गुरुवार, 1 मार्च 2018

आज होलिका दहन की फाल्गुनी पूर्णिमा है आज से होली का पर्व प्रारंभ हो जाता है, आइये आज हम नुसरत मेहदी जी, द्विजेंद्र द्विज जी, निर्मल सिद्धू जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह, राजीव भरोल और दिगंबर नासवा के साथ तरही के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।

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होली का त्योहार भी आ ही गया। और इसके साथ ही हर तरफ़ रंग ही रंग बिखरते दिखाई दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों आसमान के इंद्रधनुष ने कुछ समय के लिए हमारे देश की धरती पर उतर कर विश्राम करने का निर्णय ले लिया हो। हर तरफ़ रंगों का उल्लास बिखरता दिखाई दे रहा है। जैसे प्रक़ृति के सारे रंगों को चुरा कर हम एक दूसरे को आज हर रंग में रँगने को तैयार हो गए हों। आज रात होलिका दहन होगा और कल से रंग का पर्व प्रारंभ हो जाएगा। प्रारंभ शब्द इसलिए क्योंकि हमारे यहाँ मालवा में धुलेंडी को और दूज को रंग होता है। फिर रंग पंचमी को महा रंग होता है। इस बीच होली के फाग गायन, होली मिलन आदि के कार्यक्रम तो बहुत दिनों तक चलते रहते हैं। तो हम भी इस पाँच दिन के रंग पर्व में आज से सराबोर होने जा रहे हैं। हमारे लिए भी अब सब कुछ भूल कर बस उल्लास और उमंग में खो जाने का समय आ चुका है। हो लीजिए होली के रसिया। होली है।

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इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

मित्रो आज होलिका दहन की फाल्गुनी पूर्णिमा है आज से होली का पर्व प्रारंभ हो जाता है, आइये आज हम नुसरत मेहदी जी, द्विजेंद्र द्विज जी,  निर्मल सिद्धू जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह, राजीव भरोल और दिगंबर नासवा के साथ तरही के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।

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सबसे पहले तो हम सबकी ओर से आदरणीया नुसरत मेहदी जी को जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ, और गौतम राजरिशी के शब्दों में “हमारी अपनी परवीन शाकिर” को यशस्वी जीवन की दीर्घ मंगल कामनाएँ। वे इसी प्रकार खूब सृजन करती रहें, अपनी ग़ज़लों से, अपने शेरों से, अपने गीतों से हम सबको रंग से सराबोर करती रहें। उनके शेरों में जो ताज़गी और जो अपने पर अपने होने पर एक प्रकार का स्वा​भिमान होता है, वह देर तक हमें उनकी कहन के रंग में ​भिगोए रखता है। और सबसे महत्तवपूर्ण बात यह कि बावजूद इसके कि वे उर्दू अकादमी की सचिव, नेशनल बुक ट्रस्ट की सदस्य और और बहुत पदों पर हैं, लेकिन वे तरही मुशायरे के लिए समय निकाल कर हमेशा अपनी ग़ज़ल समय पर भेज देती हैं। यही वो बात है जो किसी भी रचनाकार को विशिष्ट बना देती है। ऊँचाइयों की ओर बढ़ते समय सहज और सरल बने रहना ही सबसे ख़ास बात होती है। और नुसरत मेहदी जी में वो खास बात इतनी है कि यह सरलता ही उनके शेरों को अपनेपन की महक से भर देती है। वे इसी प्रकार अपनी ग़ज़लों से हमारे समय को रौशन करती रहें, उनके होने से हमारे जीवन में कुछ ख़ूबसूरत ग़ज़लें होती हैं। हम सबकी ओर से उनको जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।

नुसरत मेहदी जी

कहीं जाओ बसंती रुत सुहानी याद आएगी
नए मौसम में इक ख़ुशबू पुरानी याद आएगी

वो आंगन में महकती रातरानी याद आएगी
तुम्हे गांव की अपनी ज़िन्दगानी याद आएगी

वो हुलियारों की टोली और वो हुड़दंग घर घर में
शरारत से किसी की छेड़खानी याद आएगी

वो होली के बहाने लम्स के जादू जगा देना
दिलों की बात रंगों की ज़बानी याद आएगी

तुम्हारे नाम से जिसने बसा रक्खी थी इक दुनिया
वो अल्हड़ उम्र की लड़की दिवानी याद आएगी

घने पीपल तले तन्हाई में क़िस्से मोहब्बत के
वो पनघट पर जो पनपी थी कहानी याद आएगी

वो चेहरा ज़ाफ़रानी वस्ल के रंगी तसव्वुर से
उड़ी जाती थी इक चूनर जो धानी याद आएगी

वो उजले पैरहन पर रंग होली के उभर आना
वो पल में ख़्वाहिशों की खुशबयानी, याद आएगी

नई एक दास्ताँ जब भी लिखोगे तुम ज़माने में
तो इक आधी अधूरी सी कहानी याद आएगी

नए मौसम में आने वाली उस पुरानी ख़ुशबू का ज़िक्र जैसे ग़ज़ल के प्रारंभ होते ही हमें यादों के गलियारे में ले जा रहा है। ख़ूबसूरत मतला। और उसके बाद उतना ही सुंदर हुस्ने मतला गाँव जिसे हम छोड़ आए हैं उस गाँव के घर में महकती रातरानी की बात आते ही साँसों में सुगंध समा गई जैसे। होली के पूरे रंग में रंगी हुई है यह ग़ज़ल। ऐसा लगता है जैसे रंगों से ही लिखी हुई हो। शरारत से किसी की छेड़खानी के याद आने में जो मासूमियत है, वह बार बार शेर को सुनने पर मजबूर कर रही है। और होली के बहाने लम्स के जादू……. उफ़्फ़….. सच में यही तो होली थी। ग़ज़ब का शेर। और अगले दोनों शेर जो प्रेम के रस में सराबोर हैं तुम्हारे नाम से जिसे बसा रक्खी थी में अल्हड़ उम्र की लड़की….. ये तो हम सबकी कहानी है….. और घने पीपल वाला शेर एकदम कलेजे में उतर जा रहा है। हम सबके जीवन में यह घना पीपल ज़रूर आया है। ज़ाफ़रानी वस्ल के रंगी तसव्वुर….. वाह उस्तादाना अंदाज़ और किसे कहेंगे ? ख़्वाहिशों की ख़ुशबयानी का उम्र के किसी मोड़ पर याद आना।  नई एक दास्ताँ जब भी लिखोगे में आधी अधूरी सी कहानी….. होली में रोना मना होता है मगर यह सुन कर पलकें खुद ब खुद भीग जाएँ तो कोई क्या करे ? बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल, शानदार, वाह वाह वाह।

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द्विजेन्द्र द्विज

किसी होली की वो पहली निशानी याद आएगी
घड़ी, जिसमें हुई थी आग पानी, याद आएगी

सुलगते मौसमों में रुत सुहानी याद आएगी
नई दुनिया में वो दुनिया पुरानी याद आएगी

हवा का जोश, मौजों की रवानी याद आएगी
बुढ़ापे में जवानी की कहानी याद आएगी

छुपी है पंखुड़ी इक आज जो इस दिल के पन्नों में
इसे देखोगे तो अपनी जवानी याद आएगी

बहुत बेताब करती थी ख़याले यार की ख़ुशबू
जुनूँ के मौसमों की रातरानी याद आएगी

जो सिर चढ़ कर कभी बोला किसी के प्यार का जादू
तो पतझड़ में भी ख़ुश्बू ज़ाफ़रानी याद आएगी

करिश्मासाज़ होती है बड़ी दिल में बसी सूरत
हर इक सूरत से सूरत आसमानी याद आएगी

जिसे लश्कर भी ख़ुशियों के न छू पाए कभी आकर
ग़मों की उम्र भर वो राजधानी याद आएगी

मुझे रह-रह अकेलेपन के सन्नाटे के जंगल में
तुम्हारे साथ बीती ज़िन्दगानी याद आएगी

बदलती है दुपट्टे ज़िन्दगी ! कितने ही तू लेकिन
हमें अक्सर तेरी चुनरी वो धानी याद आएगी

ख़ुदा ना ख़्वास्ता हालात जब तेरी ज़ुबाँ सिल दें
बुज़ुर्गों की तुम्हें ’द्विज’ बेज़ुबानी याद आएगी

आज तो लगता है कि उस्तादों का ही दिन है। भाई द्विज तो वैसे भी उस्ताद शायर ही हैं। मतला और उसके बाद के दोनों हुस्ने मतला एक दम एक दूसरे से बढ़कर हैं। मतले में होली की वो पहली निशानी जिसमें आग का पानी होना….. उफ़्फ़ क्या उस्तादाना सलीक़े से बात कह दी है। ग़ज़ब। और नाज़ुक सा शेर जिसमे दिल के पन्नों में छिपी हुई फूल की पंखुड़ी का ज़िक्र है… क्या नफ़ासत है, याद का इससे सुंदर चित्रण और क्या होगा भला ? जूनूँ के मौसमों की रातरानी…… ऐसा लगता है कि आज शेरों से ही मार डालने का इरादा लेकर निकले हैं, ग़ज़्ज़्ज़्ज़ब…. क्या शब्दों की कारीगरी है भई। और अगले ही शेर में पतझड़ में महकती जाफ़रानी ख़ुशबू साँसों में गहरे उतर गई। प्रेम के कितने रंग भरे हैं भाई द्विज ने इस ग़ज़ल में, दिल में बसी सूरत को सूरत आसमानी तक लेकर जाना बस शायर के तसव्वुर का ही कमाल होता है।  और अगले तीनों शेरों में विरह के रंग भरे हुए हैं। उदासी के भूरे रंग से लिखे हुए हैं ये शेर। ग़मों की राजधानी हो या अकेलेपन के सन्नाटे के जंगल हों हमें हमेशा एक चुनरी धानी याद आती ही है। और मकते का शेर तो जैसे सबकी ज़ुबाँ पर ताला लगाने वाला है। क्या बड़ी बात एक शेर में कह दी है भाई जियो… बहुत ही सुंदर ग़ज़ल… ग़ज़ब वाह वाह वाह

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निर्मल सिद्धू जी

गुलों की इक हसीं दिलकश कहानी याद आयेगी
मुहब्बत की मिली थी जो, निशानी याद आयेगी,

ये होली के नज़ारे हैं, ये रंगो की बहारें हैं
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी
,

उड़ा करते थे हम तो इश्क की रंगी फिज़ाओं मे
वो मस्ती का समां वो रुत सुहानी याद आयेगी,

कभी जब रंग बरसेगा युं माज़ी के झरोखों से
सकूं दिल को मिलेगा जब पुरानी याद आयेगी
,

जो रहती थी सदा गुमसुम मेरे ही प्यार मे हरदम
जलेगी दिल मे जब होली, दिवानी याद आयेगी ।

नशे मे डूबे ' निर्मल ' को हसीं चेहरा दिखेगा जब
उसे अपनी वो गुजरी ज़िन्दगानी याद आयेगी ।।

गुलों की हसीं दिलकश कहानी में बसा हुआ मतला जो मुहब्बत की पहली निशानी के मिसरा सानी तक पहुँच रहा है, बहुत प्रेमिल अंदाज़ में अपनी बात कह रहा है। प्रेम सचमुच काव्य का, जीवन का, हम सबका स्थाई भाव होना ही चाहिए। प्रेम को यदि स्थाई भाव बना लिया जाए तो जीवन आसान हो जाए और इश्क़ की रंगी फिज़ाओं को उस मस्ती के समाँ को याद न करना पड़े जिसमें हम उड़ा करते थे। बहुत सुंदर शेर। और माज़ी के झरोखे से बरसते हुए रंग से दिल का सुकूं पा जाना यही तो जीवन है और यही तो प्रेम है। कबीर भी इस ही वर्षा की बात करते हैं। इस कान्फिडेंस पर कौन न क़ुर्बान जाए कि वो मेरे ही प्यार में गुमसुम रहती थी, यह बिल्कुल पक्का है। हाँ लेकिन यह भी सच है कि जब भी दिल में होली जलती है तब वही एक चेहरा सबसे पहले याद आ जाता है। होली असल में हमारे दिल में बरसों बरस से सुलग रही है और बरसों बरस तक सुलगती रहेगी, यह बुझ जाएगी तो हमारा जीवन भी समाप्त हो जाएगा। और मकते तक आते-आते हर शायर कान्फिडेंस से कन्फ़ेशन की मुद्रा में आ ही जाता है। नशे में डूबे निर्मल को हसीं चेहरा दिखते ही पुराना समय याद आ रहा है। किसको नहीं याद आता है वह बीता समय, वह बीती ज़िंदगानी। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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राजीव भरोल

पुराने दोस्तों की मेज़बानी याद आयेगी
तुम्हें महलों में भी बस्ती पुरानी याद आयेगी

वो फुर्सत की दुपहरी और वो फरमाइशी नगमे
तुम्हें परदेस में आकाशवाणी याद आएगी

समंदर का सुकूं बेचैन कर देगा तुम्हें जिस दिन
नदी की शोख लहरों की रवानी याद आएगी

फकीरी सल्त्नत है हम फकीरों की तुम्हें इक दिन
हमारी सल्तनत की राजधानी याद आएगी

कभी जब आसमानों की हदों का ज़िक्र होगा तो
थके हारे परिंदों की कहानी याद आएगी

गले लग जाएगा आकर वो इक दिन देख लेना तुम
उसे खुद दी हुई अपनी निशानी याद आएगी

बहारे गुल हसीं चेहरे गुलो गुलफाम क्या देखें
इन्हें देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी

मतले के साथ ही ग़ज़ल नॉस्टेल्जिया लेकर आती है। एक नए मेज़बानी पुराने दोस्तों की…. वाह वाह क्या बात कही है। कभी कभी किसी मिसरे में एक दो शब्द ही इस प्रकार संगठित होते हैं कि वो मुकम्मल ग़ज़ल ही हो जाते हैं। अगला शेर पढ़कर ऐसा लग रहा है कि बस बुक्का फाड़ के रो ही दिया जाए। यादों का इससे सुंदर चित्रण और क्या हो सकता है, फुर्सत की दुपहरी, फरमाइशी नगमे और आकाशवाणी…. बस कर पगले रुलाएगा क्या? और फिर अगला ही शेर दो तुलनाएँ लिए खड़ा है, नदी की शोखी और समंदर का सुकून…. जैसे हम सबके जीवन का फ़लसफ़ा लिख दिया गया हो दो मिसरों में। ग़ज़ब। और अगला शेर उस्तादाना अंदाज़ में कहा गया है। जिसमें अपने दिल को अपनी सल्तनत की राजधानी बताते हुए चैलेंज है कि तुम चाहे जहाँ रहो तुमको इसकी याद आएगी ही आएगी। आसमानों की हदों का ज़िक्र और परिंदों की कहानी, यह एक बार फिर पलकों की कोरों को नम करने वाला गीत है। और अगला शेर दुष्यंत और शकुंतला के बीच की कहानी को ही मानों अभिव्यकत कर रहा है। लेकिन समय का पहिया अक्सर यही करता है कि याद आते आते बहुत देर हो जाती है। निशानी पुरानी हो चुकी होती है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है, वाह वाह वाह ।

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह

रगों को ख़ून की जब-जब रवानी याद आयेगी
नसों में गुम हुई है जो कहानी याद आयेगी

किसी के हुस्न पर चढ़ जाएगा जब इश्क़ का जादू
मुझे तेरी ही रंगत ज़ाफ़रानी याद आयेगी

महक उट्ठेंगे मन के ज़ख़्म जब-जब चाँदनी छूकर
खिली जो दोपहर में रातरानी याद आयेगी

मैं भूखा और प्यासा जिस्म के सहरा में भटकूँगा
तो तेरे लब की नाज़ुक मेज़बानी याद आयेगी

बड़े होकर ये दोनों पेड़ देंगे वायु, फल, छाया
तो दुनिया को हमारी बाग़बानी याद आयेगी

निरंतर सींचते रहिए है नाज़ुक प्यार का पौधा
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी

धमेंद्र के तेवर हमेशा अलग ही रहते हैं। कुछ तल्ख़ और सवाल पैदा करते हुए शेर कहना इनकी फितरत है। मतला ही ऐसे ज़बरदस्त अंदाज़ के साथ शुरू हो रहा है कि बस, रगों को ख़ून की रवानी याद आना और उस बहाने से गुम हो चुकी कहानी…. ग़ज़ब है भाई… ग़ज़ब। और उसके बाद एकदम प्रेम का शेर जिसमें किसी दूसरे पर किसी तीसरे का रंग, जादू चढ़ जाने पर हमें किसी अपने की रंगत ज़ाफ़रानी याद आ रही है। मुझे लगता है कि प्रेम का रंग इस बार के मुशायरे के बाद गुलाबी से बदल कर ज़ाफ़रानी कर दिया जाना चाहिए। और….. दोपहर में रातरानी का खिलना… ग़ज़ब का सलीक़ा है भाई कहने का…. क्या ज़रूरी है कि हर बात को खुल कर कहा जाए, ग़ज़ल का सलीक़ा और तरीक़ा क्या होता है यह इस शेर से पता चल रहा है। और फिर एक बार उस्तादाना अंदाज़ में कहन आई है तेरे लब की नाज़ुक मेज़बानी….. इन शब्दों के गूँथने का प्रभाव केवल कोई रसिक प्राणी ही बता सकता है। और अगला शेर दाम्पत्य जीवन, गृहस्थाश्रम की सजीली बानगी प्रस्तुत कर रहा है। हम सबकी बाग़बानी हमारे बाद याद आती है। अंत में गिरह का शेर प्यार के पौधे के सींचने के साथ बहुत ख़ूबी से बना है। जवानी उसी को देखकर याद आएगी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। वाह वाह वाह।

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दिगंबर नासवा

झुकी पलकें चुनरिया आसमानी याद आएगी
छुपा कर दिल में रक्खी हर कहानी याद आएगी

हमारे प्रेम के सच पर जिसे विश्वास था पूरा
गुज़रते वक़्त की परियों सी नानी याद आएगी

न गर्मी की ही है पदचाप ना सर्दी की हलचल है
हवा धूली ही होली की निशानी याद आएगी

ये ढोंगी मीडिया पानी की बर्बादी पे रोएगा
इन्हें ये बात होली पर उठानी याद आएगी

गुलालों से के कीचड़ से इसे होली से मत रोको
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

भले मामा कहेंगे उसके बच्चे देख के मुझको
वो मिल जाएगी तो होली पुरानी याद आएगी

चढ़ा के भांग देसी रम विलेती सोमरस हाला
गटर के गंद में ही रुत सुहानी याद आएगी

और अंत में एक शेर जो पूरी तरह से होली के रंग में रँगी हुई है। मतले में प्रेम की वो आसमानी चुनरिया लहरा रही है, जिसके लहराने से मन के अंदर हर तरफ़ आसमानी रंग फैल जाता है। जब वो लहराती है तो छिपा कर रखी हुई हर कहानी का याद आना तो बनता है। और अगले शेर में प्रेम के सच पर विश्वास, वाह तीन शब्दों को आपस में गूँथ कर क्या कमाल का टुकड़ा बनाया है, हमारे समय के तीन बड़े शब्द हैं ये प्रेम, सच और विश्वास, ग़ज़ब जोड़ा है तीनों को। शेर की हाइट है ये कि नानी परियों सी हैं, हम सबकी नानियाँ परियों सी ही होती हैँ। और अगला शेर मानों मेरे दिल की बात कह रहा है। सच में मुझे भी बहुत क्रोध आता है जब ऐन होली के समय ही मीडिया को पानी की बर्बादी की बात सूझती है। जिनकी कारें हज़ारों लीटर पानी से धुलती हैं, वो पानी की बर्बादी की बात करते हैं। और बचपन की मासूमियत को होली मनाने से नहीं रोकने की बात करने वाला शेर बहुत अच्छे से गिरह का शेर बन गया है। और अगले ही शेर में बहुत ही मासूमियत के साथ स्वीकार कर लेना कि अब उसके बच्चे मामा कह कर बुलाते हैं। इस मासूमियत पर तो सब कुछ क़ुर्बान। आय हाय टाइप का शेर बन गया है यह। और अंत के शेर की रुत सुहानी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, वाह वाह वाह

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तो मित्रो आज तो छह रचनाकारों ने मिल कर होली का ज़बरदस्त रंग जमा दिया है। यही तो वह रंग है जिसके लिए बार-बार हम अपने तरही मुशायरे की तरफ़ लौटते हैं। हर बार लगता है कि इस बार उत्साह की कमी है, लेकिन जैसे-जैसे समय आता है, वैसे-वैसे लोग उत्साह से भरने लगते हैँ। और एक से बढ़कर एक ग़ज़लें आने लगती हैं।  कई लोगों का उत्साह तो तरही मुशायरा शुरू हो जाने के बाद एकदम से बढ़ता है। मैंने तो पहले ही कहा है कि हमारी तो यह शिमला वाल खिलौना ट्रेन है, इसमें आपकी जब भी इच्छा हो, आप तब आकर बैठ सकते हैँ। हम तो धीमी रफ़्तार से चलते रहेंगे। और तो और हम तो कई दिनों तक बासी मुशायरा भी चलाते रहते हैं। मतलब यह कि अगर आप बाद में भी उत्साह में आ रहे हैं तो बाद में भी कह दीजिए ग़ज़ल, उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। आपके लिए बासी होली का आयोजन भी कर दिया जाएगा। हमारा मक़सद तो बस यही है कि आपके अंदर की रचनाधर्मिता बनी रहे। वह रचनाधर्मिता जो आपको अंदर से नम बनाए रखेगी, आपको सुंदर बनाए रखेगी। ख़ैर यह तो तय है कि आज के छहों शायरों ने कमाल किया है। तो आपकी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ी हुई है अब आपको देर तक तालियाँ बजानी हैं और देर तक वाह वाह करनी है। करते रहिये।

17 टिप्‍पणियां:

  1. नुसरत जी से लेकर दिगंबर जी तक एक से एक खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ने को मिली। रंग और प्रेम में सरोबार बहुत ही सुंदर मुशायरा जम रहा है कमाल। लग रहा है त्योहार के दिन सारा परिवार साथ आ बैठा है।

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  2. तरही तो परवान चढ़ चुकी है ...
    नुसरत दी को जनम दिन की हार्दिक बधाई ...गाँव आँगन बसंती रुत की यादें समेटे बहुत ही कमाल की शुरुआत है ग़ज़ल की ... मतले ने समा बाँध दिया और उसके बाद तो कहना ही क्या ... लाजवाब शेर ... बधाई फिर से जनम दिन और बेहतरीन ग़ज़ल की ...

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  3. बहुत बढ़िया ग़ज़ल नुसरत जी. 'वो अल्हड उम्र...' वाला शेर कमाल है.

    सचिन तेंदुल्का ने एक ही मैच में दो सेंचुरी मार दी हैं.
    दूसरी ग़ज़ल एकदम अलग मूड की है लेकिन इस में भी द्विज जी ने कमाल किया है.

    निर्मल जी ने गिरह बहुत बढ़िया बाँधी है. अच्छे शेर कहे हैं.
    धर्मेन्द्र जी: वाह. बहुत बढ़िया.
    दिगंबर जी वो मामा वाला शेर...बढ़िया है :) अच्छी ग़ज़ल.

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  4. द्विज भाई ने तो फिर से धमाका कर दिया ... आग को पानी कर दिया ... तेंदुलकर ने दो डाउन पे आ कर भी आतिशी पारी खेली है ... उस्तादों का उस्ताद इसी को कहते हैं .... हर शेर पे तालियाँ बजाने का मन करता है ... और वो धानी चुनरी वाला शेर तो जान खींच ले गया ... बहुत बहुत बधाई पुनः ...

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  5. निर्मल जी ने भी होली के बहाने पुरानी यादों में उतार दिया ...
    बहुत ही लाजवाब शेर ... माज़ी के झरोखे से ... बहुत ही बेहतरीन शेर ... बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर सरोबर की ...

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  6. राजीव ने तो सच में हम जैसो के लिए लिख दिया ... परदेस में आकाशवाणी याद आएगी ... बिलकुल याद आती है ... वो पुरानी यादें, त्यौहार, मस्ती के आलम ... ग़ज़ल ने सोच की दिशा बदल दी ... बहुत बधाई ...

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  7. भूख और प्यास और उनके लबों की मेजबानी ... क्या गज़ब की सोच है धर्मेन्द्र जी ... अलग अंदाज़ का बेहतरीन शेर ....
    पेड़ों से जुड़ा शेर प्राकृति की तरफ झुकाव दर्शाता है जो आज की जरूरत है ... और अंत में प्रेम ही सर्वोपरी है यही कहता है लाजवाब शेर ... मुशायरा अपनी जवानी पे है और सभी लाजवाब गजलें दिल को आनंदित कर रही हैं ... बधाई इस आयोजन की ...

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  8. अहा....कमाल..बेमिसाल... लाजवाब... गजब...

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  9. ये हुई न रंगारंग होली प्रस्तुति
    आपको भी होली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं

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  10. नुसरत जी, कमाल की ग़ज़ल।
    वो उजाले पैहरन.........
    तुम्हारे नाम से...गजब के शेर

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  11. सारी ग़ज़लें कमाल की हैं । सभी को होली की बधाई

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  12. द्विज जी की दूसरी पारी भी शानदार
    मतला... आग पानी वाह, जबरदस्त
    वो सिर चढ....... सुन्दर
    निर्मल जी,... जो रहती थी... वाह वाह

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  13. राजीव भरोल जी वाह,
    फकीरी सल्त्नत......
    कभी जब आसमानों..... सुन्दर
    धर्मेंद्र जी, मैं भूखा और प्यासा.... बढिया, उत्तम
    दिगम्बर जी की ग़ज़ल सच के कितनी करीब है, वाह, बधाई स्वीकार करें

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  14. इस अंक में भी एक से बढ़कर एक ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं।

    नुसरत मैडम को जन्मदिन की belated शुभकामनाएं।

    वो होली के बहाने लम्स के जादू जगा देना
    दिलों की बात रंगों की ज़बानी याद आएगी

    होली पर पढ़ा गया एक सबसे बेहतरीन शेर्। पूरी ग़ज़ल ही लाजवाब हुई है।

    द्विज sir की करिष्मासाज़ी का तो कोई जवाब नहीं..
    सभी शेर् एक से बढ़कर एक हुए हैं।


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  15. उड़ा करते थे हम तो इश्क की रंगी फिज़ाओं मे
    वो मस्ती का समां वो रुत सुहानी याद आयेगी

    निर्मल सिद्धू sir का यह शेर् हासिले ग़ज़ल रहा। क्या निराला अंदाज़ है।
    वाह वाह।


    पुराने दोस्तों की मेज़बानी याद आयेगी
    तुम्हें महलों में भी बस्ती पुरानी याद आयेगी
    राजीव भरोल जी का मतला लाजवाब रहा। कितना सच्चा ख़याल है। ज़िन्दाबाद।


    मैं भूखा और प्यासा जिस्म के सहरा में भटकूँगा
    तो तेरे लब की नाज़ुक मेज़बानी याद आयेगी

    धर्मेंद्र जी का यह शेर् साथ लिए जा रहा हूँ। कितना प्यारा ख़याल है।


    चढ़ा के भांग देसी रम विलेती सोमरस हाला
    गटर के गंद में ही रुत सुहानी याद आएगी

    होली की शानदार तैयारी दर्शाता दिगम्बर नासवा जी का शेर् पूरे होली के दिन मन को गुदगुदाता रहा।

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  16. नुसरत मेहदी जी के किसी शेर विशेष पर कहना उचित नहीं होगा। पूरी ग़ज़ल में अनुभव और कहाँ की परिपक्वता स्पष्ट है। बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई. वाह, वाह और वाह.

    द्विजेन्द्र द्विज जी अपनी इस दूसरी ग़ज़ल में खुलकर उस रूप में सामने आए हैं जिसके लिए वे जाने जाते हैं। बहुत ख़ूबसूरत लाजवाब ग़ज़ल हुई। वाह, वाह और वाह.


    निर्मल सिदधू जी की इश्क़ में डूबी ग़ज़ल का मतला ही ग़ज़ल की दिशा निर्धारित करता हुआ सा है। वाह-वाह, क्या बात है।

    राजीव भरोल जी की ग़ज़ल प्रवासी भारतियों की बहुत ख़ूबसूरत समग्र अभिव्यक्ति है। वाह, वाह और वाह.

    धर्मेन्द्र कुमार सिंह की ग़ज़ल कुछ यूँ है कि शायर जो दृश्य प्रस्तुत कर रहा है उसके और अप्पके बीच एक झीना सा पर्दा है और उसी से होते हुए आपको दृश्य तक पहुँचना है और आप मुग्धावस्था में पहुँच चुके हैं। वाह-वाह, क्या बात है।

    दिगंबर नासवा जी ने अपने आस-पास बिखरे दृश्यों को ख़ूबसूरती से ग़ज़ल में जीने का प्रयास किया है और सफल भी रहे हैं। होली के रंग में डूबा मामा वाला शेर तो नायाब हुआ। वाह, वाह और वाह.

    शिमला ट्रेन की बात पर मुझे तो लग रहा है कि इस बार ट्रेन पकड़ना मुश्किल होगा मेरे लिए। कुल जमा एक ही शेर हो पाया है अभी तक, फिर भी कोशिश तो पूरी रहेगी कि और कुछ नहीं तो रस्मी तौर पर उपस्थिति तो दर्ज हो ही जाए।

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