शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

और तरही मुशायरे के अंत में सुनिये एक स्‍थापित शायरा लता हया जी को, दीपक मशाल को तथा एक अज्ञात शायर को जिन्‍होंने ग़ज़ल तो भेजी किन्‍तु कोई नाम या परिचय नहीं भेजा ।

इस बार का तरही मुशायरा इस मामले में सफल कहा जा सकता है कि इस बार कई दिग्‍गज लोगों ने स्‍वयं आकर अपना आशिर्वाद दिया । कुछ ग़ज़लें देर से प्राप्‍त हुईं इसलिये दीपावली के पहले उपयोग में नहीं आ सकीं । सो वो ग़ज़लें अब लगाई जा रहीं हैं । एक शायर ने अपना नाम नहीं भेजा तथा उनकी ग़ज़ल के साथ कोई परिचय नहीं था इसलिये उसे यूं ही लगाया जा रहा है । उनके मेल पर कई मेल किये किन्‍तु कोई जवाब नहीं मिला सो अब अज्ञात नाम से ही ये ग़ज़ल लगाई जा रही है । यदि आप को पता हो कि ये ग़ज़ल किसकी है तो बताने का कष्‍ट करें ताकि उनका नाम लगाया जा सके ।

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

लता हया जी का नाम कोई परिचय का मोहताज नहीं है। वे एक स्‍थापित शायरा हैं तथा मंचों पर अपनी शालीनता तथा गरिमा के कारण पहचानी जाती हैं । वे उन कुछ कवियित्रिओं में से हैं जिन्‍होंने आज भी मंच पर कवियित्रियों की गरिमा को बचा रखा है । आइये तरही के समापन में पहले उनकी ही एक सुंदर ग़ज़ल का आनंद लें ।

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लता हया जी

जब अँधेरे अना में नहाते रहे

दीप जलते रहे ,झिलमिलाते रहे

रात लैला की तरह हो गर बावरी

बन के मजनूं ये जुगनू भी आते रहे

रुह रौशन करो तो कोई बात हो

कब तलक सिर्फ चेहरे लुभाते रहे ?

इक पिघलती हुई शम्म कहने लगी

उम्र के चार दिन जगमगाते रहे

फ़िक्र की गोपियाँ रक्स करती रहीं

गीत बन श्याम बंसी बजाते रहे

कोई बच्चों के हाथों में बम दे चले

वो पटाखा  समझ खिलखिलाते रहे

दूध ,घी ,नोट ,मावा के दिल हो "हया".

अब तो हर शै मिलावट ही पाते रहे

नोट;;लैल रात को कहते हैं और रात काली होती है ;लैला का नाम इसीलिए लैला हुआ के वो काली थी

अना –घमंड  रक्स –नृत्य

दीपक मशाल

दीपक मशाल की ये तरही में पहली प्रस्‍तुति है और चूंकि इनकी भी प्रस्‍तुति कुछ बिलम्‍ब से मिली इसलिये दीपावली के मुशायरे में नहीं लग पाई अब लग रही है ।

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दीप जलते रहे, झिलमिलाते रहे,
लोग मिलते रहे मुस्कुराते रहे.
चाँद आया नहीं आसमां में तो क्या,
तारे धरती के ही टिमटिमाते रहे.

भूखे बच्चे कई पेट खाली लिए,
नींद में रात भर कुलबुलाते रहे.

जो भी मदहोश थे वो तो सम्हले रहे,
होश वाले मगर डगमगाते रहे.
कुछ पलों को जो ख्वाबों से कुट्टी हुई,
भूली यादों को बस गुनगुनाते रहे.
आज रिश्ते 'मशाल' उनसे टूटे सभी,
खून जिनके लिए तुम जलाते रहे.

अज्ञात शायर

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परिचय इसलिये नहीं दे सकता कि जिसका नाम ही नहीं पता हो उसका क्‍या परिचय हो भला । किन्‍तु बस ये कि दीपावली के तरही मुशायरे का इस अज्ञात शायर के साथ विधिवत समापन हो रहा है । चूंकि अब समापन हो रहा है इसलिये अब इस मिसरे पर कोई ग़ज़ल न भेजें । अगले तरही का मिसरा शीघ्र ही दिया जायेगा । तब तक सुनिये अज्ञात को । अज्ञात भी कोई विशुद्ध फुरसतिया प्राणी है जो थोक में एक सौ पचहत्‍तर शेर भेज कर नाम तक नहीं बता रहा है । खैर आप झेलिये अज्ञात को और मुझे आज्ञा दीजिये ।

सर झुकाते रहे, मुंह छुपाते रहे
कनखियों से नज़र भी मिलाते रहे

झूठे वादों से हमको लुभाते रहे
तीन रंगों का बाजा बजाते रहे

रात भर इक समंदर उमड़ता रहा
रात भर हम नदी बन समाते रहे

ठेकेदारी मिली रोशनी की उन्‍हें
जो चराग़ों को कल तक बुझाते रहे

जैसे भेड़ों के रेवड़ को हांके कोई
रहनुमा मुल्‍क को यूं चलाते रहे

उर्मिला का विरह किसने देखा भला
लोग सीता का गुणगान गाते रहे

मौत बच्‍चों की होती रही भूख से
देवता दूध घी से नहाते रहे

हो गई रक्‍त रंजित थी वर्दी हरी ( मेजर गौतम के लिये )
मौत से फिर भी पंजा लड़ाते रहे

कर भी सकते थे गांधी भला और क्‍या
छप के नोटों पे बस मुस्‍कुराते रहे

धर्मधारी युधिष्ठिर हर इक दौर में
दांव पर द्रोपदी को लगाते रहे

सांवला सा सलोना सा बादल था इक
वो बरसता रहा, हम नहाते रहे

जिस दिशा में थे बस दोस्‍तों के ही घर
सारे पत्‍थर वहीं से ही आते रहे

कोई काबा गया, कोई काशी गया
मां के चरणों में हम सर झुकाते रहे 

आंधियों की चुनौती को स्‍वीकार कर
दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे

 

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

दादा भाई महावीर शर्मा जी, प्राण शर्मा भाई साहब, राकेश खण्‍डेलवाल भाई साहब, नीरज गोस्‍वामी भैया और लावण्‍य शाह दीदी साहब, सुधा ढींगरा दीदी, निर्मला कपिला दीदी, शार्दूला नोगजा दीदी, की रचनाएं, इससे बेहतर दीपावली और क्‍या हो सकती है भला ।

सबको दीपावली के इस पावन पर्व पर शुभकामनाएं

आज दीपावली के दिन मेरी चार अग्रजाओं तथा चार अग्रजों की रचनाएं, इससे बेहतर दीपावली और क्‍या हो सकती है । वैसे पहले मैं दो पोस्‍ट में इन आठों को लगाना चाहता था लेकिन मलेरिया के वार ने और तेज बुखार ने उसकी अनुमति नहीं दी, सो एक ही पोस्‍ट में लगा रहा हूं । ( इनमें से दो रचनाएं कानूनी नोटिस भेज कर निकलवाई गईं हैं । ) तेज बुखार है अत: कोई गलती हो तो पूर्व में ही क्षमा । आज की पोस्‍ट में कई रंग हैं ग़ज़ल हैं, गीत हैं, मुक्‍तक हैं और मुक्‍त काव्‍य भी है ।

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श्री महावीर शर्मा जी 'दादा भाई'

हर दिशा में अँधेरे मिटाते रहें

दीपमाला से धरती सजाते रहें

गर किसी झोंपड़ी में अँधेरा मिले

प्रेम का दीप उसमें जलाते रहें

भूल जाएँ गिले हम सभी आज दिन

बस दिलों से दिलों को मिलाते रहें

ईद हो या दिवाली जहां में कहीं

सब गले मिलके उत्सव मनाते रहें.

आज दीपावली का ये सन्देश है

प्यार की जोत दिल में जगाते रहें.

दीपमाला पहन कर सजी है धरा 

दीप जलते रहे झिलमिलाते रहें 

बस 'महावीर' की तो यही है दुआ

प्यार का हम ख़ज़ाना लुटाते रहें.

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लावण्‍य दीदी साहब

मोरे  आँगन में आई दीवाली की रात

मन में उमंगों  के रंग , मुस्कुराने लगे हैं,

रहेंगें ~ रहेंगें , सदा , मुस्कुराते

है दीवाली की रात, बिछी रंगोली की बिछात,

जश्न की रात  में ,रंग , जगमगाने  लगे हैं

रहेंगें ~ रहेंगें, सदा जगमगाते

स्याह आसमान पर, चांदनी तो नहीं,

दीप भूमि पर सैंकडों, झिलमिलाने  लगे हैं

रहेंगें ~ रहेंगें, सदा झिलमिलाते

बजे आरती की धुन,  दीप धुप से भवन

पाकर  लक्ष्मी का वर , हरषाने  लगे हैं

रहेंगें ~ रहेंगें,   हर्षाते रहेंगें

किये  निछावर ये मन प्राण और तन

दिया ~ बाती बन , सजन , सुख पाने लगे हैं

रहेंगें ~ रहेंगें, हम , सदा सुख पाते

आस का दीप है, आस्था  धृत से जला

भाव गीत बन मेरे गुनगुनाने लगे हैं

रहेंगें ~ रहेंगें, हाँ सदा गुनगुनाते

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आदरणीय प्राण शर्मा भाई साहब

रोशनी हर तरफ ही लुटाते रहें

लौ से अपनी सभीको लुभाते रहें

हर किसी की तमन्ना है अब साथियो

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

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दीप जलते रहें और जलाते रहें

धज्जियाँ हम तिमिर की उडाते रहें

आज दीवाली का भव्य त्यौहार है

भव्य बनकर सभी को सुहाते रहें

सब के चेहरों पे मुस्कान की है छटा

मन करे,हम भी यूँ मुस्कराते रहें

यूँ ही दिल में रहें प्यार के वलवले

जश्न नजदीकियों के मनाते रहें

प्यार जैसा निभा है खुशी से भरा

साथ ऐसा सदा हम निभाते रहें

एक दिन के लिए घर सजाया तो क्या

बात तब है कि घर नित सजाते रहें

यादगार आज की रात हो साथियो

कंठ लगते रहें और लगाते रहें

रोज़ ही " प्राण" दीवाली की रात हो

रोज़ ही हम पटाखें चलाते रहें

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आदरणीय सुधा दीदी

आतंक से पीड़ित मानवता
सूखे से भूखा किसान,
धर्म के नाम पर कटता मनुष्य
राजनीति की बलि चढ़ता युवा.
विश्व में झगड़ते देश और
मिटता निरीह मानव,
अहम् संतुष्ट करते नेता
और जान लुटाते सैनिक,
कुलों के बुझते दीए
और बिलखते परिवारजन.
इंतज़ार करती आँखें,
पुकारती आँखें,
आशा की जोत जलाए आँखें,
क्रांति पुरुष को खोजती आँखें
जो आए और
मनुष्यता का तेल,
शांति की बाती डाल,
इंसानियत,
प्रेम से भरपूर
सुरक्षा के दीप जलाए,
वे दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें.

Rakesh ji

श्रद्धेय राकेश भाई साहब

दीप दीवली के जलें इस बरस

यूँ जलें फिर न आकर अँधेरा घिरे

बूटियाँ बन टँगें रात की ओढ़नी

चाँद बन कर सदा जगमगाते रहें

तीलियाँ हाथ में आ मशालें बनें

औ तिमिर पाप का क्षीण होने लगे

होंठ पर शब्द जयघोष बन कर रहें

और ब्रह्मांड सातों गुँजाते रहें

दांव तो खेलती है अमावस सदा

राहु के केतु के साथ षड़यंत्र कर

और अदॄश्य से श्याम विवरों तले

है अँधेरा घना भर रही सींच कर

द्दॄष्टि के क्षेत्र से अपनी नजरें चुरा

करती घुसपैठ है दोपहर की गली

बाँध कर पट्टियां अपने नयनों खड़ी

सूर समझे सभी को हुई मनचली

उस अमावस की रग रग में नूतन दिया

इस दिवाली में आओ जला कर धरें

रश्मियां जिसकी रंग इसको पूनम करें

पांव से सर सभी झिलमिलाते रहें

रेख सीमाओं की युग रहा खींचता

आज की ये नहीं कुछ नई बात है

और सीमायें, सीमाओं से बढ़ गईं

जानते हैं सभी, सबको आभास है

ये कुहासों में लिपट हुए दायरे

जाति के धर्म के देश के काल के

एक गहरा कलुष बन लगे हैं हुए

सभ्यता के चमकते हुए भाल पे

ज्योति की कूचियों से कुहासा मिटा

तोड़ दें बन्द यूँ सारे रेखाओं के

पीढ़ियों के सपन आँख में आँज कर

होम्ठ नव गीत बस गुनगुनाते रहें

भोजपत्रों पे लिक्खी हुई संस्कॄति

का नहीं मोल कौड़ी बराबर रहा

लोभ लिप्सा लिये स्वार्थ हो दैत्य सा

ज़िन्दगी भोर से सांझ तक डँस रहा

कामना न ले पाई सन्यास है

लालसा और ज्यादा बढ़ी जा रही

देव के होम की शुभ्र अँगनाई में

बस अराजकता होकर खड़ी गा रही

आओ नवदीप की ज्योति की चेतना

का लिये खड्ग इनका हनन हम करें

और बौरायें अमराईयाँ फिर नई

सावनी हो मरुत सरसराते रहें

Nirmla Kapila

आदरणीय निर्मला दी

फूल यूँ ही सदा खिलखिलाते रहें
बाग ये इस तरह लहलहाते रहें

इस ज़ुबां पे रहे तू गज़ल की तरह
हम हमेशा इसे गुनगुनाते रहें

राह जितनी कठिन क्यों न हो यूँ चलें
होंठ अपने सदा मुस्कुराते रहें
प्यार से बैठ कर यूँ निहारो हमे
मौज़ आती रहे हम नहाते रहें

कुछ शेर रहे रदीफ पर
याद उस की हमे यूँ परेशाँ करे
पाँव मेरे सदा डगमगाते रहे
हम फकीरों से पूछो न हाले जहाँ
जो मिले भी हमे छोड जाते रहे
हाथ से टूटती ही लकीरें रही
ये नसीबे हमे यूँ रुलाते रहे
वो वफा का सिला दे सके क्यों नहीं
बेवफा से वफा हम निभाते रहे

शाख से टूट कर हम जमीं पे गिरे
लोग आते रहे रोंद जाते रहे
जब चली तोप सीना तना ही रह (ये गौतम राज रिशी जी के लिये है)
लाज हम देश की यूँ बचाते रहे

   neeraj ji

आदरणीय नीरज भैया

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

तम सभी के दिलों से मिटाते रहें

हर अमावस दिवाली लगे आप जब 

पास बैठे रहें, मुस्कुराते रहें

प्यार बासी हमारा न होगा अगर

हम बुलाते रहें, वो लजाते रहें

बात सच्ची कही तो लगेगी बुरी

झूठ ये सोच कर क्यूँ सुनाते रहें

दर्द में बिलबिलाना तो आसान है

लुल्फ़ है, दर्द में खिलखिलाते रहें

भूलने की सभी को है आदत यहाँ

कर भलाई उसे मत गिनाते रहें

सच कहूँ तो सफल वो ग़ज़ल है जिसे

लोग गाते रहें, गुनगुनाते रहें

हैं पुराने भी ‘नीरज’ बहुत कारगर

पर तरीके नये आज़माते रहें

   Shardula_saree_Aug09

शार्दूला दीदी

प्रीत के खेत में नेह की बालियाँ

ज्योति पूरित फसल नित उगाते रहें

वर्तिका बोध देती रहे हर निशा
दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

बालपन की गली निष्कपट चुलबुली

बन सरल बारिशों में नहाते रहें

भाव से शून्य हो जो विलग हो गए

खोल उनको भुजाएं बुलाते रहें

मानती हूँ सहज भाष्य, करना जटिल

जोड़ आंगुर कड़ी पर बढ़ाते रहें

और माँगें दुआ विश्व भर के लिए

दीप का पर्व  यूँ ही मनाते रहें !

सभी को दीपावली की शुभकामनाएं । आनंद लीजिये इन आठ श्रेष्‍ठ रचनाकारों का और दीपावली के दीपों का एहसास कीजिये ।

 

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

कल के सारे शायरों ने समां बांध दिया दीपावली को साकार कर दिया, आज कंचन चौहान, अभिनव शुक्‍ला, गौतम राजरिशी, रविकांत पांडेय, प्रकाश अर्श तथा अंकित सफर की ग़ज़लें ।

कल से ही तेज बुखार ने पकड़ लिया है । उसीके कारण रात भर का जागरण भी हो गया । किन्‍तु आज की पोस्‍ट लगाने आना ही था सो उठकर आफिस में आया हूं ताकि आज की पोस्‍ट लगा सकूं । कल के पांचों ही शायर धमाका करके गये हैं और आज तो छ: रचनाकार हैं । ये सारे रचनाकार ग़ज़ल की पाठशाला के नियमित विद्यार्थी हैं । पिछले दिनों अभिनव की भारत यात्रा के दौरान ये सब प्रकाश के दिल्‍ली स्थित निवास पर इकट्ठे हुए थे तब का ये फोटो देखिये और फिर सुनिये इन सबकी ग़ज़लें ।

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कंचन, अंकित, गौतम, रवि, अभिनव और प्रकाश

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

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अंकित सफर

साथ बीते वो लम्हें सताते रहे.
दूर जब तुम गए याद आते रहे.
इक बनावट हँसी ओढ़ ली हमने भी
दर्द जो दिल में था वो छिपाते रहे.
आसमाँ छूने का ख्‍वाब दिल में सजा
हम पतेंगे ज़मीं से उडाते रहे.
दांव पेंचों से वाकिफ नहीं चुगने के
वो परिंदे नए चहचहाते रहे.
खौफ हासिल हुआ हादसों से मुझे
ख्वाब कुछ ख्वाब में आ डराते रहे.
एक शरारत दुकां ने करी उससे यूँ
कुछ खिलोने उसे ही बुलाते रहे.
आंधियां हौसलों को डिगा ना सकी
दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे

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प्रकाश अर्श

दीप जलते रहे झील मिलाते रहे
हम अजाबों से इनको बचाते रहे
वो हमें इस तरह आजमाते रहे
शर्त हमसे लगा, हार जाते रहे
उंगलियाँ इसलिये खुबसूरत हुई
प्यार का नाम लिखते मिटाते रहे
मिल गया है उन्‍हें पैर में घाव लो
फूल कदमों तले जो दबाते रहे
हम बहुत दूर तक लो कदम से कदम
फासले दुश्मनी के मिटाते रहे
मखमली बिस्तरें देख घबरा गए
रोड पर जो दरी को बिछाते रहे
खींच दूँ और चादर तो फट जायेगी
पेट पैरो में अब तक छुपाते रहे
अर्श चिठ्ठी नहीं देता है डाकिया
टकटकी द्वार पर हम लगाते रहे

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रविकांत पांडेय

चोट पर चोट यूं दिल पे खाते रहे
आदतन हम मगर मुस्कुराते रहे
भूख लाई उसे गांव से शहर में
पर उसे नीम बरगद बुलाते रहे
जाने क्यूं देखकर आइना देर तक
आप ही आप से वो लजाते रहे
आइये आइये आइये आइये
करके सज़दे उन्हे हम बुलाते रहे
नींद आई नहीं रात भर याद के
दीप जलते रहे,
झिलमिलाते रहे
चांदनी रात में प्रीत की वो कथा
सिन्धु-तट पर हमें वो सुनाते रहे
दर्द से छटपटाते रहे मेमने
भेंड़िये नोचकर जिस्म खाते रहे
राम का नाम लेकर वो बगुला-भगत
मछलियों को निशाना बनाते रहे
जब भी बिजली,
सड़क की हुई बात तो
बीरबल की वो खिचड़ी पकाते रहे
हमने खोजा बहुत आदमी ना मिला
कुर्सियां सिर्फ़ शैतान पाते रहे

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कंचन चौहान

आप आये हैं तो आप आते रहें,

जिससे जी भर के हम मुस्कुराते रहें।

आप बन कर के साधन मेरी साधना,

साध्य तक साध कर के सुनाते रहें।

मेरे, तेरे नही, सब के आँगन में ही,

दीप जलते रहें, झिलमिलाते रहें।

लक्षमी बन के धन, घर में बरसे तो मन,

गणपती ही हमारा चलाते रहें।

ऐसी कोई हवा, अब बहा दे खुदा,

प्रेम देते रहें, प्रेम पाते रहें।

आपके हाथ में है क़लम तो ज़रा,

वीर गाथा भी सबको सुनाते रहें।

लाइये, लाइये दिल हमारा हमें,

चीज़ ये वो नही जो लुटाते रहें।

दिल में सागर बहुत,आँख में घन बहुत,

उम्र भर रोयेंगे, वो रुलाते रहें।

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गौतम राजरिशी

रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे

उनके हाथों का कंगन घुमाते रहे

इक विरह की अगन में सुलगते बदन

करवटों में ही मल्हार गाते रहे

टीस, आवारगी, रतजगे, बेबसी

नाम कर मेरे, वो मुस्कुराते रहे

शेर जुड़ते गये, इक गज़ल बन गयी

काफ़िया, काफ़िया वो लुभाते रहे

टौफियाँ, कुल्फियाँ, कौफी के जायके

बारहा तुम हमें याद आते रहे

कोहरे से लिपट कर धुँआ जब उठा

कमरे में सिमटे दिन थरथराते रहे

मैं पिघलता रहा मोम-सा उम्र भर

इक सिरे से मुझे वो जलाते रहे

जब से यादें तेरी रौशनाई बनीं

शेर सारे मेरे जगमगाते रहे

बात तेरी, तेरा जिक्र, तेरा ही नाम

इक सदी से ये हम गुनगुनाते रहे

सुब्‍ह के स्टोव पर चाय जब खौल उठी

ऊँघते बिस्तरे कुनमुनाते रहे

उनके आने के वादे पे ही रात भर

दीप जलते रहे, झिलमिलाते रहे

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अभिनव शुक्‍ला

दोस्ती अपने दिल से निभाते रहे,
प्यार करते रहे चोट खाते रहे,
हादसा, हादसा, हादसा, हादसा,
लोग आते रहे, लोग जाते रहे,
क्या हुआ, क्यों हुआ, जो हुआ, सो हुआ,
बात सुनते रहे, कंपकंपाते रहे,
मैं नदी में खड़ा गुनगुनाता रहा,
दीप जलते रहे, झिलमिलाते रहे,
चांदनी घर की छत पर बिखर सी गयी,
जो अँधेरे थे वो मुंह छुपाते रहे.

आनंद आ गया सभी ने अद्भुत शेर निकाले हैं । आंधियां हौसलों को डिगा ना सकी, प्यार का नाम लिखते मिटाते रहे, आइये आइये आइये आइये, टीस, आवारगी, रतजगे, बेबसी, मैं नदी में खड़ा गुनगुनाता रहा ये शेर लम्‍बे चलने वाले शेर हैं । आनंद लीजिये इस नयी पीढ़ी का जो साहित्‍य की मशाल को इस इरादे से थामने आ गई है कि अब अंधेरा न होने देंगें । बुखार फिर से बढ़ रहा है सो मुझे आज्ञा दीजिये । कल मिलते हैं दो अलग अलग अंकों के साथ ।

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009

तरही की धमाकेदार शुरुआत की है बिटिया अनन्‍या ने, और अब सिलसिला आगे बढ़ा रहे हैं डॉ. मोहम्‍मद आज़म, तिलक राज कपूर जी, प्रकाश पाखी, मुकेश तिवारी तथा पारुल ।

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें तरही भाग 1 अनन्‍या को पढ़ें  

दादा भाई महावीर जी के मंथन पर अपने इस मित्र की दीपावली विशेष कहानी को पढ़ें

अनन्‍या ने तरही को  जबरदस्‍त टेक आफ दिया है । मुझे लगा कि चूंकि अब काफी नाम बाकी हैं और समय भी कम हैं इसलिये एक बार में कम से कम चार या पांच कवियों को लेना होगा इसलिये मैं बात भी कम करूंगा ।तो चलिये तरही के इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं और आज अलग अलग रंगों के कुछ शायरों को सुनते हैं । आज हम ले रहें हैं चार शायरों  और एक शायरा को । सभी अपने अपने फन में माहिर शायर हैं । और सबसे अच्‍छी बात ये है कि सब अलग अलग रंग में लिखने वाले शायर हैं । डॉ. मोहम्‍मद आज़म, तिलक राज कपूर जी,  प्रकाश पाखी, मुकेश तिवारी तथा पारुल ये वे पांच रचनाकार हैं जिनकी रचनाएं आज हम देखने जा रहे हैं । परिचय के लिये स्‍थान नहीं है इसलिये मैं सीधे ही रचनाओं पर आ रहा हूं ।

deepawalideepawalideepawalideepawalideepawalideepawaliदीप जलते रहें झिलमिलाते रहेंdeepawalideepawalideepawalideepawalideepawalideepawali

azam ji TRK Small prakash pakhi mukesh tiwari

डॉ. मोहम्‍मद आज़म    तिलकराज कपूर जी         प्रकाश पाखी          मुकेश तिवारी

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deepawali डॉ. मोहम्‍मद आज़मdeepawali

काग़ज़ी आंकड़े वो दिखाते रहे

लोग जश्‍ने तरक्‍की मनाते रहे

हम हथेली पे सरसों जमाते रहे

साथ यूं जिंदगी का निभाते रहे

खट्टे मिट्ठे मेरे रिश्‍ते नाते रहे

कुछ हंसाते रहे कुछ रुलाते रहे

                                लौट कर जब तलक वो घर आया नहीं

          बस बुरे ही ख़यालात आते रहे

दिल मिलाना हर इन्‍सां से मुमकिन न था

हाथ रस्‍मन सभी से मिलाते रहे

गिन रहा था तमाम अपने दुश्‍मन मगर

दोस्‍त जिगरी भी कुछ याद आते रहे

हो गया था नज़र से वो ओझल मगर

देर तक हाथ अपना हिलाते रहे

इक सराये है ‘आज़म’ ये दुनिया यहां

लोग आते रहे, लोग जाते रहे

deepawaliतिलक राज कपूर जीdeepawali

दिल पे मेरे वो बिजली गिराते रहे
आशियॉं अपना खुद ही मिटाते रहे ।

उनकी फितरत थी हमको सताते रहे,
हम भी कुछ कम नहीं मुस्‍कुराते रहे।

जिस डगर हम चले चोट खाते रहे,
राह अपनी मगर हम बनाते रहे।

चॉंदनी से तराशे हुए जिस्‍म पर
वो सितारों की महफिल सजाते रहे।

कनखियों से ही शायद कभी देख लें,
सोचते हम रहे, वो लजाते रहे।

रूठने-औ-मनाने के इस खेल में,
रूठते वो रहे, हम मनाते रहे।

उनका चेहरा अचानक ही वो कह गया
राज़ परदे में जो वो छुपाते रहे।

आज आयेंगे वो, सोचकर उम्रभर,
उनकी राहों में पलकें बिछाते रहे।

रंग जीवन से पाये, कलम में भरे
गीत लिखते रहे गुनगुनाते रहे।

एक फुटपाथ सोता रहा रातभर,
दीप जलते रहे, झिलमिलाते रहे।

पेड़ बूढ़ा नहीं हो सका, जब तलक
कुछ परिंदे घरौंदा बसाते रहे।

ख्‍वाब-ए-मंजिल में ‘राही’ जी, क्‍यों खो दिये
रास्‍ते में नज़ारे जो आते रहे।

deepawaliप्रकाश पाखी deepawali

आंगनों में ख़ुशी,रौशनी नूर हों

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

मैल मन से मिटे दोष भी दूर हों

बैर की भावना को मिटाते रहें

सरगमें प्यार की दिल में बजती रहें

नेमतों की ख़ुशी गुनगुनाते रहें

दर्द हो, हो चुभन,आग जलती रहे

रिश्ते में हो तपन पर निभाते रहें

मुश्किलें हों बड़ी,राह काँटों भरी

ख्वाब जन्नत के फिर भी सजाते रहें

मिल गले हम मिले घाव भूलें सदा

माफ़ कर दुश्मनी हम मिटाते रहें

 deepawaliमुकेश तिवारीdeepawali

दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे

तूफां आये मगर जगमगाते रहे

                                    दिन गुज़रते रहे रातें कटती रही

वो ना आये जिन्हें हम बुलाते रहे

अपनी खामोशियाँ बन गई है सदा

जान जाती रही याद आते रहे

जीत उनकी तुम्हें भी मुबारक बहुत

हार के हम उन्हें यूँ जिताते रहे

रोटियाँ आस्मां से अभी आएंगी

भूख को यूँ दिलासा दिलाते रहे

deepawaliपारुल deepawali

tarapeeth2009 014

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें
गर अमावस भी हो मुस्कुराते रहें
बेतकल्‍लुफ़ हुए जो, बढे़ फ़ासले
मश्‍वरा अब ज़रा हिचकिचाते रहें
रेख लांघी थीं सीता वो अंजाम गर
हो सके बेटियों को सुनाते रहें
ऐसी ख़फ़गी मेरी जाँ मुनासिब नहीं
हम मनाते रहें, जाँ से जाते रहें
ज़ब्त ऐसे करें बाज़ औकात गम
तिलमिलाते रहें कसमसाते रहें
चाँद "पुखराज" ऐसे उफ़क़ पर खिलो
लोग सजदे करें ,सर झुकाते रहें

जबरदस्‍त शेर और कमाल की शायरी की है पांचों ने दिल मिलाना हर इन्‍सां से मुमकिन न था, एक फुटपाथ सोता रहा रात भर, मैल मन से मिट दोष भी दूर हो, अपनी खामोशियां बन गईं हैं सदा, और बेतकल्‍लुफ हुए जो, बढ़े फासले  ये शेर यादों में बसे रह जाने वाले शेर हैं । आज़म जी ने संयुक्‍त अक्षरों का जबरदस्‍त खेल रचा है जो नये लिखने वालों के लिये सीखने योग्‍य है । अनोखे अंदाज से लिखे गये शेर हैं इन ग़ज़लों में । अनन्‍या द्वारा की गई धमाकेदार शुरूआत को मध्‍यक्रम के बल्‍लेबाजों ने स्‍थिरता प्रदान की है और तरही को ऊंचाइयां । पांचों को पढ़ें और दाद दें । और कल मिलिये कुछ और शायरों से । इंतजार कीजिये दीपावली के दिन का उस दिन मिलेंगीं आपको दिग्‍गज रचनाकारों की रचनाएं अर्थात दीपावली का धमाका ।

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