आज चतुर्दशी है, आज का दिन कहीं कहीं छोटी दीवाली भी कहलाता है। कहीं कहीं इसको रूप चतुर्दशी कहते हैं तो कहीं कहीं इसको वैकुंठ चतुर्दशी कहा जाता है। मुझे याद है कि बचपन में माँ का कड़ा निर्देश होता था कि आज के दिन सुबह जल्दी उठ कर उबटन लगा कर स्नान करना है। इसे रूप में निखार आता है। उन दिनों दीपावली पर ठंड आ चुकी होती थी, तो सुबह से उठ कर नहाना बहुत कष्टदायक होता था। अब तो ख़ैर दीपावली तक भी ठंड का कोई पता नहीं होता और उस पर गीज़र के गरम पानी से नहाना होता है। बचपन में बहुत कुछ वह सब जो हमें मिला वह हमारे बच्चों को नहीं मिला। कितना कुछ खो दिया है इन बच्चों ने। ख़ैर आइए आज छोटी दीवाली मनाते हैं।
इन चराग़ों को जलना है अब रात भर
आइए आज तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं सौरभ पाण्डेय जी की एक सुंदर ग़ज़ल के साथ।
आइए आज तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं सौरभ पाण्डेय जी की एक सुंदर ग़ज़ल के साथ।
इस तमस में सँभलना है अब रात भर
दीप के भाव जलना है अब रात भर
हर अँधेरा निपट कालिमा ही नहीं
एक विश्वास पलना है अब रात भर
एकपक्षीय प्रेमिल विचारों भरे
इन चरागों को जलना है अब रात भर
निर्निमेषी नयन का निवेदन लिये
मन से मन तक टहलना है अब रात भर
देह को देह की भी न अनुभूति हो
मोम जैसे पिघलना है अब रात भर
अल्पनाओं सजी गोद में बैठ कर
दीप को मौन बलना है अब रात भर
कितना सुंदर मतला है तमस में सँभालना और दीप के भावों से जलना यदि इंसान सीख ले तो उसके लिए हर दिन दीपावली हो जाए। और अगले ही शेर में कितनी सुंदरता के साथ कहा गया है कि हर अँधेरा केवल कालिमा ही नहीं होता। एकपक्षीय प्रेमिल विचारों जैसी सुंदर बात के साथ क्या ही सुंदर गिरह बाँधी गयी है। वाह। और अगले ही शेर में एक बार फिर से निर्निमेषी नयन का निवेदन लिए मन से मन तक टहलना वाह वाह क्या सुंदर प्रयोग किया गया है। और अगले ही शेर में मोम जैसे पिघलने की बात और उस पर शर्त कि देह को देह की अनुभूति तक न हो। अंतिम शेर में अल्पनाओं की गोद में दीप का बलना... कितने सारे अर्थ लिए हुए है यह एक शेर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।
तो आज की इस सुंदर ग़ज़ल ने जैसे दीपावली का माहौल ही रच दिया है। आप दिल खोल कर दाद दीजिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।
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