सोमवार, 21 मार्च 2016

आइये होली के त्‍योहार का स्‍वागत करते हैं रंग बिरंगी ग़ज़लों से। होली है जी होली है रंग बिरंगी होली है।

मित्रो समय का एक और चक्र पूरा हो चुका है। होली का एक और त्‍योहार सामने आ गया है। होली जिसका नाम सुनते ही बचपन में हमारे अंग अंग में पलाश खिल जाते थे। खूब धमाचौकड़ी, खूब हंगामा और खूब धमाल का नाम होता था होली। उमर बढ़ती गई और हम बड़े होते गए। कभी आपने सोचा है कि इस बड़े होने की प्रक्रिया में हमने कितना कुछ खोया है। वह जीवन जो कि चिंता और फिकर से मुक्‍त होता था। जब हमें इस बात का बिल्‍कुल नहीं सोचना पड़ता था कि कल क्‍या होगा। जब हर आने वाला दिन हमें डराता नहीं था। तब कितनी उमंगे होती थीं। और आज स्थिति यह है कि हमने अपने बच्‍चों से भी वह उमंगें छीन ली हैं। उनको भी हमने एक अंधी दौड़ में शामिल कर दिया है। पैसा कमाने की अंधी दौड़ में। एक ऐसी दौड़ जिसका कोई अंत नहीं है। जिसमें आस पास देखने की सख्‍त मनाही है। यदि आस पास पलाश फूल रहे हैं, सरसों चटक रही है, महुआ गमक रहे हैं तो उनका बिल्‍कुल नहीं देखा जाए। यह सारी चीज़ें अवरोध हैं पैसा कमाने की उस दौड़ में। काहे की होली, किस बात की होली। हाइजीन का ध्‍यान रखो। बीमार पड़ जाओगे। रंगों से त्‍वचा खराब हो जाएगी। कुल मिलाकर यह कि जिंदगी को मत जिओ, दौड़ते रहो। जीवन भर पैसा कमाओ और उसके बाद एक दिन निकल लो, सारा पैसा अपने पीछे छोड़ कर। कोई पूछे कि पैसा क्‍यों कमाया जा रहा है तो कहेंगे कि जीवन अच्‍छे से जीने के लिये। फिर पूछो कि जीवन जी कब रहे हो तो कहेंगे कमा लें फिर जीएंगे। पता यह चलता है कि जी ही नहीं पाए और जाने की घड़ी भी सामने आ गई। तो मित्रों आप ऐसा मत करिये। देखिये कि वन में पलाश खिल उठे हैं। चारों ओर होली का उल्‍लास बरस रहा है ऐसे में दो चार दिन छोड़ भी दीजिये सारी चिंताएं और मन में उमंग जगा कर बच्‍चे बन जाइये। आज के दौर के बच्‍चे नहीं, हमारे दौर के बच्‍चे। 

चलिये तो आज हम होली के इस त्‍योहार को प्रारंभ करते हैं। जैसा कि आपको विदित है कि हम होली के दिन हंगामा भी करते हैं। सो सारा हंगामा होली के दिवस ही होगा। बाकी के दिन हम रचनाएं सुनेंगे । तो आज तरही का प्रारंभ करते हैं। आज हम पांच रचनाकारों के साथ तरही का शुभारंभ कर रहे हैं।

हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे





राकेश खंडेलवाल जी
बादलो के टुकड़े आ होंठ पर ठहरते हैं
किसलयो से जैसे कुछ तुहिन कण फिसलते हैं
उंगलियां हवाओं की छू रही हैं गालों को
चांदनी के साये आ नैन में उतारते हैं
बात एक मीठी सी कान में घुली जैसे
हौले हौले बजती  हो बांसुरी कहीं जैसे

टेसुओं  के रंगों में भोर लेती अंगड़ाई
चुटकियाँ गुलालों की प्राची की अरुणाई
सरसों के फूलों का गदराता अल्हड़पन
चंगों की थापों पर फागों की शहनाई
आती हैं पनघट से कळसियां भरी ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

उठती खलिहानों से पके धान की खुशबू
मस्ती में भर यौवन आता है नभ को छू
गलियों में धाराएं रंग की उमंगों की..
होता है मन बैठे ठाले ही बेकाबू
बूटों की फली भुनी मुख में घुली ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

लहराती खेतों में बासंती हो  चूनर
पांवों को थिरकाता सहसा ही आ घूमर
नथनी के मोती से बतीयाते बतियाते
चुपके से गालों को चूमता हुआ झूमर
याद पी के चुम्बन की होंठ पर उगी ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

वाह वाह वाह क्‍या कमाल का गीत है। उंगलियां हवाओं की छू रही हैं गालों को और उसके बाद चांदनी के सायों का नैन में उतरना। वाह ऐसा लगता है पूरा दृश्‍य चित्र बना दिया है लेखनी से। टेसुओं के रंगों में भोर लेती अंगड़ाई, वाह क्‍या कमाल का बिम्‍ब है । और पनघट से आती हुई भरी हुई कलसियों की तो बात ही क्‍या है, ग़ज़ब। याद पी के चुंबन की में जो होंठ पर उगने का प्रयोग है वह बहुत ही खूब है। वाह क्‍या कमाल किया है। प्रकृति और प्रेम को एकाकार करते हुए बहुत ही सुंदर रचना लिखी है राकेश जी ने। वाह वाह वाह।


सुलभ जायसवाल
हारते हैं हम बाज़ी, जीतती हुयी जैसे
हाथ में अजी साहब, मोम की छड़ी जैसे

आरजूएं चौखट पर, रात गीत गाती है
मीठा मीठा तीखा कुछ, दर्दे आशिकी जैसे

नाम उनका चादर पर लिख के हम बिछाते हैं
रात कटती है अपनी,  रात  मखमली जैसे 

कश्ती के मुसाफिर की, ख़्वाहिशें हजारों हैं 
दरिया से समंदर तक, चाल दुश्मनी जैसे

रात टूटे मन से और, भोर में जुड़े मन से
हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे

गर्म  गर्म जिस्मों पर, लेप है फरिश्तों का 
उजला उजला जैसा कुछ, रात चांदनी जैसे

ये करार कैसा है, ये करार कैसा है
उम्र भर करो इज्ज़त, रोज़ भुखमरी जैसे  

भांग कूट के लाये, गीत झूम के गाये 
भोजपुरिया होली में है 'सुलभ' सखी जैसे
सुलभ ने मतले में ही मोम की छड़ी का प्रयोग बहत ही अच्‍छा किया है। मुहावरों को इस प्रकार से कविता में उपयोग करना बहुत प्रभावकारी होता है। नाम उनका चादर पर लिखने का प्रयोग भी बहुत अच्‍छा है। किसी का नाम चादर पर लिखने से रात मखमली हो जाए यह तो संभव ही है। चांदनी को फरिश्‍तों का लेप बताने का विचार भी अच्‍छा है। अच्‍छी ग़ज़ल है । खूब ।


निर्मला कपिला जी
देखिये मुहब्बत ने ज़िन्दगी छ्ली जैसे
लुट गया चमन गुल की लुट गयी हंसी जैसे

अक्स हर  जगह उसका ही नजर मुझे आया
हर घडी  तसव्‍वुर  मे  घूमता  वही  जैसे

कोई तो जफा से खुश और कोई वफा में दुखी
सोचिये वफा को भी  बद्दुआ मिली जैसे

वो चमन में आए हैं, जश्‍न सा हर इक सू है 
झूम  झूम  नाचे  हर  फूल  हर कली  जैसे

खुश हुयी धरा देखी  रौशनी   लगा उसको
चांदनी उसी के लिये मुस्कुरा रही जैसे

बन्दिशे  इबारत में शायरी बड़ी मुश्किल
काफिये  रदीफों  से आज मै  लड़ी जैसे

उम्र भर सहे हैं गम दर्द मुश्किलें इतनी
हो न हो किसी की है  बद्दुआ लगी जैसे

पाप जब किये थे तब कुछ नहीं था सोचा पर 
आखिरी समय निर्मल आँख हो खुली जैसे
अक्‍स हर जगह उसका ही नज़र मुझे आया हर घड़ी तसव्‍वुर में घूमता वही जैसे, सचमुच प्रेम में यही तो होता है किसी चेहरा हर दम आंखों के सामने रहता है । बस वो ही वो दिखाई देता है। वाह। वो चमन में आए हैं में चमन के जश्‍न का बहुत सुंदर माहौल गढ़ा है । किसी के चमन में आने से पूरा का पूरा माहौल आपके लिये बदल जाता है। और यह बदलाव आप ही महसूस कर सकते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।



डॉ. संजय दानी

यारो मेरी महबूबा पास आ रही जैसे,
हुक्म मरने का मिलने वाला है अभी जैसे।

कृष्‍ण राधा का रिश्ता मुझको अच्छा लगता पर,
मेरी हमनशीं की सीरत है रुकमणी जैसे।

प्यार करता हूं पर ख़ामोशी मेरा गहना है,
करती है वो लेकिन व्‍यवहार बावरी जैसे ।

दिल पहाड़ों सा है मजबूत पीने के ख़ातिर,
पर खड़ी है बेलन लेकर वो पार्वती जैसे।

दारू के नशे में उनके कदम उठे कुछ यूं,
हौले हौले बजती है बांसुरी कोई जैसे ।

दानी भांग का सेवन करके गाय बन जाता ,
वो मचाती हुल्ल्ड़ ख़ूंख़ार शेरनी जैसे ।
संजय जी ने एक काम यह किया है कि मिसरे को दो खंडों में नहीं तोड़ा है और एक ही मिसरे के रूप में लिखा है। सबसे पहले तो गिरह के शेर की ही बात की जाए। सचमुच हौले हौले बांसुरी बजने को शराब के नशे में चलते हुए शराबी के कदमों से मिलाना जिगर की बात है। यह ऑब्‍जर्वेशन का ही काम है। कृष्‍ण और राधा के प्रेम में रुक्‍मणी को सब भूल जाते हैं लेकिन संजय जी ने रुक्‍मणी को याद रखा। बहुत ही अच्‍छा। वाह वाह वाह।


मुकेश कुमार तिवारी
जिन्दगी में लगती है कुछ न कुछ कमी जैसे
है कोई अधूरापन  साथ हर घड़ी जैसे

दर से तेरे लौटा हूँ खाली हाथ वापस मैं
मन्नतों मुरादों में कुछ कमी रही जैसे

लफ्ज जज्ब होते हैं देख के तेरा आलम
लग गई हो होंठों पर चुप्पी सी कोई जैसे

रात दिन यूँ आती है खुश्‍बू कोई दामन से 
दे गया वो चुपके से  झप्पी जादू की जैसे

मन पे रंग छाए हैं, आ गई है फिर होली 
फिर निगोड़े फागुन की तुरही बज गई जैसे

पायलों की छुन छुन छुन गूँजती है सूने में
हौले हौले बजती हो बाँसुरी कोई जैसे
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है मु‍केश जी ने। मतले में किसी के बिना जो अधूरापन होता है उसको बहुत ही अच्‍छे तरीके से चित्रित किया है। रात दिन यूँ आती है खुश्‍बू कोई दामन  से में बहुत अच्‍छे से खुश्‍बू के कारण को बताया है। मन पे रंगों का छाना और उसके बाद फागुन की तुरही का बज उठना। फागुन तो मानो आ ही गया है। और उस पर गिरह भी सुंदर लगी है। बहुत ही सुंदर वाह वाह वाह।
 
मित्रों तो यह हैं आज की रचनाएं। जो होली का माहौल बना रही हैं। इस माहौल को बनाए रखने के लिये आप सबका खुल कर दाद देना परम आवश्‍यक है। तो देते रहिये दाद और आनंद बनाए रखिये।

25 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! होली के दिन नियरा गये, ये कन्फ़र्न हो ही गया !
    पंज पियारों की टेर से होली की गजोली शुरु हो गयी ! ग़ज़ल की महीनी पर गीत की मादकता की मनभावन फुहार पड़ी है । या यों कहें, राकेश भाईजी ने अपना गीत टेरा तो ग़ज़लें पंक्तिबद्ध होती चली गयीं ! यहाँ सुर, स्वर, साज सब कुछ है ।
    निराली धुन में गीत गाते, बढ़ते राकेश भाईजी के साथ-साथ सुलभ भाई, आदरणीया निर्मला कपिलाजी, भाई संजय दानी जी और भाई मुकेश तिवारी जी को अशेष शुभकामनाएँ !

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  2. आहा! क्या संगीतमय शुरुआत है रंगीली होली की...श्री राकेश क्जन्देल्वाल जी, आदरणीया निर्मला कपिला जी, श्री संजय दानी जी और श्री मुकेश तिवारी जी आप सभी को होली की बहुत बहुत फुहार और बधाई !!

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  3. बादलों के टुकड़े आ होंठ पर ठहरते है .... आ हा क्या ही नर्म नाज़ुक अहसासों से भरा गीत और नज़ाकत नफ़ासत लिए एक के बाद एक ग़ज़ल ... बहुत खूबसूरत शुरूआत होली तरही की । माहौल बन गया ग़ज़लों गीतों भरी होली का। साथ में पंकज जी ने पुराने होली के दिनों की जो खिड़की खोली तो कंई रंग पुराने खिल उठे। बहुत शुभकामनाएँ राकेश जी, निर्मला जी, सुलभ जी, डा० दानी जी व मुकेश जी को।

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  4. गुरुजी, बहुत सुन्दर गीत! कुछ पंक्तियाँ अनूठी:
    उँगलियाँ हवाओं की छू रही हैं गालों को,
    सरसों के फूलों का गदराता अल्हड़पन
    ...
    आती हैं पनघट से कळसियां भरी ऐसे,
    हौले हौले बजती हो बाँसुरी कहीं जैसे!

    चुपके से गालों को चूमता हुआ झूमर
    याद पी के ...
    बहुत सुन्दर!

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  5. सुलभ,
    नाम उनका चादर पर लिखा के हम बिछाते हैं

    कश्ती के मुसाफिर की ख़्वाहिशें हज़ारों हैं
    बहुत सुन्दर! होली मुबारक!

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  6. निर्मला दी,
    मतला वाह!
    उम्र भर सहे हैं ग़म, दर्द मुश्किलें इतनी -- इस मिसरे का लय, बहाव और इमेजरी सब शानदार!
    आखिरी समय निर्मल आँख हो खुली जैसे -- सुन्दर मिसरा, निर्मल आँख और निर्मल की आँख का दोनों अर्थ में होना बहुत भाया!

    बहुत सुन्दर! होली मुबारक!
    सादर -- शार्दुला

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  7. मुकेश जी, मकता बहुत ही सुन्दर बंधा है!
    मतला और पहले शेर भी बहुत खूब!

    दानी जी, आप पूरे होली के मूड में हैं!

    होली मुबारक!

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  8. वाह वाह वाह ... लगता है होली के रंग जमने शुरू हो गए ... मज़ा ही आ गया ... राकेश जी के गीत ने तो समा ही बाँध दिया ... होली की खुशबू से महके गीत का आनंद बेमिसाल है ...
    लच्छेदार मुहावरे क साथ सुलभ जी ने भी कमाल किया है ... गिरह के शेर बहुत लाजवाब बुना है ... और नाम उनका चादर पर ... गज़ब का शेर है ... बहुत बहुत बधाई सुलभ जी इस ग़ज़ल के लिए...
    आदरणीय निर्मला जी के शरों में प्रेम और समर्पण का भाव और फिर अंतिम शेर में जिस हकीकत से रूबरू कराता हुआ शेर ग़ज़ल की खूबी बयान कर रहा है ... बहुत सुन्दर ग़ज़ल ...
    संजय दानी जी का रुक्मणी वाला शेर सच में बेमिसाल है ... मैं भी कोशिश कर रहा था रुक्मणी को ले के शेर बनाने की पर बना नहीं पाया ... जिंदाबाद संजय जी ... बेहतरीन ग़ज़ल ...
    मुकेश जी ने तो मतले का शेर ही धमाकेदार दिया है ... "जैसे" को निभाना बहुत ही मुश्किल लग रहा था मुझे तो पर बहुत ही सादगी से निभाया है मुकेश जी ने ... बधाई ...
    सभी गजलें फागुन के स्वागत में मुस्तैद हैं ... मुशायरे का आगाज़ जबरदस्त है .... सभी को बधाई ...

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  9. खूबसूरत, धमाकेदार, शुरुआत।
    राकेश भाई साहब का गीत हमेशा की तरह संग्रहणीय।
    सुलभ, निर्मला जी, संजय दानी जी और मुकेश तिवारी जी सभी ने खूबसूरत प्रयोगों से अपनी उपस्थिति स्थापित की है।
    सभी को होली की बधाई।

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  10. खूबसूरत, धमाकेदार, शुरुआत।
    राकेश भाई साहब का गीत हमेशा की तरह संग्रहणीय।
    सुलभ, निर्मला जी, संजय दानी जी और मुकेश तिवारी जी सभी ने खूबसूरत प्रयोगों से अपनी उपस्थिति स्थापित की है।
    सभी को होली की बधाई।

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  11. सब को होली की बहुत बहुत बधाइ1
    आद राकेश खण्डीलवाल जी के लिये तो शब्द नही हमेशा की तरह लाजवाब
    टेसूओं के रंगों मे ----- ये सब पंक्तियां होली का एहसास दिला रही हैं
    सुलभ जी वाह क्या कहने आपके हर शेर उम्दा मगर ये--
    आरजूयें चौखट पर ----
    कश्ती के मुसाफिर की----
    बहुत खूब उम्दा गज़ल के लिये बधाई
    और निर्मला के लिये तो आद गुरुदेव सुबीर जी का शुक्रिया जिन्हों ने इस नाचीज को इस काबिल बनाया 1 कोशिश कर रही हूँ कभी इनकी आपेक्षाओं पर खरी उतरूं1 अभी खुद को इस पटल के मापदण्ड मे जीरो ही समझती हूँ1

    आद संजय दानी जी आपकी गजल हमेशा की तरह लाजवाब बहुत दिन बाद पढा 1हर शेर उम्दा लेकिन ये शेर
    कृ्षण राधा का रिश्ता ---
    दिल पहाडों सा---
    वाह्ह्ह बहुत खूब गज़ल हुयी

    वाह्ह्ह मुकेश तिवारी जी का क्या कहना म्नतले से मकते तक वाह्ह्ह
    दर से लौटा हूँ------
    मन मे रंग छा गये----
    सच मे होली की घ्डी आ गयी आपकी गज़ल पडःा कर पता चला
    बहुत शानदार प्रस्तुति गुरोदेव बधाइ आपको1
    शर्दुला जी दिगम्बर नासवा जी आद भाइ तिलक राज कपूर जी ये आप लोगों का सहयोग है मुझे यहां लाने मे1 पारुल जी सौरभ जी सुलभ जी सब का शुक्रिया1

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  12. एक पुरानी फिल्म का गाना याद आ गया जिसमें एक लाइन थी " आगाज़ तो अच्छा है अंजाम खुदा जाने" लेकिन इस तरही के आगाज़ ने इस गाने में उठे संशय को दूर कर दिया है हमें इसका अंजाम भी साफ़ नज़र आ रहा है , खुदा से पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी - अच्छा नहीं बहुत अच्छा नज़र आ रहा है।
    टेसुओं रंगों में भोर लेती अंगड़ाई - अहा हा और क्या रह जाता है अब कहने को -जान लेली हमेशा की तरह राकेश भाई ने ,लाजवाब रचना रच डाली है।
    सुलभ ने "नाम उसका चादर पर "जैसा मिसरा रच कर दिल खुश कर दिया वाह जियो सुलभ
    निर्मल जी ऊर्जा हम जैसों के लिए प्रेरणादायक है जो हमेशा हथियार डालने में आगे रहते हैं , काफियों से लड़ते हुए कमाल की ग़ज़ल कह डाली है उन्होंने।
    संजय जी ने कृष्ण राधा के बीच रुक्मणी के जिक्र ने अद्भुत समां बाँधा है जितनी तारीफ करूँ कम है
    मुकेश जी की जादू की झप्पी सारे दुःख हर ले गयी और आनंद का पिटारा खोल गयी , कमाल की ग़ज़ल।
    मज़ा आ गया कसम से।

    नीरज

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  13. अपनी कमियों से ही सीखना शायद ज्यादा फायदा पहुँचाता हैं, यही एक वजह है कि बारबार यहाँ इस मंच पर आने का मन करता है.....

    सीखना अपने आप हो जाता है....

    बलिहारी गुरू आपकी....

    माँ सरस्वती के वरद गीतकार राकेश जी को नमन....हरबार कहीं भी हो वे अपनी पहचान खुद हैं, उनके चुने हुए शब्द, वो भाव और क्या लिखूँ....

    सुलभ जी, संजय जी, निर्मला दी इन सभी से सीखता ही आ रहा हूँ....जहाँ मुझे भाव ही नही आ रहे थे, यहाँ तो एक खजाना खुल गया है....

    सभी को होली की शुभकामनाएँ....

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  14. लहराती खेतों में बासंती हो चूनर
    पांवों को थिरकाता सहसा ही आ घूमर
    नथनी के मोती से बतीयाते बतियाते
    चुपके से गालों को चूमता हुआ झूमर
    याद पी के चुम्बन की होंठ पर उगी ऐसे
    हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे
    वाह राकेशजी,
    बांसुरी कोई धुन पर तो आपने.... लहरा दिया, थिरका दिया, बतिया दिया हद है कि... चुम्मा भी! हौले-हौले यह रंग तरही की पूरी महफिल पर चढ़ जायेगा. बहुत ही खूबसूरत रचना.

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  15. सुलभ जायसवाल :
    नाम उनका चादर पर लिख के हम बिछाते हैं
    रात कटती है अपनी, रात मखमली जैसे
    सुंदर कल्पना.
    (कितना 'सुलभ' है नाम लिखा और सो लिये
    आरज़ू की चादर पर ख़ाब मखमली जैसे)

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  16. निर्मला कपिला:
    बन्दिशे इबारत में शायरी बड़ी मुश्किल
    काफिये रदीफों से आज मै लड़ी जैसे
    (काफियों रदीफों से लड़ के भी ग़ज़ल कह ली
    मन से 'निर्मला' लेकिन 'पेन'से बली जैसे.)

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  17. निर्मला कपिला:
    बन्दिशे इबारत में शायरी बड़ी मुश्किल
    काफिये रदीफों से आज मै लड़ी जैसे
    (काफियों रदीफों से लड़ के भी ग़ज़ल कह ली
    मन से 'निर्मला' लेकिन 'पेन'से बली जैसे.)

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  18. संजय दानी जी:
    बिल्कुल नया अंदाज है, नयी-नयी बातें. अच्छे अशआर निकाले है.

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  19. मुकेश कुमार तिवारी :
    ग़ज़ल का हर शेर उम्दा बन पड़ा है. ढेरों दाद और बधाइयाँ.

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  20. मुकेश कुमार तिवारी :
    ग़ज़ल का हर शेर उम्दा बन पड़ा है. ढेरों दाद और बधाइयाँ.

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  21. आदरणीय राकेश जी के गीतों के बारे में जितना कहूँ कम होगा। इनके गीतों के बारे में इतने मंचों से इतना कुछ कह चुका हूँ कि और कुछ कहने को बाकी नहीं रहा। ये सचमुच गीत सम्राट हैं और इनके गीतों का मूल्यांकन समय ही करेगा। एक बार फिर अनूठे बिम्बों से सजे इस सुंदर गीत के लिये हृदय से बधाई।

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  22. आदरणीय सुलभ जी ने कुछ मिसरे तो इतने शानदार गढ़े हैं कि बेसाख़्ता वाह निकल उठती है। नाम उनका चादर पे...गर्म गर्म जिस्मों का..........जैसे शे’र गढ़ने के लिए बहुत बहुत बधाई। 

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  23. आदरणीया निर्मला जी ने बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है। घर घड़ी तसव्वुर वाला शे’र तो कमाल है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए।

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  24. आदरणीय दानी जी ने होली के अवसर पर मज़ाहिया ग़ज़ल कह के और वो भी ऐसे मिसरे पर कहकर मुशायरे में चार चाँद लगा दिये हैं। गिरह के बारे में क्या कहूँ, ऐसे मिसरे पर मज़ाहिया शे’र कहना लाजवाब कर गया। बहुत बहुत बधाई आदरणीय दानी जी को इस ग़ज़ल क लिए।  

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  25. आदरणीय मुकेश जी ने बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है। मतले से आखिरी शे’र तक एक से बढ़कर एक। बहुत बहुत बधाई आदरणीय मुकेश जी को।

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