सोमवार, 16 मार्च 2020

आज शीतला सप्तमी के साथ ही होली के पर्व का समापन होता है। तो आज होली के मुशायरे का हम विधिवत समापन करते हैं चार शायरों तिलकराज कपूर, नीरज गोस्वामी, भभ्भड़ कवि भौंचक्के, और राकेश खंडेलवाल के साथ।

मित्रों होली के मुशायरे का आज हम विधिवत समापन कर रहे हैं। देर से आए हुए मुसाफ़िरों के साथ यह समापन हो रहा है। असल में होता यही है कि पहले तो लोग नहीं कहते हैँ ग़ज़ल मगर फिर जैसे जैसे मुशायरा आगे बढ़ने लगता है, वैसे वैसे जोश आने लगता है और ग़ज़लें भी आने लगती हैं और मुशायरा भी आगे तक बढ़ जाता है। इस बार ज़रा सी मुश्किल यह थी कि अगर जोड़ ठीक से नहीं लगाया गया तो यह होने की पूरी संभावना थी कि रदीफ़ एकदम महत्त्वहीन हो जाए। मतलब यह कि मिसरे में रदीफ़ तो है मगर बात बिना रदीफ़ के भी पूरी हो चुकी थी, और रदीफ़ को केवल भर्ती के कारण रखा गया। अगर ऐसा हो तो शेर आनंद नहीं देता है। इस बार यह समस्या बहुत देखने में आई। दूसरी बात यह कि इस बार यह भी समस्या थी कि ईता का दोष मतले में ही बन जाए। हालांकि छोटी ईता को अब हिन्दी ग़ज़लों में ज्य़ादा नहीं माना जाता है, पर दोष तो फिर भी दोष है।


कोई मले गुलाल तो बुरा न मानो होली है
आइए आज हम चार शायरों तिलकराज कपूर, नीरज गोस्वामी,  भभ्भड़ कवि भौंचक्के, और राकेश खंडेलवाल के साथ होली के इस मुशायरे का विधिवत समापन करते हैं।
तिलकराज कपूर

 कुछ इस अदा से तुम कहो "बुरा न मानो होली है"
कि वो कहे "चलो हटो, बुरा न मानो होली है"।
हर इक दिशा में साज़िशें सियासती रची बसी
मिटा के नफ़्रतें कहो, "बुरा न मानो होली है"।
चिराग में दिखे धुआँ, तो नेह दे उसे कहो
"उजास तक तो साथ दो, बुरा न मानो होली है"।
समेट कर सभी के ग़म, वो लिख रहा है इक ग़ज़ल
लगा हृदय उसे कहो, "बुरा न मानो होली है"।
चलो वो अजनबी सही, लगा दिया गुलाल तो
नयन-नयन में कह भी दो, "बुरा न मानो होली है"।
सवाल पूछिये तो क्या, अगर हर इक सवाल का
रटा हुआ जवाब हो, "बुरा न मानो होली है"।
निकल पड़ी हैं टोलियां, लिए गुलाल थाल में
कोई मले गुलाल तो, बुरा न मानो होली है।
इनका इंतज़ार पहले ही दिन से चल रहा था। तिलक जी आजकल ट्यूबलाइट हो गए हैं, स्विच ऑन करने के बाद थोड़ी देर लगती है इनको जलने में। लेकिन जब जलते हैं तो एकदम भकभका कर ही जलते हैं। पिछली दो पोस्ट में कमेंटस में ही दिखाई दे रहे थे। ईद का चाँद तो इनको इसलिए नहीं कह सकते कि इनको देख कर हमें पूर्णिमा का पूरा चाँद ही याद आता है। क्यों आता है यह वह लोग जानते हैं, जो इनका प्रत्यक्ष अवलोकन कर चुके हैं। पहले ही दिन से ये हम नहीं खेलेंगे का नारा लगाए हुए थे, लेकिन जिस प्रकार रूठा हुआ बच्चा भी धीरे से मैदान में उतर ही आता है, वैसे ये भी आ गए और खेलने लगे। अब देर से आने के कारण क्या सज़ा दी जाए यह तो आप सब को तय करना ही है। जैसा कि हमने इस बार किया है कि हम ग़ज़ल पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, तो इनकी ग़ज़ल पर भी कोई चर्चा नहीं। कोई अगर ग़लती से इनकी ग़ज़ल पढ़ ले तो बुरा न मानो होली है।
नीरज गोस्वामी

गधे पे बैठ कर कहो, बुरा न मानो होली है
ढिंढोरा खुल के पीट दो, बुरा न मानो होली है
हैं नालियाँ ये मुंतज़िर चलो के इनमें अब ज़रा
लगा के नारा गिर पड़ो, बुरा न मानो होली है
वो सैंडिलों से पीटेगी, तो पीट ले मगर उसे
लगा के रंग कह भी दो, बुरा न मानो होली है
मटक मटक के यूँ चलो के जैसे अप्सरा चले
भुला दो ये के मर्द हो, बुरा न मानो होली है
 गुलाल मत कहो के ये तो प्रेम है, ख़ुलूस है
"कोई मले गुलाल तो, बुरा न मानो होली है"
हमारे गाल पर गुलाल आके मल दे और फिर
कहे ये खिलखिला के वो, बुरा न मानो होली है
चलो के नीरज आज इस ही भंग की तरंग में
कहो उसे के 'ऐ सुनो', बुरा न मानो होली है
नीरज जी ने भी दौड़ते-दौड़ते गाड़ी को पकड़ा है। इन दिनों बाकायदा दाढ़ी से युक्त हो चुके हैं। इनकी ताज़ा फ़ोटो को दिखा दिखा कर आप बच्चों को डराने का काम भी कर सकते हैं। इन्होंने ग़ज़लें कहना कब का छोड़ दिया है, बस कभी कभार मूड में आकर कुछ कह देते हैं, दो तीन साल में एकाध बार। एक किताब आ गई ग़ज़ल की अब और क्या करना है। वैसे जब ये बाकायदा ग़जल़ें कहते थे तब भी कोई इतना बड़ा कमाल नहीं करते थे, और जब अब नहीं लिख रहे हैं तो अब तो क्या कमाल करेंगे। इस बार ये भी तिलक जी की ही तरह मैदान के किनारे बैठ कर एक ही बात कह रहे थे कि हम नहीं खेलेंगे। फिर थोड़ी देर बाद इनको खेलने की इच्छा हो गई और ये कहने लगे कि हम भी खेलेंगे नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे। और आज शरमाते हुए लजाते हुए ये आ गए हैं। कमाल की उम्मीद तो हमने भी नहीं लगाई तो आप भी मत लगाइये। बस ये ही कहना है कि बुरा न मानो होली है।
भभ्भड़ कवि भौंचक्के

ये मंत्र फागुनी सुनो, बुरा न मानो होली है
"कोई मले गुलाल तो, बुरा न मानो होली है"
ये दुश्मनी का दिन नहीं, है पर्व दोस्ती का ये
मिटाओ बैर-भाव को, बुरा न मानो होली है
तरंग भंग की है आज फाग में घुली हुई
उठो गिरो, गिरो उठो, बुरा न मानो होली है
गली में रोक कर उसे, क़रीब खींच कर उसे
गले लगा के कह भी दो, बुरा न मानो होली है
ज़रा सा रंग डालने पे इस क़दर ख़फ़ा न हो
मुआफ़ कर दो अब चलो, बुरा न मानो होली है
ज़रा सी छेड़छाड़ आज हो गई तो हो गई
न मुँह फुला के यूँ रहो, बुरा न मानो होली है
नसीहतें न दो के ये गुलाल, रंग कुफ़्र है
चलो मियाँ, परे हटो, बुरा न मानो होली है
ये रंग की हैं टोलियाँ, निकल के घर से इनमें तुम
ये कह के कूद भी पड़ो, बुरा न मानो होली है
अदा ये रूठने की है पसंद हमको, पर जो अब
मना रहे हैं तो मनो, बुरा न मानो होली है
पलाश हैं खिले जो उनके सुर्ख़-सुर्ख़ गाल पर
चुरा लो उनको और कहो, बुरा न मानो होली है
शरारतें, हिमाक़तें, तमाम बदतमीजियाँ
भुला के सब ज़रा हँसो, बुरा ना मानो होली है
हैं गोपियों की गालियाँ उधर, इधर जवाब में
कहे है हँस के साँवरो, बुरा न मानो होली है
बुरा है हमने भी कहा, बुरा है तुमने भी कहा
चलो के अब गले मिलो, बुरा न मानो होली है
ये लम्स फागुनी है दंश कौड़ियाले नाग का
है ज़ह्र ये, मज़ा चखो, बुरा न मानो होली है
तुम्हारे ये गुलाब लब, ये दावतें हैं रंग की
लबों को अपने रँग लूँ जो, बुरा न मानो होली है
जो आज रंग है ये कल तुम्हें मिले, नहीं मिले
न आज रंग से बचो, बुरा न मानो होली है
कहा ये उसने हम पे सुब्ह छत से रंग फेंक कर
'सुबीर' जी ख़फ़ा न हो, बुरा न मानो होली है
भभ्भड़ कवि भौंचक्के पर कोई कमेंट करने की हमारी इच्छा नहीं है। भभ्भड़ कवि के बारे में क्या करना है यह आप लोगों को तय करना है। हम तो भभ्भड़ कवि को मुँह लगाने योग्य भी नहीं समझ पा रहे हैं। तो भभ्भड़ कवि आपके हवाले।
राकेश खंडेलवाल

ये कमबख़्त मौसम ही ऐसा है की हाथ छूते ही कलम पतंग बन जाती है
चल  गोवर्धन कूँ जाएँ मेरे वीर नाँय मान अब मनुआ
उड़ानें रंग गुलाल अबीर नाय मानत अब मनुआ
दिल्ली में होवे हुड़दंगो
राजा दीखे सगरो नंगों
कर दीनी नीलाम मनुजता
दारोग़ा बस लेवे पंगो
सबभूल भाल  के होरी खेल मानत नाँय मेरी मनुआ
कोई माल दे अगर गुलाल तो मत मन बुरी मेरे मनुआ
टीवी वारो फिर भड़कावें
झूठी ख़बरन कूँ फैलावे
सगरे जन तो प्रेम मगन है
दबी राख को वो भड़कावे
डार कुआँ में में वाय मेरे वीर मानत नाँय मेरो मनुआ
उडावत कोई गुलाल अबीर मत मान बुरो मेरे मनुआ
चल सीहोर छेड दें रसिया
पंकज रख्ये बना कै गुझिया
नीरज आवें भांग चढ़ाकर
तिलक अश्विनी लें करवटिया
पाँच किलो की गरम जलेबी अंकित ले के आए मेरे मनुआ
खुद ही मलें गुलाल दिगम्बर अब की होरी पे मेरे मनुआ
सौरभ बैठे गंगा तीरे
हाशिम जा मौसम  में सीरें
वासुदेव बस पड़े सोचमे
पारूल तले इमारती धीरे
नुसारत रखें बनाकर खीर चल के अब खावे सुन मनुआ
मल दें जम के आज गुलालकोऊ बुरो न मानेगो मनुआ
राकेश जी की मशीन बहुत ज़्यादा काम करती है। एक तरही में कम से कम तीन रचनाएँ तो उनकी होती ही हैं। तीनों रचनाएँ अलग अलग तरह की सामने आती हैं उनकी। एक प्रकार की रचना से उनको ख़ुद ही संतुष्टि नहीं मिलती है। इस बार भी तरही के तीनों अंकों में वे शामिल रहे हैं। इस उम्र में भी (जी हाँ बूढ़े तो वे हैं) इनकी यह सक्रियता देख कर हमें तो रश्क होता है। अमेरिका में रहते हुए भी उनके पास इतना समय है, यह एक जाँच का विषय हो सकता है। लेकिन इससे हमें तो फायदा ही है, नुकसान तो डोनाल्ड ट्रंप का है, तो जाँच करवाना है तो वह करवाए, हम क्यों चिंता करें। इस तीसरी रचना में उन्होंने परंरा के अनुसार ब्लॉग के कुछ नामों को कविता में शामिल किया है। होली की यह एक अच्छी परंपरा रही है जो अब समाप्त होती जा रही है। लेकिन हमारे बुज़ुर्गों को इसकी चिंता है। बूढ़ा और बुज़ुर्ग कहने पर जो बुरा लग रहा हो तो बुरा न मानो होली है।

तो मित्रों होली की इन रचनाओं का आनंद लीजिए दाद दीजिए और तालियाँ बजाइए। होली का मुशायरा आज समाप्त घोषित किया जा रहा है, जल्द ही आपसे अगले मुशायरे में मुलाकात होगी। दाद देते रहिए आनंद लेते रहिए।


6 टिप्‍पणियां:

  1. पूरी होली में सबसे खूबसूरत महिला नीरजा जी लगीं, एकदम ओरिजिनल, अपनी ग़ज़ल की तरह। असल में इस उम्र में सेवानिवृत्त के पास कोई काम तो होता नहीं, तो लिखने की आदत समाप्त हो जाती है। इसलिये हम दोनों के विलंब को सद्भावनापूर्वक लिया जाना चाहिए। मेरी बात इससे भी सिद्ध होती है कि असेवानिवृत्तों को देखें। भभ्भड़ कवि ने पेल दी इतनी लंबी ग़ज़ल और राकेश जी ने तीन रचनाएं। होता यह कि आजकल कंप्यूटर आ जाने से किसी को ऑफिस में कोई काम तो बचा नहीं है लेकिन दूसरों को दिखाना भी होता है कि कुछ काम कर रहे हैं तो बैठे-बैठे गीत और गजल पेले जाओ। किसी को क्या पता कि क्या हो रहा है। बस यह लगता है कि हुजूर काम कर रहे हैं।
    अब होली की तरह होने से रचनाओं पर तो कुछ कहना की स्थिति नहीं है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि संपूर्ण प्रस्तुति में आनंद आ गया।
    तकनीकी पक्ष पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि रदीफ़ अपने आप में संपूर्ण वाक्य होने पर गजल कहनाथोड़ा कठिन तो हो जाता है।

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  2. हम को सच में नहीं आना था आते भी नहीं तभी एक सुरुगेट शायर मिल गए नमकीन के भयानक शौकीन बोले हमें नमकीन खिला दो हम आपके नाम से लिख देंगे वो न भी लिखते तो भी हम उन्हें खिला देते आप सब हमें जानते ही हैं खैर लिख दी उन्ने नमकीन फांक के अब ये बात अलग कि खिलाई गई नमकीन उनकी कही ग़ज़ल से हजार गुणा अच्छी थी...इससे बढ़िया हम ही लिख लेते पर पछताए होत क्या जब शायर फांकी नमकीन... क्या कहा मुहावरा सुर में नहीं है...हां नहीं है हमने कब कहा कि है...
    तिलक बाबू हमारे उस्तादे मोहतरम हैं खोपड़ी पर बाल भले न हों पर उसमें माल बहुत है वैसे भी गंजो की खोपड़ी खूब चलती है और हम जैसों की कंघी...
    भभ्भड़ कवि को कोरोना की तरह हाईप कर दिया है लेना देना कुछ है नहीं इनको शायरी से बस पेलते जाते हैं हर बार, कोरोना का तो एंटीडोट फिर भी बन जाए इनका बनना मुश्किल है.
    राकेश जी जैसे लोग हम जैसों के लिए वंदना करने को अवतरित होते हैं... साक्षात अवतार हैं किसके हैं ये खोज का विषय है आप ही बताओ आम जन तीन तीन रचनाएं पेल सकता है क्या ये अवतारों का ही काम है उन्हें ही शोभा देता है हम जैसे तो टिप्पणी लिख के ही खुश हैं...
    जो मन में आया कह दिया हम नहीं कहेंगे कि बुरा न मानो होली है

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  3. समापन शानदार रहा, क्यों न होता......तीन एक्के एक साथ थे आख़री बाज़ी में , सोने पर सुहागा यह कि चौथा ट्रम्प कार्ड (अमेरिका वाले) भी साथ आ गये ...मुशायरा लूट लिया, तालियां!!!

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  4. तीनो रचनाकारों की रचनाएं बहुत खूब हैं ।पढ़कर आनंद आ गया।

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  5. बहुत खूब ,वाह वाह। शानदार ग़ज़ल, शानदार समापन

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