व के लिए कुछ भी ग़लत कहने वाले की जितनी भर्त्सना की जाए कम है।
    वैसे भी सभ्य समाज में किसी महिला के लिए ग़लत शब्दों का प्रयोग करने वाले के मानसिक दिवालियापन व घटिया सोच का ही पता चलता है। नुसरत जी को जरूर इस इन्सान पर क़ानूनी कार्यवाही कर इसकी हदें समझानी चाहिए।

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  18. एक के बाद एक सुन्दर बिम्बों उपमाओं से सजी आज की सारी गजलों को पढ़ना ऐसा है जैसे रेशमी ग़लीचों पर चाँदनी रात मे गुलशन की सैर।
    किसी एक शेर को कोट कर दूसरे की महत्ता कम नही करना चाहती हर शेर बाकमाल हर ग़ज़ल लाजवाब। सौरभ जी धर्मेन्द्र जी दिगम्बर जी और अंशुल जी को इन बेहद खूबसूरत गजलों के लिए बहुत बहुत बहुत शुभकामनाएँ । इन्हें जितना बार पढ़ इनका आनन्द लिया जाए कम है।

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  19. आज की ग़ज़लें पढ़कर और नयी आमद देखकर आश्वस्त हूँ कि ग़ज़ल में अभी भी भविष्य बचा है और न केवल भविष्य बचा है वरन अभिनव प्रयोगों का एक ऐसा काल दिख रहा है जो इतिहास में अपनी जगह बनाएगा। कितनी नफासत और सलीके से रची गयी हैं ये ग़ज़लें।
    सौरभ भाई तो लगता है कि सतत् संलग्न रहते हैं शब्दों के मोती खीज-बीन कर लाने में।
    धर्मेन्द्र भाई नए नए सान्दर्भिक प्रयोगों के साथ उपस्थित हुए।
    दिगंबर नासवा जी की सादगी से बात कहने की शैली और अंशुल का आगमन अच्छा, लुभावना और आकर्षक हैं।

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  20. आज की ग़ज़लें पढ़कर और नयी आमद देखकर आश्वस्त हूँ कि ग़ज़ल में अभी भी भविष्य बचा है और न केवल भविष्य बचा है वरन अभिनव प्रयोगों का एक ऐसा काल दिख रहा है जो इतिहास में अपनी जगह बनाएगा। कितनी नफासत और सलीके से रची गयी हैं ये ग़ज़लें।
    सौरभ भाई तो लगता है कि सतत् संलग्न रहते हैं शब्दों के मोती खीज-बीन कर लाने में।
    धर्मेन्द्र भाई नए नए सान्दर्भिक प्रयोगों के साथ उपस्थित हुए।
    दिगंबर नासवा जी की सादगी से बात कहने की शैली और अंशुल का आगमन अच्छा, लुभावना और आकर्षक हैं।

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  21. अभद्रता असहनीय है अक्षम्य है।
    उसे तमीज़ नहीं है तो वो शायर कैसा?
    कौन सुने पढ़ेगा ऐसों ऐसों को?
    होली का ज़ायक़ा बिगाड़ के रख दिया।

    ख़ूबसूरत ग़ज़लों पर टिप्पणी के लिए फिर आता हूँ।


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  22. इस खूबसूरत पोस्ट में सभी युवा शायरों की शायरी अपने जादुई स्पर्श के साथ प्रस्तुत है। भाई सौरभ पाण्डे जी आपने अपनी ग़ज़ल में मार्च के महीने का जो सजीव चित्र प्रस्तुत किया है दिलोदिमाग पर छाया रहेगा। बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई।

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    उत्तर
    1. द्विजेंद्र द्विज भाई, आपसे मिली प्रशंसा भली लग रही है ! हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय..
      जय जय !

      हटाएं
  23. धर्मेन्द्र जी ग़ज़ल के इंजिनीयर हैं। अब उनका शायर और इंजिनियर हमदम हो कर जो जादू जगाता है,उसका असीर मैं भी हूँ। बहुत बहुत बधाई।

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  24. धर्मेन्द्र जी ग़ज़ल के इंजिनीयर हैं। अब उनका शायर और इंजिनियर हमदम हो कर जो जादू जगाता है,उसका असीर मैं भी हूँ। बहुत बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  25. इस खूबसूरत पोस्ट में सभी युवा शायरों की शायरी अपने जादुई स्पर्श के साथ प्रस्तुत है। भाई सौरभ पाण्डे जी आपने अपनी ग़ज़ल में मार्च के महीने का जो सजीव चित्र प्रस्तुत किया है दिलोदिमाग पर छाया रहेगा। बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई।

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  26. भाई दिगंबर नासवा साहब ग़ज़ल में सुन्दर दृश्यावली से जादू जगाने के लिए आभार।

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  27. भाई दिगंबर नासवा साहब ग़ज़ल में सुन्दर दृश्यावली से जादू जगाने के लिए आभार।

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  28. एक और ग़ज़लकार इंजिनियर अंशुल तिवारी जी आपके यहां भी ग़ज़ल का भविष्य सुरक्षित है। हार्दिक बधाई सुन्दर ग़ज़ल के लिए।

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  29. मंज़र भोपाली जी को एक बार दुबई में सुना था तो लगा था कमाल के शायर हैं ... पर नुसरत जी के प्रति उनकी टिपण्णी के बाद सोचता हूँ की क्या कुछ भी होने से पहले एक संवेदनशील इन्सान होना जरूरी नहीं ... क्या जिस वर्ग को सुन के लोग प्रेरित होते हैं उनकी जिम्मेदारी समाज में कुछ ज्यादा नहीं होती ... ऐसी गन्दी भाषा और वो भी साहित्यकार द्वारा और किस बात के लिए ... ऐसे शायर का सामाजिक बहिष्कार होना बहुत जरूरी है ...

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  30. आदरणीय सौरभ जी तो वैसे भी शब्द भण्डार हैं ... हर बार चौकाने वाली गजलों के माहिर हैं ...
    मैं तो मतले के शेर का ही आशिक हो गया ... अचानक से मिली ख़ुशी और उस घडी का रुक जाना ... गज़ब है सौरभ जी ...और नर्म नर्म एहसास में चाय की चुस्कियां ... आहा आनद आ गया और गिरह का शेर भी बहुत सादगी लिए ... जिंदाबाद सौरभ जी ...

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    1. दिगम्बर भाईजी, एक अरसे बाद मिलना हो रहा है ! अपने कहे पर ऐसी टिप्पणी पाना, उफ़्फ़ ! हार्दिक धन्यवाद, भाई !
      और भइया, ये ’नरम-नरम’ ही है न कि ’नर्म-नर्म’ ! ग़ुज़ारिश है, आप ज़रा चुभलाते हुए ’नरम-नरम’ बोलिये, फिर उस शेर का दम देखिये..
      होली है !
      :-))

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    2. नर्म ... नर्म ... आहा ... सच मिएँ नया एहसास हो रहा है ... वैसे पहले भी यही एहसास लिया था ... पर खो गया था उसमें इसलिए नरम नरम हो गया ...
      आपकी टिप्पणियाँ भी किसी ग़ज़ल से कम कहा होती हैं सौरभ जी ...

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  31. धर्मेन्द्र जी तो वैसे भी माहिर हैं रोज़मर्रा की चीज़ों से ग़ज़ल बुन्न्ने में ...हरी साड़ी, बंद के शिखर, पायल ... जैसे आस पास ही बिखरे हों ... हर शेर कमाल का और अलग कहानी कहता हुआ सा ... और फिर उन्होंने अपने इंजिनियर होने का भरपूर फायदा उठाते हुए कमाल का शेर दागा है ... भाई .. सुभान अल्ला ...

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  32. अंशुल तो पिता की विरासत को भरपूर निभा रहा है ... प्रेम और सादगी से लिपटे जबरदस्त पोसिटिव शेर बुने हैं उन्होंने ... गिरह का शेर जैसे सुरों का संगम ही है ... नयी ताजगी का एहसास लिए कमाल का आगाज़ है अंशुल जी का इस गुरुकुल में ... बहुत स्वागत है उनका ...

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  33. ग़ज़ब का मतला कहा है आदरणीय सौरभ जी ने। बिल्कुल छम से सामने आ जाता है और घड़ी एक पल को रुक जाती है। बादलों सा बिछ जाना.........क्या बात है। धुँधलके और अनमने शब्दों का प्रयोग देखिए। आदरणीय सौरभ जी की रचनाओं में शब्दों का अनूठा प्रयोग देखने को मिलता है। नरम-नरम अहसास में जो बात है वो "नर्म नर्म अहसास" में कभी नहीं हो सकती। गिरह लाजवाब। जिन दो अश’आर को चुराने का मन होता है वो मतला और गिरह का शे’र है। अदबदाये और मौत-जिन्दगी जैसा राबिता। कमाल है भाई कमाल। बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ जी को इस शानदार ग़ज़ल के लिए।

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    2. भाई धर्मेन्द्रजी, आपने तो नत कर दिया ! आप तो तीन से चार पंक्तियों में ही पूरी ग़ज़ल-यात्रा बखान बैठे ! वाह वाह !
      सही कहा आपने, भाईजी, ’नरम-नरम’ को एक विशेष भावदशा के तहत अटाया गया है. इसी कुछ ज़िक़्र हम अभी-अभी दिगम्बर नासवा साहब से कर रहे थे. लीजिये आपने उसे खोल ही दिया ! ’नर्म-नर्म’ वाकई ’नरम-नरम’ वाला अहसास नहीं दे सकता.
      भाई, आपने जिस ढंग से शब्दों की महत्ता समझी है, वह हमें वाकई उत्साहित कर रहा है.
      आपकी गुणग्राहकता मुग्धकारी है. आपको प्रयास अच्छा लगा है, यह जानना मेरे लिए भी आश्वस्तिकारी है.
      शुभ-शुभ

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  34. सिलसिला है यादों का...........क्या गिरह है। शानदार। चूड़ियों की खन खन में.........गजब का शे’र हुआ है। यूँ तेरा अचानक ही.....बहुत अच्छा शे’र है। बहुत बहुत बधाई आदरणीय नासवा जी जो इस शानदार ग़ज़ल के लिए।

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  35. अंशुल जी एक नई ताज़गी के साथ आये हैं लेकिन उनकी ग़ज़ल से ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा है कि वो पहली बार हमारे बीच आ रहे हैं। मन की सूनी गलियों में......क्या गिरह बाँधी है, लाजवाब। मीठी धूप और चाँद की परी भाई क्या कमाल का शे’र हुआ है। अंतिम शे’र के तो क्या कहने। इस शानदार ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई और आख़िरी शे’र के लिए विशेष रूप से।

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  36. मंज़र भोपाली जैसे लोगों की जितनी निन्दा की जाय कम है। मैं भी यही कहूँगा कि आदरणीया नुसरत जी को कानून का सहारा लेना चाहिए। ऐसे लोगों को दंड मिलना ही चाहिए ताकि दूसरे भी इससे कुछ सबक ले सकें।

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  37. दिगम्बर जी को तो पढती ही रहती हूँ .बहुत सुनदर रचनाएं होती हैं किन्तु बाकी तीन भी ताजगी भरी सुन्दर रचनाएं है .

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  38. दिगम्बर जी को तो पढती ही रहती हूँ .बहुत सुनदर रचनाएं होती हैं किन्तु बाकी तीन भी ताजगी भरी सुन्दर रचनाएं है .

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