तरही का आगाज़ बहुत अच्छे से हुआ है। और कमाल की बात यह है कि लगता है कि तरही का इंतज़ार सर्दी भी कर रही थी, इधर हमारा मुशायरा प्रारंभ हुआ और उधर सर्दियों ने भी अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया। मौसम एकदम से बदल गया है। दो दिन पहले तक जो मौसम मेहरबान था, वह अब एकदम ठंड के चाबुक ले कर आ गया है। वैसे भी पिछले कुछ सालों से यही हो रहा है कि अचानक ही एकदम ठंड का मौसम आ जाता है। ख़ैर इस बार पहली बार हम इस मौसम के स्वागत में मुशायरा आयोजित कर रहे हैं। और यह मुशायरा भी आप सब के उत्साह के कारण बहुत अच्छा होने वाला है।
आइए आज दो बहुत ही उम्दा शायरों धर्मेन्द्र कुमार सिंह और दिगम्बर नासवा के साथ इस तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं ।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम
समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम
ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम
कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम
बड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम
समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम
ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम
कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम
मतले का मिसरा सानी एकदम कमाल है, विरोधाभास को इस प्रकार मिसरे में उपयोग करना, वाह और उस पर क्या सोच है। प्यार को लेकर कहा गया शेर बहुत सुंदर है, सच में समंदर भी उस प्यास को कभी नहीं भर सकता जो प्यास प्यार की होती है। और उस पर बुद्ध से गौतम बन जाने वाला अगला शेर। क्या कमाल का मिसरा सानी बनाया है, बहुत ही ज़बरदस्त मिसरा है। कुहासे को लब से छू लेने की बात करने वाला शेर भी एकदम कमाल है, और उस के साथ गिरह भी बहुत सुंदर बाँधी गई है। अंतिम शेर बहुत मासूमियत के साथ कहा गया है। कितनी छोटी सी इच्छा है दिल की। बहुत ही कमाल । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह, वाह, वाह।
दिगम्बर नासवा
पहाड़ों ने थामा है सर्दी का परचम
फ़िज़ाओं में कोहरे की बजती है सरगम
डिनर सुरमई अब्र पर बुक है अपना
परिंदों के पर पे चलें बैठ के हम
वहीं चाँदनी सो रही मस्त हो के
जहाँ बर्फ़ की है रज़ाई मुलायम
हवा सर्द मौसम के नश्तर हों जैसे
खिली धूप जैसे के जाड़ों की मरहम
चिनारों पे फ़ुर्क़त के लम्हे मिलेंगे
सुलगते हैं यादों की सिगड़ी में तुम-हम
चहकने लगे कुछ रिबन आसमानी
हरी पत्तियों पर गिरी यूँ ही शबनम
न जाड़ों में ठंडी, न गर्मी गरम हो
ख़ुदा मान जाए तो बदले ये सिस्टम
शटर दिन का खुलने पे दिखने लगा है
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
पहाड़ों ने थामा है सर्दी का परचम
फ़िज़ाओं में कोहरे की बजती है सरगम
डिनर सुरमई अब्र पर बुक है अपना
परिंदों के पर पे चलें बैठ के हम
वहीं चाँदनी सो रही मस्त हो के
जहाँ बर्फ़ की है रज़ाई मुलायम
हवा सर्द मौसम के नश्तर हों जैसे
खिली धूप जैसे के जाड़ों की मरहम
चिनारों पे फ़ुर्क़त के लम्हे मिलेंगे
सुलगते हैं यादों की सिगड़ी में तुम-हम
चहकने लगे कुछ रिबन आसमानी
हरी पत्तियों पर गिरी यूँ ही शबनम
न जाड़ों में ठंडी, न गर्मी गरम हो
ख़ुदा मान जाए तो बदले ये सिस्टम
शटर दिन का खुलने पे दिखने लगा है
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
बहुत ही सुंदर मतले के साथ ग़ज़ल शुरू हो रही हैसर्दी का परचम तथा कोहरे की सरगम का प्रयोग बहुत ही शानदार है। अगले शेर में कल्पना की उड़ान अब्र पर डिनर करने के लिए परिंदों के पर पे बैठ कर जा रही है, बहुत ख़ूब। बर्फ़ की रज़ाई में चाँदनी का सोना, क्या ही कमाल प्रयोग किया गया है। मौसम में नश्तर पर धूप का मरहम, एकदम नयी बात, धूप को पहली बार मरहम लगाते देखा। चिनारों का ज़िक्र न हो तो सर्दी का मौसम ही कैसा, उस पर यादों की सिगड़ी तो एकदम सुंदर है। इस ग़ज़ल में प्रतीकों का कमाल बहुत अच्छे से किया गया है, जैसे रिबन आसमानी बहुत सुंदरता से आया है। और अगले शेर में ख़ुदा से सिस्टम बदल देने की मासूम गुज़ारिश। अंतिम शेर में गिरह भी बहुत सुंदर तरीक़े से बाँधी गई है। दिन का शटर खुलना एकदम कमाल है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।
आज के दोनों शायरों ने एकदम तरही को जाड़ों के मौसम के रंग प्रदान कर दिए हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़लें कही हैं दोनों ने। बिलकुल नए प्रयोग किए हैैं दोनों ने अपनी ग़ज़लों में। सर्दियों के मौसम की सुंदरता लिए हैं दोनों ग़ज़लें। तो आप भी दाद दीजिए और प्रतीक्षा कीजिए अगले अंक की।
धर्मेंद्र कुमार सिंह :
जवाब देंहटाएंग़ज़ल का तकाज़ा पूरी करती रोमांटिक शायरी। बहुत ख़ूब धर्मेन्द्र जी।
ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम
(अभी भी है प्रतीक्षारत यशोधरा
चले आओं गौतम,चले आओं गौतम)
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब
हटाएंबहुत ख़ूब कहा है, दोनों शायरों ने।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार गोदियाल जी …
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गोदियाल जी
हटाएंदिगम्बर नासवा :
जवाब देंहटाएंनये अन्दाज़ के अश्आर, कल्पनाशीलता का सुंदर नमूना....
#. डिनर सुरमई अब्र पर बुक है अपना
परिंदों के पर पे चलें बैठ के हम
( 'दिगम्बर' , दिसम्बर में बातें डिनर की
हवाई क़िला और हो संग हमदम)
#. शटर दिन का खुलने पे दिखने लगा है
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
(शटर मुंह का खुलने पे दिखने लगा है
हुआ पोपला मुंह, स्वर निकले ठम-ठम!)
आपका जवाब नहीं मंसूर साहब … कमाल का मोड़ दिया है आपने … बहुत आभार …
हटाएंकमाल की गजलें हैं दोनों
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया कविता जी …
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय कविता जी
हटाएंदोनों ही शायरों ने बहुत खूब अश'आर पेश किए हैं क़ाबले दाद ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया हौंसला अफ़्जाई का
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय अश्विनी जी
हटाएं
जवाब देंहटाएंधर्मेंद्र बाबू कमाल की ग़ज़ल कही है आपने। 'हुए जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम, और 'कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम' जैसे मिसरों के लिए हज़ारों लाखों नहीं करोड़ों दाद क़बूल करें। ज़िंदाबाद भाई वाह वाह वाह
दिगंबर भाई तो हमेशा से लाजवाब ग़ज़लें कहते आ रहे हैं लेकिन सर्दी पर ऐसी मुसलसल ग़ज़ल कह कर दिल जीत लिया किस किस शेर की बात करूँ ? सुभान अल्लाह , सुरमई अब्र , बर्फ रज़ाई , जाड़ों की मरहम ,यादों की सिगड़ी ,शटर दिन का जैसे मिसरों के लिए हिप हिप हुर्रे !!! ग़ज़ब किया है भाई -जियो !!
सर आपका कमाल हमारी इस यात्रा में शामिल है …
हटाएंबहुत आभार आपका …
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नीरज जी। आप जैसे पारखी को मिसरे पसंद आये इससे बढ़कर और क्या चाहिये एक शाइर को।
हटाएंधर्मेंद्र और दिगंबर दोनों ने ही नए प्रतीकों का उपयोग करते हुए शानदार गज़लें कहीं है.
जवाब देंहटाएंदोनों ही के कलाम को आदाब
बहुत आभार आदरणीय …
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय राकेश जी। आशीर्वाद बना रहे
हटाएंधर्मेंद्र जी के सभी शेर लाजवाब हैं …
जवाब देंहटाएंशरद के अहसास को बाख़ूबी कहा है उन्होंने …
धमाकेदार शुरुआत सर्दी के मूस को दोगुना कर रही है … महक रही पाठशाला … रोचक सिलसिला आगे बढ़ रहा है … बहुत आभार गुरुदेव आपका …
बहुत बहुत धन्यवाद नासवा जी। आपकी ग़ज़ल भी बहुत बेहतरीन है। एकदन टटके बिम्बों से सजी इस अनूठी ग़ज़ल के लिये दाद कुबूल करें।
हटाएंबहुत शुक्रिया ...
हटाएंबहुत उम्दा रचनाएँ , सर्दी में महकती सुगन्धित !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया रेखा जी
हटाएंबहुत आभार रेखा जी ...
हटाएंआदरणीय नासवा जी के साथ मुझे स्थान देने के लिये आदरणीय सुबीर जी का बहुत बहुत आभार। स्नेह बना रहे।
जवाब देंहटाएंये मेरा भी सौभाग्य है सज्जन जी ... आपकी सज्जनता को प्रणाम ...
हटाएंबड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
जवाब देंहटाएंहुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम
ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम।
डिनर सुरमई अब्र पर बुक है अपना
परिंदों के पर पे चलें बैठ के हम
हवा सर्द मौसम के नश्तर हों जैसे
खिली धूप जैसे के जाड़ों की मरहम
शटर दिन का खुलने पे दिखने लगा है
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
वाह वाह नयापन लिए क्या ही शानदार गजलें पढ़ने को मिली हैं आज। बहुत की खूबसूरत। ये गज़लें पढ़ कर अपनी तो हिम्मत नहीं हो रही ग़ज़ल भेजने की।
बहुत शुक्रिया गुरप्रीत जी ...
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया गुरप्रीत जी
हटाएंअत्यंत सुंदर, बहुत मज़ा आया पढ़ कर।।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आशीष जी
हटाएंआशीष जी का स्वागत है ...
हटाएंतरही का मूल मजा यह है कि पुराने साथियों से मिल कर हम ताजा दम हो जाते हैं.
जवाब देंहटाएंधर्मेंद्र जी का पहला और आखरी शेर कमाल की बानगी है.
दिगंबर जी शुरू से ही हमारे आस पास बने रहे हैं, विनम्र व्यक्ति की कल्पनाशीलता देख हैरानी और ख़ुशी हुयी। आगे दुआओं में सिस्टम बनाने की बात निराली है.
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सुलभ जी
हटाएंसुलभ जी पुराने साथी हैं ... मुलाक़ात आज भी याद है आपसे सुलभ जी ... एक यादगार शरद की शाम ...
हटाएंधर्मेन्द्र जी, कमाल की ग़ज़ल कही है आपने। शायद यह पहला शेर पढ़ रहा हूँ जो किसी को भी पहली बार गौतम और बुद्ध के अंतर पर ध्यान देने को मजबूर कर देगा। बहुत कम शेर ऐसे होते हैं जो किसी को किसी विषय-विशेष पर मनन-चिंतन के लिये प्रेरित कर सके। छोटी लेकिन परिपूर्ण ग़ज़ल। ग़ज़ल और इस शेर-विशेष के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंदिगम्बर जी, आपने हर शेर कहने के लिये बड़ी खूबसूरती से कल्पना की उड़ानें भरी हैं।
सुरमई अब्र पर डिनर के लिये परिंदों के परों पर उड़ान,
बर्फ़ की है मुलायम रज़ाई,चिनारों पे फ़ुर्क़त के लम्हे,आसमानी रिबन, दिन का शटर खुलना, वाह, क्या खूबसूरत कल्पनाएं हैं। बधाइयाँ।
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय तिलकराज जी। स्नेह बना रहे।
हटाएं