मित्रों आज अपने पत्रकारिता के गुरू की कही हुई एक बात बहुत शिद्दत से याद आ रही है। वे कहा करते थे कि पंकज कभी भी अपने हुनर का रियाज़ मत बंद करना । यदि आप पत्रकार हो तो समाचार लिखते रहो। कवि हो तो कविताएं लिखते रहो। अभिनेता हो तो अभिनय करते रहो। वे कहते थे कि बंद कर देने से हमारी प्रगति और विकास रुक जाते हैं और उसके बाद जब हम फिर से शुरू करते हैं तो कई बार हमें फिर से शून्य से ही शुरू करना होता है । वे कहते थे कि पंकज, ईश्वर जिन्हें बहुत प्रेम करता है उनको ही कोई कला देता है। क्योंकि सोलह कलाओं के स्वामी तो ईश्वर ही हैं। उन सोलह कलाओं में से यदि आपको कोई मिली हैं तो ये उसकी नेमत है जो उनसे अता फरमाई है। उसकी दी हुई नेमत का सम्मान करना चाहिए। मगर हम क्या करते हैं कि हम जब एक मुकाम पर पहुंच जाते हैं तो हम अपने द्वारा अभी तक किये गये इन्वेस्टमेंट का ब्याज खाना शुरू कर देते हैं। कला में ब्याज नहीं होता, बल्कि आप अपने मूल को ही खाना शुरू कर देते हैं। आपको अपना इन्वेस्टमेंट रोज ही करना होगा। ये बात आज इसलिए याद आ रही है कि सुबीर संवाद सेवा पर सक्रियता कम होने से और कहानी लेखन में कुछ अधिक सक्रियता होने से ग़ज़ल कहना कुछ कम हो गया था। और अब जब तरही में लिखना पड़ा तो गुरूजी की याद आ गई (नानी याद आ गई)। एक बार फिर कहूंगा कि व्यस्तता और प्राथमिकता के बीच का अंतर समझें। हम कभी भी व्यस्त नहीं होते बल्कि हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। जैसे कि ये कि सुबीर संवाद सेवा के सक्रिय सदस्य कंचन चौहान, अंकित सफर, प्रकाश अर्श, गौतम राजरिशी, रविकांत, अभिनव चतुर्वेदी आदि अब यहां पर अपनी ग़ज़लें लेकर नहीं आते और ना ही वे यहां कमेंट आदि करने आते हैं। अब इसका मतलब ये नहीं है कि ये बहुत व्यस्त हो गए हैं। नहीं, बल्कि इनकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। इसके बहुत से एक्स्क्यूज़ हो सकते हैं उनकी ओर से। लेकिन मैं अपने उन्हीं गुरू की शब्दों में कहूं तो बस ये कि आपकी कला ही आपको अलग पहचान दे रही है अन्यथा तो आप भी एक भीड़ ही हैं। तो यदि किसी विधा के चलते आपको अलग पहचान मिल रही है तो उसे आप अपनी प्राथमिकताओं में से अलग कैसे कर सकते हैं। हम ये भी चाहते हैं कि हमें लेखक के रूप में जाना भी जाए और ये भी कि हम लिखना चाहते भी नहीं हैं।
खैर ये तो हो गईं कुछ गंभीर बातें । अब चलिए माहौल को हल्का फुल्का करते हैं और 'भभ्भड़ कवि भौंचक्के' से उनकी निहायत ही हल्की ग़ज़ल सुनते हैं। जैसा कि आपको पता है कि भकभौं जो हैं वे रीटेल में कोई काम नहीं करते वे थोक व्यवसायी हैं। तो इस बार वे लगभग 25 शेरों से युक्त ग़ज़लें ला रहे हैं। और इस बार उन्होंने विशेष रूप से बातचीत के अंदाज़ में शेर कहने का प्रयास किया है। इस प्रयास में हो सकता है कि शेर कमजोर हो गए हों। कुछ क़ाफियों को भी दोहराया है। पढ़ते समय ये ध्यान में रखा जाए कि शायद साल भर के बाद भकभौं ने कोई ग़ज़ल कही है। तो गुरू ने जो कहा था उसके अनुसार हो सकता है कुछ धार कम हुई हो। लेकिन वादा है कि भकभौं जल्द ही अपने पुराने फार्म में लौटेंगे.... इन्शाअल्लाह। तो आइये बेर भाजी आंवाला उठो देव सांवला के उद्घोष के साथ सुनते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के की सोई हुई ग़ज़ल। और ये भी बताइये कि क्या इसमें से एक ग़ज़ल के लायक पांच या सात शेर निकल सकते हैं या पूरी की पूरी खारिज करने योग्य है। और हां ये भी कि ग़ज़ल को पढ़ना शुरू करने से पहले डिस्प्रीन की गोली पहले से निकाल कर पानी के ग्लास में डाल कर पास में रख लें। बाद में मत कहियेगा कि बताया नहीं।
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं
भभ्भड़ कवि ''भौंचक्के''
तुम्हारी आँख से जो अश्क टूट जाते हैं
कमाल करते हैं.., वो फिर भी झिलमिलाते हैं
कहा गया था भुला देंगे दो ही दिन में, पर
सुना गया है के हम अब भी याद आते हैं
अज़ल से आज तलक कर लीं इश्क़ की बातें
चलो के अब तो बिछड़ ही..., बिछड़ ही जाते हैं
उफ़क से काट के लाये हैं आसमाँ थोड़ा
बिछा के आओ कहीं ख़ूब इश्क़ियाते हैं
हुनर से पार नहीं होती आशिक़ी की नदी
यहाँ बड़े बड़े तैराक डूब जाते हैं
न सर पे छत है, न कपड़ा, न पेट में रोटी
अजीब लोग हैं, ये फिर भी मुस्कुराते हैं
हैं बन्दे हम भी तेरे, तू अगर ख़ुदा है तो
है ज़िद, कि देख के जलवा ही सिर झुकाते हैं
जवानियों के हैं मौसम हमें बरत ले कोई
पड़े हैं शैल्फ़ पे हम, कब से धूल खाते हैं
ये कहकशाँ, ये सितारे, ये चाँद, ये सूरज
ये सब हमारी उड़ानों से ख़ौफ़ खाते हैं
चमकने लगता है अब भी बदन पे लम्स तेरा
"अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं"
पतंग, फिरकियाँ, कन्चे, सतोलिया, लट्टू
अभी भी ख़्वाब में गाहे बगाहे आते हैं
लदा है बोझ किताबों का सिर पे बच्चों के
जिगर की बात है, फिर भी जो खिलखिलाते हैं
हमेशा वो ही न आने की बस ख़बर, क़ासिद..?
कभी कभार तो अच्छी ख़बर भी लाते हैं...!
हवा में उड़ तो रहे हो मगर ख़याल रहे
ज़रा में पंख ये चींटी के टूट जाते हैं
ये हसरतें, ये तमन्नाएँ, आरज़ूएँ, सब
तुम्हारे सामने आकर ही सर उठाते हैं
तुम्हारी आँखों की सुर्ख़ी, बता रही है ये
अधूरे ख़्वाब हैं, पलकों में किरकिराते हैं
सुना रहे हैं वो दुनिया जहान की बातें
जो सुनने आये हैं हम, वो नहीं सुनाते हैं
अँधेरा एक तो ज़ुल्फ़ों का, उस पे काजल का
और उस पे इन दिनों बादल भी ख़ूब छाते हैं
है ग़ैब कोई तुम्हारे ही घर के सामने कुछ
तमाम लोग यहीं आके लड़खड़ाते हैं
हैं आज बदले से कुछ वो, इलाही ख़ैर करे
हरेक बात पे बस हाँ में हाँ मिलाते हैं
प्रतीक कैसे हैं पांडव धरम का, कृष्ण कहो..?
जुएँ में दाँव पे पत्नी को जो लगाते हैं
ये इब्तिदाए मुहब्बत नहीं तो और है क्या
हमारे जि़क्र पे थोड़ा जो कसमसाते हैं
वतन परस्त, सियासत कभी नहीं होती
वो और ही हैं, वतन पे जो सिर कटाते हैं
ख़ुदा की भेजी हुई नेमतें वो देते हैं तब
बुज़ुर्ग प्रेम से जब पीठ थपथपाते हैं
"सुबीर" जाना ये अपना भी है कोई जाना
गली के मोड़ तलक जा के लौट आते हैं
चलिए कोई तालियों फालियों की ज़रूरत नहीं है। आपने सुना लिया इतना ही बहुत है। जो कष्ट हुआ उसके लिए कोई क्षमा वमा नहीं । आज इस ग़ज़ल के साथ दीपावली तरही 2014 मुशायरे से विधिवत समापन करते हैं। जल्द ही नये साल का मिसरा आप सबके पेशे खिदमत होगा। और इन्शा अल्लाह एक ओर तरही का आयोजन होगा। सभी कुंवारों को आज देवों के उठ जाने की बहुत बहुत शुभकामनाएं।
हुज़ूर आपके गुरुदेव ने जो बात कही वो शत प्रतिशत सही है कि हमारी प्राथमिकताएं बदल जातीहैं लेकिन जिस विधा ने हमें पहचान दी उसे बिसरा नहीं देना चाहिए। ये बात मुझ पे भी शत प्रतिशत लागू होती है। मैं भले ही हज़ार एक्सक्यूज दूँ लेकिन मैंने भी कोई छै महीने बाद इस तरही के माध्यम से ही कुछ कहने की कोशिश की है और ये बात गलत है। जैसा भी हो लेखन जारी रहना चाहिए।
जवाब देंहटाएंभभ्भड़ कवि की ग़ज़ल पढ़ कर मुझे भी अपने गुरूजी की एक बात याद आ गयी , वो कहते थे कि बेटा बंदर चाहे जितना भी बूढा हो जाये वो गुलाटी मारना नहीं भूलता ,भभ्भड़ जी ने अरसे बाद ही सही ये जो गुलाटी मारी है एक दम सही मारी है -मतलब परफेक्ट। इस मामले में जनाब भभ्भड़ भी हमारी तरह बंदर के समकक्ष हैं।
ग़ज़ल बेहतरीन हुई है और शेर तो लाजवाब हैं जो बरसों ज़ेहन में रहेंगे , मिसाल के तौर पर :-
तुम्हारी आँख से जो अश्क --- अनोखा प्रयोग
---कहीं खूब इश्कियाते हैं -- अहा क्या काफ़िया है
हुनर से पार नहीं होती ---लाजवाब शेर --एक दम नया अंदाज़े बयाँ
--पड़े हैं शेल्फ पे -- क्या बात क्या बात क्या बात
--फिरकियां, कन्चे ,सतोलिया --अय हय क्या याद दिला दिया कमबख्त -जियो -इसे अंग्रेजी में कहते हैं - गोइंग डाउन द मेमोरी लेन
मज़ा आ गया जनाब भभ्भड़ की ग़ज़ल पढ़ कर , खुदा उन्हें हज़ारों साल ज़िंदा रखे और फिर करवट करवट जन्नत नसीब करे।
आज देव उठनी ग्यारस है बहुत से कुंवारे जल्द ही शादीशुदा हो जायेंगे और फिर बरसों बाद सोचेंगे कि इन्हें उठने की क्या पड़ी थी ?काश ये देव न उठते तो ही ठीक था। ना होता बांस न बजती बाँसुरिया ( जो बाद में कर्कश पींपनी हो जाती है )
ये सच है आज नहीं सोचेंगे कुंवारे ... ५-१० साल बाद सोचेंगे काश देव बैठे ही रहते हो कितना अच्छा था ...
हटाएंBht achhi gyazal hui Pankaj, variety of thoughts jo tumhare yahan bharpoor hai, wo ghazal ke har sher me bht khoobsoorti se nazar aa rahi hai....jeete raho
जवाब देंहटाएंNUSRAT MEHDI
जवाब देंहटाएंNUSRAT MEHDI
जवाब देंहटाएंYe dekho pankaj, tumhari hi tech duniya me tumhari didi "unknown" ho gayi hai aur usey 'known' hona aa bhi nahi raha hai.
वाह ... सुभान अल्ला .... आज तो दिवाली का समापन नहीं बल्कि लग रहा अहि दुबारा सुरु हो गयी है दीपावली ...
जवाब देंहटाएंइस लाजवाब ग़ज़ल के सदके .. और जितना आनंद आज आ रहा है वो तो पूरे समारोह में नहीं आया ... आज का दिन भी ऐसे विरले दिनों में ही है ..
आपने तो इतने सारे शेर ऐसे ही कह दिए जैसे बस बात हीत हो रही हो ... अभी बात लम्बी चलती तो पता नहीं कितने शेर निकलते ...
इस दिवाली तरही का मज़ा लम्बे समय तक सबके मन में रहने वाला है ... उम्मीद है की जल्दी ही नए साल की तरही में नया स्वाद मिलेगा जो अगली तरही तक मुंह में रहेगा ... सभी को इस तरही के सफल आयोजन की बधाई ए शुभकामनाएँ ...
Outstanding! Beautiful! Fir se aati hoon kal!
जवाब देंहटाएंदेवोत्थान एकादशी की प्रतीक्षा थी.. बेसब्री से.. इसे आना था सोमवार को. यानि सप्ताह का पहला दिन.. यानि एक निराला दिन.. !
जवाब देंहटाएंएक अमरीकी रपट है कि हृदयाघात की सबसे अधिक घटनायें सोमवार को होती हैं. अधिकांश का रक्तचाप अपने उच्चांक के आसपास मँडराता रहता है सोमवार को ही.. ! .. शहर की सड़कों पर सबसे अधिक धक्का-मुक्की-जाम आदि होते हैं सोमवार को.. !
माने कि बहुत कुछ कहा गया है इस रपट में, सप्ताह के इस पहले दिन को लेकर.. मगर हमें इससे क्या.. ! ..फिर भी देखिये, हम जैसे मोटी त्वचा के लोग निर्लिप्ततावस्था को प्राप्त होते हुए भी प्रभावित हो जाते हैं.. .. कायदे से टिपियाने का मौका अभी पाये.. .. :-)))
ऐसे दिन देवउठौनी का आना.. उसका भभ्भड़ भौंचक्के को साथ ले आना.. !!
भभ्भड़ भौंचक्के आये तो क्या-क्या न लाये.. कुछ कहा बोल के.. कुछ कहा खोल के.. मगर जो कहा, बड़ा तोल के..
जवानियों के हैं मौसम हमें बरत ले कोई
पड़े हैं शेल्फ़ पे हम, कबसे धूल खाते हैं .... .. ग़ज़ब ! ऐसी तख़्ती का ज़वाब नहीं !! .. :-))
हवा में उड़ तो रहे हो मगर ख़याल रहे
ज़रा में पंख ये चींटी के टूट जाते हैं ... . .. .. ...दुआ.. आशीष का ऐसा अद्वितीय रूप ! .. बहुत खूब !
अज़ल से आज तलक कर लीं इश्क की बातें
चलो के अब तो बिछड़ ही.., बिछड़ ही जाते हैं.. .. ओह ! ना-ना !
भभ्भड़ कवि जिस अंदाज़ में आज बतियाये हैं, कि, हर शेर, हर शब्द दुहराने-तिहराने.. चहुराने के काबिल होता गया है..
भइया, हमसब की दिवाली को जगरमगरवाने के लिए इस मंच को धन्यवाद.. ! मगर क्यों धन्यवाद ? .. अपनों से नो धन्यवाद.. :-)))
सादर
और इस शेर की तो बात ही क्या जिसका काफ़िया ही जान लेवा है :-
जवाब देंहटाएंपलकों पे किरकिराते हैं --- क्या अद्भुत बात कही है -कमाल।
इसे पढ़ कर पंजाब के मशहूर शायर कवि शिव कुमार बटालवी जी के गीत का मुखड़ा याद आ गया :-
माये नी माये मेरे गीतां दे नैना विच
बिरहों दी रड़क पवे
( ओ माँ मेरे गीतों के नयनों में विरह की किरकिरी पड़े )
बेहद खूबसूरत कलाम।
जवाब देंहटाएंसचमुच कर्ण अर्जुन आ गए ।
उन्हें आना ही था।
पिछले कई तरही मुशायरों में भभ्भड़ भोच्क्के साहब का इन्तजार रहा। इस मुशायरे में उन्होंने सारी कसर निकल दी।जिंदाबाद ग़ज़ल। हार्दिक बधाई।
जब कलाम पढ़ते यहां आ के मियां भकभौंजी
जवाब देंहटाएंशोहरा भौचक्के उन्हें देखते रह जाते हैं
एक चौथाई सदी के वो शेर कहते हैं
हम मुकर्रर पे मुकर्रर हे एकहे जाते हैं
सुबीर भैया
जवाब देंहटाएंचूंकि आपने बतियाते हुए शेर लिखे हैं तो इन्हें ज़ोर से बातों के अंदाज़ में पढ़ने में बहुत आनंद आया!
हर शेर एक से बढ़ के एक! इब्तदाए मुहब्बत वाले के आलावा हर शेर एकदम बढ़िया!
कुछ तो एकदम लाजवाब! जैसे:
उफ़क़ से काट के लाये हैं आसमां थोड़ा
बिछा के आओ कहीं थोड़ा इश्कियाते हैं -- गौतम भैया की याद आ गई! उन्हें पढ़ना चाहिए ये शेर :)
दूसरा कमाल का शेर है:
न सर पे छत हैं, न कपडा, न पेट में रोटी
अजीब लोग हैं, ये फिर भी मुस्कुराते है -------मिसरा सानी कमाल का है
ये बहुत ही प्यारा शेर, शायद अपनी सादगी और ओब्ज़र्वेशन के कारण :
लदा है बोझ किताबों का सर पे बच्चों के
जिगर की बात है, फिर भी जो खिलखिलाते हैं -- छोटी बच्चियां याद आ गईं जो बस्तों के स्ट्रेप को सर पे रख के हंसती खिलखिलाती स्कूल आती-जातीं हैं.
बाकी के बारे में कल लिखूंगी!
वाह ! ग़ज़ल का मतला कमाल है ! ग़ज़ल का ये शेर -न सर पे छत ..,ये शेर कि ,है बन्दे हम भी तेरे ,ये शेर कि लड़ा है बोझ किताबों का ..ये शेर कि ये हसरतें ,ये तमन्नाएं..,खासतौर पर खूब असरदार लगे !
जवाब देंहटाएंकृपया ऊपर की टिप्पणी में " लड़ा" की जगह "लदा" पढ़ें !
हटाएंभभ्भड़ कवि 'भौचक्के' जी ने तो सबकी छुट्टी कर दी. बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंमुशायरे में वो तशरीफ़ ले के आते हैं
जवाब देंहटाएंतो अच्छे अच्छों की फिर हेकड़ी भुलाते हैं
कहा सुनी ने लिखा अश्क गोरे गालों पे
उन्हें मिटा के चलो फिर से इश्कियाते हैं
हुनर वुनर में कहाँ से उलझ गये ‘सज्जन’
चलो कभी तो बिना बात खिलखिलाते हैं
समय के साथ ये बदले नहीं इसी से तो
महापुराण पड़े आज धूल खाते हैं
अँधेरा एक तो जुल्फ़ों का उसपे काजल का
तभी तो लोग यहीं आ के लड़खड़ाते हैं।
--------
ये तो कसीदा हो गया। इससे शानदार समापन और क्या होगा। वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह,
तो इंतज़ार की घडि़यॉं समाप्त ही नहीं हुईं, इतिहास भी रच गयींं।
जवाब देंहटाएंमैं तो बहुत लेट हो गया। लेकिन ऐसा नहीं कि सब कुछ कहा जा चुका हो और मेरे कहने को कुछ बचा ही नहीं। लेकिन मुझे कुछ कहने की ज़रूरत महसूस नहीं हो रही है। कारण स्पष्ट है कि जब किसी अच्छी पेंटिंग को कोई कद्रदां देखता है तो उसके लिये ये मायने नहीं रखता कि उस पेंटिंग के बारे में अन्य क्या कहते हैं; उससे पेंटिंग को निहारने और उसमें डूबने का आनंद प्रभावित होता है। हर शेर पुष्टि करता है कि अच्छा शेर कहने के लिये भाषा की सरलता और सहजता महत्वपूर्ण होती है। बात दिल से दिल तक चलना चाहिये। मैनें तो अपने अंश का आनंद ले लिया और ऐसा लिया जो कम होता ही नहीं।
बहुत बहुत बधाई अशआर की इस खबसूरत दीपमाला के लिये।
ek sundar blog ko padhane ka avasar mile. yadi samay mile to yaha bhi aaye aur margdarshan karen.
जवाब देंहटाएंhttp://hindikavitamanch.blogspot.com/
बहुत ख़ूब सुबीर जी, मज़ा आ गया। तिलकराज जी के कमेंट से पूर्णत्या सहमत। आपके दो जवाब तलब शेरो के लये उत्तर तलाशने की कोशिश की है, इस तरह़.........
जवाब देंहटाएं(हमेशा वो ही न आने की बस ख़बर, क़ासिद..?
कभी कभार तो अच्छी ख़बर भी लाते हैं...!)
अब इंतिज़ार की धड़ियॉ ख़तम हुई 'पंकज',
मअ अहले ख़ाना ही तशरीफ अब वो लाते है !
(प्रतीक कैसे हैं पांडव धरम का, कृष्ण कहो..?
जुएँ में दाँव पे पत्नी को जो लगाते हैं)
यह सिलसिला तो अज़ल से ही चल रहा शायद,
परीक्षा जब भी हो अर्घ्दांगिनी को लाते है !