दीपवली का पाँच दिन का यह त्यौहार अलग अलग भावनाओं को लिये हुए आता है। जैसे धन तेरस आती है और उसके बाद आती है रूप चतुदर्शी, इस दिन का महत्त्व रूप से है। अब रूप वह नहीं जो बाहरी होता है, वह रूप जो आंतरिक होता है। इस रूप का ही असली महत्त्व होता है। रूप चतुदर्शी का यह त्यौहार आप सभी के जीवन में आंतरिक सुंदरता का प्रकाश भरे। हम सब और बेहतर हों ताकि यह दुनिया और बेहतर हो सके।
आइए आज तरही मुशायरे का क्रम आगे बढ़ाते हैं, राकेश खंडेलवाल जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह तथा गिरीश पंकज जी के साथ
राकेश खंडेलवाल
पृष्ठ इतिहास के द्वार को खटखटा
फिर से हंसने लगे आज इस बात पर
पीढ़ियाँ आँजती आ रहीं ये सपन
रोशनी अब बहेगी यहाँ रात भर
दीप गाजा में जलता नहीं एक भी
और यूक्रेन पर तम घना छा रहा
क्या ये होने लगा आज ईरान में
ये किसी की समझ में नहीं आ रहा
सल्तनत तालिबानी बढ़े जा रही
पंथ सारे प्रगति के भी अवरुद्ध हैं
शांति को ओढ़कर, मुस्कुराते हुए
भित्तिचित्रों में बैठे हुए बुद्ध हैं
और कब तक जलेगा यहाँ आदमी
साँस की बातियों को यहाँ कात कर
एक विश्वास खंडहर हुआ जा रहा
रोशनी की नदी बह सके रात भर
आज भारत में यौवन जला फुलझड़ी
आस ये एक फिर से जगाने लगा
दूर परदेश में जा बसी ज़िंदगी
टूट बिखरे घरौंदे बनाने लागा
ज्ञात संभावना एक, दस लाख में
पर दिवास्वप्न आँखों में बनते रहे
साँझ ढलती हुई ले गई थी बहा
वे महल रेत के, भोर सजते रहे
जोड़ते एक विश्वास अनुपात से
जोड़ बाक़ी, गुणा और फिर भाग कर
रोशनी की ये नदी जो बही है यहाँ
आज बहती रहेगी सकल रात भर
जल उठी रात महताब की रोशनी
फूटती चरखियों से सितारे झड़े
कार के, फ़्लैट के और सुख शांति की
चाहना के दिये फिर संवरने लगे
घर की अंगड़ाई में अल्पनाएँ सजी
ईश की वंदना में झुके शीश आ
हो मुबारक दिवाली ये अब के बरस
वाक्य होठों पे सब के ये सजने लगा
कामना मेरी भी आपके वास्ते
रोली अक्षत लिए पीतली थाल पर
रोशनी की ये नदी बह उठी आज जो
आपके द्वार बहती रहे साल भर
पृष्ठ इतिहास के द्वार को खटखटा
फिर से हंसने लगे आज इस बात पर
पीढ़ियाँ आँजती आ रहीं ये सपन
रोशनी अब बहेगी यहाँ रात भर
दीप गाजा में जलता नहीं एक भी
और यूक्रेन पर तम घना छा रहा
क्या ये होने लगा आज ईरान में
ये किसी की समझ में नहीं आ रहा
सल्तनत तालिबानी बढ़े जा रही
पंथ सारे प्रगति के भी अवरुद्ध हैं
शांति को ओढ़कर, मुस्कुराते हुए
भित्तिचित्रों में बैठे हुए बुद्ध हैं
और कब तक जलेगा यहाँ आदमी
साँस की बातियों को यहाँ कात कर
एक विश्वास खंडहर हुआ जा रहा
रोशनी की नदी बह सके रात भर
आज भारत में यौवन जला फुलझड़ी
आस ये एक फिर से जगाने लगा
दूर परदेश में जा बसी ज़िंदगी
टूट बिखरे घरौंदे बनाने लागा
ज्ञात संभावना एक, दस लाख में
पर दिवास्वप्न आँखों में बनते रहे
साँझ ढलती हुई ले गई थी बहा
वे महल रेत के, भोर सजते रहे
जोड़ते एक विश्वास अनुपात से
जोड़ बाक़ी, गुणा और फिर भाग कर
रोशनी की ये नदी जो बही है यहाँ
आज बहती रहेगी सकल रात भर
जल उठी रात महताब की रोशनी
फूटती चरखियों से सितारे झड़े
कार के, फ़्लैट के और सुख शांति की
चाहना के दिये फिर संवरने लगे
घर की अंगड़ाई में अल्पनाएँ सजी
ईश की वंदना में झुके शीश आ
हो मुबारक दिवाली ये अब के बरस
वाक्य होठों पे सब के ये सजने लगा
कामना मेरी भी आपके वास्ते
रोली अक्षत लिए पीतली थाल पर
रोशनी की ये नदी बह उठी आज जो
आपके द्वार बहती रहे साल भर
पिछली बार हम सब चिंतित थे कि राकेश जी कहाँ अनुपस्थित हैं, फिर ज्ञात हुआ कि वे अस्वस्थ हैं। अब वे स्वस्थ हैं तथा पूरी ऊर्जा के साथ हमारी तरही में शामिल हो रहे हैं। राकेश जी के गीतों पर कोई टिप्पणी कर पाना मेरे लिए हमेशा से ही एक असंभव सा कार्य रहा है। इस बार भी मेरी स्थिति वैसी ही हो रही है। ग़ाज़ा से लेकर यूक्रेन तक गीतकार को पूरे विश्व की चिंता है, यही तो होता है वैश्विक भाव। हर जगह सुख और शांति की कामना ही तो गीतकार की कामना है। और दूर परदेस में रह कर भी अपना देश याद आता है, ऐसा लगता है कि उड़ कर वहाँ पहुँच जायें और फुलझड़ी जला कर दिवाली मनायें। सबके होंठों पर दीपावली की मंगल कामना के भाव हैं और रौशनी की नदी बहती रहेगी रात भर का विश्वास है। यही विश्वास तो हमारा संबल होता है। बहुत ही सुंदर गीत वाह वाह वाह।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
झोपड़ी दीपावली पर जगमगाती रात भर
रोज़ रोशन हो रही है राजधानी रात भर
रोशनी मैं दे रही हूँ तेल फिर क्यूँ जल रहा
सोचकर झालर बिचारी छटपटाती रात भर
जोर से हँसते पटाखे चीखती पागल हवा
सो रही इंसानियत की साँस घुटती रात भर
कैद होकर छटपटाती शहर में अब, पर कभी
घूमती थी गाँव में निर्द्वंद्व लक्ष्मी रात भर
फिर वही सीता, वही मारीच, रावण, अपहरण
कब तलक चलती रहेगी ये कहानी रात भर
जीत होगी सत्य की, आशा न टूटे इसलिए
रोशनी की ये नदी बहती रहेगी रात भर
झोपड़ी दीपावली पर जगमगाती रात भर
रोज़ रोशन हो रही है राजधानी रात भर
रोशनी मैं दे रही हूँ तेल फिर क्यूँ जल रहा
सोचकर झालर बिचारी छटपटाती रात भर
जोर से हँसते पटाखे चीखती पागल हवा
सो रही इंसानियत की साँस घुटती रात भर
कैद होकर छटपटाती शहर में अब, पर कभी
घूमती थी गाँव में निर्द्वंद्व लक्ष्मी रात भर
फिर वही सीता, वही मारीच, रावण, अपहरण
कब तलक चलती रहेगी ये कहानी रात भर
जीत होगी सत्य की, आशा न टूटे इसलिए
रोशनी की ये नदी बहती रहेगी रात भर
मतले में ही बहुत अच्छे से दीवाली का पूरा मंज़र खींच दिया गया है। झोपड़ी से लेकर राजधानी तक हर जगह रौशनी हो रही है। अगले ही शेर में बहुत सुंदर तरीक़े से तंज़ कसा है दीप और झालरों की तुलना पर। दीपावली एक त्यौहार था हर्ष का मगर हमने इसे प्रदूषण के पर्व में बदल दिया है। दुनिया का सबसे अच्छा त्यौहार सबसे डर का त्यौहार बन चुका है। इंसानियत की साँस घुटेगी नहीं तो क्या होगा। सच कहा कि जो लक्ष्मी गाँव में खुल कर घूमती थी वह अब शहर में क़ैद हो गयी है। रामायण की कहानी कितने बरसे बीतने पर भी पुरानी नहीं हो पा रही है वही किस्सा चला आ रहा है, बहुत ही सुंदरता से इसको शेर में गूँथा गया है। अंत में गिरह का शेर तो एकदम कमाल का है, पूरी ग़ज़ल में जिस लड़ने की बात की गयी है, वह अंतिम शेर में एकदम सार्थक रूप में आ गयी है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
गिरीश पंकज
दीप की मुस्कान हमसे कुछ कहेगी रात भर
जीत होती ही रहेगी रौशनी की रात भर
डूब कर हमको नहाना है उजाले में यहाँ
"रौशनी की ये नदी बहती रहेगी रात भर”
ये अंधेरा लाख हँसता ही रहे तो क्या हुआ
एक नन्हें दीप की फिर जंग छिड़ेगी रात भर
ये तिमिर बलवान लेकिन दरअसल डरपोक है
उससे अपनी दीपिका फिर-फिर लड़ेगी रात भर
मत रहे बेचैन कोई भाग जाएगा तिमिर
रौशनी उस ठाँव में जाकर बसेगी रात भर
ज़िंदगी में है उजाला-ही-उजाला दोस्तो
आस्था अपनी यहाँ हरदम जलेगी रात भर
हम हैं वंशज दीप के उजियार अपना धर्म है
अब तो अपनी या तुम्हारी ही चलेगी रात भर
ज़िंदगी का हर अंधेरा दूर होगा उस घड़ी
रौशनी जब साथ हो तो वो हँसेगी रात भर
लाख रोकेंगे अंधेरे रौशनी का रास्ता
पर उजाले की हवा 'पंकज' बहेगी रात भर
दीप की मुस्कान हमसे कुछ कहेगी रात भर
जीत होती ही रहेगी रौशनी की रात भर
डूब कर हमको नहाना है उजाले में यहाँ
"रौशनी की ये नदी बहती रहेगी रात भर”
ये अंधेरा लाख हँसता ही रहे तो क्या हुआ
एक नन्हें दीप की फिर जंग छिड़ेगी रात भर
ये तिमिर बलवान लेकिन दरअसल डरपोक है
उससे अपनी दीपिका फिर-फिर लड़ेगी रात भर
मत रहे बेचैन कोई भाग जाएगा तिमिर
रौशनी उस ठाँव में जाकर बसेगी रात भर
ज़िंदगी में है उजाला-ही-उजाला दोस्तो
आस्था अपनी यहाँ हरदम जलेगी रात भर
हम हैं वंशज दीप के उजियार अपना धर्म है
अब तो अपनी या तुम्हारी ही चलेगी रात भर
ज़िंदगी का हर अंधेरा दूर होगा उस घड़ी
रौशनी जब साथ हो तो वो हँसेगी रात भर
लाख रोकेंगे अंधेरे रौशनी का रास्ता
पर उजाले की हवा 'पंकज' बहेगी रात भर
दीपक की मुस्कान ही रौशनी के होने का प्रमाण है, यहाँ भी दीपक की मुस्कान के साथ प्रारंभ हुआ मतला बहुत सुंदर है। गिरह का शेर बहुत सुंदर है जिसमें रौशनी में डूब कर नहाने का प्रतीक रूप में प्रयोग किया गया है। अँधेरे और दीपक की लड़ाई का प्रयोग बहुत ही सुंदरता के साथ अगले शेर में आया है। तिमिर से दीपिका की लड़ाई रात भर चलती है यह बात बहुत अच्छे से आयी है। और यह बात एकदम सच कही है कि यदि दिल में आस्था हो तो ज़िंदगी में हर दम उजाला ही उजाला होता है। दीपक की चुनौती ही यही होती है कि हम तो रौशनी के रक्षक हैं या तो मिट जायेंगे या मिटा देंगे। जिससे प्रेम हो अगर वह साथ है तो फिर ज़िंदगी का हर अँधेरा दूर हो जाता है। और अंत में यह विश्वास भी क़ायम है कि अँधेरे भले ही कितना ही रौशनी का रास्ता रोकते रहें किन्तु रौशनी रात भर बहती रहती है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
बहुत अच्छे कलाम आज के तीनों महानुभावों के। आप तीनों को बहुत-बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह दूसरा धमाका भी क्या ख़ूब हुआ है। आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी का गीत क्या रवानी के साथ आगे बढ़ता है और उसके साथ पढ़ते पढ़ते जब भाव ज़हन में घुलते हैं तो क्या लुत्फ़ आता है, वाह वाह।
जवाब देंहटाएंआदरणीय धर्मेंद्र जी मेरे फेवरेट शायरों में से एक हैं। उनकी ग़ज़ल का हमेशा इंतज़ार रहता है। इस बार भी उन्होंने अपने खास अंदाज में बहुत खुबसूरत शेर कहे हैं।
आदरणीय गिरीश पंकज जी ने भी उजाले और अंधेरे के द्वंध पर बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल से हाजरी लगवाई है मुशायरे में। गिरह भी एकदम परफेक्ट लगाई है जी।
आभार
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंआदरणीय धर्मेन्द्र जी, की प्रस्तुतियों की हमें प्रतीक्षा रहती है, कहना अतिशयोक्ति न होगी। यह आपकी सशक्त लेखिनी का ही कमाल है। इस बार भी मतले से प्रारम्भ हुआ भाव-प्रवाह दीपोत्सव के विभिन्न आयामों को समेटता हुआ अंतिम शे’र तक अक्षुण्ण बना रहता है। दीपावली के अवसर पर झोपड़ी का जगमगाना और राजधानी का रौशन होना बखूब अभिव्यक्त हुआ है। वाह वाह वाह। लेकिन जो मिसरा पूरी प्रस्तुति में साधिकार उभर कर सामने आता है, वह ’सो रही इंसानियत की साँस घुटती रात भर’ है। तिस पर गिरह का शे’र पूरी सकारात्मकता के साथ शाब्दिक हुआ है। वाह वाह वाह। हार्दिक बधाइयाँ, धर्मेन्द्र भाई।
जवाब देंहटाएंशुभ-शुभ
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी, आपके स्नेह का सदा आकांक्षी रहा हूँ।
हटाएंअपने मतले में ही रौशनी की आश्वस्तकारी जीत की उद्घोषणा कर आदरणीय गिरीश पंकज जी ने अपनी प्रस्तुति को सपष्ट दिशा दे दी है। उसी बहाव में गिरह का शे’र भी हुआ है। और, इसी बहाव के विभिन्न आयामों को शाब्दिक करते हुए आगे के शे’र भी प्रस्तुत हुए हैं। दीपोत्सव के त्यौहार के अवसर पर सुखद आशाओं, अपेक्षाओं को पिरोते हुए गिरीश जी ने अपनी प्रस्तुति को पठनीय ही नहीं रोचक भी बना दिया है। हार्दिक बधाई, आदरणीय।
जवाब देंहटाएंदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभातिशुभ
आदरणीय राकेश जी के साथ एक ही मंच पर होना मेरे लिए गर्व का विषय है। हमेशा की तरह उनकी लेखनी से सुंदर गीत का सृजन हुआ है। बहुत बहुत बधाई आदरणीय राकेश जी को।
जवाब देंहटाएंआदरणीय गिरीश जी ने बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है। शानदार मतले के साथ शुरुआत कर शेर दर शेर अच्छी ग़ज़ल हुई है। बधाई आदरणीय गिरीश जी को।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंदीप की मुस्कान हमसे कुछ कहेगी रात भर
जवाब देंहटाएंजीत होती ही रहेगी रौशनी की रात भर
डूब कर हमको नहाना है उजाले में यहाँ
"रौशनी की ये नदी बहती रहेगी रात भर”
Bahut hi damkate sher ujalon ko aur roushan kar rahe hain .
रौशिनी की ये नदी बहती रहेगी रात भर
तीरगी को ज़ब्त वो करती रहेगी रात भर
सभी ग़ज़ल के शायरों को दिवाली की शुभकामनाएँ
आभार
हटाएंदेवी नागरानी
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंराकेश जी के गीत गजलों के लिए एक चुनौती बने खड़े होते हैं हर बार और इस बार भी उसी रूप में कायम हैं इस बार भी।
जवाब देंहटाएंधर्मेंद्र जी के फिर वही सीता, वही मारीच वाले शेर ने बड़ी सफलता से एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा किया है।
पंकज जी का अंतिम शेर विशेष रूप से सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर है।
सभी को हार्दिक बधाई।