शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

आज शो स्टॉपर के रूप में श्री नीरज गोस्वामी जी एक मुसलसल ग़ज़ल के रूप में अपनी आत्मकथा लेकर आ रहे हैं।

दीपावली का यह तरही मुशायरा आज समापन पर है। इस बार जिस प्रकार उत्साह के साथ सभी ने भाग लिया, उसके चलते इस बार यह सोचा है कि हमने सारे अवसरों पर सारी ऋतुओं पर मुशायरा किया है किन्तु जाड़े के मौसम पर कोई मुशायरा नहीं किया, तो इस बार विचार बन रहा है कि ऐसा किया जाए। जल्द ही उसका खुलासा किया जाएगा। मगर इस बार तरही मुशायरा बहुत आनंदमय रहा। ऐसा लगा जैसे ब्लॉगिंग का वही पुराना समय लौट कर आ गया है। सोशल मीडिया के बाक़ी प्लेटफार्म अब ऊब पैदा करने लगे हैं, लगता है ब्लॉगिंग का समय फिर लौटने को है।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आज शो स्टॉपर के रूप में श्री नीरज गोस्वामी जी एक मुसलसल ग़ज़ल के रूप में अपनी आत्मकथा लेकर आ रहे हैं।
नीरज गोस्वामी

भला कैसे जलें फ़िक्रो-अदब के, ज्ञान के दीपक
जहाँ भावों का सन्नाटा, वहाँ सारे बुझे दीपक
कभी हम भी ग़ज़ल कहते थे "डाली मोगरे की" में
गवाही दे रही पुस्तक, कभी जलता था ये दीपक

हकीमों से ज़रा पूछो, इलाज इसका कोई ढूँढ़ो
दवा कोई मिले ऐसी, ग़ज़ल का जल उठे दीपक
हमारी लेखनी को रास आया है नहीं जयपुर
खपोली में रहे जब तक सदा जलते रहे दीपक

तसव्वुर की नहीं बाती, न इनमें तेल चिन्तन का
गुज़िश्ता कुछ बरस से यूँ ही बस ख़ाली पड़े दीपक
गिरह का शेर भी हमसे न इस मिसरे पे बन पाया
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"

ग़ज़ल की बात मत करिए कोई भी अब तो "नीरज" से
गज़ल के, नज़्म के, अशआर के सब बुझ गए दीपक
इतनी अच्छी आत्मस्वीकृति और कौन कर सकता है इनके अलावा। पूरी ग़ज़ल एक ही बात पर केन्द्रित है, ग़ज़ल न कह पाने पर। हर शेर ग़ज़ल के बहाने जैसे शायर की ही बात कर रहा है। अब इसे आप चाहें तो हजल भी कह सकते हैं। हालाँकि हजल होने से यह ग़ज़ल अपने आप को बचाए हुए है। एक निराश शायर की आत्मकथा अवश्य कह सकते हैं आप इसको। वह शायर जो इन दिनों शायरी छोड़ कर ग़ज़ल की किताबों की समीक्षा के कार्य में लगा हुआ है। किसी ने कहा है -बहुत ज़्यादा पढ़ना आपके लिखने को प्रभावित करता है, विशेषकर ग़ज़ल के मामले में। क्योंकि आप सोचने लगते हैं कि इतने अच्छे शेर तो कहे जा चुके हैं, अब मैं क्यों लिखूँ। मगर हमें यह सोचना होगा कि जो अच्छा लिखा जा चुका वह हो चुका है, हमें वह लिखना है, जो होने वाला है।
तो नीरज जी की इस ग़ज़ल पर दाद दीजिए। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि एक जाड़े के मौसम पर भी मुशायरा करने का विचार बन रहा है। हम गर्मी पर बरसात पर पहले कर चुके हैं, तो क्यों न जाड़े पर किया जाए मुशायरा, जिसमें क्रिसमस भी शामिल हो, जो हमसे अभी तक छूटा हुआ है। चलिये तो मिलते हैं अगले अंक में।

23 टिप्‍पणियां:

  1. इससे पहले कि कोई दूसरा ये बात कहे अक्लमंदी इसी में है कि सार्वजनिक रूप से सच स्वीकार कर लिया जाए। वैसे भी जिंदगी कहाँ रूकती है अच्छे बुरे पड़ाव आते हैं गुजर जाते हैं ये कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर बैठ कर घोर चिंतन किया जाए...अब ग़ज़ल नहीं हो रही तो नहीं हो रही इस पर जबर्दस्ती नहीं की जा सकती... और ऐसा भी नहीं है कि गंगाजल हाथ में लेकर कसम खाई है कि अब ग़ज़ल नहीं कहेंगे... जब मूड बनेगा तो कह देंगे। किताबों की दुनिया श्रृंखला ने कामयाबी हासिल कर ली है महीने में बीस तीस हजार विजिट पिछले साल भर से हो रही है अब ये श्रृंखला भी समाप्त होने को है।
    नाटक लिखने और अभिनय का कीड़ा इन दिनो काटे हुए है उसका आनंद लिया जा रहा है। अपना मकसद आनंद लेना है कहीं से मिले ।

    जवाब देंहटाएं
  2. नीरज sir
    मोगरे की डाली से हम जैसों ने ग़ज़ल की प्रेरणा ली
    किताबों की दुनिया से हमने ट्यूशन ली।

    किताबों की ये दुनिया ज़िन्दगी भर रौशनी देगी
    रिटायर भी तो होतें हैं सिपाही, क्या करे दीपक

    सादर
    नकुल

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अहाहा नकुल जी क्या शेर कहा है...वाह... लेकिन हम वो नहीं जो रिटायर हो जाएँ...हम वो सिपाही हैं जो रिटायर हो कर कदमताल करते
      रहते हैं ...😂

      हटाएं
  3. पंकज भाईजी, आज लगता है मूड स्वीकारोक्तियाँ साझा करने का बन रहा है.

    इस पटल के हवाले से मुझे दो लाभ हुए हैं. एक तो ग़ज़ल को बूझ पाने की लियाकत मेरी सोच में अँकुरायी. दूसरे, हम अपनी ओर से नीरज भाई के मुँहलग्गू हो पाये. अब हम ग़ज़ल को क्या, कितना बूझ पाये हैं यह तो उजागर है. मुझे छोड़ इस बात को सभी जानते-बूझते भी हैं. अलबत्ता, हमें एक बात का गुमान अवश्य रहता है कि हम नीरज भाई को जानते हैं. क्या पता, वे भी ऐसा कहते हों. आप बताइएगा.

    लेकिन जो शख़्स नीरज भाई के भीतर उकड़ूँ अँड़सा हुआ है, उस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है. अलबत्ता, अपने नीरज भाई हैं न.. अपने शख़्स की काबिलीयत को कभी एनकैश करने की वाहियात कोशिश करते नहीं दिखे. बल्कि वे उसके होने का मजा लेते रहते हैं, हर फिक्र को धुएँ में उड़ाते हुए. चखौने के स्वाद की चटखार लगाते हुए !

    हमारी बातों को अपना कह कर जिस करीने से नीरज भाई ने आज बहर में साधा है कि मैं दंग हूँ. कि, मैंने इनसे आपबीती कनफुसियायी ही कब ?!

    कई बार होता है, जब उर्वरता पर निष्क्रियता की रेह की परत बिछ जाती है. मन रचनात्मक सोचता हुआ भी उन स्फुरनों को शब्दांकित करने से बगावत कर देता है. निठल्लापन बहुधा बहवः रोच्यते.

    नीरज भाई, आपके मन का सुसुप्त ज्वालामुखी शीघ्र आग्नेय हो. और सुप्रेरक हो.
    जय-जय, शुभ-शुभ

    सौरभ

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सौरभ भाई क्या शानदार टिप्पणी की है...वाह! लेकिन भाई हम वो हवा हैं जो एक ही जगह पर नहीं बहती पर बहती जरूर है कभी गुलशन में तो कभी सहरा में...तो हुजूर आजकल ये ग़ज़ल के गुलशन को छोड़ नाटक के जंगल में विचरण कर रही है...मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा दश्त मेरा न ये चमन मेरा...वाली बात है...वैसे आपने जो उद् गार मेरे बारे में व्यक्त किये हैं उसे पढ़ कर कोई भी साँतवें आसमान पर उड़ने की सोचता लेकिन क्योंकि हमें अपनी प्रतिभा का पता है इसलिए आपकी बात पर मुस्कुरा रहे हैं...😂

      हटाएं
    2. आपकी मुस्कुराहट ही तो आखेटक है, जनाब. हा हा हा..
      तभी मैं आप द्वारा बुक्का फाड़ने की प्रत्याशा में था. किंतु, कहते हैं न, आशाएँ फलवती हों भी जायँ तो प्रत्याशाएँ वायव्य भाव में ही घनीभूत हुई रह जाती हैं.

      आपकी वर्त्तमान शगल भी धूम से बहके. लगातार विस्तार पाये और सगरे संसार को चमत्कृत कर दे.
      शुभातिशुभ

      सौरभ

      हटाएं
    3. सौरभ जी आपके मँह में ढेर सारा घी शक्कर...🙏

      हटाएं
  4. नीरज जी की शानदार आत्म्स्वीकृति का बोध कराती ग़ज़ल. एक बेचैनी का भाव भी किस सलीके से प्रस्तुत किया जा सकता है ये नीरज जी ने इस ग़ज़ल में दिखाया है. बहुत उम्दा बस यही कह सकता हूँ कि ' ये दीपक मुसलसल रौशनी बिखेरता रहे' चाहे खपोली में रहे या जयपुर में .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद पवन जी लेकिन सच ये है कि ग़ज़ल न कह पाने पर कोई बेचैनी नहीं है ये समय के सामने हथियार डालने वाली बात है...समय ग़ज़ल कहने की इज़ाजत नहीं दे रहा तो जिसकी दे रहा है वो कर रहे हैं... चल रहे हैं उत्तर की तरफ न सही पश्चिम की तरफ सही ..दीफक का अब खोपोली से कोई नाता नहीं रहा अब तो हमें हमारा जयपुर ही भला है 😂

      हटाएं
  5. बज़्म में वापसी पर आपका सहृदय स्वागत है।
    आपकी शान में यह क़सीदा रच गया है, मुलाहिज़ा फरमाईये (वैसे पंकज जी ने सटीक विश्लेषण कर दिया है आपके confession नुमा कलाम का)

    जवाब देंहटाएं
  6. सुबीरी' बज़्म से लेकर जो मिसरा जल उठे दीपक
    क़लम से 'गोस्वामी' के प्रज्ज्वलित फिर हुए दीपक
    जुड़े बज़्मे अदब से ज्ञान के दीपक तो जलना था
    जो सन्नाटों को चीरे है वही तो है खरे दीपक
    महक तो 'मोगरे' की है बसी ज़हनो में अब तक भी
    गवाही दे रहे अश्आर जो बन कर थे जले दीपक
    हकीमी नुस्ख़ा 'पंकज' का ही काम आया है 'नीरज' को
    दिया मिसरा कुछ एसा जल उठे बुझते हुए दीपक
    है जयपुर वह शहर जिसमें कला परवान चढ़ती हैं
    'खपोली' से भी उम्दा इस ग़ज़ल के लग रहे दीपक
    है बाती, तैल, चिंतन भी ज़रुरत एक लौ की थी
    मनाने 'देव-दीवाली' लो फिर से आ गये दीपक
    गिरह तो एसी बांधी कि मुनव्वर हो गया मिसरा
    'उजाले के मुहाफ़िज़ है तिमिर से लड़ रहे दीपक'
    ग़ज़ल की बात ही कर 'हाश्मी' तू मित्र 'नीरज' से
    उम्मीदों और आशाओं के अब तो जल गये दीपक।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मंसूर भाई आपकी इस मुहब्बत के हाथों लुटा ही जा सकता है...जहे नसीब जो आप जैसा काबिल शख़्स मेरे बारे में ऐसा सोचता है यकीन मानें ऐसा तो मैं खुद अपने बारे में नहीं सोचता 😂

      हटाएं
  7. आदरणीय नीरज जी आप जयपुर, खपोली कहीं भी रहें ग़ज़ल के दीप सदा जलते रहेंगें और मोगरे की डाली सदा खुशबू लुटाती रहेगी 🙏 बहुत ख़ूब ग़ज़ल कही आपने

    जवाब देंहटाएं
  8. आदरणीय नीरज जी की ये आत्मस्वीकारोक्ति इस बात का सबूत है कि अभी तक उनके भीतर मोगरे की डाली बची हुई है। बाकी पतझर और बहार तो वक्त-वक्त की बात है बस मोगरे की डाल बची रहनी चाहिए। मुझे यकीन है कि ठंड वाले मुशायरे में सबसे अच्छी ग़ज़ल आदरणीय नीरज जी ही कहेंगे।

    जवाब देंहटाएं
  9. मुशायरे में सदर साहब को सबसे आखिर में बोलने कि जहमात दी जाती है क्योंकि उनके बाद किसी और को बोलने की जरूरत नहीं रहती।
    पंकज भाई के इस खूबसूरत आयोजन का अवनिका पतन नबीराज जी की इस प्रस्तुति से अच्छा हो ही नहीं सकता
    एक दूसरे के दोनों पर्यायों को सादसर शुभकामनाए

    जवाब देंहटाएं
  10. वाह वाह । आदरणीय नीरज जी खुद पर बहुत अच्छा तंज़ कसते हैं। यहां भी उन्होंने वही करते हुए गजल न कह पाने की सथिति पर ही बहुत बढ़िया गजल कह डाली है। वाह बहुत ही खूब।
    और जल्द ही जाड़े के मौसम पर एक और मुशायरा आयोजित किया जा रहे है, ये जान कर बहुत खुशी हुई। धन्यवाद गुरु जी।

    जवाब देंहटाएं
  11. ये मोगरे की डाली कभी सूख ही नहीं सकती ... अभी तक तो रस-धार देखी है उनकी अब शायद लावा फूट के निकलेगा ...
    जिसके अन्दर स्त्रोत होता है वो फूटता/बहता ही रहता है और हमारे नीरज जी भी उन्ही में से एक हैं ... तूफ़ान तो आना है ... आ कर चले जाना है ...
    उनकी गज़ल फिर से नए आयाम छू रही है ... यहाँ से वो कहाँ जाएँगे, किसी न किसी मोड़ पे मिल जाएँगे ...

    जवाब देंहटाएं
  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  13. तसव्वुर की नहीं बाती न इनमें तेल चिंतन का
    गुज़िश्ता कुछ बरस से यूँ ही बस खाली पड़े दीपक
    वाह ! क्या शब्द प्रयोग है ।
    जैसे पतझड़ के बाद शरद और फिर बसंत का समय आता है फिर से एक नई उम्मीद ,नई उमंग लेकर वैसे ही आपकी ग़ज़ल भी फिर से नए रंगों के साथ सामने आएगी । वक्त कभी एक सा नहीं रहता जैसे ऋतुएं बदलती है उसी तरह समय भी मनुष्य के जीवन में बदलता रहता है ।स्थायी यहां कुछ नहीं सब बदलने वाला है ।
    आदरणीय पंकज जी इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है कि आप एक ऋतु में एक मुशायरे का सोच रहे हैं ।बस इस आईडिया को छोड़िए मत और हर ऋतु पर अलग ढंग से ग़ज़ल कहने का मज़ा ही कुछ और होगा और इस ब्लॉग पर पहले वाली रौनकें दोबारा लौट आएंगी ।

    जवाब देंहटाएं
  14. जो इन दिनों आदरणीय नीरज के साथ हो रहा है मुझे लगता है यह स्थिति सभी के साथ होती है।अक्सर मेरे साथ तो होती रहती है।कई बार चाह कर भी महीनों तक कुछ नहीं लिख पाते।पर आपकी ईमानदारी से की गई स्वीकारोक्ति काबिले तारीफ है। लेकिन सूखे तिलों से भी तेल निकालना कोई आप से सीखे

    जवाब देंहटाएं
  15. मुझे भी लगता है कि जब कोई उम्दा शायरों को निरंतर पढ़ता रहता है ग़ज़ल और शेर की समझ आ जाती है तो वह स्वयं कुछ कहने से पहले कहने के औचित्य के प्रश्न पर सोचने लगता है और परिणाम यह होता है कि एक-दो शेर पर ही रुक जाता है, ग़ज़ल पूरी करने मात्र के लिये शेर नहीं कहता है। मेरी नज़र में यह शायर होने के भ्रम से मुक्ति की स्थिति होती है।
    नीरज भाई निरंतर ग़ज़लों को पढ़ते रहते हैं और समीक्षाएं करते रहते हैं। ऐसे में उनमें मोहभंग की स्थिति एक शुभ-संकेत है। अब वो उस स्थिति में पहुंच गए हैं कि कहने पर आ जाएं तो रोज एक नई ग़ज़ल कहें लेकिन ग़ज़ल से न्याय की सोच उन्हें ऐसा करने से अवश्य रोकेगी।

    जवाब देंहटाएं

परिवार