बुधवार, 16 मार्च 2022

आइए आज से शुरू करते हैं होली का तरही मुशायरा, आज अमेरिका के दो कवियों राकेश खंडेलवाल जी और रेखा भाटिया जी की रचनाओं के साथ करते हैं शुभारंभ

समय की अपनी ही गति होती है और वह उसी गति से चलता रहता है। होली का त्यौहार एक बार फिर सामने आ गया है। ऐसा लगता है जैसे अभी तो हमने मनाया था यह त्यौहार। हर मौसम के अपने ही त्यौहार हैं हमारे देश में, और शायद यही इस देश की सबसे बड़ी विशेषता है। हम उल्लास और आनंद में बने रहने का अवसर तलाश लेते हैं। समय की गति के बीच अपने लिए कुछ समय चुरा लेते हैं। यही हमें जीवन के लिए ऊर्जा प्रदान करता है।
ले गुलाबी दुआ, जा तुझे इश्क़ हो
आइए आज से शुरू करते हैं होली का तरही मुशायरा, आज अमेरिका के  दो कवियों राकेश खंडेलवाल जी और रेखा भाटिया जी की रचनाओं के साथ करते हैं शुभारंभ
 
रेखा भाटिया
बावरी पवन मन बना वसंत

ओह बावरी पवन ! क्यों सता रही हो
मैं परदेसन हूँ सौतेलापन जता रही हो
पीहर देस में वसंत बाद फागुन आ गया री  .....
बाबुल के आँगन में पंछी गाते होंगे मिलन गीत
चुन सुखी लकड़ियाँ पेड़ों से ,कोमल पत्ते बेलों से
बनाते होगें घरौंदें और पुकारते होगें माँ को गुड़ बोली में
फुदकते होगें मुंडेरों पर अम्मा के आगे -पीछे
माँ भी झट पल्लू से हाथ पोंछती रोटी लाती होगी
गैया माँ को पुचकारती पंछियों को निहारती होगी
धूप में दादा अम्मा की खटिया पीपल तले सरकाते थे
फिर खुद पसर पंचायत करते चाय की चुस्कियाँ लेते
आँगन को बुहारकर रानी जतन से निहारती थी बगिया  
माली बगिया में खड़ा पसीज रहा होगा न पसीने से
अम्मा धरती होगी पीठ पर ढोल देख नैन-मटक्का
मेरी हंसी छूटती थी और भैया परेशान होते थे राग से
बावली कुहुकिनी के हर साल लौटती थी परीक्षा दिनों
रंग-बिरंगे फूलों और बादामी तितलियों बीच माँ की लाडो मैं
उन बहारों को अब भी मेरी याद आती ही होगी कहो न
उन गुलाबी,पीले ,सतरंगी रंगों में होली के रंगों की मिठास
बदरंगी फिसलन भरा पानी का हौज ,बच्चों का हुदंगड़
भाभी की खनकती हंसी ,शरमाकर चिटकनी चढ़ा लेना
याद है कभी-कभी मोर उड़कर आते थे पास जंगलों से
यहाँ मेरे देश में भी हैं नदियाँ ,झरने,पहाड़ ,जंगल, बगिया
रेशम की सूखी घास ,बिन पत्तियों के ऊँचे-ऊँचे रेड मेपल
श्यामल बादलों के पीछे शरमाती धूप ,शीत की सिरहन
बर्फ से ढकी श्वेत वादियों में उजास गुलाबी धूप नहीं
रंग-बिरंगी बहारों बिना होली के रंग भी पड़ जाते फीके
देखो न पंछी भी बावरे गा रहे बेरंगी नीरस बगिया में
साथी के इश्क़ में तड़पते उतावले ,पीड़ा समझो इनकी
ओह बावरी पवन ! ले गुलाबी दुआ, जा तुझे इश्क़ हो
इन बदरंगें पहाड़ों से, जा चुरा ला बहारें बाबुल देस से
मन बना वसंत शीघ्र लौट आना, संग-संग होली मनाएँगे !
 स्मृतियों के ख़ज़ाने में क्या-क्या नहीं होता है, दूश्य, शब्द, चित्र... ऐसा लगता है जैसे हमारी स्मृतियाँ एक यात्रा पर ही रहती हैं हमेशा... विगत की यात्रा पर। इस कविता में भी शब्द चित्र बने हुए हैं। वंसत को एक पूरा चित्र बना दिया गया है। माँ का पल्लू से हाथ पोंछना, खटिया का पीपल के तेल सरकाना और चाय की चुस्कियों के बीच पंचायत करना... यह किसी एक के नहीं हम सभी के स्मृति कोश से ली गई बातें हैं। गुलाबी पीले रंगों के बीच खेली जा रही होली और बदरंगी फिसलन से भरा पानी का हौज... ऐसा लग रहा है जैसे कोई फ़िल्म सी चल रही है, जो माज़ी से एक-एक दृश्य चुन के ला रही है। और इन सब के बीच नायिका अब देस में नहीं परदेस में है। परदेस केवल सात समंदर पार ही नहीं होता, परदेस तो देस में अंदर भी होता है। जो छूट गया वही देस होता है, और छूटने के बाद जो भी मिला वही परदेस होता है। बहुत ही सुंदर शब्दों में पूरी बात कह दी है रेखा जी ने। बहुत सुंदर गीत, वाह वाह वाह।
 
राकेश खंडेलवाल
 
आइ बासंतिया ऋतु मचलती हुई
रंगतें पीली सरसों की  चढ़ती हुई
अब दहकने लगी टेसुओं की अग़न
एक उल्लास में मन हुआ है मगन
सारे संशय घिरे, आज मिटने लगे
जो बिछुड़ थे गए ,फिर से मिलने लगे
आज तन मन सभी फाग़ूनी हो गया
रंग तुझ पे भी मस्ती का आये ज़रा
इश्क़ जो तू करे हो गुलाबी सदा
जा तुझे इश्क़ हो ले गुलाबी दुआ

रंग बिखरे फ़िज़ाओं में ले कत्थई
जामुनी, नीला, पीला, हरा चंपई
रंग नयनों। में कुछ आसमानी घिरे
और धानी लिपट चूनरी से उड़े
रंग नारंगियों का भरे  बाँह में
लाल बिखरे तेरे पंथ में , राह में
रंग बादल में भर कर उड़ा व्योम में
रंग भर ले बदन के हर इक रोम में
फाग बस डूब कर मस्तियों में उड़ा
हो गुलाबी तेरा इश्क़ ले ले दुआ

छोड़ अपना नगर, आज ब्रजधाम चल
होली होने लगी है वहीं आजकल
नंद के गाँव से ढाल अपनी उठा
देख ले चल के बरसानियों की अदा
नाँद में घोल कर शिव की बूटी हरी
कर ले तू रूप से कुछ ज़रा मसखरी
भरके पिचकारियाँ यो सराबोर हो
तन  बदन मन सब रंगे कुछ अछूता न हो
रंग भाभी के साली के मुख पर लगा
रंग हो प्रीत का है गुलाबी दुआ 
 राकेश जी का अपना ही अंदाज़ होता है गीत लिखने का। राकेश जी के गीत परिमल काव्य की परंपरा का सुंदर उदाहरण होते हैं। इन गीतों में शब्दों का चयन भी इतनी नाज़ुकी के साथ किया जाता है कि गीत पानी की धार की तरह गुज़रता है। बासंतिया ऋतु में मन का मचलना, पीली सरसों और दहकते हुए टेसू... प्रकृति द्वारा खेली जा रही होली का पूरा का पूरा चित्र बना हुआ है इन पंक्तियों में। आँखों में आसमानी रंग, चूनर में धानी रंग, बाँहों में नारंगी रंग और फिर इन रंगों को अपने रोम-रोम में भरने की बात, बहुत ही सुंदरता के साथ प्रकृति और पुरुष के मिलना चित्र बनाया गया है। और फिर होली के लिए ब्रज धाम की ओर चल पड़ने की बात कहना, लट‍्ठ मार होली के लिए बरसानियों की अदा का सामना करना, शिव बूटी का सेवन करना.... होली का हर रंग तो है इस गीत में। और फिर यह कि तन बदन से मन तक सब कुछ रंग जाए ऐसी दुआ भी रंगों के साथ में ही आ रही है। बहुत ही सुंदर गीत, वाह वाह वाह।
 
आज तो दोनों ही रचनाकारों ने होली का माहौल बना दिया है। ऐसा लग रहा है जैसे होली के रंग उत्सव की शुरुआत हो गई है। तो आनंद लीजिए इन रचनाओं का, दाद दीजिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।

13 टिप्‍पणियां:

  1. दौनों रचनाकारों को उनकी फागुनी रचना के लिये बहुत-बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर धन्यवाद पंकज भाई. रेखा जी ने खूबसूरती से यादों कवव गठरी खोली है.
    होली की रंगीन शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह... वाह... होली के रंग जमा दिए। राकेश जी और रेखा दोनों की रचनाएँ बढ़िया।

    जवाब देंहटाएं
  4. इसी ब्लॉग की रोचक पुरानी पोस्ट से यहाँ पहुँची। बहुत हँसी आई ये हाद्य की पोटली खोलकर

    http://subeerin.blogspot.com/2013/03/blog-post_26.html?m=1

    आज बहुत खुश हूँ पंकज सुबीर जी से जुड़कर।जिनकी प्रशंसक हूँ उनसे जुड़ने से मुझे अपार हर्ष हुआ है

    जवाब देंहटाएं
  5. पंकज जी मेरी रचना का चुनाव करने के लिए बहुत आभार और इस ब्लॉग को चलाने के लिए अभिनन्दन ! मेरी फ़ोन से मेरी प्रतिक्रिया यहाँ दर्ज नहीं होती थी ,आज लैपटॉप से कर रही हूँ। राकेश जी की रचना में उन्होंने होली के रंगों के साथ शब्दों और भावों का लाजवाब संगम, पुरुष मन और प्रकृति का संगम बहुत सुंदरता से अभिव्यक्त किया है। बहुत उम्दा !

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन रचनाओं से शुरुआत …
    होली का आनंद आ गया … जाम कर रंग चलने वाले हैं इस बात

    जवाब देंहटाएं
  7. रेखा जी ने क्या शानदार शब्दचित्र खींचा है। बहुत सुन्दर। बहुत बहुत बधाई आदरणीया रेखा जी को।
    आदरणीय राकेश जी ने हमेशा की तरह एक बार फिर लाजवाब कर दिया है। होली की इससे सुन्दर शुरुआत हो ही नहीं सकती थी।
    बहुत बहुत बधाई दोनों रचनाकारों को होली की तरही का शानदार आगाज़ करने के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  8. दौनों रचनाएं अति सुन्दर, फागुन मास का सजीव चित्रण, वाह वाह अद्भुत

    जवाब देंहटाएं
  9. होली में तरही का अपना एक विशिष्ट आनंद है.
    रेखा जी स्मृतियों के गलियारे से निकाल जो एलबम हमारे बीच लायी हैं वो सहज सुन्दर है।

    राकेश खंडेलवाल सर ने तरही का आरम्भ अपने सदाबहार तरीके से किया है. अति सुन्दर।

    जवाब देंहटाएं
  10. सुन्दर हैं अभिव्यक्तियाँ, होली का त्यौहार
    प्रेषित है शुभकामना, तरही का व्यवहार

    शुभातिशुभ
    सौरभ

    जवाब देंहटाएं
  11. पता नहीं यह पोस्ट पढ़ने वाले कितने लोगों ने अपना बचपन या अल्हड़पन गावों में जिया है, अलबत्ता जिन्होंने जिया है उनकी यादें ताज़ा हो उठी होंगी रेखा जी की प्रस्तुति से।
    राकेश जी ने हमेशा की तरह छा जाने वाले बन्द प्रस्तुत किये हैं और तरही के रदीफ़ को बड़ी खूबसूरती से कई रंग में हर बन्द के अंत में प्रयोग किया है।
    एक अच्छी शुरुआत के लिये वाह और वाह।

    जवाब देंहटाएं

परिवार