मित्रों बहुत दिनों बाद इस जगह पर आमद हो रही है। और यह आमद ज़ाहिर सी बात है किसी आयोजन को ही लेकर हो रही है। होली के तरही मुशायरे के बाद से कोई भी आयोजन यहां पर नहीं हुआ। हालांकि सोचा यह था कि अब यहां पर नियमित रूप से आयोजन हुआ करेंगे किन्तु, बस वही बात है कि जो हम सोचें वैसा ही हो जाए तो फिर जिन्दगी आसान न हो जाए। होली के बाद कई कई आयोजन सोचे गए और हर बार आयोजन होने के पहले ही कोई न कोई व्यस्तता आ गई। बात टल गई। हां लेकिन इस बीच के व्यस्त समय में बहुत से रचनात्मक कार्य हो गए। बहुत कुछ ऐसा हो गया जो मन को सूकून देने वाला था।
दीपावली का पर्व अब बस एक महीने ही दूर है और हमने हर वर्ष दीपावली के अवसर पर यहां मुशायरे का अयोजन किया है सो इस बार भी आयोजन को लेकर कमर कस लीजिए। इस बार सोचा तो पहले यह था कि कुछ कठिन काम दिया जाए, किन्तु बाद में यह लगा कि त्योहार के समय कठिन काम देना ठीक नहीं है सबकी अपनी अपनी व्यस्तताएँ होती हैं। सो बस यह कि कुछ सरल सा ही काम देने की सोची है । इस बार सोचा यह कि दीपावली का त्योहार कुछ प्रेममय हो। रदीफ में कुछ प्रयोग किया जाए। तो बस यह कि एक एसा मिसरा बनाया गया जिसमें रदीफ में प्रेम भरा हुआ है । दीपावली की दीपावली और प्रेम का प्रेम।
सोचा की बहर कौन सी ली जाए। बहुत सी बहरें हैं ऐसी जो कि अभी तक हमने नहीं ली हैं। क्या उनमें से लिया जाए, या फिर कोई पुरानी ही बहर ली जाए। फिर सोचा कि त्योहार का मतलब तो गुनगुनाना, गाना होता है तो गाने वाली बहर ही ली जाए तो ठीक रहेगा। रदीफ पहले से दिमाग में फँसा हुआ था, तो पहले यह देखा कि यह रदीफ किस किस बहर में फिट बैठ सकता है । एक बहुत प्रसिद्ध और गाई जाने वाली बहर में रदीफ फिट बैठ गया। और उस बहर पर हमारा एक प्रसिद्ध देशभक्ति का गीत भी है जो कि वास्तव में एक ग़ज़ल है । तो लगा कि उसी पर ही काम किया जाए। रदीफ जो कि दिमाग़ में फँसा था वह था 'इक बार मुस्कुरा दो'। लम्बा सा रदीफ जिसका वज़न हो रहा है 221-2122 मफऊलु-फाएलातुन। मतलब यह कि सीधा तरीका यह किया जाए कि जिस बहर में यही दो बार आ रहा हो उसी को ले लिया जाए। 221-2122-221-2122 मफऊलु-फाएलातुन-मफऊलु-फाएलातुन सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
''ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्कुरा दो''
''तारीकियां मिटाने, इक बार मुस्कुरा दो''
''मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो''
''मावस चमक उठेगी, इक बार मुस्कुरा दो''
कुछ अजीब सा लग रहा है ना ? एक साथ चार मिसरे । असल में यह चार मिसरे चार प्रकार के क़ाफियों के लिए है । अब बात यह कि रदीफ तो पता है 'इक बार मुस्कुरा दो' मगर क़ाफिया ? क़ाफिया क्या है ? क़ाफिया कुछ सरल सा रखा है केवल 'ओ' ( जो), 'ए' (मिटाने), 'आ' ( अँधेरा) और 'ई' ( उठेगी) की मात्रा । आपको जिस भी मात्रा को काफिया बना कर लिखना है उसको बना कर लिखें । इससे कुछ वैरायटी भी आएगी मुशायरे में। तो यह अपने प्रकार का एक प्रयोग है जिसमें रदीफ और बहर को स्थिर रखकर क़ाफिये को वेरिएबल कर दिया गया है। आपको जिस भी क़ाफिये में काम करना सहज लग रहा हो उसमें करें । और यह तो मालूम ही है कि श्री तिलकराज कपूर जैसे गुणी शायर तो हमें चारों मिसरों पर ग़ज़ल भेजेंगे ही।
बहर की बात की जाए तो यह मुरक्कब बहर है, मतलब दो भिन्न प्रकार के रुक्नों से मिल कर बनी हुई बहर है। बहरे मुजारे के सालिम रुक्न है मुफाईलुन फाएलातुन मुफाईलुन फाएलातुन । और उसमें भी मुफाईलुन रुक्न को दोनों स्थानों पर जिहाफ़ करके 1222 से 221 कर दिया है ख़रब जिहाफ़ द्वारा । मतलब यह कि अख़रब रुक्न बना है । तो बहर का नाम हुआ बहरे मुजारे मुसमन अख़रब । इक़बाल का तराना सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा याद कीजिये।
तो आज के लिये इतना ही। उठाइये क़लम और लिखना शुरू कीजिए इस मिसरे पर अपनी ग़ज़ल। आपकी ग़ज़लों का इन्तज़ार रहेगा।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबह्त खूब सुबीर जी । हमारी तो तमन्ना थी कि आपके द्वारा संचालित इस ब्लॉग पर त्रैमासिक मुशायरा होता रहे तो मज़ा आएगा । खैर ये भी ठीक है अब तो मौका आ गया पढ़ने का ।प्रत्यास रहेगा कि हम भी कुछ लिख पायें ।
जवाब देंहटाएंउपरोक्त टिप्पणी में "प्रत्यास" के स्थान पर "प्रयास " पढ़ें !
हटाएंसुबीर साहब, मुशाइरा आयोजित करने जा रहे हैं उसके धन्यवाद । तमाम उम्दा शाइरों की ग़ज़लें पढ़ने को मिलेंगी। मगर एक बात कहना चाह रहा हूँ । वह यह है कि उमराव जान की जिस ग़ज़ल ( इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं) का जिक़्र आपने किया है उसकी बह्र के अरकान तो मफऊलु मुफाईलुन मफऊलु मुफाईलुन नहीं हैं क्या? जब कि आपने इस बार का तरही मिसरे के अरकान मफऊलु फाएलातुन मफऊलु फाएलातुन रखे हैं। यह आपकी चूक है या मैं ही ग़लत हूँ? ज़रा बताएँ कि क्या सही है।
जवाब देंहटाएंमैं तो तिफ़्ल-इ-मक़्तब हूँ ग़ज़ल में लेकिन सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा 221 2122 221 2122 में लेता रहा हूँ। इस में दिए गए तरही मिसरे फिट हो रहे हैं। इस तरही के लिए इतना पर्याप्त मान कर आगे बढ़ते हैं।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंगुरुजी,
जवाब देंहटाएंशायद तरही का इंतज़ार रहता हाई पुरे साल, फिर चाहे तो हर त्योहार पर करें या एक़बार, कमज़ोर ही सही कोशिश करूँगा और गुणी जनों से सीखने का मौक़ा जो मिल रहा है.....
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत शुभकामनाएँ। हम से तरही दर तरही लिखने वालो के लिखने का मौसम आ गया।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद पंकज जी।
लंबा इंतज़ार ... पर तरही के मौसम की सरगोशी तो सुनाई दी है .... मिसरा भी कमाल का है ... दिवाली की छूट की तरह तरही में भी छूट बहुत है ...
जवाब देंहटाएंशायद इस बार बस पढने का आनंद लेने वाला हूँ मैं पर वो आनद भी कम नहीं होगा ...
सभी गुरुकुल सदस्यों को बहुत बहुत शुभकामनायें ...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबाद होली के अब जब ये चिट्ठा खुला
हटाएंदेख ई मेल हमको मजा आ गया
लिंक खोली तो तरही जो देखी लिखी
दांत तक में पसीना लगा आ गया
आपने ये लिखा है कि गज़लें लिखें
एक दो भी नहीं, चार मिसरे दिये
हम तो सर को ही धुनते हुये रह गये
ढूँढ कर लायें अब हम कहां काफ़िये
काफ़ियों ने कभी कैफ़ियत दी नहीं
औ’ बहर बहरी अपनी न इक पल सुने
राब्ता तो रदीफ़ों से रख ना सके
हम रहे गावदी, वो हैं पढ़-लिख गुने
ना जी ना हम गज़ल कह सकेंगे नहीं
जो अगर हो सका, गीत बन जायेगा
वरना गज़लों पे ही दाद देते हुये
ये दिवाली का मौसम संवर जायेगा.
है जो इन्कार की इनके ये ज़ुबा
हटाएंरंग ए महफ़िल इकरार से आयेगा
ना ना कह कर अव्वल हैं आते सदा
ग़ज़लों पे गीत भारी पड़ जाएगा
अच्छी रचना की प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंजय हो..
जवाब देंहटाएंदीपावली के दीये सज गये ! अब पूजन की तैयारी है ताकि दीप अवलियों को प्रज्ज्वलित किया जा सके.
शुभ-शुभ
आते हैं आते हैं तशरीफ़ लाते हैं, हम फिर से अपनी ख़ोपड़िया को खूब खुजाते हैं ---नमस्ते जी नमस्ते जी ( एक बहुत पुराने फ़िल्मी गाने की पैरोडी है )
जवाब देंहटाएंStart self publishing with leading digital publishing company and start selling more copies
जवाब देंहटाएंPublish Online Book and print on Demand