गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

हर ऋतु का अपना आनंद है, लेकिन हम सबकी यादों में जो ऋतु बसी रहती है वो होती है ग्रीष्‍म । हम सब जो पिछली पीढ़ी के हैं, जिन्‍होंने गर्मी की छुट्टियां देखी हैं । तो हो जाये मुसलसल ग़ज़लों का ग्रीष्‍म तरही मुशायरा ।

जब गर्मी की तरही का आयोजन करने सोचा तो  कई सारी यादें दिमाग़ में आती गईं । यादे जो कि उन दिनों की है जब स्‍कूल की तीन महीने की गर्मी की छुट्टियां होती थीं । उन छुट्टियों में क्‍या क्‍या नहीं होता था । वो दोस्‍तों के साथ पूरा दिन भी धुमड़ाना ( मम्‍मी पापा के शब्‍दों में ), कभी पता लता कि कहीं पर जंगल में खजूर पक गये हैं तो पूरी टोली निकल लेती । खजूर के पेड़ पर से खजूर तोड़ना कितना मुश्किल काम होता है । नीचे से पत्‍थर मारे जा रहे हैं और पता लग रहा है कि दस पत्‍थरों में से कोई एक लग रहा है । लगते ही पर्रर से पके खजूरों की बोछार हो जाती । फिर पता लगता कि और आगे जंगल में कहीं पर करोंदे पक रहे हैं । काले काले रस भरे करोंदे, मुंह में पानी तो आ जाता लेकिन डर भी लगता । डर इसलिये कि जब रात को सोते थे तो इन्‍हीं जंगलों से जानवरों की आवाजें आती थीं । टोली होने के कारण निकल पड़ते करोंदों की तलाश में । पता चलता कि करोंदों के साथ कहीं कहीं आम की पक्‍की साखें ( हमारे यहां डाल पर पके आम को साख कहा जाता है ) भी मिल जाती । दूर दूर तक फसल कट जाने के बाद वीरान पड़ हुए खेत देखने में  कितने सुंदर लगते थे । हर तरफ भांय भांया करती गर्मी की दोपहरी । और उस कड़कती दोपहरी में जंगल जंगल भटकती हम पन्‍द्रह से बीस बच्‍चों की टोली । न कोई अल्‍ट्रा वायलेट का डर न कोई डिहाइड्रेशन का और न कोई हाईजीन का खयाल । जहां प्‍यास लगी किसी कुंए में उतरे और प्‍यास बुझा ली । आप सोच रहे होंगें कि ये सब कोई कहानी है । जी नहीं ये कहानी नहीं हैं ये सच है, सच उस छोटे से क़स्‍बे इछावर का, जहां मेरा पूरा बचपन तथा कालेज का पूरा समय बीता है । वहां पर हमें जो सरकारी मकान मिला हुआ था उसके ठीक पीछे से ही जंगल शुरू हो जाता था । जंगल का मतलब सचमुच का जंगल । सागवान और खांकर का जंगल । जंगल जो हमें आकर्षित करता रहता था । मुझे याद है कि कालेज की परीक्षाएं तब अप्रैल मई में हुआ करती थीं, मैं उस समय पढ़ने के लिये गर्मी की दोपहरी में अपनी किताबें लेकर पीछे के जंगल में चला जाता था । एक इमली का बड़ा विशालकाय पेड़ था । उसकी जड़ें ऊपर निकली हुई थीं । उन जड़ों पर आसन जमा कर दिन भर पढ़ाई चलती थी । और साथ में बजती रहता था विविध भारती रेडियो पर । मेरी कई सारी कहानियों में इछावर आता रहता है । वे कहानियां जो समाचार पत्रों में छपती हैं । बल्कि मेरी ठीक पहली ही कहानी में इछावर का नास्‍टेल्‍िजिया विद्यमान है । इछावर का तीन कमरों का खपरैल का वो मकान आज भी सपनों में आता है । बल्कि यूं कहें कि सपनों के घर के रूप में वही आता है  ।

मेरे सपनों के उस घर के ठीक सामने तीन गुलमोहर के पेड़ थे, इनमें से एक पेड़ पर बोगलवेलिया की लतर इस प्रकार छाई थी कि पूरे पेड़ पर फैली हुई थी । ग़लमोहर के फूल और बोगनवेलिया के फूल दूर से देखने पर अजीब सी सुंदरता पैदा करते थे । मकान के एक तरफ कतार में रंगून क्रीपर की आठ दस लतरें थीं । रंगून क्रीपर के सफेद, लाल गुलाबी फूल भी गर्मी में झूम कर खिलते हैं । मकान के ठीक पीछे एक अति प्राचीन पीपल का पेड़ था जिसका घेरा एक कमरे के बराबर था । गर्मियो में उसके पत्‍ते झड़ जाते थे और एक विचित्र सी उदासी मन में उसको देखने पर उत्‍पन्‍न होती थी ( क्‍योंकि उन दिनों प्रेम व्रेम जैसी चीजें भी जीवन में घटित हो रहीं थीं । ) । पीपल से सटी हुइ दस बारह इमलियों के विशाल वृक्षों की एक लम्‍बी कतार थी  ।इन इमलियों ने ही हमें पेड़ पर चढ़ना और वहां से गिरना भी सिखलाया । रंगून क्रीपर की घनेरी छांव के नीचे गर्मियों की छुट्टियों में खेले जाने वाले खेल जिनमें चंगे अष्‍टे ( परी पंखुरी को खेलते देख कर आनंद आता है ) केरम, ताश, शतरंज होते थे । और साथ में होंती थीं चर्चाएं । कालोनी के वे पन्‍द्रह बीस बच्‍चे केवल दो समय का खाना खाने अपने घर जाते थे बाकी समय उनका अड्डा हमारा वही घर होता था ।

और फिर गर्मियों की वो रात , अहा, पूरी कालोनी के बच्‍चों के बिस्‍तर घर के बाहर लगे होते थे । हम बच्‍चों के लिये कोई रोक टोक नहीं कि कितनी बजे सोना है ।  बिस्‍तर तो बाहर ही लगे हैं, कभी भी आकर सो जाओ । रंगून क्रीपर से सटा कर हमारे पलंग बिछते थे ठीक ऊपर एक चमेली की लतर थी जो जमीन से होती हुई मकान के खपरैलों पर छाई हुई थी । चमेली की भीनी भीनी सुगंध और गर्मी की रात की ठंडी हवा । सच कहूं तो विश्‍वास नहीं होगा कि मच्‍छर जैसी भी कोई चीज होती है ये बात हमको तब पता ही नहीं थी । वहां मच्‍छरों का नाम तक नहीं था ( मेरे ननिहाल के छोटे से गांव में आज भी नहीं हैं ) मच्‍छर क्‍या होते हैं ये बात हमें शहर आकर पता चली । रात को लोहे के दो पलंगों पर बिस्‍तर लगाने के पहले उनके आस पास पानी छिड़का जाता । कूलर तो हमने इछावर छोड़ने के बाद ही देखे ।

गर्मियों की वो दोपहरी, जिसमें बरबूले ( बवंडर ) उठते थे । सुनसान चिलचिलाती दोपहरी में जैसे ही कोई बवंडर आता हम बच्‍चे दौड़ पड़ते थे उसमें भूत को तलाशने । और फिर स्‍कूल के आम की तरफ दौड़ते क्‍योंकि वहां लगे आम के पेड़ से कच्‍ची केरियां बवंडर में टूट कर गिरती थीं । गर्मियों की वो दोपहरी जिसमें करीब दो किलोमीटर पर बने बंधान ( छोटा बांध ) पर हम लोग नहाने जाते थे । और लौटते समय जंगल में मिलने वाले फलों को बटोरते हुए आते । मैं हमेशा जेबों में कुछ फल बचा कर लाता था मम्‍मी के लिये । जाने कितनी तो यादें हैं गर्मी की दोपहर की । उस सपनों के मकान की, जिसे पिछले साल तोड़ दिया गया, अब वहां कुछ नहीं है । न वो मकान, न रंगून क्रीपर, न चमेली, न गुलमोहर । केवल वो पीपल खड़ा है यादों की तरह अभिशप्‍त सा सब कुछ देखने के लिये । हालांकि अब इछावर जाना नहीं के बराबर होता है, लेकिन जाता हूं तो उस तरफ नहीं जा पाता । उस सूने मैदान को देख कर रोना आ जाता है । मगर इस मन को क्‍या कहूं जिसके सपनों में आज तक वही मकान बसा हुआ है । मैं बहुत नास्‍‍टेल्जिक हूं । यादें हमेशा मुझ पर लदी रहती हैं । वे लोग जो...............

खैर ये तो हुईं मेरी बात, आप सबकी भी तो यादें होंगीं । तो आइये इस बार एक तरही मुशायरा पूरा का पूरा गर्मी की दोपहर को समर्पित हो जाये । एक मुसलसल ग़ज़ल ( सारे शेर गर्मी पर हों ) गर्मी की दोपहर पर लिख भेजें । इस मिसरे पर ।

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी ( रदीफ गर्मियों की ये दुपहरी, क़‍ाफि़या ई )

बहर 2122-2122-2122-2122 ( फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन )

इस बार हर एक पोस्‍ट में केवल एक ही ग़ज़ल लगेगी और हर शायर का पूरा परिचय तथा चित्र उसके साथ होगा । इसलिये यदि आप ग़ज़ल के साथ अपना चित्र तथा परिचय भेजेंगे तो बहुत अच्‍छा होगा । मुशायरा ठीक 5 मई से प्रारंभ होगा, और मानसून के आगमन 5 जून तक चलेगा । लेकिन 5 मई तक जो ग़ज़लें आ जाएंगीं केवल वही मुशायरे में शामिल होंगीं । उसके बाद आने वाली ग़ज़लों पर विचार नहीं किया जायेगा । चित्र तथा परिचय ग़ज़ल के साथ ही भेजें, ये न सोचें कि पहले भेजा था वो रखा होगा । परिचय में इस ग़ज़ल को लिखते समय आपने यादों के नि गलियारों की सैर की वह भी लिखें और ये भी कि आप मुसलसल ग़ज़ल के बारे में क्‍या सोचते हैं । लिखने का माहौल बनाने के लिये सुनिये ये दो नास्‍टेल्जिक गाने, हालांकि ये इस बहर पर नहीं हैं पर इस विषय पर तो हैं हीं ।

    

22 टिप्‍पणियां:

  1. गानों का आनंद लिया, और मिसरा नोट कर लिया है| मथुरा जाने का प्रोग्राम बन गया है, कोशिश करता हूँ, उस से पहले ग़ज़ल भेजने का|

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  2. आपने पुरानी यादों का इतना सुंदर चित्रण किया कि मैं भी २०-२५ साल पीछे चला गया. तरही का मिसरा बहुत सुंदर है. बहुत अच्छी अच्छी ग़ज़लें सुनने को मिलेंगी..

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  3. नमस्कार गुरुदेव .... गानों का आनंद नही ले पा रहा हूँ ... मेरे लेपटॉप पर खुल नही रहे पता नही क्यों पर अहमद हुसैन मुहमद हुसैन के गाने का अंदाज़ा लगा सकता हूँ .... मौसम आएँगे जाएँगे ... हम तुमको भूल न पाएँगे ... ये दोनो मेरे पसंदीदा हैं ...
    तरही का मिस्रा मौसम की याद दिला रहा है .... लगता है इस बार बहार आने वाली है गर्मियों में ...

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  4. प्रणाम गुरु जी,
    आप ने अपनी यादें इतने अच्छे से कह के सभी के ज़ेहन में सहेजी हुई सुनहरी यादें ताज़ा कर दी. गर्मियों की छुट्टियों का इंतज़ार हर बचपन मन करता है, हर किसी की खूबसूरत यादें इससे जुडी होती हैं और इस बार का ये तरही-मुशायेरा इन्ही यादों और लम्हों को पिरोयेगा.
    मुसलसल ग़ज़ल पे लिखने का ये पहला अनुभव होगा.

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  5. मेरा पूरा बचपन देहातों में हर गुजरा, आज फिर बहुत दिनों बाद वो यादें ताज़ा हो गयीं।
    फिर से वातायन खुला और फिर वो यादें आ गयीं
    छॉंट कर मोटी परत वो फिर ज़ेह्न पर छा गयीं।
    देहाती जीवन का एक अलग ही आनंद होता है और ईश्‍वर ने सलामत रखा तो सेवानिवृत्ति पर किसी तथाकथित पिछड़े गॉंव में बस जाने की दिली तमन्‍ना है।
    तरही का मिसरा पढ़कर आनंद आ गया, तय है कि खूबसूरत ग़ज़ल आयेंगी।

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  6. इस बार गर्मियों में धूम मचने वाली है। मुझे बचपन याद आ गया। आम, नदी, भैंस, मछली, खीरा, ककड़ी, छत पर रातें, आम का पना, नहर में डुबकी सब याद आ गये। इस बार धमाल होकर रहेगा लगता है।

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  7. कोशिश करती हूँ, ५ मई तक ज़रूर भेज दूँ, नही भेजूँगी तो खुद ही भुगतूँगी...!!

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  8. और पोस्ट पढ़ कर वो गर्मियँ सामने आ गई, जो काश हमने भी बिताई होतीं...

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  9. तिलक जी ने एक सुझाव दिया है जो मेरे हिसाब से ठीक है यदि लोग भूतकाल की बात करना चाहते हैं तो वे मिसरे में ये के स्‍थान पर वो का प्रयोग करें ।
    प्रिय पंकज भाई,
    तरही के मिसरे को लेकर एक सुझाव है; काल संबंधी।
    कुछ लोग 'ये दुपहरी' पर ग़ज़ल कहना चाहेंगे और कुछ 'वो दुपहरी' पर; अगर यह छूट मिल जाये तो कहन का दायरा बढ़ जायेगा। वैसे तुलनात्मरक अध्यायन लाकर 'ये दुपहरी' पर भी कोई विशेष कठिनाई तो न होगी लेकिन 'वो दुपहरी' में याद वाली बात आ जायेगी।
    सादर
    तिलक

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  10. Bhai ji,
    Tilak ji ne bhi sahi sujhaya......

    5 may ko Bhagwaan Parshuraam Jayanti hai....5 se 9 vyast rahunga..
    to koshish karta hoon ki us se pahle kuch sher tapak pade....

    shesh us ki marji...

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  11. प्रणाम गुरु देव,
    स्वागत है इस तरही मुशायरे का ! कोशिश करूँगा समय रहते पहुँच जाऊं इस बार ! पुरानी यादें ताज़ा हो जाएँगी इसी बहाने !
    और पेश करने का नया अंदाज़ भी खूब भायेगा लोगों को !
    अर्श

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  12. जैसे गाँव कसबे का जिक्र आपने अपनी शसक्त लेखनी से किया है वैसे गाँव कसबे में बचपन बिताने का ख्वाब ख्वाब ही रह गया, अलबत्ता बचपन में जयपुर के जिस भाग में हम रहे तब वो किसी गाँव कसबे जैसा ही था, शहर से दूर , और सूखे पहाड़ घर से कोई एक किलोमीटर दूर जिसमें बबूल के पेड़ों का बाहुल्य था...आम नहीं थे, बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होय....घर के बाहर लगे गुलमोहर का पेड़ लाल सुर्ख फूलों से भर जाया करता था, दिन में पीली और शाम को काली आंधियां चला करती थीं...घर पर करोंदों की बड़ी सी झाडी थी जिसमें काले लाल हरे रंग के करोंदे लगा करते थे, उनके अचार का स्वाद अभी तक ज़बान पर है...राजस्थान में फालसे और डांसरे गर्मियों में आया करते हैं, स्कूल के बाहर खड़े ठेले वाला कागज की पुडिया में नमक दाल कर बच्चों को खिलाया करता था...डांसरे छोटा छोटा गोल गोल सा खट्टा मीठा फल होता है, आपने खाया है या नहीं कह नहीं सकता,...उफ्फ्फ..कितने हसीं दिन याद दिला दिए आपने...रात को बाहर चारपाई लगा कर सोना,रात भर चलने वाली ठंडी हवाएं जो अब न कूलर दे पाता है और ना ही ऐ सी....कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...
    तरही का मिसरा दिलकश है...तिलक जी हमेशा बहुत समझदार पढ़े लिखों जैसी राय देते हैं जिसे अनसुना करना मुश्किल होता है....ग़ज़ल कहने की कोशिश करेंगे बाकि ऊपर वाले के हाथ है...
    नीरज

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  13. स्वागत है इस नए तरही मुशायरे का
    आप की मंज़र कशी का तो जवाब नहीं ,बहुत उम्दा
    इस सिलसिले से ये शेर पढ़ना चाहती हूं

    है सुकून ओ अम्न गाँव का नसीब
    ख़ौफ़ से शह्रों में सोता कौन है

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  14. गुरु जी प्रणाम,जो मंज़रकशी आपने की पढ़ कर लगा यह तो स्वर्ग जैसा कुछ है

    मैं शहर में पैदा हुआ और आज तक गाँव को महसूस करने का मौका नहीं मिला है , कसबे और गाँव में दो चार दिन रहा तो हूँ मगर महसूस करने का सुख प्राप्त नहीं हो सका
    दो तीन मुसलसल ग़ज़ल लिखीं हैं, बहर मेरी मनपसंद है, अपनी लुटी पिटी यादों को समेटता हूँ और कुछ लिखने का प्रयास करता हूँ

    --
    आपका वीनस केसरी

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  15. आचार्य जी, यही तो ख़ास बात है.
    आपने बहुत कुछ दर्शन करा दिया.. मेरे पास भी बहुत सारी यादें कैद हैं.
    क्या कहूँ, सब एक पर एक अनमोल है.

    मुसलसल ग़ज़ल में एक एक समंदर का निर्माण होता है जहाँ हम गहरे डूबते जाते हैं. मजा भी बहुत आएगा जब सभी फनकार ग़ज़ल कहेंगे यादों के संग.

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  16. चेंज नोट कर लिया है 'ये' की जगह 'वो'

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  17. नवीन भाई,
    'ये' की जगह 'वो' नहीं 'ये' अथवा 'वो' दो विकल्‍प,
    किसी के भी साथ कहें
    चाहें जिसके साथ, बहें।

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  18. जी तिलक भाई साब आप की बात नोट कर ली और मथुरा की गर्मियों की दुपहरी वाली ग़ज़ल भेज दी है, आशा करता हूँ आप लोगों को पसंद आएगी

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  19. do द्दिन बाद देख पाई हूँ । खूब याद दिलाई गर्मिओं के अपने तो पसीने छूट गये। मगर इस बार शायद ही भाग ले पाऊँ। कोशिश करती हूँ। धन्यवाद शुभकामनायें

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  20. ब्लौग पर लगी नई जिल्द ने वो माहौल बनाया है की हाय रेssssssssss....!!!

    एनडीए जाने तक उम्र के सतरह साल गाँव में ही गुजरे हैं, जाने कितनी यादें ताजा कर गई आज की पोस्ट आपकी गुरूदेव.....

    मुसलसल ग़ज़ल का अपना ही आकर्षण है एक| चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है वाला आकर्षण ... प्रयास में जुटे हैं| देखें, क्या निकाल के लाती है गर्मियों की ये या वो दुपहरी...!!!

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  21. आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ....आपकी रचनात्मकता सच में प्रभावी है ......आशा है आपका मार्गदर्शन मुझे भी मिलता रहेगा .....आपका आभार

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  22. bahut badhiya misira..holi mushayre me shamil n ho pane ka afsos hai

    is baar jarur shamil ho jaunga...prnaam pankaj ji

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