बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

आज की बासी दीपावली नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ मनाइए

 
बासी दीपावली मनाना हमारे इस ब्लॉग की परंपरा रही है। देर से आने वाले यात्री दौड़ते हुए आते हैं और अगले स्टेशन पर गाड़ी पकड़ते हैं। लेकिन हमारे लिए सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही दौड़ते हुए आएँ मगर आते ज़रूर हैं और सबके मन में गाड़ी को पकड़ने की चिंता ज़रूर रहती है। और हम उनके साथ ही मनाते हैँ दीवाली का जश्न। इस बार भी यात्री आ रहे हैं और हमारा बासी दीपावली मनाने का इंतज़ाम होता जा रहा है। वैसे भी कार्तिक पूर्णिमा तक तो दीपावली का त्यौहार चलता ही है। अभी तो छठ पर्व सामने है, उसके बाद देव प्रबोधिनी एकादशी उसके बाद कार्तिक पूर्णिमा। सब एक के बाद एक आने हैं। तो आइए आज की बासी दीपावली मनाते हैं नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ।


उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

नुसरत मेहदी
 

ज़मीं के साथ हम दिल के वही रिश्ते तलाशेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
रिवायत की मुंडेरों पर दीयों की जगमगाहट में
नए इमकान ढूँढ़ेगे, नए सपने तलाशेंगे
हुनर से और तख़य्युल से इसी मिट्टी में कूज़ागर
नई तख़लीक़ ढूँढ़ेगे, नए कूज़े तलाशेंगे
बड़े-बूढ़े अंधेरों में यहां क़न्दील आंखों से
नए किरदार ढूँढ़ेगे, नए चेहरे तलाशेंगे
चराग़-ए-जुस्तुजू लेकर हमारे संत और सूफ़ी
नए दरवेश ढूँढ़ेगे, नए विरसे तलाशेंगे
ये तहज़ीबें यही क़दरें असासा हैं इन्ही में हम
नए मज़मून ढूँढ़ेगे, नए क़िस्से तलाशेंगे
वतन की फ़िक्र रौशन है, इन्हीं जज़्बों में हम नुसरत
नई तामीर ढूँढ़ेगे, नए नक़्शे तलाशेंगे


वाह क्या कमाल की तकनीक का उपयोग किया गया है पूरी ग़ज़ल में। मिसरा सानी एक ही पैटर्न पर नए अर्थों और शब्दों के साथ सामने आ रहा है। रदीफ़ और क़ाफ़िये की ध्वनि के साथ मिसरा सानी का पैटर्न भी दोहराया जाना, यह अनूठा प्रयोग है। मतले में कमाल तरीक़े से गिरह बाँधी गई है। ज़मीं के साथ रिश्ते तलाश करने की कोशिश में हम मिट्टी के दियों तक ही पहुँचते हैं। अगला ही शेर जैसे हमें परंपराओं की पुरानी हवेली में ले जाता है जहाँ हम नम आँखें लिए सपने तलाशने लगते हैं। साहित्य को परिभाषित करता हुआ अगला शेर जहाँ हुनर और तख़य्युल दोनों के संतुलन की बात कही गई है। सच में केवल हुनर से ही सब कुछ नहीं होता। उफ़ अगले शेर में आया हुए कन्दील आँखों का प्रयोग... ग़ज़ब। जैसे कई सारे चेहरे उभर कर सामने आ गए हों। संतों और सूफ़ियों की तलाश को शब्द प्रदान करता अगला शेर पूरी परंपरा को उजागर कर देता है। और अगले ही शेर में तहज़ीबों के रास्ते नए मज़मून नए क़िस्सों की तलाश। वाह क्या बात है। मकते के शेर में देश के प्रति अपनी चिंता को नई तामीर और नए नक़्शों के द्वारा बहुत ही सुंदर तरीक़े से व्यक्त किया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह। 
 
 


डॉ. मुस्तफ़ा माहिर


तेरी आंखों में अपनी आंख के सपने तलाशेंगे।
जो जाएं मन्ज़िलों तक हम वही रस्ते तलाशेंगे।
भले वो कर रहे हैं वायदा सूरज उगाने का,
'उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।'
जो ख़ाने हो गए ख़ाली उन्हें भरना ज़रूरी है,
पुराने आईने फिर से नए चेहरे तलाशेंगे।
ज़माने से कहो दिल की निगाहें काम आएंगी,
ज़माना पूछता है हम उन्हें कैसे तलाशेंगे।
मैं वो हूँ जो सभी के होंट पर धरता था मुस्कानें
तलाशेंगे मुझे तो दर्द के मारे तलाशेंगे।
ज़रा भी मैल हो दिल में तो वो मिल ही नहीं सकता,
खुदा को अब फ़क़त इस दौर में बच्चे तलाशेंगे।
ये सोहबत का है जादू इस तरह जाने नहीं वाला,
तुम्हारी गुफ़्तगू में सब मेरे जुमले तलाशेंगे।
गुले नरगिस निगाहे आम से तो बच गया माहिर
मगर ये तय है इक दिन हम-से दीवाने तलाशेंगे।


मुस्तफ़ा ने मतले के साथ ही जो आग़ाज़ किया है, उससे ही ग़ज़ल की परवाज़ का पता चल जा रहा है। किसी की आँखों में अपने सपने तलाश लेना, प्रेम को इससे सुंदर तरीक़े से और क्या व्यक्त किया जा सकता है। अगले ही शेर में गिरह को गहरे राजनैतिक कटाक्ष के साथ बाँधा है। सूरज उगाने का वादा करने वाले अंततः मिट्टी के दीपक ही तलाशते हैं। एक बिलकुल नए तरह से बाँधी गई गिरह। पुराने आईने फिर से नए चेहरे तलाशेंगे, किसी उस्ताद के अंदाज़ में कहा गया मिसरा है ये। ग़ज़ब। और दिल की निगाहों वाले शेर में उस्तादों वाला अंदाज़ और ऊँचाई पर गया है। मैं वो हूँ जो, यह शेर कितनी सुंदरता के साथ बात कर रहा है, अपने होने की बात करता हुआ शेर। ख़ुदा को अब फ़क़त इस दौर में बच्चे तलाशेंगे, ग़ज़ब कहन। मिसरा सानी और ऊला के बीच क्या ग़ज़ब तारतम्य। और प्रेम के रस में डूबा अगला शेर और उस शेर में सोहबत का जादू... वाह वाह वाह क्या कमाल। मकते का शेर एक बार फिर कमाल बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। एक-एक शेर बोलता हुआ है। वाह वाह वाह। 


मन्सूर अली हाश्मी 


"उजालो के लिये मिट्टी के.... कब दीये तलाशेंगे?" को प्रश्न वाचक बनाया तो निम्न रुप सामने आया है।

दिए जो कैकयी माँ को, निभा लें वो वचन पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है क्या ख़तरात 'रेखा पार करने' का समझ लें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है शुर्पनखा अगर आहत तो उसको प्यार दें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यह शबरी फल लिये बैठी है इसको तार लें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है स्वर्णिम मृग या मृगतृष्णा ये पहले जान तो लें हम
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
विभीषण कौन है यह जान लें पहचान लें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
वफ़ादारी ए लक्ष्मण को समझ तो लें ज़रा पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
तपस्या को समझना है तो पहले तू भरत बन जा
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
हनुमानी इरादा कर ले, गर लंका जलानी है
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है मुंह में राम जो तेरे, बगल में भी उन्हीं को रख
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
दशानन अपने मन में बैठा उसको मार ले पहले
उजालों के लिये मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
अभी 'अग्निपरीक्षा' की घड़ी भी आने वाली है
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे


एक बिलकुल नए ही तरीक़े का प्रयोग है ये। रामायण को आधार बना कर मिसरा ऊला में प्रश्न और मिसरा सानी में तरही मिसरे के साथ उसका उत्तर। कैकयी के वचन, लक्ष्मण रेखा को पार करने के ख़तरे, शूर्पनखा का आहत होना, शबरी के बेर, सोने का मृग, विभिषण का संत्रास, लक्ष्मण की निष्ठा, लंका जलाने के लिए हनुमान का इरादा, दशानन और अग्नि परीक्षा। ऐसा लगता है जैसे रामचरित मानस का लघु रूप पढ़ रहे हैं हम। हर बात को तरही मिसरे के साथ जोड़ देना। बहुत ही कमाल, वाह वाह वाह। 


आज की बासी दीपावली नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ मनाइए। दाद देते रहिए और प्रतीक्षा कीजिए बासी दीपावली के अगले अंकों की। अभी राकेश खंडेलवाल जी के कुछ और सुंदर गीत आने हैं, और हाँ भभ्भड़ कवि भौंचक्के भी शायद इस बार आ ही जाएँ। 

18 टिप्‍पणियां:

  1. नुसरत मेहदी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी की रचनाओं ने कौमी यकजहती के दीप जला दिये। बधाई तीनों को।

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    1. क़द्र दानी के लिये शुक्रिया गिरीश पंकज जी।

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  2. अपनी तो बोलती बंद, उस्तादों का कलाम उस्तादों को सलाम ...।एक से बढ़कर एक अशआर... जिंदाबाद जिंदाबाद जिंदाबाद

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    1. ऎसे बच के न जाईये उस्ताद जी, आपकी टिप्पणी के ख़ातिर तो ग़ज़ल हो जाती है!

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. Ghazal ke swaroop ko padhte hue abhivyakti ke teen kalam ke tezaabi tewar apne aap ko abhivyakt kar rahe hain. bahut hi sunder bhavpoorn badish ke liye sabhi ko mubarakbaad v shubhkamnayein

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  5. बहुत लाजवाब शेर हैं आदरणीय नुसरत जी के ... हर शेर गहरी बात और दूर की बार कहता है ...
    डॉ मुस्तफा ने भी कमाल के शेर कहे हैं ... गिरह के शेर में तो समा ही बाँध दिया ... बधाई इस ग़ज़ल के लिए ...
    एक बार फिर से हाशमी साहब ने मुशायरा लूट लिया है ... देश की संस्कृति को इस तरही के एक मिसरे के साथ बाँधने का प्रयास पूरी बंदिश को अलग ही मुकाम दे रहा है ... ढेरों बधाई हाशमी साहब को ...
    ये मुशायरा हर बार नै ऊंचाइयों को छूता है और इस बार ही कमाल कर रहा है ...

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  6. नुसरत जि की के कलम से से निकले अल्फ़ाज़

    ये तहज़ीबें, यही कदरें , असासा हैं इन्हीं में हम.

    दाद कुबूल फ़रमायें

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  7. मुस्तफ़ा माहिर जी
    नही अल्फ़ाज़ मिल पाते, लगे हों होंठ पर ताले
    तो फ़िर हम दाद देने को, लुघातों को तलाशेगें

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  8. नुसरत जी पूरी ग़ज़ल मुरस्सा है। ज़ुबान कमाल की है। क्या बात है। मुस्तफ़ा भाई बढिया ग़ज़ल हुई है। बतौरे-ख़ास तीसरा, पाँचवा, छठा और सातवाँ शेर। इनमें भी दर्द के मारे तलाशेंगे तो बड़ा ही प्यारा है। मन्सूर साहब क्या ही बढिया तजरिबा किया है आपने। बहुत ख़ूब। आप सभी को बहुत-बहुत बधाई। पंकज जी बढिया ग़ज़लें पढवाईं आपने। इस परिश्रम के लिए आपका अभिनन्दन। साधुवाद।

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    1. हौसला अफज़ाई के लिये शुक्रिया, नवीन जी।

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  9. बहुत दिनों से कोशिश में था कि जनाब हास्ज=हमी साहब की इस सुन्दर गज़ल पर कुछ प्रशंसा के शब्द चुनूँ लेकिन पूरे शब्द्कोश को ढूंढ्ने के वावज़ूद कोई दाद के लिये उपयुक्त शब्द मिला ही नहीं.

    बस- वाह वाह वाह वाह

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    1. धन्यवाद राकेश जी,
      कलाम आपकी नज़रों से गुज़रा यही सबसे बड़ी दाद है।
      अल्फ़ाज़ तो आपके यहां दस्त बदस्तः खड़े रहते है, आप किसी लुग़त के मोहताज कहाँ?

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  10. बहुत सुन्दर अश’आर कहे हैं तीनों शायरों ने आदरणीया नुसरत मेंहदी जी, मन्सूर अली हाशमी जी और डॉ मुस्तफ़ा माहिर जी को

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  11. तनिक विलंब तो हुआ है लेकिन हमें यह भी भान है कि मुशायरा सामयिक होता हुआ भी स्थायी-भाव के मंच पर आयोजित होता है.

    आदरणीया नुसरत आपा की ग़ज़ल के क्या कहने ! वाह वाह वाह !
    ये तहज़ीबें यही कदरें असासा हैं .. इस शेर की तासीर बहुत गहरी है. वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही अपनी गहराई से प्रभावित करती है.
    ऐसी ग़ज़ल से मन-प्राण को सुखी करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया


    डॉ० मुस्तफ़ा माहिर जी ने क्या ख़ूब ग़िरह लगायी है ! वाह. क्या ही उस्तादाना अंदाज़ है.
    साथ ही, ज़माने से कहो दिल की निग़ाहें, मैं वो हूँ जो, यै, सोहबत का है ज़ादू, ये ऐसे शेर हैं, जो एकदम से ध्यानाकृष्ट करते हैं. बहुत-बहुत बधाइयाँ और दिल से दाद, डॉक्टर साहब.

    वाऽऽऽऽह, आदरणीय मन्सूर अली हाश्मी जी, वाह ! ’तरह’ को लेकर जो कुछ आपने प्रयोग किया है, वह आपकी प्रयोगधर्मिता का सुन्दर उदाहरण है.
    तिसपर रामायण के पात्रों की बिना पर तंज़ भी एक अभिनव प्रयोग है. वाह वाह वाह !

    बासी दीपावली के मुशायरे की धमक तो एकदम बासी नहीं है.

    शुभातिशुभ
    सौरभ

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