इस बार का तरही मुशायरा इस मामले में सफल कहा जा सकता है कि इस बार कई दिग्गज लोगों ने स्वयं आकर अपना आशिर्वाद दिया । कुछ ग़ज़लें देर से प्राप्त हुईं इसलिये दीपावली के पहले उपयोग में नहीं आ सकीं । सो वो ग़ज़लें अब लगाई जा रहीं हैं । एक शायर ने अपना नाम नहीं भेजा तथा उनकी ग़ज़ल के साथ कोई परिचय नहीं था इसलिये उसे यूं ही लगाया जा रहा है । उनके मेल पर कई मेल किये किन्तु कोई जवाब नहीं मिला सो अब अज्ञात नाम से ही ये ग़ज़ल लगाई जा रही है । यदि आप को पता हो कि ये ग़ज़ल किसकी है तो बताने का कष्ट करें ताकि उनका नाम लगाया जा सके ।
दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें
लता हया जी का नाम कोई परिचय का मोहताज नहीं है। वे एक स्थापित शायरा हैं तथा मंचों पर अपनी शालीनता तथा गरिमा के कारण पहचानी जाती हैं । वे उन कुछ कवियित्रिओं में से हैं जिन्होंने आज भी मंच पर कवियित्रियों की गरिमा को बचा रखा है । आइये तरही के समापन में पहले उनकी ही एक सुंदर ग़ज़ल का आनंद लें ।
लता हया जी
जब अँधेरे अना में नहाते रहे
दीप जलते रहे ,झिलमिलाते रहे
रात लैला की तरह हो गर बावरी
बन के मजनूं ये जुगनू भी आते रहे
रुह रौशन करो तो कोई बात हो
कब तलक सिर्फ चेहरे लुभाते रहे ?
इक पिघलती हुई शम्म कहने लगी
उम्र के चार दिन जगमगाते रहे
फ़िक्र की गोपियाँ रक्स करती रहीं
गीत बन श्याम बंसी बजाते रहे
कोई बच्चों के हाथों में बम दे चले
वो पटाखा समझ खिलखिलाते रहे
दूध ,घी ,नोट ,मावा के दिल हो "हया".
अब तो हर शै मिलावट ही पाते रहे
नोट;;लैल रात को कहते हैं और रात काली होती है ;लैला का नाम इसीलिए लैला हुआ के वो काली थी
अना –घमंड रक्स –नृत्य
दीपक मशाल
दीपक मशाल की ये तरही में पहली प्रस्तुति है और चूंकि इनकी भी प्रस्तुति कुछ बिलम्ब से मिली इसलिये दीपावली के मुशायरे में नहीं लग पाई अब लग रही है ।
दीप जलते रहे, झिलमिलाते रहे,
लोग मिलते रहे मुस्कुराते रहे.
चाँद आया नहीं आसमां में तो क्या,
तारे धरती के ही टिमटिमाते रहे.
भूखे बच्चे कई पेट खाली लिए,
नींद में रात भर कुलबुलाते रहे.
जो भी मदहोश थे वो तो सम्हले रहे,
होश वाले मगर डगमगाते रहे.
कुछ पलों को जो ख्वाबों से कुट्टी हुई,
भूली यादों को बस गुनगुनाते रहे.
आज रिश्ते 'मशाल' उनसे टूटे सभी,
खून जिनके लिए तुम जलाते रहे.
अज्ञात शायर
परिचय इसलिये नहीं दे सकता कि जिसका नाम ही नहीं पता हो उसका क्या परिचय हो भला । किन्तु बस ये कि दीपावली के तरही मुशायरे का इस अज्ञात शायर के साथ विधिवत समापन हो रहा है । चूंकि अब समापन हो रहा है इसलिये अब इस मिसरे पर कोई ग़ज़ल न भेजें । अगले तरही का मिसरा शीघ्र ही दिया जायेगा । तब तक सुनिये अज्ञात को । अज्ञात भी कोई विशुद्ध फुरसतिया प्राणी है जो थोक में एक सौ पचहत्तर शेर भेज कर नाम तक नहीं बता रहा है । खैर आप झेलिये अज्ञात को और मुझे आज्ञा दीजिये ।
सर झुकाते रहे, मुंह छुपाते रहे
कनखियों से नज़र भी मिलाते रहे
झूठे वादों से हमको लुभाते रहे
तीन रंगों का बाजा बजाते रहे
रात भर इक समंदर उमड़ता रहा
रात भर हम नदी बन समाते रहे
ठेकेदारी मिली रोशनी की उन्हें
जो चराग़ों को कल तक बुझाते रहे
जैसे भेड़ों के रेवड़ को हांके कोई
रहनुमा मुल्क को यूं चलाते रहे
उर्मिला का विरह किसने देखा भला
लोग सीता का गुणगान गाते रहे
मौत बच्चों की होती रही भूख से
देवता दूध घी से नहाते रहे
हो गई रक्त रंजित थी वर्दी हरी ( मेजर गौतम के लिये )
मौत से फिर भी पंजा लड़ाते रहे
कर भी सकते थे गांधी भला और क्या
छप के नोटों पे बस मुस्कुराते रहे
धर्मधारी युधिष्ठिर हर इक दौर में
दांव पर द्रोपदी को लगाते रहे
सांवला सा सलोना सा बादल था इक
वो बरसता रहा, हम नहाते रहे
जिस दिशा में थे बस दोस्तों के ही घर
सारे पत्थर वहीं से ही आते रहे
कोई काबा गया, कोई काशी गया
मां के चरणों में हम सर झुकाते रहे
आंधियों की चुनौती को स्वीकार कर
दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे