दोस्तो, यह बात सही है कि ज़िंदगी में कभी-कभी ऐसा समय आता है, जब दिन भर के चौबीस घंटे भी कम लगने लगते हैं। ऐसा लगता है कि बहुत से काम तो बाक़ी पड़े हैं अधूरे अभी करने को। और ऐसे में होता यह है कि सूरज निकलने और ढलने का समय कब गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता। कई बार तो यह व्यस्तता थका देने वाली हो जाती है। सच है कि व्यस्तता में ही जीवन का सारा आनंद छिपा हुआ है मगर इस व्यस्तता के बीच ‘फ़ुरसत के रात-दिन’ तलाशने को मन भटकने लगता है। ऐसा लगता है कि एक बार फिर से ठण्ड की गुनगुनी दोपहर में कुछ न किया जाए, बस आँगन में डली हुई खाट पर किसी निकम्मे की तरह पूरा दिन काटा जाए। हर स्थिति का अपना आनंद होता है, व्यस्तता का अपना आनंद होता है, तो फ़ुरसत का अपना ।
इस बार दीपावली की तरही के लिए मिसरा देने का काम करने की बात पिछले दस दिन से दिमाग़ में आ रही है; लेकिन पहले दोनो पत्रिकाओं की व्यस्तता बनी हुई थी। शिवना साहित्यिकी और विभोम स्वर पर काम चल रहा था। वह पूरा हुआ, तो ऑफ़िस में दीपावली की वार्षिक सफाई-पुताई प्रारंभ हो गई । एक पूरा सप्ताह उसमें लग गया। अब उससे ज़रा फ़ुरसत मिली, तो याद आया कि अरे ! अभी तक तो मिसरा ही नहीं दिया है। अब तो दीपावली में बस कुछ ही दिन रह गए हैं। आज शरद पूर्णिमा है, तो उस हिसाब से तो बस पन्द्रह ही दिन बचते हैं अब दीपावली में। तो आज सोचा गया कि दीपावली का तरही मिसरा देने का काम आज ही किया जाएगा।
चूँकि समय कम है इसलिए सोचा गया कि आसान बहर पर आसान मिसरा दिया जाए। कुछ ऐसा जिसको करने में बहुत मुश्किल नहीं हो। केवल इसलिए क्योंकि समय कम है और यदि कठिन मिसरा हो गया, तो इस कम समय में ग़ज़ल नहीं कह पाने का एक रेडीमेड कारण कुछ लोगों (नीरज जी की बात नहीं हो रही है) के पास आ जाएगा। तो इस बार सोचा कि सबसे आसान बहर हज़ज की उप बहर का ही चुनाव किया जाए। उसमें भी कोई ऐसी बहर जो आसान भी हो और उस पर काम भी ख़ूब किया गया हो। तो याद आई यह बहर मुफाईलुन-मुफाईलुन-फऊलुन मतलब 1222-1222-122 बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ुल आख़िर। बहर की मात्राओं के विन्यास से कोई गीत या ग़ज़ल याद आई ? नहीं आ रही, चलिए ‘जगजीत सिंह’ की गाई ‘मेराज फ़ैज़ाबादी’ की यह बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल सुन लीजिए –तेरे बारे में जब सोचा नहीं था, मैं तनहा था मगर इतना नहीं था। इसके सारे शेर मुझे पसंद हैं विशेषकर ये –सुना है बंद कर लीं उसने आँखें, कई रातों से वो सोया नहीं था। और एक फ़िल्मी गीत भी याद आ रहा है जे पी दत्ता की ‘बॉर्डर’ का –हमें तुमसे मुहब्बत हो गई है, ये दुनिया ख़ूबसूरत हो गई है।
तो इस बहर पर जो मिसरा दीपावली के तरही मुशायरे के लिए सोचा गया है वह ये है
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे
ये दीपक रा 1222, त भर यूँ ही 1222 जलेंगे 122
य दी पक रा | त भर यूँ ही | ज लें गे |
1222 | 1222 | 122 |
मुफाईलुन | मुफाईलुन | फऊलुन |
यहाँ पर “ये” को गिरा कर बस “य” कर दिया गया है।
यह बिना रदीफ़ का मिसरा है जिसमें ‘जलेंगे’ क़ाफ़िया है, और क़ाफ़िया की ध्वनि है “एँगे” मतलब करेंगे, सुनेंगे, गिरेंगे, चलेंगे, हटेंगे, लेंगे, देंगे, आदि आदि। हालाँकि इसमें छोटी ईता का मामला है, मगर उसे मतले में बुद्धि का प्रयोग कर निपटाया जा सकता है। यदि आपको लगता है कि सरल काम है, तो आप उसे अपने लिए कठिन भी कर सकते हैं “एँगे” के स्थान पर “लेंगे” की ध्वनि को मतले में बाँध कर। मतलब फिर क़ाफ़िये सीमित हो जाएँगे, फिर आपको चलेंगे, ढलेंगे, खलेंगे, गलेंगे, पलेंगे, फलेंगे, मलेंगे, तलेंगे, दलेंगे, मलेंगे, छलेंगे, टलेंगे, डलेंगे जैसे क़ाफ़िये ही लेने होंगे, हाँ उस स्थिति में ईता का दोष भी नहीं बनेगा। पर यह मामला कुछ कठिन हो जाएगा। नए लोग इस बात को इस प्रकार समझ लें कि यदि आपने मकते में दोनो मिसरों में “लेंगे” की ध्वनि को क़ाफ़िया बनाया है, तो आगे पूरी ग़ज़ल में आपको यही ध्वनि रखना है; मगर यदि आपने ऐसा नहीं किया है, तो आप स्वतंत्र हैं कुछ भी क़ाफ़िया लेने हेतु।
दोस्तो देर तो हो गई है और यह मेरी तरफ़ से ही हुई है, लेकिन मुझे पता है कि आप सब मिलकर मेरी इज़्ज़त रख लेते हैं और कहने का मान रख लेते हैं। तो जल्द से जल्द अपनी ग़ज़ल कहिए और भेज दीजिए जिससे हम हर बार की तरह इस बार भी धूमधाम से दीपावली का यह पर्व मना सकें। चलते चलते यह सुंदर ग़ज़ल सुनना तो बनता है।
मिसरा आसान लग रहा है.. ग़ज़ल कहना मुश्किल!
जवाब देंहटाएंआदरणीय पंकज जी आदाब!
जवाब देंहटाएंहुक्म की तामील के लिए कोशिश फ़ौरन शुरू कर दी गई है।
वैसे एक बात है...
ग़ज़ल मुश्किल है ये आसान कहना
ये मुश्किल भी मगर आसां करेंगे!!
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
Koshish karta Hoon.. Shukriya :)
जवाब देंहटाएंसुबीर जी,
जवाब देंहटाएंग़ज़ल भेज दी है.
--ख़लिश
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-10-2018) को "सुहानी न फिर चाँदनी रात होती" (चर्चा अंक-3134) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
फेसबुक पे आपकी व्यस्तता देख के एक बार तो मुझे लगा की शायद इस बार दिवाली की तरही नहीं हो ...
जवाब देंहटाएंपर आज इस पोस्ट को देख कर सुखद एहसास हुआ की एक सिलसिला जो लम्बे समय से है ... वो चल रहा है ... यहाँ आ कर लगता है जैसे दुबारा विद्यार्थी जीवन में प्रवेश हो गया हो ...
सभी से मिलना मौज मस्ती कुछ पलों की यादों का सिलसिला जोडती जाती है ...
तरही की तैयारी अभी शुरू करता हूँ ...
देर आयद
जवाब देंहटाएंदुरुस्त आयद
मुझे तो मुनीर नियाज़ी सहब की 122 2122 2122 गज़ल "हमेशा देर कर देता हूँ मैं" याद आ रही है. इस बार देर न हो इसका ध्यान रखूंगा
जवाब देंहटाएंवाह गुरु जी , आख़िर दीपावली के मुशायरे के लिए मिसरा मिल ही गया , मज़ा आएगा
जवाब देंहटाएंkARTE HAIN KUCHH VAISE MUSHKIL TO HAI HAMESHA KI TARAH.GHAZAL KAHE ARSA HO GAYA.
जवाब देंहटाएंबहारों को चमन याद आ गया है
जवाब देंहटाएंमुझे वो गुल बदन याद आ गया है
मुझे गुलाम अली साहिब द्वारा गाई हुई ग़ज़ल याद आई
बहुत खूब पंकज भाई,
जवाब देंहटाएंअगर ये न होता शायद हम बहुत उदास हो जाते क्योंकि 2011 से मैं इस दीवाली की तरही मुशायरा में भगग ले रहा हूँ और अब बिना मुशायरे के दीपावली का मज़ा नहीं आता । पांच सागर आज लिख चुका हूँ लगे हाथ क्योंकि आज छुट्टी का दिन था सो 6 के बाद लिख दिए । मुशायरे की शुभकामनाएं ।
शुद्धि ऊपर टंकण त्रुटि में :
जवाब देंहटाएं"सागर" के स्थान पर "शेर" पढ़ें
बढिया। कहने की कोशिश करेंगे।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 03 नवम्बर 2018 को लिंक की जाएगी ....http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
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