तरही को लेकर हर बार ये ही उलझन रहती है कि नया मिसरा बनाना है और वो भी नयी बहर पर बनाना है । जैसे अगर हम केवल बहर की ही बात करें तो अभी हमने बहरों को लेकर बहुत कुछ काम करना बाकी है । कई सारी बहरें ऐसी हैं जिन पर काम होना शेष है । मुरक्कब बहरों की तो बात ही बाद में आयेगी अभी तो मुफरद में से ही कई सारी बहरें शेष हैं । और इन बहरों में से कई तो ऐसी हैं जिन पर बहुत काम सामान्य रूप से किया भी नहीं गया है । खैर इस बार की तरही में हम पिछली बार अधूरी छूट गई ईता की चर्चा को आगे बढ़ाएंगे । और भी बहुत कुछ करना है । देखते हैं कि क्या क्या हो पाता है ।
मुफरद में से जिन बहरों पर हम काम कर चुके हैं वे हैं रमल, रजज, मुतदारिक, मुतकारिब, हजज । इनमें से भी मुझे लगता है कि अभी तक हमने रमल के सालिम पर काम नहीं किया है । रमल की एक उपबहर पर हमने काम किया है । रमल की सालिम 2122-2122-2122-2122 पर अभी काम होना बाकी है । बाकी हजज, रजज, और अन्य दो पर तो हम सालिम में काम कर चुके हैं । वैसे अभी दो और बहरें बाकी हैं । एक कामिल और दूसरी वाफर । वैसे ये बात तो पहले भी बताई जा चुकी है कामिल और रजज तथा वाफ़र और हजज ये हम शक्ल बहरें हैं । हम शक्ल का मतलब ये कि बस एक दीर्घ को दो लघु में तोड़ दिया और बहर बदल गई । उसमें से कामिल तो एक ऐसी बहर है जिस पर काफी काम हुआ है । लेकिन वाफर पर हिंदी और उर्दू में लगभग नहीं के बराबर काम हुआ है । तथा ये कहा जाता है कि ये बहर अरबी फारसी के लिये ज्यादा ठीक है ।
पिछली बार मैंने सोती मुशायर की बात की थी । मेरे विचार में उस प्रकार का कार्य हमको होली के पावन त्यौहार के लिये सुरक्षित कर देना चाहिये । क्योंकि सोती मुशायरे के लिये होली से ज्यादा अच्छा अवसर कोई दूसरा नहीं हो सकता है । और उसके लिये भी हम उस बहर को सुरक्षित कर देते हैं जिस पर काम नहीं हुआ है अर्थात वाफर को । वाफर जिस में हजज 1222 की तीसरी मात्रा जो दीर्घ है उसे तोड़ कर दो लघु बना दिये गये हैं 12112 , कितनी हैरत की बात है कि सबसे लोकप्रिय और सबसे ज्यादा चलने वाली हजज एक मात्रा टूटते ही सबसे कम चलने वाली वाफर बन जाती है । मुफाईलुन ==> मुफाएलतुन ।
खैर ये सारी बातें तो अगली बार के लिये छोड़ी जा सकती हैं । मगर इस बार तो चूंकि नये साल का स्वागत करना है इसलिये कुछ और ही करना होगा । तो मेरे विचार में हम दीपावली पर ली गई बहर रजज की हमशक्ल कामिल को ही इस बार लेते हैं । मुस्तफएलुन==> मुतफाएलुन 2212==>11212
बहरे कामिल बहुत उपयोग की गई बहर है । आदरणीय बशीर बद्र साहब ने बहुत काम इस बहर पर किया है । बहरे कामिल का स्थाई रुक्न है मुतफाएलुन 11212 । अर्थात पहली ही मात्रा दो लघु के रूप में ली जानी है । रजज में हमने पहली मात्रा दीर्घ के रूप में ली थी । ये बहर रजज की तुलना में कुछ आसान है । हालांकि एक बात ये है कि गाते समय दोनों ही बहरों की धुन तथा ध्वनि एक जैसी ही आती है । कारण वही है कि धुन तो मात्राओं के हिसाब से चलती है और यहां पर मात्राओं की स्थिति एक जैसी ही तो है । बहरे कामिल के मुसमन सालिम पर हम इस बार का मुशायरा रखते हैं । मुतफाएलुन-मुतफाएलुन-मुतफाएलुन-मुतफाएलुन 11212-11212-11212-11212 ( बहरे कामिल मुसमन सालिम) ।
तो ये तो हो गई बहर लेकिन अब इस पर मिसरा क्या हो । ऐसा मिसरा जिसमें नये साल की बात हो । नई उमंगों की बात हो । और वो सब कुछ हो जो नये साल में होना चाहिये ।
नए साल में, नए गुल खिलें, नई खुश्बुएं, नए रंग हों
या
नए साल में, नए गुल खिलें, नई हो महक, नया रंग हो
( काफिया : रंग, रदीफ - हों अथवा हो )
दोनों मिसरों में फर्क बस ये है कि पहले मिसरे में रदीफ बहुवचन हो गया है अं की बिंदी लग जाने के कारण । हों । तथा दूसरे मिसरे में रदीफ एक वचन ही रहा है हो । काफिया जानबूझकर कुछ मुश्किल रखा गया है । और उसके पीछे कारण ये है कि पिछले कई मुशायरों से हम काफिया कुछ सामान्य रख्ते आ रहे हैं । तो इस बार कुछ मुश्किल रखने की इच्छा हुई । हालांकि ऐसा मुश्किल भी नहीं है । और उस पर स्वतंत्रता ये भी है कि आप अपने हिसाब से दोनों में से कोई भी एक मिसरा लेकर उस पर ग़ज़ल लिख सकते हैं । जिन लोगों को लगता है कि एकवचन रदीफ के साथ आसानी होगी वो दूसरा मिसरा ले लें और जिनको लगता है कि बहुवचन रदीफ के साथ आसानी होगी वे पहला मिसरा ले लें ।
मु त फा ए लुन | मु त फा ए लुन | मु त फा ए लुन | मु त फा ए लुन |
न ए सा ल में | न ए गुल खि लें | न इ खुश् बु एं | न ए रं ग हों |
1 1 2 1 2 | 1 1 2 1 2 | 1 1 2 1 2 | 1 1 2 1 2 |
न ए सा ल में | न ए गुल खि लें | न इ हो म हक | न या रं ग हो |
प्रणाम गुरु जी,
जवाब देंहटाएंथोडा मुश्किल तो है मगर खूबसूरत मिसरा है, और मुश्किल मिसरे में अच्छे शेर भी निकलते हैं.
प्रिय बन्धुवर, स्वागत है एक और नयी पहल का| यकीनन ये मुशायरा नव-वर्ष के संदर्भों के साथ और भी नयी ऊँचाइयों को हासिल करेगा|
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआचार्य जी, समयचक्र अपनी गति से चल रहा है. हमसब नये साल के स्वागत मे खड़े हैं.
जवाब देंहटाएंअब बहरों को समझना अौर समझाना थोड़ा आसान लगता है. गुजरे एक साल मे मैने जो सफर तय किया मैं इसका गवाह हूं. मुझे याद है पिछले साल की सालिम बहर "फऊलुन फऊलुन ... .... " सुनकर मुझे बड़ा विचित्र लगा था. परंतु अब सब अच्छा लगता है. शेर कहना तो खास बात है ही, पर शुद्ध बहरों के साथ कहना सोने पे सुहागा वाली बात है. यही तो "सुबीर संवाद सेवा" की विशेषता है.
बशीर बद्र साहब का ही शेर है:
जवाब देंहटाएंकहीं(हं) ऑंसुओं से(स) लिखा हुआ, कहीं(हं) ऑंसुओं से(स) मिटा हुआ,
जिसे(स) ले गई है(ह) अभी हवा, वो(वु) वरक था(थ) दिल की(क) किताब का।
लगता है कि इस बह्र में गिराकर पढ़ने की कलाबाजियॉं खानी पड़ेंगी लेकिन पिछली तरही का अनुभव कहता है मज़ा आएगा।
गुरुदेव जो समझदार है उन्हें इस बहर में मज़ा आएगा और हम से नौसिखिए अपना सर फोड़ेंगे...ये स्पष्ट दिखाई दे रहा है...
जवाब देंहटाएंकोशिश करना इंसान का फ़र्ज़ है और हम कोशिश वाला फ़र्ज़ निभा कर अपने इंसान होने का सबूत पेश करने की कोशिश करेंगे...
नीरज
ओह मै तो इस बार शायद ही कुछ लिख पाऊँ। खैर अभी नोट करती हूँ सब कुछ। आने वाला सप्ताह बहुत व्यस्त भी है और बह्र मुश्किल भी । कैसे होगा? देखते हैं । बहुत बहुत शुभकामनायें, आशीर्वाद। -- दी।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, हम अब तक समझने की कोशिश कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंखासतौर से, चुपचाप आकर मुशायरा लूटने वाले, नौसीखिये इंसानों के लिये तलाश कर लाया हूँ, इस बह्र पर बशीर बद्र साहब की ग़ज़लों के कुछ चुनिंदा शेर जो इस प्रकार हैं।
जवाब देंहटाएं1
यूँ ही बेसबब न फि़रा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके चुपके पढ़ा करो।
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शह्र है, जरा फ़ासले से मिला करो।
2
कभी यूँ भी आ मिरी ऑंख में, के मिरी नज़र को खबर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो।
वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो मिरी दुआ में असर न हो।
3
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहज़ा नया नया, न कहा हुआ, न सुना हुआ।
जिसे ले गई है अभी हवा, वो वरक था दिल की किताब का
कहीं ऑंसुओं से मिटा हुआ, कहीं ऑंसुओं से लिखा हुआ।
कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ।
4
मैं ग़ज़ल कहूँ, मैं ग़ज़ल पढूँ, मुझे दे तो हुस्ने-खयाल दे
तिरा ग़म ही है मेरी तर्बियत, मुझे दे तो रंजो मलाल दे।
5
मैं उदास रस्ता हूँ शाम का, तिरी आहटों की तलाश है
ये सितारे सब हैं बुझे-बुझे मुझे जुगनुओं की तलाश है।
तिरी मेरी एक हैं मंजि़लें, वो ही जुस्तजू वो ही आरज़ू
तुझे दोस्तों की तलाश है, मुझे दुश्मनों की तलाश है।
6
मेरे दिल की राख कुरेद मत, इसे मुस्करा के हवा न दे
ये चराग़ फिर भी चराग़ है कहीं तेरा हाथ जला न दे।
जरा देख चॉंद की पत्तियों ने बिखर बिखर के तमाम शब
तिरा नाम लिक्खा है रेत पर कोई लहर आ के मिटा न दे।
इन अश'आर की खूबसूरती विशेष रूप से देखने लायक है।
गुरुदेव सही परीक्षा ले रहे हैं हम जैसे नोसिखिए की ....
जवाब देंहटाएंदिन तो कम हैं मेरे लिए पर कोशिश ज़रूर करूँगा ... नही तो आनंद लूँगा ...
गुरु देव प्रणाम,
जवाब देंहटाएंखफिफ़ की तरह ही बह'रे कामिल मेरी सबसे पसंदीदा बह'र है ! मगर अफ़सोस की दो चार शे'र कहने के बाद आगे शे'र नहीं कह पाता ! वेसे इस बार की तरही चुनौती पूर्ण है आपको पता ही है की ग़ज़ल ना कह पाने का दौर जो मेरे लिए चला है वो अभी तक जारी है , और उससे उबरने में शायद यह मददगार साबित हो !
अर्श
तरही मुशायरों के लिए व आगामी नये साल २०११ के लिए , आपके समस्त साथियों को व परिवार के हरेक को मेरी शुभकामनाएं , भेज रही हूँ ....
जवाब देंहटाएंगुरु जी प्रणाम
जवाब देंहटाएंपहले मुझे लगा कि आप रमल की सालिम बह्र देने वाले हैं, मन प्रसन्न हो गया, अचानक जोर का झटका लगा कि ये कामिल कहां से आ गई ? :(
मेरे लिये नई बह्र है आज तक इस पर कुछ नहीं लिखा है
कामिल का एक उदहरण तो आपने ही बताया था
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तु पसन्द है किसी और की तुझे चाहता कोई और है
एक गाना मुझे पोस्ट पढने के बाद अचानक याद आया
न तो कारवां कि तलाश है
न तो रह्गुज़र कि तलाश है
मेरे ---------------को
एक हमसफ़र कि तलाश है
बीच के शब्द याद नहीं आ रहे :)
मात्र ८ दिन बचे है एक एक पल कीमती है :)
वीनस
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जवाब देंहटाएंवाह, मजा आयेगा गुरूदेव इस नयी बहर पे काम करने में।
जवाब देंहटाएंबहादूर शाह ज़फर की एक बहुत प्यारी ग़ज़ल याद आ रही है इस वक्त इसी बहर की:-
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का गुबार हूँ वाला...जिसे मो० रफ़ी ने गाकर एक नया आयाम दिया था।
तिलक साब ने बशीर बद्र की इस बहर लगभग सब प्यारी ग़ज़लों का जिक्र कर ही दिया है। लेकिन इन सबके अलावा बशीर बद्र की इस बहर पर की एक ग़ज़ल जो मुझे बहुत पसंद है वो है:-
सरे राह कुछ भी कहा नहीं कभी उसके घर मैं गया नहीं
मैं जनम जनम से उसी का हूं, उसे आज तक ये पता नहीं
ये खुदा की देन अजीब है कि इसी का नाम नसीब है
जिसे तूने चाहा वो मिल गया,जिसे मैंने चाहा मिला नहीं
इसी शह्र में कई साल से मेरे कुछ करीबी अज़ीज़ हैं
उन्हें मेरी कोई खबर नहीं मुझे उन का कोई पता नहीं
....फिलहाल तो ये दो ग़ज़लें ही याद आ रही हैं। कुछ और सोच कर वापस आता हूँ।
एक बात और कहनी थी गुरूदेव इस तरही को लेकर। आपका समय बहुत कीमती है, आपके खुद के लिये और हमसबों के लिये। मेरी गुजारिश है कि जो भी तरही आपके पास आती हैं, उसमें बहर की गलतियाँ सुधारने में आप अपना वक्त जाया न करें...उन तरहियों को या तो यहाँ शामिल न किया जाये या फिर रचनाकार को दो दिन का सुधारने का वक्त देकर वापस किया जाये। मैं नहीं चाहता कि आप तमाम ग़ज़लों को खुद ही सुधार कर{जैसा कि आप हमेशा करते हैं} यहाँ लगायें।
जवाब देंहटाएंजगजीत सिंह जी की गाई हुई और मुज़फ्फर वारसी की कलम से निकली ये ग़ज़ल भी इसी बहर पे है,
जवाब देंहटाएंमेरी ज़िन्दगी किसी और की, मेरे नाम का कोई और है.
मेरा अक्स है सरे-आइना, पसे-आइना कोई और है.
एक पुराना गीत तो मुझे भी याद आ रहा है श्यद इसी बाहर पे हो ...
जवाब देंहटाएंये हवा ये रात ये चाँदनी तेरी इक अदा पे निसार है ...
उपयोगी विचार है!
जवाब देंहटाएंआज के चर्चा मंच पर इस पोस्ट को चर्चा मं सम्मिलित किया गया है!
http://charchamanch.uchcharan.com/2010/12/376.html
@Venus Kesri
जवाब देंहटाएंन तो कारवां कि तलाश है
न तो रह्गुज़र कि तलाश है
मेरे शौके खाना खराब को
एक हमसफ़र कि तलाश है
बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल और याद आ रही है इसी बह्र पर :
मेरी जि़ंदगी भी मेरी नहीं, ये हज़ार खानों में बँट गयी
मुझे एक मुट्ठी ज़मीन दे, ये ज़मीन कितनी सिमट गयी।
ये सारे शेर देने का उद्देश्य यह है कि इस बह्र में वज़्न की कलाबाजी स्पष्ट हो जाये, कड़ाई से बह्र के पालन में शेर का सौन्दर्य खत्म नहीं होना चाहिये।
गुरू्जी, प्रणाम। बहुत सारे उदाहरण तो दे ही दिये गये हैं। मुझे लगता है इस बहर की सर्वाधिक चर्चित गज़ल तो मोमिन की है-
जवाब देंहटाएं"वो जो हममें तुममें करार था तुम्हे याद हो कि न याद हो" एक और गज़ल इसी बहर पर- " मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा मुझे दोस्त बनके दगा न दे..मैं हूं दर्दे इश्क से जांबलब मुझे जि/म्दगी की दुआ न दे"। फिर से आता हूं।
> कोइ गुंचा टूट के गिर गया, कोइ शाख गुल की लचक गयी
जवाब देंहटाएं(एक नेपाली गीत में भी)
गर जाँगरै म त 'जीत' हुँ, भर प्रेरणा म त प्रीत हुँ
उन शब्द कोमल भावमा, अनि गाउनू म त गीत हुँ
छर फूलमा छर पातमा, मन माफिकै म त शीत हुँ !
(एक मैथिलि में भी)
इनसान जे, कहबैत छै, सकुचा कऽ छै जँ ठकैल यौ
बहरा कऽ जे, कहतै जँ नै, सहिते तँ छै कमजोर यौ
...इस बहर में मुझ जैसो को शे'र कहने में सौ दिन लगेंगे.
सचमुच ये बहर बहुत ख़ूबसूरत है....
जवाब देंहटाएंकोई गुंचा टूट के गिर गया, कोई शाख गुल की लचक गयी,
कहीं हिज्र आया नसीब में, कहीं ज़ुल्फ़ ए वस्ल महक गयी! (शायर - धीर)
मोमिन साहब का एक ख़ूबसूरत गीत भी है...
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेश्तर, वो करम के था मेरे हाल पर
मुझे सब है याद ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो के न याद हो
गौतम भैया आपकी बात से सहमत हूँ, लीजिये आपके लिए एक पैरोडी ढूंड कर लाया हूँ...
वो जो हमको तुमको बुखार था , तुम्हे याद हो के न याद हो
वो ही पूरा घर जो बीमार था , तुम्हे याद हो के न याद हो
वो नए सिरे से हिदायतें , वो दवा की सारी रिवायतें
वो हर एक बात पे छींकना , तुम्हे याद हो के न याद हो
:) :)
इस मुशायरे की सफ़लता के लिये शुभकामनायें व आने वाले नये साल के लिये सबको एडवान्स में बधाई, साथ ही कहना चाहूंगा " बहुत कठिन है डगर पनघट की "
जवाब देंहटाएंआदरणीय पंकज जी, क्षमा चाहता हूँ पिछले कई दिनों से बहुत व्यस्तता से गुजर रहा था सो यहाँ तक पहुचने में थोड़ी देर हो गई....आज जैसे ही यह पोस्ट देखा मन उमंगों से भर गया ..नया साल के स्वागत में कुछ लिखना है..मिसिरा हम जैसों के लिए थोड़ा कठिन हो सकता है पर प्रयास करना हमारा काम है और जब आप जैसे मार्गदर्शक हो तो फिर किस बात की चिंता..मुशायरे की शुरुआत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..ग़ज़ल को समझने में इससे नये लोगों को बहुत आसानी होती है...व्यस्त समय में से भी आप बराबर ऐसा प्रयास करते है ताकि लोगों को प्रेरणा मिलें और एक जानकारी भी...आपका बहुत बहुत आभार...
जवाब देंहटाएंशोले फिल्म का डायलाग याद आ रहा है:"तेरा क्या होगा कालिया?".. कालिया मैं हूँ.
जवाब देंहटाएंसमय कम है, बह्र मुश्किल है और काफिये के नाम पर बस "दबंग" सूझ रहा है, वो भी इसलिए कि हाल ही में फिल्म देखी है. :(
@Rajeev Bharol
जवाब देंहटाएंअच्छा विनोद है। बहरहाल गंभीरता से लेते हुए कुछ काफि़ये इस प्रकार हैं:
अंग, गंग, भंग, चंग, छंग, जंग, ढंग, तंग, दंग, भंग, संग, मलंग, मृदंग, पतंग, दबंग, उमंग, तरंग, भुजंग। पर्याप्त रहेंगे इतने।
इस बह्र में वज़्न गिराने के नियमों की जानकारी अधिक महत्वपूर्ण है अन्यथा एक मिसरा कहना भी भारी पड़ता है।
तिलक जी, आपने कुछ आसान कर दिया..मुझ जैसे के लिए, जो कि नौसीखिए से भी एक दो पायदान नीचे है..
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