बुधवार, 16 मार्च 2016

होली अब बस एक ही सप्‍ताह दूर है तो आपका उत्‍साह बढ़ाने के लिये यह पोस्‍ट ।

मित्रों कई लोगों की ग़ज़लें मिल चुकी हैं और कई की आने की सूचना है। होली में अब बस एक ही सप्‍ताह रह गया है इसलिये आशा है कि इस सप्‍ताह ही सारी रचनाएं प्राप्‍त हो जाऍंगी। चूँकि त्‍योहार के मुशायरे में हमारे पास समय कम रहता है इसलिये कोशिश कीजिये कि सप्‍ताहांत तक आपकी रचनाएं मिल जाएं। मुझे मालूम है कि सबकी व्‍यस्‍तताएं हैं किन्‍तु व्‍यस्‍तताओं के बीच में समय निकालना ही पड़ता है।

हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे

यह मिसरा इस बार दिया गया है । जैसा कि द्विजेन्‍द्र भाई ने पिछली पोस्‍ट में बताया था कि इस पर एक ग़ज़ल अहमद हुसैन मुहम्‍मद हुसैन बंधुओं द्वारा गाई गई है ' दो जवां दिलों का ग़म दूरियां समझती हैं'  इस ग़ज़ल को श्री दानिश अलीगढ़ी ने लिखा है। बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है यह । आप इसको यहां https://www.youtube.com/watch?v=o7eNtz4INL0 पर जाकर सुन सकते हैं। 'बाम से उतरती है जब हसीन दोशीज़ा, जिस्‍म की नज़ाकत को सीढि़यां समझती हैं'' जब इस ग़ज़ल को कल गुनगुना रहा था तो अचानक याद आया कि अरे ! इस धुन पर तो एक गीत भी है 'परबतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है'' । ख़य्याम साहब की धुन पर सुमन कल्‍याणपुर और रफी साहब द्वारा गाया गया फिल्‍म शगुन का गीत। क्‍या कमाल का गीत है यह। सुन लो जो जादू सा छा जाए। 'दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से' 'ठहरे ठहरे पानी में गीत थरथराते हैं'' किसने लिखी हैं यह कमाल की पंक्तियां ? और कौन लिख सकता है साहिर लुधियानवी के अलावा। 'अब किसी नज़ारे की दिल को आरजू क्‍यूँ हो' । वाह साहिर साहब कमाल कमाल। अरे हां याद आया इसी बहर पर एक कमाल की ग़ज़ल ग़ालिब साहब की भी तो लिखी हुई है । जिसे बहुत से गायकों ने गाया है लेकिन जिस अंदाज़ में बेगम अख्‍़तर जी ने गाया उसका तो कोई तोड़ ही नहीं है। https://www.youtube.com/watch?v=mblW0p4Nk0c ''जिक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना'' वाह क्‍या तो लिखा है और क्‍या गाया है। 'बन गया रक़ीब आखिर था जो राज़दां अपना''।  मित्रों इतनी मेहनत की आपके लिए और अब भी क्‍या आपको प्रेरणा नहीं प्राप्‍त हुई ग़ज़ल लिखने की ।

आइये अब हम चलते हैं बहर की गहराई में। यह बहर जैसा कि आपको बताया गया है बहरे हजज़ मुस‍मन अशतर है। हजज़ के बारे में तो आप जानते ही हैं लेकिन नये लोगों की जानकारी के लिये एक बार फिर से बता दिया जाए कि हजज़ का स्‍थाई रुक्‍न 1222 होता है मुफाईलुन । जब मिसरे में कुछ चार रुक्‍न आ रहे हों तो उसे मुसमन कहा जाता है। तो चूँकि स्‍थाई रुक्‍न 1222 है और चार हैं इसलिये हज़ज मुसमन तो हुआ। लेकिन दो रुक्‍नों में 1222 की मात्रा से कुछ छेड़छाड़ की गई है। पहले और तीसरे रुक्‍न में । इसलिये यह सालिम बहर न रहकर मुज़ाहिफ बहर हो गई है, मतलब जिहाफ द्वारा नए रुक्‍न बनाना ।  मात्रओं के साथ जो बदलाव किया गया है उसे 'शतर' कहा जाता है और इस प्रकार से पैदा हुए रुक्‍न को 'अशतर' कहा जाता है। आइये सबसे पहले मुफाईलुन का विन्‍यास समझें  । यह एक सात हर्फी रुक्‍न है  12+2+2  यह हुआ मुफा-ई-लुन । जुज़ तीन उपयोग में लाये गए वतद्-सबब-सबब। वतद जुज़  मतलब त्रिमात्रिक विन्‍यास जिसमें पहली और दूसरी गतिशील हों तीसरी मात्रा दूसरी की छांव में हो ( उदाहरण कहां, मगर आदि)। सबब जुज़  मतलब द्विमात्रिक विन्‍यास जिसमें पहली गतिशील हो और दूसरी उसकी छांव में हो (उदाहरण अब, जब आदि) । तो मुफाईलुन को पहले और तीसरे रुक्‍न में जो बदला गया है उसमें यह किया गया है कि पहली मात्रा 'मु' को गिरा दिया गया ( खर्रम) और दूसरा यह कि 'ई' में  पांचवी मात्रा  जो स्थिर थी उसको गिरा कर 'ई' को दीर्घ से लघु कर दिया ( कब्‍ज़) । (मु) फा (ई) ए लुन। इस प्रकार से दो प्रकार के बदलाब हुए 'खर्रम' और 'कब्‍ज़' इन दोनों के कॉम्बिनेशन को कहा जाता है 'शतर' और इनसे उत्‍पन्‍न हुए रुक्‍न को अशतर कहा जाता है । तो इस प्रकार से उत्‍पनन हुआ नाम 'बहरे हजज मुसमन अशतर' ।

तो आइये चलते चलते रफी साहब की आवाज़ में सुनें इसी बहर पर यह ग़ज़ल

 

तो मित्रों इतनी मेहनत के बाद तो आपको कुछ उत्‍साह आया होगा कि चलो अगला इतनी मेहनत कर रहा है तो अपन भी एक ग़ज़ल लिख ही देते हैं। लिखिये और भेजिये ।

10 टिप्‍पणियां:

  1. चिकने घड़े पे कितनी ही बरसात हो जाय उस पर पानी टिकना मुमकिन नहीं - हम वही चिकने घड़े हैं , अलबत्ता आपकी मेहनत का किसी और पे असर हो जाय और वो चिकना घड़ा न होकर अगर बंज़र जमीन हो, तो हो सकता है आपकी की गयी बरसात से वहां कुछ कोंपलें उग आएं. मिसरे के रदीफ़ में "जैसे" फंसा हुआ है वैसे हमारे गले में ग़ज़ल फंसी हुई है। कमबख्त कोई ऐसा मतला जिसमें दो बार "जैसे" आता हो और दोनों मिसरे एक दूसरे के पूरक भी हों ज़हन में आ ही नहीं रहा। हम उनमें से नहीं जो अपनी कमियां किसी और पे डाल के सरक लें हम तो उनमें से हैं जो डंके की चोट पे कहते हैं कि हमें कुछ नहीं सूझ रहा और दिमाग में दही जमा हुआ है। अब चाहे माँ रूठे या बाबा यारा हमने तो ना कर दी।
    चलते चलते बता दें की "दो जवान दिलों का ग़म.....और... पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है.....हमारे भी भोत फेवरेट हैं और रहेंगे।

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    1. घोस्वामी जी आप घोर खलयुग में सथ भोलते हैं यही भात हमको भी भोत फसंद है

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  2. भाई जी
    'जैसे' ने ना करवा दी है।
    मतला कहना घोर कठिन।
    ऊपर से रदीफ़ झूल जाने का ख़तरा भी।
    फिर भी गलत सलत जो बन पड़ेगा करना होगा।
    मैं तो उलटा सीधा जो भी है चेप रिया हूँ।

    उदाहरण तो एक और भी याद आ रहा है।
    जनाब-ए-कालीदास गुप्ता साहब की एक ग़ज़ल जो मैंने 30 बरस पहले सुनी थी:

    पाश पाश लाशें से खून खून आरे तक
    दर्द ही का किस्सा है ग़म से गम के मारे तक

    ऐ ख़याल के सूरज तू ही अब पिघल वरना
    पी चले अंधेरे तो रोशनी के धारे तक

    मैंने तुमको चाहा है मैंने तुमको ढूंढा है
    इस कुशादा धरती के आख़िरी किनारे तक

    इस अकेली मस्जिद का मैं ही इक मुहाफ़िज़ हूँ
    और मैं मुहाफ़िज़ हूँ आपके इशारे तक।


    और क़ैफ़ी साहब की वो शानदार नज़्म भी याद आई

    जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को
    सौ चराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं

    सादर
    द्विज

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  3. भाई जी
    'जैसे' ने ना करवा दी है।
    मतला कहना घोर कठिन।
    ऊपर से रदीफ़ झूल जाने का ख़तरा भी।
    फिर भी गलत सलत जो बन पड़ेगा करना होगा।
    मैं तो उलटा सीधा जो भी है चेप रिया हूँ।

    उदाहरण तो एक और भी याद आ रहा है।
    जनाब-ए-कालीदास गुप्ता साहब की एक ग़ज़ल जो मैंने 30 बरस पहले सुनी थी:

    पाश पाश लाशें से खून खून आरे तक
    दर्द ही का किस्सा है ग़म से गम के मारे तक

    ऐ ख़याल के सूरज तू ही अब पिघल वरना
    पी चले अंधेरे तो रोशनी के धारे तक

    मैंने तुमको चाहा है मैंने तुमको ढूंढा है
    इस कुशादा धरती के आख़िरी किनारे तक

    इस अकेली मस्जिद का मैं ही इक मुहाफ़िज़ हूँ
    और मैं मुहाफ़िज़ हूँ आपके इशारे तक।


    और क़ैफ़ी साहब की वो शानदार नज़्म भी याद आई

    जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को
    सौ चराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं

    सादर
    द्विज

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  4. वाह बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट है ये तो पढ़ कर आत्मसात करने मे वक़्त लगेगा, बहर की इतनी गहन जानकारी हमें नही है। कंई बार अन्जान होना भी फ़ायदेमंद होता है । :-)

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  5. मुझे लगा था मेरे जैसे नोसिखिये ही "जैसे" के फेर में अटके हैं ...

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  6. और आपको मेरा तो पता ही है पुराने जमाने का छिक्ना घडा हूं तब चीजें कितनी पक्की होती थी1 बस तीर तुके लगा लेती हूँ बाकी मेरे बश का नही1 जैसे जी को नमन और आपको भी जो इतने "जैसों'को झेल रहे हो1

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  7. main bhi lagi hui hoon..par koi chor pakad mein hi nahin aa raha....koshish zari hai

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