शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

ये किस जनम का संबंध था दादा भाई, जिसे इतने थोड़े से दिन के लिये निभाया और जब मोह हो गया तो छोड़ कर चले गये । दादा भाई महावीर शर्मा जी को मेरी अश्रुपूरित श्रद्धॉंजलि ।

दादा भाई आदरणीय महावीर शर्मा जी ( 20 अप्रैल 1933 - 17 नवंबर 2010)

संबंध भले ही टूट गये अनुबंध अभी तक बाकी है,

चंदन तो तुमने पोंछ दिया पर गंध अभी तक बाकी है

3 दादा भाई आदरणीय महावीर शर्मा जी

कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्‍या कहूं । मेरे लिये ये एक व्‍यक्तिगत क्षति है । वैसे तो ये सभी के लिये ही व्‍यक्तिगत क्षति है । किन्‍तु यदि आप दादा भाई के दोनों ब्‍लागों को देखेंगे तो ज्ञात होगा कि क्‍यों दादा भाई का जाना मेरे लिये व्‍यक्तिगत क्षति है । जितना नेह उनसे मिला वो कैसे भूल सकता हूं । एक नितांत अपरिचित पर इतना नेह उंड़ेल देना, ये उनके जैसा ही कोई कर सकता है । उनके ब्‍लागों के साईड बार में सबसे ज्‍यादा मुझे स्‍थान मिला करता था । पिछले वर्ष जब दीपावली पर मैं बीमार पड़ा था तो उनका फोन आया था '' सुबीर, दादा भाई बोल रहा हूं, क्‍या हो गया है स्‍वास्‍थ्‍य को'' बस वही उनसे पहली और अंतिम वार्ता थी । उनके द्वारा भेजे गये ईमेल संदेशों का तो खासा संकलन है मेरे पास । हर मेल कुछ न कुछ सिखाता हुआ । क्‍यों दादा भाई ?  ये किस जन्‍म का नाता था जो इतने कम समय में निभाया और फिर हाथ छुड़ा कर चले भी गये । बिना ये जाने कि जिन लोगों को अपने मोह में बांध लिया है अब उनका क्‍या होगा । बहुत कुछ उनसे सीखने को मिलता था । कई बार लिखने में या ग़ज़लों में कहीं कुछ कमी लगती थी तो नितांत व्‍यक्तिगत मेल लिख कर विनम्रता से बताते थे । कभी भी सार्वजनिक रूप से कमेंट करके ग़लतियों की ओर इंगित नहीं करते थे । खैर बहुत सी बातें हैं उनके बारे में करने को लेकिन क्‍या कहूं और क्‍या न कहूं ................

( जो कुछ उनसे सीखा उसी को शब्‍दों में ढाल कर श्रद्धांजलि के रूप में उनको दे रहा हूं )

सितारा टूट गया कोई जगमगाता हुआ

चराग़ बुझ गया कोई है झिलमिलाता हुआ*

दरख्‍़त कल वो हवाओं में गिर गया आखि़र

खड़ा हुआ था घनी छांव जो लुटाता हुआ

हज़ार ग़म थे, मुश्किलें थीं, परेशानी थीं

मगर मिला वो हमेशा ही मुस्‍कुराता हुआ

पकड़ के हाथ वो चलना उसे सिखाता था

कोई जो राह में मिलता था डगमगाता हुआ

अजीब जि़द थी, बला का था हौसला उसमें

मिला वो मौत से पंजा ही बस लड़ाता हुआ

'मिलेंगे हश्र में  फिर हम जो आज बिछड़ेंगे'

चला गया वो यही गीत गुनगुनाता हुआ

'सुबीर' उसको 'महावीर' नाम क्‍यूं न मिले

जिया जो ज्ञान की गंगा सदा बहाता हुआ

(* ईता)

ये ही ग़ज़ल अर्चना जी के स्‍वर में श्रद्धांजलि

डाउनलोड लिंक

http://www.archive.org/details/ShradhdhanjaliGhazalOfPankajSubeerSungByArchanaChaoji

http://www.divshare.com/download/13246257-fc0

विदा दादा भाई, जाइये सितारों की उस दुनिया में, जो आपका वास्‍तविक स्‍थान है, लेकिन याद रखियेगा हमारे दिलों में आपका जो स्‍थान है उसे कोई मौत नहीं छीन सकती ।

अलविदा दादा भाई,

अलविदा.......

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपावली का ये शुभ त्‍यौहार शुभ हो मंगलमय हो और आज तरही की समापन किश्‍त में आपके साथ हैं राकेश खंडेलवाल जी, लावण्‍य शाह जी, नीरज गोस्‍वामी जी, तिलक राज कपूर जी और सबके चहेते समीर लाल जी ।

शुभ हो दीपावली मंगलमय उल्‍लास से भरपूर हो ये पर्व । सभी को दीपावली की मंगलकामनाएं । हर वर्ष बीतता है और हम उम्‍मीद लगाए बैठ जाते हैं पर्वों के फिर से आने की । इस बार भी ये पर्व पुन: आया है । हम सब पिछले समय परेशान रहे, मुश्किलों से जूझते रहे और लड़ते रहे । लेकिन अब पांच दिनों के लिये विराम लेकर मन से मनाएं पर्व को । इसलिये भी क्‍योंकि सामने तो फिर से वही संघर्ष है और वही समर है । तो आइये दीपको के झिलमिल प्रकाश और आनंद की रस वर्षा में विभोर हो जाएं । इस बार मेरे लिये तो दीपावली खास इसलिये है कि इस बार गौतम, बहू और बिटिया के साथ दीपावली मनाने सीहोर आ रहा है ।

तो आइये मनाते हैं दीपावली आज इन महानुभावों के साथ । ये जो झिलमिलाते हुए सितारें हैं हमारे आकाश के और जिनके कारण हम अमावस में भी पूर्णिमा का एहसास करते  हैं । तो आज सुनते हैं राकेश खंडेलवाल जी, लावण्‍य शाह जी, नीरज गोस्‍वामी जी, तिलक राज कपूर जी और सबके चहेते समीर लाल जी को तरही की इस समापन किश्‍त में । और भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के का एक छोटा सा मुक्‍तक । ये सातवीं किश्‍त है । और बहुत आनंद के साथ हम आ पहुंचे हैं आज दीपावली के तरही मुशायरे का ये क़ारवां लेकर एन दीपावली को ।

शुभ दीपावली तरही मुशायरा

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जलते रहें दीपक सदा क़ाइम रहे ये रोशनी

आदरणीय तिलकराज कपूर जी

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तम दूर कर, खुशियां भरे, दिल से मने, दीपावली

जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रौशनी।

हमको रहा, उसपर यकीं, देखा नहीं, जिसको कभी

गर राह से, भटके दिखे, वो आ गया, बनकर नबी।

नबी- ईशदूत, अवतार, पैग़म्‍बर

उस महज़बीं, मग़रूर के, बस में न थी, ये जिन्‍दगी,

मेरी मगर, ये कब रही, पल में हुई, जादूगरी।

हमने कभी, सोची न थी, खाने लगे, कस्‍में वही
ये क्‍या हुआ, तुम ही कहो, थे कल तलक, हम अजनबी।

क्‍यूँ आपकी, तस्‍वीर ये, आठों पहर, मन में बसी,

रहकर अलग, भायी नहीं, क्‍यूँ जिन्‍दगी, ओ चॉंदनी।

उसने मुझे, क्‍या क्‍या दिया, चर्चा कभी, मैनें न की

रुस्‍वा न हो, ये सोचकर, मेरी ज़बां, चुप ही रही।

इक याद से सिहरन उठे, इक याद से मिलती खुशी
जीवन डगर, कटती रही, कुछ इस तरह, यादों भरी।

इस शह्र में, किस शख्‍स को, कब काम से, फ़ुर्सत मिली

एक यंत्र के, पुर्ज़े बने, चलते दिखे, मुझको सभी।

तेरे नगर, में तो दिखी, चारों तरफ़, इक भीड़ सी

ढूँढा बहुत, दिखता नहीं, इस भीड़ में, इक आदमी।

पढ़कर मुझे, उसने कहा, सीखी कहॉं, ये शायरी,

मैनें कहा, तुमपर फिदा, जबसे हुए, ये आ गयी।

लगती सरल, थी ये बहुत, पर अब कठिन, लगने लगी

आसॉं नहीं है शायरी, शब्‍दों की है, कारीगरी।

इस शौक में, हम थम गये, जिस मोड़ पर, महफिल दिखी

अब तो सभी कहने लगे अच्‍छी नहीं आवारगी।

‘राही’ अगर, दिल ये कहे, गल्‍ती करें अपनी सही

उस मोड पर, लौटें जहॉं तक साथ की थी रहबरी।

सारे के सारे मतले और वो भी सब एक से बढ़कर एक । वाह किस पर करें और किस पर न करें । हमको रहा उस पर यक़ीं जिसको नहीं देखा कभी, दीपावली के दिन को सार्थक बनाता हुआ उस ईश्‍वर की परम सत्‍ता में भरोसा दिलाता हुआ सा शेर है मजा आ गया ।

आदरणीय समीर लाल ’समीर’ जी

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जलते रहें दीपक सदा काईम रहे ये रोशनी

बोलो वचन ऐसे सदा घुलने लगे ज्यूँ चाशनी

ऐसा नहीं हर सांप के दांतों में हो विष ही भरा

कुछ एक ने ऐसा डसा ये ज़ात ही विषधर बनी

सम्‍मान का होने लगे सौदा किसी जब देश में

तब जान लो, उस देश की है आ गई अंतिम घड़ी

किस काम की औलाद जो लेटी रही आराम से

और भूख से दो वक्‍त की, घर से निकल कर मां लड़ी

(CWG स्पेशल)

सब लूट कर बन तो गये सरताज आखिरकार तुम 

लेकिन खबर तो विश्व के अखबार हर इक में छपी

वाह वाह समीर जी बड़े दिनो बाद तरही में आए लेकिन धमाका कर ही दिया । जिस देश में सम्‍मान का सौदा भी जब होने लगे अहा क्‍या बात कही है । आपके गद्य और पद्य दोनों में ही व्‍यंग्‍य का जो स्‍थाई भाव है वो गहरे तक उतर जाता है ।

आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी

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आस के पौधे बढे बढ़ कर उनहत्तर हो गए

एक ही बस लक्ष्य बाकी दृश्य सारे खो गए

वर्तिका जलती रही तैंतीस धागों में बंटी

बंध गए बस एक डोरी में हजारों अजनबी

फिर अमावस में खिली आ कर कहे ये चांदनी

दीप ये जलते रहें कायम रहे ये रोशनी

बाद मंथन के सदा ही रत्न जिसने थे उलीचे

जब जलधि लगने लगा थक सो गया है आँख मीचे

पर सतत भागीरथी आराधना फलने लगी तो

इक नई सीपी उगाने लग गई नूतन फसल को

मुस्कुरा गाने लगी वह धूप जो थी अनमनी

दीप ये जलते रहें कायम रहे ये रोशनी

ये घटित कहता न धीमी आग हो विश्वास की

चूनरें धानी रहें मन में हमेशा आस की

ठोकरों का रोष पथ में चार पल ही के लिए

आ गए गंतव्य अपने आप जब निश्चय किये

और संवरी है शिराओं में निरंतर शिंजिनी

दीप ये जलते रहें,कायम रहे ये रोशनी

वाह वाह वाह क्‍या गीत है । वैसे राकेश जी की एक ग़ज़ल भी प्राप्‍त हुई है । स्‍थानाभाव के चलते जब दोनों में से कोई एक लगाने की समस्‍या आई तो मन ने कहा कि दीपावली के दिन गीतों के राजकुमार कवि का गीत ही सुनना चाहिये । मिसरा ए तरह को किस प्रकार से गीत के मुखड़े में गूंथा है कि बस । ठोकरों का रोष पथ में अहा अहा अहा । राकेश जी की ग़ज़ल भी जल्‍द ही दीपावली पश्‍चात ।

आदरणीय श्री नीरज गोस्‍वामी जी

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संजीदगी, वाबस्तगी, शाइस्तगी, खुद-आगही

आसूदगी, इंसानियत, जिसमें नहीं, क्या आदमी

(वाबस्तगी: सम्बन्ध, लगाव, शाइस्तगी: सभ्यता, खुद-आगही: आत्म ज्ञान, आसूदगी:संतोष)

ये खीरगी, ये दिलबरी, ये कमसिनी, ये नाज़ुकी

दो चार दिन का खेल है, सब कुछ यहाँ है आरिजी

(खीरगी: चमक, दिलबरी: नखरे, आरिजी:क्षणिक)

हैवानियत हमको कभी मज़हब ने सिखलाई नहीं

हमको लडाता कौन है ? ये सोचना है लाजिमी

हर बार जब दस्तक हुई उठ कर गया, कोई न था

तुझको कसम, मत कर हवा, आशिक से ऐसी मसखरी 

हो तम घना अवसाद का तब कर दुआ, उम्‍मीद के

जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी

पहरे जुबानों पर लगें, हों सोच पर जब बंदिशें

जुम्हूरियत की बात तब लगती है कितनी खोखली

फ़ाक़ाजदा इंसान को तुम ले चले दैरोहरम

पर सोचिये कर पायेगा ‘नीरज’ वहां वो बंदगी ?

मतला और मतले के ठीक बाद का शेर उफ मार डाला । वाह वाह वाह क्‍या कह दिया है नीरज जी आपने, मतले के बाद का शेर तो क़ातिल है, खंजर लिये खड़ा है कि आओ मुझे पढ़ो और क़त्‍ल हो जाओ । सबसे अच्‍छी बात तो ये है कि जो आपने 2212 के वज्‍़न के मुकम्‍मल शब्‍द ढूंढे हैं वे तो कमाल के हैं । आपको प्रणाम ।

आदरणीया लावण्‍या शाह जी

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जलतें रहें दीपक सदा, काइम रहे ये रोशनी

अब के दिवाली आये यूं, हर ओर बिखरे बस खुशी

शिकवा नहीं, ना हो गिला, कोई परेशानी न हो 

मिट जाएँ सारे फासले, कोई रहे न अजनबी

जगमग जलें, जब दीप तब, हर ओर फिर, हो नूर बस  

मिल कर गले, यूं सब मिलें, दिल से मिटे हर दुश्‍मनी

हर सिम्‍त अम्‍नो चैन हो, बच्चे किलकते झूमते

बन कर  बुजुर्गों की दुआ, घर घर में उतरे चांदनी

हिन्दू मुसलमां, पारसी, ईसाई, सिख और जैन सब 

मिल कर रहें, घुल कर रहें, जैसे के मीठी चाशनी 

इसीलिये तो कहा जाता है कि बहनें जहां भी हों उनका एक ही काम होता है दुआएं मांगना । बहनों का दुआएं मांगने का सिलसिला कभी रुकता नहीं है । लावण्‍य दीदी साहब ने भी पूरी ग़ज़ल में उस ऊपर वाले से किस के लिये नहीं मांगा । वाह वाह वाह ।

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सुख सम्‍पदा भरपूर हो, हर ओर बिखरी हो ख़ुशी

जगमग दीवाली की तरह रोशन हो सबकी जि़दगी

धन-धान्‍य से भरपूर हो, हर इक नगर, हर एक घर

जलते रहें दीपक सदा क़ाइम रहे ये रोशनी

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भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के

चलिये सबको दीपावली की बहुत बहुत मंगल कामनाएं । हंसते रहें मुस्‍कुराते रहें । मेरे हिस्‍से की मिठाई कोरियर से या जिस भी तरीके से भेजना चाहें तो स्‍वागत है । परिवार के साथ रहें । आनंद लें । बच्‍चों को उन छोटी छोटी खुशियों से जोड़ें जो आगे चलकर उनकी स्‍मृतियों में दर्ज रहें । सबको बहुत बहुत मंगल कामनाएं ।

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

आज छोटी दीपावली मनाने आ रहे हैं तरही मुशायरे में गौतम राजरिशी, कंचन चौहान, रविकांत पांडेय, प्रकाश अर्श, अंकित सफर और वीनस केशरी

आज छोटी दीपावली है कुछ लोग इसको नरक चतुर्दशी भी कहते हैं पता नहीं क्‍यों । लेकिन आज के दिन सुबह उबटन लगा कर नहाने का रिवाज़ है । तो चलिये आज हम ज्‍यादा बात नहीं करते हुए मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं । अब इसके बाद केवल एक पोस्‍ट बाकी रहेगी  । आज अपनी ग़ज़लें लेकर आ रहे हैं गौतम राजरिशी, कंचन चौहान, रविकांत पांडेय, प्रकाश अर्श, अंकित सफर और वीनस केशरी ।

शुभ दीपावली तरही मुशायरा

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जलते रहें, दीपक सदा, क़ाइम रहे, ये रोशनी

गौतम राजरिशी

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हर साल आती और कहती है यही दीपावली

जलते रहें दीपक सदा, कायम रहे ये रौशनी

जब तौलिये से कसमसा कर ज़ुल्फ उसकी खुल गयी

फिर बालकोनी में हमारे झूम कर बारिश गिरी

करवट बदल कर सो गया था बिस्तरा फिर नींद में

बस आह भरती रह गयी प्याली अकेली चाय की

ये गुनगुनी-सी सुब्‍ह शावर में नहा कर देर तक

बाहर जब आयी, सुगबुगा कर धूप छत पर जग उठी

उलझी हुई थी जब रसोई सेंकने में रोटियाँ

सिगरेट के कश ले रही थी बैठकी औंधी पड़ी

इक फोन टेबल पर रखा बजता रहा, बजता रहा

उट्ठी नहीं वो दोपहर, बैठी रही बस ऊँघती

लौटा नहीं है दिन अभी तक आज आफिस से, इधर

बैठी हुई है शाम ड्योढ़ी पर जरा बेचैन-सी

क्यूँ खिलखिलाकर हँस पड़ा झूला भला वो लान का

आयी जरा जब झूलने को इक सलोनी-सी परी

गौतम मेरे विचार में तुम्‍हारी अब तक की सबसे श्रेष्‍ठ ग़ज़ल है ये । जब तरही लगा रहा था तो करीब आधा घंटे तक इस ग़ज़ल में उलझा रहा । उन सब जगहों को तलाशता रहा जो इस ग़ज़ल में शामिल हैं । फिर आंख में आंसू आ गये '' जो बड़री अंखियन निरख अंखियन को सुख होय'' ( जैसे अपनी ही बड़ी हो रही आंखों को दर्पण में निरख रही आंखों को सुख होता है   ) । किसी एक शेर को कोट करने की हालत में नहीं हूं ( किस किस को करूं )

कंचन चौहान

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हम से खफा, हम पे फिदा कैसी मिली ये जिंदगी,
बेबात रूठी एक पल, इक पल गले हंस कर मिली
ढूँढ़ा किये खोया हुआ, ठुकरा दिया पाया हुआ,
किस्मत भी पाई कुछ अजब और कुछ अजब फितरत मेरी
आई बहारें भी यहाँ, ऐसा नहीं, आई नहीं
हम बाग से या दूर थे, या मन की खिड़की बंद थी ।
हमको बता ना हर दफा, है प्यार हमसे ही तुझे,
करना पड़े जिसको बयाँ, ना प्यार ऐसी शै कोई।
कुछ तो हुआ होगा कि जो नज़रें चुराई बेवज़ह,
डरते हो मेरे इश्क से या बात ये कारन बनी ?
सबका है अपना आसमाँ, सबका है अपना चाँद भी,
पर चाँद पाकर ये लगा, सबसे तनिक दूरी भली
जगमग जहाँ को देख कर, तम मेरे मन का ये कहे,
जलते रहें दीपक सदा, काइम रहे ये रोशनी।

कंचन तुम अचानक से ही चौंका देती हो मुझको । जब भी मुझे लगता है कि ये लड़की बहुत लापरवाह है इसका तो कुछ नहीं हो सकता, ये अपनी सारी ऊर्जा बतौलेबाजी में व्‍यर्थ कर देती है, तब अचानक तुम सबका है अपना आसमां सबका है अपना चांद भी जैसा दूसरी दुनिया का शेर लिख कर मेरा भरम तोड़ देती हो   । वाह क्‍या लिखा है ।

 

रविकांत पांडेय

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बूढ़ा शज़र रोता रहा, रोते रहे पत्ते सभी
जब पांव से रौंदी गई मासूम सी कोई कली
वो मतलबी सब यार थे, सारे ज़ुदा होते गये
दौरे सफ़र यूं रह गया अब सिर्फ़ मैं और शाइरी
मेरा जिगर और दिल जला कर यूं कहा फ़िर यार ने
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी
झूठे तभी सब आपको लगते रहे किस्से मेरे
शायद अभी यूं आपने देखी नहीं दीवानगी
यूं नींद तो आती नहीं उन मखमलों के सेज पर
होंगे महल तुझको भले, मुझको भली है झोपड़ी
इस शहर में यूं खोजते बीती कई सदियां रवी
कुर्सी मिली, पैसा मिला, बस ना मिला तो आदमी

रवी की गंभीरता तो हमेशा से ही कविताओं में दिखाई देती है और ये गंभीरता ही रवी की ग़ज़लों को विशिष्‍ट बनाती है । आज तो मैं कायल हो रहा हूं उस गिरह का जो रवी ने लगाई है आनंद की गिरह है ये । इस प्रकार से भी सोचा जा सकता है ये बात मन को छू गई । अहा क्‍या गिरह है श्रेष्‍ठ गिरह । तालियां ।

प्रकाश अर्श

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आँखों से मैं कहने लगा, आँखों से वो सुनने लगी !

कैसा है ये लहजा, इसी को कहते हैं क्या आशिकी !

जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रौशनी ,

बस इस दुआ में हाथ ये उट्ठे  हैं रहते हर घडी !

आहों में तू, सांसों में तू, नींदों में तू, ख्‍़वाबों में तू

कैसे रहूँ तेरे बिना तू ही बता ऐ ज़िंदगी !

तौबा वो तेरी भूल से कल जुगनूओं में खौफ था ,

तू जिस तरह से चाँद को जुल्फों में ढक कर सो गयी !

वो चाह कर भी रोक न पाएगी अपनी ज़ुल्फ़ से ,

जब ले उडेंगी इस तरफ खुश्बू हवाएं सरफिरी !

कैसे कहूँ इस प्यास का रिश्ता नहीं तुझसे भला ,

पाऊं तुझे तो और भी बढ़ जाती है ये तिश्नगी !

क्यूँ तंग नज़रों से मुझे वो देखती है बारहा ,

ऐसी अदा पे आज मैं कह दूँ उसे क्या चोरनी !

क़ाबिज हुआ चेहरा तेरा  कुछ इस तरह से जह्न में,

खीचूं लकीरें जैसी भी बन जाती है तस्वीर सी !

आया न कर  तन्हाई में यूं छम से तू ऐ दिलरुबा ,

ये जान लेकर जाएगी एक दिन तेरी ये दिल्‍लगी !

प्रकाश जो कुछ करता है वो किसी और के बस की बात नहीं है । गौतम के बाद फिर मुझे जो ग़ज़ल आज की पोस्‍ट में सबसे ज्‍यादा भाई वो यहीं ग़ज़ल थी । इस ग़ज़ल की मासूमियत मुझे भा गई । आप जानते हैं ''कैसे कहूं इस प्‍यास का रिश्‍ता नहीं तुझसे भला'' जैसा शेर लिखने वाले प्रकाश ने परसों रात मुझे एसएमएस किया कि गुरूजी मुझे लग रहा है ग़ज़ल लिखना मेरे बस की बात नहीं । अब आप लोग ही दीजिये उसके एसएमएस का उत्‍तर । 

अंकित सफ़र

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फितरत तेरी पहचानना आसां नहीं है आदमी.

मतलब जुडी हर बात में तू घोलता है चाशनी.

तुम उस नज़र का ख्वाब हो जो रौशनी से दूर है,
एहसास जिसकी शक्ल है, आवाज़ है मौजूदगी.

माज़ी शजर के भेष में देता मुझे है छाँव जब,

पत्ते गिरे हैं याद के जो शाख कोई हिल गयी.
मासूम से दो हाथ हैं थामे कटोरा भूख का,
मैंने किसी की आँख में देखा तुझे ऐ ज़िन्दगी.
हालात भी करवट बदल कर हो गए जब बेवफा,
चुपचाप वो भी हो गयी फिर घुंघरुओं की बंदिनी.

लाये अमावस रात से उम्मीद की जो ये सहर,
"जलते रहें दीपक सदा, क़ायम रहे ये रौशनी".
क्यों बेवजह उलझे रहें हम-तुम सवालों में "सफ़र",
जब दरमयां हर बात है आकर भरोसे पर टिकी.

अंकित ने बहुत बहुत आगे जाने वाले दो शेर रच दिये हैं ' मासूम से दो हाथ हैं ' शेर में जिस कमाल का मिसरा सानी लगाया गया है वो धमचक से चौंका देता है । फिर पढ़ो, फिर पढ़ो और आनंद दोबाला होता रहता है । दूसरा शेर है ' तुम उस नज़र का ख्‍़वाब हो'' अंकित इस एक शेर पर क्‍या कहूं बस ये कि हो सकता है कल को मुझे किसी को बताने में गर्व हो कि ये मेरे अनुज का शेर है ।  
 

वीनस केशरी

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किसको सुनाऊं हाले दिल किसको बताऊं बेकली

मन्ज़िल मिली है और मुझको भा गई आवारगी

गज़लों से पहले दोस्ती, फ़िर प्यार अब दीवानगी

मुझको ये बढती तिश्नगी जाने कहां ले जा रही

याद आपको करता हूं तो याद आती हैं कुछ बैठकें

दिल्कश हंसी सादा कहन चटनी सी गज़लें आपकी ( अर्श को )

दे दो इजाजत मैं भी कर लूं इश्क का मीठा नशा

रख दो चिलम पर चांद तो पी लूं ज़रा सी चांदनी

गर पेट भर खाना मिले, भूखे को भी अच्छी लगें

खुशबू, घटाएं, बारिशें, सूरज, हवाएं, चांदनी

तकनीक लाती जा रही है पास लोगों को भले  

पर दूर होता जा रहा है आदमी से आदमी

रोशन मिले हर राह “गज़लों का सफ़र” चलता रहे

“जलते रहें दीपक सदा काइम रहे यह रोशनी”

आज लगता है कि सब ही दीपावली का उपहार मुझे देने पर तुले हैं । वीनस के बारे में मैं हमेशा कहता हूं कि ये जिनती ऊर्जा फिजूल की बहसों और कामों ( कुछ फिजूल के ब्‍लागों ) में लगाता है उतनी ग़ज़ल पर लगाए तो इसको कोई सानी नहीं । ''दे दो इजाज़त कर लूं मैं' में एक बार फिर आसमानी मिसरा सानी है । आसमानी का अर्थ है कि जो ऊपर से उतरता है जो शाइर को ऊपर वाला अता करता है । बच्‍चे तुझे अभी नहीं पता तूने इस मिसरा सानी में क्‍या लिख दिया है । '' रख दो चिलम पे चांद तो पी लूं ज़रा सी चांदनी'' रससिक्‍त है मिसरा, अहा अहा ।

तो चलिये छोटी दीपावली का आनंद लें और कल तरही के समापन में सुनें कुछ वरिष्‍ठों को ।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

आज धनतेरस का दिन है तो चलिये आज तरही मुशायरे को कुछ और आगे बढ़ाते हैं सुलभ जायसवाल, राजीव भरोल, नवीन सी चतुर्वेदी और दिगम्‍बर नासवा के साथ

आज की तरही में फिर से चार शायर आ रहे हैं । चारों ने इतने जबरदस्‍त शेर कहे हैं कि क्‍या कहा जाये । आज आ रहे हैं सुलभ, राजीव, दिगम्‍बर के साथ पहली बार नवीन चतुर्वेदी । नवीन जी पहली ही बार आ रहे हैं । तो चलिये शुरू करते हैं आज का तरही ।

शुभ दीपावली तरही मुशायरा

जलते रहें दीपक सदा क़ाइम रहे ये रौशनी

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सुलभ जायसवाल

 

सुलभ का नाम तो परिचित नाम है । सुलभ ग़ज़ल के प्रारंभिक दौर में  है । लेकिन मुझे जो बात सबसे अच्‍छी लगी वो ये कि सुलभ में सीखने को लेकर काफी इच्‍छा है । और फिर ये भी कि कम्‍प्‍यूटर इंजीनियर होकर आरेकल जावा से बहरे हजज रमल पे आना थोड़ा कठिन होता है । आइये सुनें सुलभ को ।

हिन्दू मुसलमां देखें क्‍यूं मिलकर करें हम बंदगी
बातें मोहब्बत की करें हम आदमी हैं आदमी

ये जुस्तजू है क्यूं भला उफ कैसी है ये आरजू
यह जिंदगी एक तिश्नगी है या कोई आवारगी 
तू मिल गया राहों में तो अब ये सफ़र आसां हुआ
रातें हसीं दिन है जवाँ शामो सहर हैं शबनमी
मिलते रहें हम सब यहाँ मिलकर दुआ आओ करें
जलते रहे दीपक सदा काईम रहे ये रौशनी ||

हूं बात आ गई है अब इंजीनियर में भी । ये जुस्‍तजू कैसी भला कैसी है उफ ये आरजू शेर बहुत बढि़या निकाला है । वाह वाह वाह ।

राजीव भरोल 

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राजीव के बारे में क्‍या कहूं । बस ये ज़रूर कहना चाहूंगा कि राजीव ने ग़ज़ल की कक्षाओं के 2007 से अभी तक के पूरे पीडीएफ बना कर उनको इस प्रकार से पढ़ा मानो किसी इम्‍तेहान की तैयारी की जा रही हो और परिणाम अब ये है जो सामने दिख रहा है ।

जब तक रवानी है लहू में तब तलक है जिंदगी,

ये बात मुझसे कह गयी इस गांव की चंचल नदी.

आ चल करें कुछ, ये न हो की फूल मूरझाने लगें,

बच्चों के ओंठों से चुरा कर ले गया कोई हंसी

जब आग है तो आग की चिंगारियां भी कुछ दिखें.

ओंठों में ही क्यों कैद हो कर रह गयी है तिश्नगी.

बादल चुरा कर फिर तेरी आँखों का काजल ले गया.

अब तो सरे बाजार होने लग गई है रहज़नी.

जैसे किसी सैयाद के पिंजरे में बुलबुल कैद हो,

इस जिस्म में है कैद मेरी रूह मुद्दत से यूँ ही,

कैसा हुनर सिखला दिया हालात ने आखिर मुझे,

मैं मुस्कुराहट से छुपा लेता हूँ आँखों की नमी,

आँखों से जो अक्सर बरसते हैं वो बादल और हैं,

ना तो इन्हें मौसम की बंदिश ना ही पानी की कमी.

हर बात पर गुस्सा, बिगड़ना बेवजह हर बात पर,

ऐ दिल तेरी फितरत में पहले तो ना थी ये बरहमी

पैरों में हैं छाले निगाहों में है सहरा की तपिश,

आ देख कैसे बिन तेरे काटी है मैंने जिंदगी.

जो हों उजाले हर तरफ तो दिल भी रौशन सा लगे,

जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी

बुझते चिरागों को ना दो 'राजीव' सारा दोष तुम,

मुमकिन है ये भीतर तुम्हारे ही कहीं हो तीरगी.

राजीव ये जो तुमने बादल चुरा कर ले गया वाला शेर कह दिया है ये तो बस कमाल ही कर दिया है वैसे पूरी ग़ज़ल में कई और भी शेरे हैं जो कोट किया जाना मांग रहे हैं लेकिन ये शेर तो कमाल का है वाह वाह वाह ।

नवीन सी चतुर्वेदी

nmc image OBO 

दतिया कवि सम्‍मेलन के रास्‍ते में नवीन जी का मैसेज मिला और उन्‍होंने तरही के बारे में जानकारी ली तब मैं उनके बारे में नहीं जानता था । लेकिन जब ग़ज़ल मिली तो उनके बारे में कुछ और जानने की ज़रूरत ही नहीं रह गई । वैसे वे एक ब्‍लाग ठाले बैठे चलाते हैं ।

अन्याय पर इंसाफ़ का जयघोष है दीपावली|
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी|१|
कश्मीर पर फिर से मचा हुड़दंग यारो देख लो|
लगता है जैसे सेठ के खलिहान में बकरी घुसी|२|
यू एस से ओबामा जी आने हैं इतना जान कर|
मेरे शहर की हर सड़क फिर से दुल्हन सी है सजी|३|
वो बात करते हैं सुधारों की जहाँ जाते वहाँ|
फिर क्वालिटी पे गौर करते हैं बिछे कालीन की|४|
संवाद पर पहरा न हो, कहते रहे हैं यूँ सभी|
पर हर अभिव्यक्ति पे, हर मुद्दे पे है केंची चली|५|
राहुल, वरुण, नीतीश, मोदी, सोनिया के देश में|
ये भी गनीमत है हवा तो मुफ़्त में है मिल रही|६|
अगले बजट से पूर्व ईंधन के बढ़ेंगे दाम बस|
अब वो करें क्या, जिंस हर, ईंधन से ही गर है जुड़ी|७|
कम्प्यूटरों का दौर है, कम्प्यूट करना सीख लो|
बच्चो तुम्हारे काम आएगी बहुत कम्प्यूटरी|८|
तुम याद आती हो बहुत, मिलने कहाँ आएँ तुम्हें|
गुम हो गयी हो तुम कहाँ, मेरे जिगर की सादगी|९|
अब चाँद तारे, इश्क उलफत, बेवफ़ाई छोड़ कर|
अपनी ग़ज़ल तो आम इन्साँ की गली में घुस पड़ी|१०|
तरकीब कोई हो अगर मुझको बताना यार तुम|
सब की ज़ुबानें इक दफ़ा फिर गुनगुनाएँ शायरी|११|
तरही के दीवाने अपुन मिलने चले आए तुम्हें|
यारो नये हैं हम ज़रा, हम से निभाना दोस्ती|१२|

व्‍यंग्‍य की भाषा में लिखी गई ग़ज़लों में तो मेरे प्राण बसते हैं मानो और इसीलिये इस ग़ज़ल का एक एक शेर मुझे भा रहा है । और उस पर मतले का मिसरा उला तो बहुत ही प्रभावशाली बना है । नवीन जी ने ग़ज़ल को आम इन्‍सां की गली में जिस प्रकार घुसाया है वो कमाल का है । वाह वाह वाह ।

दिगम्‍बर नासवा

DN-Anita

दिगम्‍बर का परिचय तो देने की आवश्‍यकता नहीं है । ग़ज़ल की कक्षाओं से प्रारंभ से ही जुड़े हैं और ग़ज़ल कविता तथा छंद मुक्‍त कविता में अपने आपे को बहुत सुंदर तरीके से अभिव्‍यक्‍त करते हैं । फिलहाल दुबई में निवासारत हैं । 

 

महके उफक महके ज़मीं हर सू खिली है चाँदनी

तुझको नही देखा कभी देखी तेरी जादूगरी

सहरा शहर बस्ती डगर उँचे महल ये झोंपड़ी

जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी

है इश्क़ ही मेरी इबादत इश्क़ है मेरा खुदा

दानिश नही आलिम नही मुल्ला हूँ न मैं मौलवी

है हीर लैला सोहनी महबूब तेरे अक्स में

मीरा कहूँ राधा कहूँ मुरली की मीठी रागिनी

इस इब्तदाए इश्क़ में अंज़ाम क्यों सोचें भला

जब यार से लागी लगन तो यार मेरी ज़िंदगी

तू आग पानी अर्श में, पृथ्वी हवा के अंश में

ये रूह तेरे नूर से कैसे कहूँ फिर अजनबी

नज़रें झुकाए तू खड़ी हो थाल पूजा का लिए

तुझमें नज़र आए खुदा तेरी करूँ मैं बंदगी

ठोकर तुझे मारी सदा अपमान नारी का किया

काली क्षमा दुर्गा क्षमा गौरी क्षमा हे जानकी

दिगम्‍बर इस बार की ग़ज़ल में तुमने क्‍या कर दिया है ये तुम भी नहीं जानते । बहुत ही कमाल के शेर निकाल दिये हैं । है इश्‍क ही मेरी इबादत और तू आग पानी अर्श में ये दोनों शेर तो मानो अपनी कहानी स्‍वयं ही कह रहे हैं । वाह वाह वाह ।

चलिये दाद देते रहिये और इंतजार कीजिये आने वाले शेष दो अंकों का ।

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

शुभ दीपावली तरही मुशायरे का क्रम आज आगे बढ़ाते हैं । आज की दीपावली नारी शक्ति के नाम आदरणीया देवी नागरानी जी, नुसरत मेहदी जी, इस्‍मत ज़ैदी जी और निर्मला कपिला दी

तरही मुशायरा अपनी गति से चल रहा है और अब केवल चार दिन बाकी हैं दीपावली में सो अब कुछ और गति से चलाना होगा । अब जो ग़ज़लें आई हैं वो सब आने वाले चार दिनों के लिये शेड्यूल कर दी गई हैं । सो अब नई ग़जल़ें लेने की कोई गुंजाइश नहीं बची है । भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के तो आवारगी करते फिर रहे हैं देश भर में सो अब उनकी ग़ज़ल मिलने की तो कोई संभावना ही नहीं है । तो चलिये आज सुनते हैं आदरणीया देवी नागरानी जी, नुसरत मेहदी जी, इस्‍मत ज़ैदी जी ( एक राज की बात ये है कि नुसरत दीदी भी शादी से पहले नुसरत ज़ैदी ही थीं )  और निर्मला कपिला दी को ।

शुभ दीपावली तरही मुशायरा

जलते रहें दीपक सदा क़ाइम रहे ये रोशनी

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देवी नागरानी जी

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देवी जी का परिचय देने की धृष्‍टता नहीं करूंगा । कौन नहीं जानता है उनको । ग़ज़ल की दुनिया में उनका नाम सितारे की तरह जगमगा रहा है । सो आइये इस दीपावली सुनते हैं उनकी ये ग़ज़ल ।

मेरे खुदा कुछ ऐसा कर मन से मिटा दे तीरगी

जलते रहें दीपक सदा कायम रहे नित रोशनी"

ग़ुरबत के घर में दोस्तो फाक़े अभी तक चल रहे

हालात गर यूँ ही रहे कैसे मिटेगी भुखमरी

लेकर उदासी आँखों में बैठे रहे हम बज़्म में

आया, गया कोई नहीं मुद्दत से झेली ख़ामुशी

गिरते रहे, उठते रहे, खुद से सदा लड़ते रहे

इस ज़िन्दगी की जंग में हारे कभी, जीते कभी

कुछ इस तरह से बाग़ में गिरने लगी हैं बिजलियाँ

डरने लगे हैं गुंचे सब, डरने लगी है हर कली

इक बेख़ुदी में डूबकर, ढूँढा किये ख़ुद को सदा

सहरा में भटके इस तरह, हो प्यास जैसे अनबुझी

उस्‍तादाना रंग लिये हैं शेर । गिरते रहे उठते रहे हारे कभी  जीते कभी, लेकर उदासी आंखों में जैसे शेर डूब कर लिखे गये हैं तभी तो सुनने वाले को बेसाख्‍ता वाह वाह करने पर मजबूर कर रहे हैं । वाह वाह वाह ।

इस्‍मत ज़ैदी जी

ismat zaidi

इस्‍मत जी किसी कारण से बहुत खामोश होकर ही काम करना चाहती हैं । इसीलिये उनका चित्र भी उपलब्‍ध नहीं है । उन जैसे लोगों के लिये ही कहा गया है '' वही लोग रहते हैं ख़ामोश अक्‍सर ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं ''  । देखिये पोस्‍ट लगने के बाद कमेंट से उनका फोटो भी प्राप्‍त हो गया ।

ये जान लो किस वास्ते रब ने अता की ज़िंदगी

और काम कुछ ऐसे करो जो बन सकें संजीवनी

बस दोस्ती हो,प्यार हो,विश्वास का इज़हार हो

हर शख़्स अपना ही लगे ,कोई रहे क्यों अजनबी

उलझा  रहा वो ज़िंदगी के इम्तहानों में सदा

और दूसरों के वास्ते क़ुर्बान कर दी ज़िंदगी

हर गांव में ,हर शह्र में,सद्भाव के और प्रीत के

"जलते रहें दीपक सदा ,क़ायम रहे ये रौशनी"

भगवान है कोई यहां,कोई फ़रिश्ता बन गया

मालिक मेरे रखना मुझे,इस दौर में बस आदमी

रिश्ता हो क्यों इक राएगां* ,ख़ामोश लब खोलो ’शेफ़ा’

घुट घुट के यूं रह जाए फिर क्यों बात कोई अनकही

*व्यर्थ

इस्‍मत जी की ग़ज़लों का और शेरों का तो मैं शुरू से ही प्रशंसक रहा हूं । वे जिस भाव भूमि पर शेर निकालती हैं उस भाव भूमि तक पहुंच पाना ही मेरे जैसे लोगों को मुश्किल लगता है । भगवान है कोई यहां कोई फरिश्‍ता बन गया वाह वाह वाह क्‍या शेर कहा है आनंद ही आ गया ।

नुसरत मेहदी जी

nusrat mehdi 

क्‍या कहूं नुसरत दीदी के बारे में कई बार मैं उनसे कहता हूं कि दीदी मेरे लिये तो यह ही तय करना मुश्किल हो जाता है कि आप ज्‍यादा अच्‍छी बहन हैं या फिर ज्‍यादा अच्‍छी शायरा हैं । इन दिनों सफलता की नई पायदानें तय करते हुए वे खाड़ी के देशों के मुशायरों में व्‍यस्‍त हैं । आइये सुनते हैं उनकी ये ग़ज़ल ।

गम की अँधेरी रात में लायी उजाले ज़िन्दगी
जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी
दुनिया हमारी आजकल बारूद के मौसम में है
कैसे खिले लफ्जों के गुल मुस्काये कैसे शायरी
फिर नम हुई सांसे मेरी भीगा मेरे दिल का वरक़
लो आई फिर से बारिशें फिर याद तेरी आ गयी
यारब दुआ सुन ले मेरी दोनों को पुरवाई बना
वो भी हवाये तुन्द है मैं भी हवा हू सरफिरी
सच मानते हैं आज भी झूठे बहाने आपके
उफ़ ये हमारा भोलापन उफ़ ये हमारी सादगी

तकदीर अपनी जाने क्यों तब्दील होती ही नहीं
ओढे हुवे हैं आज भी हम तो गमो की ओढ़नी
दौलत वो करता है अता ज़रफे तलब को देख कर
हर शख्स को मिलता नहीं नुसरत शऊरे बन्दगी

क्‍या कहूं और क्‍या न कहूं । किस शेर को उठा कर उसकी तारीफ करूं । मगर फिर भी सच मानते हैं आज भी झूठे बहाने आपके इस शेर में जो भोलापन है जो सादगी है वो रस विभोर करती हुई गुज़र रही है । वाह वाह वाह ।

निर्मला कपिला जी

Nirmla Kapila di

निर्मला दीदी के बारे में जितना जानता हूं उतना ही उनके लिये मन में इज्‍़ज़त बढ़ती जाती है । एक साल पहले जब उन्‍होंने ग़ज़लें लिखना शुरू किया तो मैं संशय में था कि पता नहीं कैसे सीखेंगीं । लेकिन आज की ये ग़ज़ल बता रही है कि दुष्‍यंत ने सही कहा था ''एक पत्‍थर तो तबीयत से उछालो यारों ।

जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी
आयेँ उजाले प्यार के चलती रहे ये ज़िन्दगी

एक दूसरे के साथ हैं खुशियाँ जहाँ की साजना
तेरे बिना क्या ज़िन्दगी मेरे बिना क्या ज़िन्दगी
अब क्या कहें उसकी भला वो शख्स भी क्या चीज़ है
दिल मे भरा है जहर और  हैं बात उसकी चाशनी
है काम दुनिया का बिछाना राह मे काँटे सदा
सच से सदा ही झूठ् की रहती ही आयी दुश्मनी
बातें सुना कर तल्ख सी यूँ चीर देते लोग दिल
फिर दोस्ती मे क्या भली लगती है ऐसी तीरगी?
जब बात करता प्यार से लगता मुझे ऐसे कि मैं
उडती फिरूँ आकाश मे बस ओढ चुनरी काशनी 
सब फर्ज़ हैं मेरे लिये सब दर्द हैं मेरे लिये
तकदीर मे मेरे लिखी बस उम्र भर की आज़िजी
उसने निभाई ना वफा गर इश्क मे तो क्या हुया
उससे जफा मै भी करूँ मेरी वफा फिर क्या हुयी

जीना वतन के वास्ते मरना वतन के वास्ते
रख ले हथेली जान, सिर पर बाँध पगडी केसरी
ये आदमी का लोभ भी क्या कुछ कराये आजकल
जिस पेड़ से छाया मिली उसकी ही जड़ है काट दी

निर्मला दीदी को लेकर मैं हर बार एक ही बात सोचता हूं कि किस निश्‍चय के साथ उन्‍होंने ग़ज़ल का व्‍याकरण सीखा है । और आज उसने निभाई ना वफा जैसे शेर वे किस खूबसूरती के साथ निकाल रही हैं । उड़ती फिरूं आकाश में जैसे मिसरे आनंद के मिसरे हैं । वाह वाह वाह ।

आज सुनिये चारों नारी शक्ति ग़ज़लों को और दाद दीजिये । कल फिर मिलते हैं कुछ और शायरों के साथ ।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

सीहोर में कव‍ि सम्‍मेलन की ऐतिहासिक सफलता का जश्‍न मनाते हुए तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं श्री गिरीश पंकज, श्री राणा प्रताप और श्री अजमल हुसैन खान के साथ ।

सीहोर के कवि सम्‍मेलन ने अभी तक के सारे रिकार्ड तोड़ दिये । आस पास के लगभग सौ किलोमीटर के इलाके से लोग कवि सम्‍मेलन को सुनने आये थे । दस से पन्‍द्रह हजार की जनता बात की बात में जुट गई । और सुबह के पांच बजे तक चलता रहा कवि सम्‍मेलन । मेरे लिये बहुत अविस्‍मरणीय रहा ये । क्‍योंकि मैं पिछली रात भर दतिया के कवि सम्‍मेलन का थका होने के कारण यहां पर पढ़ने से बच रहा था । घरेलू जनता लोकल कवियों को ज्‍यादा नहीं सुनती है कहीं न कहीं ये भी मन में था । किन्‍तु जब मैं चार पंक्तियां पढकर वापस बैठने लगा तो हंगामा हो गया, जनता ने बैठने ही नहीं दिया । फिर चार पंक्तियां फिर चार पंक्तियां और फिर फरमाइशें, फरमाइशें । इतना प्‍यार मिला कि लगा कि अब रो ही पड़ूंगा । मेरा शहर मुझे इतना प्‍यार करता है ये मुझे पता ही नहीं था । मेरी कविताएं उनको याद हैं ये पता ही नहीं था । एक व्‍यक्ति ने खड़े होकर कहा राम और हनुमान वाला अपना छंद सुनाइये, मैं तो हैराना रहा गया । खैर मन ने मानो आने वाले साल भर के लिये ऊर्जा एकत्र कर ली है । फोटो तो आपने http://babbalguru.blogspot.com/2010/10/blog-post_31.html यहां देख लिये होंगे ही । अपने मित्र डॉ. कुमार विश्‍वास पर अलग से लिखूंगा बावजूद इसके कि पिछली बार जब मैंने लिखा था तो काफी लोगों को अच्‍छा नहीं लगा था । लेकिन डॉ कुमार विश्‍वास ने एक बार फिर अपने इस मित्र को अभिभूत कर दिया । डाक्‍टर मेरा सलाम तुम्‍हें ।

शुभ दीपावली तरही मुशायरा

deepawali

जलते रहे दीपक सदा कायम रहे ये रोशनी

आज हम तीन शायरों के साथ तरही को आगे बढ़ा रहे हैं । श्री गिरीश पंकज, श्री राणा प्रताप और श्री अजमल हुसैन खान ।

girish_pankaj 

गिरीश पंकज

गिरीश पंकज जी का नाम मुशायरे के लिये नया नहीं है । वे हर बार आते रहे हैं और छाते भी रहे हैं । उनके शेरों में कुछ नया होता है ।रायपुर छत्‍तीसगढ़ के हैं और साहित्‍य के क्षेत्र में अत्‍यंत सक्रिय हैं । आइये उनसे सुनत हैं उनकी ये ग़जल़ ।

चलती रहे कुछ इस तरह सबकी यहाँ पे ज़िंदगी
जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रोशनी
दीपक हमें सिखला रहा है ज़िंदगी का पाठ ये
हर इक खुशी तू बाँट दे जो आई है चल कर अभी
आना तिरा ऐसा हुआ फ़ैली हुई है रौशनी
खुश है बड़ी इस शहर की अब आजकल यह चाँदनी
पूजा यहाँ करता रहे इनसान या आराधना
दिल से रहे सच्चा अगर बेकार है हर बंदगी
रिश्ता नहीं यह बोझ है गर पाप है मन में भरा
दिल में अगर है बात कुछ कह दो तभी हो आदमी
नफ़रत नहीं हम प्यार के प्यासे बड़े हैं दोस्तो
इक बार तो हमसे करो दिल से जरा तुम दोस्ती
वो आपके सब चाहने वाले  कहाँ गुम हो गए
सोचो ज़रा आखिर कहाँ कुछ रह गई मुझमें कमी
हर इक घड़ी बस दिल मिरा आवाज़ दे आ जाओ तुम
देखा तुम्‍हें तब-तब मुझे सचमुच मिली सच्ची ख़ुशी
अब आपके तो रोज ही किस्से गढ़े जाने लगे
पंकज ज़रा घर पर रहो अच्छी नहीं आवारगी

अहा अहा क्‍या शेर निकले हैं । मकते ने ग़जब ढा दिया है । रिश्‍ता नहीं ये बोझ है और दीपक हमें सिखला रहा जैसे शेर बहुत ही सुंदर बन पड़े हैं । वाह वाह वाह क्‍या शेर कहे हैं । बधाई ।

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राणा प्रताप सिंह

राणा प्रताप सिंह कुछ समय से हमारे मुशायरों में नियमित आ रहे हैं ।पिछले दिनों जब बात हुई तो पता चला कि ये भारतीय सेना में हैं और एयर फोर्स में हैं । हालांकि मुझे इनके शेरों से कुछ कुछ तो लगता था कि मामला फौज जैसा ही कुछ है। आइये सुनते हैं इनकी ग़ज़ल ।

दीपावली के पर्व पर मांगें दुआ ये हम  सभी
जलते रहे दीपक सदा कायम रहे ये रोशनी
शुद्ध मात्राओं वाला शेर
ताने हुए सीना हमारी सरहदों पर जो खड़े
उनके लिए तो रोज होली रोज ही दीपावली
मंदिर गया मस्जिद गया मै और गिरजाघर गया
पर स्वर्ग तो मुझको मिला माँ बाप के चरणों में ही
मायूस मत होना कभी भी जिंदगी की दौड़ में
मिल जाएगी मंजिल अगर तू राह जो चुन ले सही
कर ले इबादत लाख तू पर ये भी संग संग याद रख
करनी मदद लाचारों की साहब की ही है बंदगी
कुछ काम ना आयी यहाँ वाइज ने दी जो घुटटियां
रहबर थे जितने भी यहाँ करते रहे वो रहजनी
महबूब की बातें नहीं और ना ही मैखाने की हैं
शायर के आशारों से अब तो झांकती जिन्दादिली
निश्चल ह्रदय नारी का हर इक रूप में दिखता यहाँ
ममतामयी माँ, प्यारी बहना या हमारी सहचरी
दुःख और सुख को बांटती शौहर के संग बीवी सदा
बनवास पाया राम ने और साथ चल दीं जानकी

वैसे तो मेरे विचार में मतले में ही गिरह को इतना जबरदस्‍त तरीके से बांधा गया है कि ऐसा लग रहा है जैसे ये मिसरा इसी मिसरे के लिये बना था । और दूसरा सबसे सुंदर शेर है आखिर का शेर । अहा अहा क्‍या लिखा है बनवास पाया राम ने और साथ चल दीं जानकी। बाकी के शेर भी बहुत सुंदर हैं लेकिन इन दोनों ने मन को बांध लिया ।

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डॉ अज़मल हुसैन खान

डॉ अज़मल खान लखनऊ के हैं और पिछले एक दो मुशायरों से बराबर आ रहे हैं । मगर इनका कोई पूरा फोटो उपलब्‍ध नहीं है एक आधा अधूरा सा फोटो है जो इनकी प्रोफाइल पर लगा है ।  पता नहीं क्‍यों इन्‍होंने अपनी पहचान को गोपनीय बना रखा है । खैर आइये ग़ज़ल सुनें ।

रौशन ज़मी पर कहकशां जज़्बों पे है दीवानगी

हर सिम्त से इक शोर है लो आ गई दीपावली ।

है ये दुआ लब पर मिरे बदले न ये मंज़र कभी

जलते रहें दीपक सदा क़ाइम रहे ये रौशनी ।

है रोज़ कब होती यहाँ ईदे चरागाँ यार अब

उठ कर मिलो हम से गले छोडो ज़रा ये बेरुखी ।

कहते सभी हैं डाक्टर मत खाइये है ये मुज़िर

इतनी मिठाई देख कर काबू रखें कैसे अजी ।

ऐ मालिके दोनों जहां चमके मिरा हिन्दोसिता

बढ़ता रहे फूले फले बिखरी रहे हर सू ख़ुशी ।

दीपक अजी ये शेर हैं याराने महफ़िल लीजिये

“अजमल” ने भेजी नज्र है क़ाइम रहे ये दोस्ती ।

मतला मकता और गिरह का शेर तीनों ही जबरदस्‍त बने हैं । विशेष कर गिरह तो बहुत ही सुंदर तरीके से लगी है । भारत के लिये जो दुआ मांगी है वो भी बहुत ही खूबसूरत तरीके से मांगी गई है । ऐ मालिके दोनों जहां ये शेर तो जबरदस्‍त है । वाह वाह वाह ।

तो ये आज के तीनों ही शाइर हैं तीनों ने ही आनंद की ग़ज़लें कहीं हैं । तरही को नया मुकाम दे दिया है । तो चलिये आनंद लीजिये इनका और कल सुनिये बाकी के शायरों को ।

 

   

 

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