शुक्रवार, 31 अगस्त 2007

चलिये आज बात करते हैं ग़ज़ल के या यूं कहें कि कविता के चार प्रमुख स्‍तंभों की

मैंने पहले ही कहा है कि मैं जितना जानता हूं उतना ही सिखाना चाहता हूं । और फि़र मैं ख़ुद भी एक छात्र ही हूं इसलिये यही कहूंगा कि 'सितारों के आगे जहां और भी हैं' मैं आपको एक राह दिखा रहा हूं इसके आगे बहुत कुछ है ।
बात व्‍याकरण की हिंदी में अरूज़ जिसका मतलब संस्‍कृत अरूज़ से होता है, जिसे छंद कहा गया और जिसको लेकर पिंगल शास्‍त्र की रचना की गई जिसमें हिंदी के छंदों का पूरा व्‍याकरण है । उर्दू में उसे अरूज़ कहा गया । ग़ज़ल में चूंकि बातचीत करने का लहज़ा होता है इसलिये ये छंद की तुलना में ज्‍़यादा लोकप्रिय हो गई । पिंगल और छन्‍द के क़ायदे बहुत मुश्किल होने के कारण और मात्राओं में जोड़ घट को संभलना थोड़ा मुश्‍िकल होने के कारण हिंदी में भी उर्दू का अरूज़ चल पड़ा । अरबी अरूज़ के पितामह अल्‍लामा ख़लील बिन अहमद थे जो 1300 साल पहले हुए थे यानि 8 वीं सदी में । वे यूनानी ज़बान को जानते थे अत: उन्‍होंने अरबी अरूज़ की ईज़ाद में यूनानी छंद शास्‍त्र की मदद ली हालंकि संस्‍कृत पिंगल तो उनकी पैदाइश के भी पहले का है और वे उसके जानकार भी थे पर आसान होने के कारण उन्‍होंने यूनानी अरज़ल की मदद ली । अलबरूनी ने अपनी किताब किताबुल हिंद में लिखा है कि पद बनाने का यूनानी तरीका भी वही है जो हिन्‍दुस्‍तानियों का है हिंदी में भी दो हिस्‍से होते हैं जिनको पद कहा जाता है । यूनानी में पदों को रजल कहा जाता है । वही पर ग़ज़ल में भी हैं । एक क़ामयाब शायर होने के लिये चार चीज़ें ज़रूरी हैं विचार, शब्‍द, व्‍याकरण और प्रस्‍तुतिकरण । विचार तभी होंगें जब आप अपने समय की नब्‍ज़ से परिचित होंगें । मेरे गुरूवार कहते हैं कि क्‍यों नहीं देखो राखी सावंत को, देखो और उसमें आज के दौर की नब्‍ज़ टटोलो कि समाज की दिशा क्‍या है । आज हम तुलसीदास की तरह ' तुलसी अब का होंइगे नर के मनसबदार' कह कर बचनहीं सकते कवि होने के नाते हमारी जि़म्‍मेदारी है कि हम समाज पर नज़र रखें । शब्‍द दूसरी चीज़ है जिसकी ज़रूरत है शब्‍द तभी आते हैं जब अध्‍ययन होता है, कहीं पढ़ा था मैंने कि यदि आप एक पेज लिखना चाहते हो तो पहले 1000 पेज पढ़ो तब आप में एक पेज लिख्‍ने की बात आएगी । तो शब्‍द जो शब्‍दकोश से आते हैं उनका शब्‍दकोश तभी समृद्ध होगा जब आप पढ़ेंगें । यहां एक बात कह देना चाहता हूं कि श्‍ब्‍द ना तो उर्दू के, फारसी के या संस्‍कृत के हों जिनका अर्थ सुनने वाले को डिक्‍शनरी में ढूंढना पड़े, वे ही शब्‍द लें जो आम आदमी के समझ में आ जाए क्‍योंकि कविता उसी के लिये तो लिखी जा रही हैं । जैसे ' सर झुकाओगे तो पत्‍थर देवता हो जाएगा, इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा' इसमें सब कुछ वही है जो आम आदमी का है । बात यूं लग रही है कि प्रेमिका की हो रही है पर सोचो तो बात तो राजनीति पर कटाक्ष भी कर रही है , राजनीति को ध्‍यान में रखकर ये शेर फि़र से देखें । तीसरी चीज़ है व्‍याकरण जिसको उर्दू में अरूज़ कहा जाता है वो भी ज़रूरी है क्‍योंकि जब तक रिदम नहीं होती तब तक तो बात भी मज़ा नहीं देती है तो अरूज़ बिना कविता प्रभाव पैदा नहीं करती । निराला की कविता 'वो तोड़ती पत्‍थर' नई कविता है जो छंदमुक्‍त होती है पर छंदमुक्‍त होने के बाद भी उसमें रिदम है ये रिदम पदा होता है व्‍याकरण से अरूज़ से जो आपको यहां सीखने को मिलेगा । चौंथी चीज़ है प्रस्‍तुतिकरण ये तो आपके अंदर ही होता है किस तरह से आप अपनी कविता या गज़ल को पढ़ते हैं वो आप पर ही निर्भर है । वैसे जब ग़ज़ल अरूज़ के हिसाब से होती है तो उसमें लय स्‍वयं ही आ जाती है । अरूज़ की तराज़ू पर ही ग़ज़ल को कस कर देखा जाता है और कसने वाला होता है अरूज़ी जिसे अरूज़ का ज्ञान होता है । आज के लिये इतना ही , आज मेरे शहर में सुबह सात बजे से लाइट नहीं थी इसलिये आज की क्‍लास देर से ले रहा हूं । कुछ बच्‍चों की ग़ैर हाज़री लग रही है उड़न तश्‍तरी की आखि़र समय में लगते लगते बची । नियमित रहिये । जै राम जी की

गुरुवार, 30 अगस्त 2007

सभी का आभार और ये भी कि मास्‍टर साहब रोज़ हाज़री लेंगें ग़ज़ल की क्‍लास में

कल मैंने कुछ बताया था ग़ज़ल के बारे में । काफ़ी लोग हैं जो मेरे बारे में जानना चाह रहे हैं वैसे मैं बता दूं कि मेरे ब्‍लाग पर मेरी संपूर्ण जानकारी है मेरा मोबाइल नंबर और लेंड लाइन नंबर भी वहां है । फि़र भी आज की क्‍लास करने से पहले मैं अपने बारे में बता दूं कि मैं व्‍यवसाय से पत्रकार और कम्‍प्‍यूटर हार्डवेयर तथा नेटवर्किंग का प्रशिक्षक हूं साथ में मैं ग्राफिक्‍स और एनीमेशन का भी प्रशिक्षण देता हूं । पत्रकारिता में मैं चैनलों के लिये फ्री लांसिंग करता हूं । उसके साथ में कवि हूं मंचों का संचालन करता हूं और वहां पर ओज की कविताएं पढ़ता हूं । ग़ज़ल से मेरा जुड़ाव काफी पुराना है वर्तमान में उर्दू अकादमी मप्र से जुड़ा हूं तथा उनके मुशायरों में जाता रहता हूं । वैसे साहित्‍य में मेरी पहचान एक कहानीकार के रूप में है हंस के जुलाई 2004 अंक, कादम्बिनी के मई 2007 अंक, नया ज्ञानोदय के जून 2007 अंक, वागर्थ के अक्‍टूबर 2004 और दिसम्‍बर 2005 अंक आदि में आप मेरी कहानियां पढ़ सकते हैं । अपना एक शाम का पेपर क्षितिज किरण भी निकालता हूं ।
खैर अपने बारे में बाद में भी बताता रहूंगा आज की क्‍लास को शुरू करते हैं क्‍योंकि वैसे भी काफी लेट हो चुके हैं ।
सबसे पहले तो मैं कविता के बारे में बात करना चाहता हूं । इसलिये क्‍योंकि ग़ज़ल भी एक कविता है । डॉ विजय बहादुर सिंह के अनुसार राजनीति में कोई भी सत्‍ता पक्ष और विपक्ष नहीं होता जो भी राजनीति में है वो सत्‍ता पक्ष में ही है दरअसल में तो विपक्ष में होती है जनता । इस विपक्ष में खड़ी जनता के पास विचार तो होते हैं परंतु शब्‍द नहीं होते हैं । ऐसे मैं इस जनता को शब्‍द देने का काम करते हैं कवि । इसीलिये कवि हमेशा ही विपक्ष में होता है । किसी भी समय का इतिहास जानने के लिये उस समय का साहित्‍य पढ़ा जाता है और उससे अनुमान लगाया जाता है कि उस समय का साहित्‍य क्‍या कह रहा है । जब ये कवि जनता के विचारों को अभिव्‍यक्ति दे देता है तो वो जन कवि हो जाता है जैसे दुष्‍यंत जब कहते हैं कि हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये तो वास्‍तव में वे जनता के भावों को अपना स्‍वर दे रहे हैं या फिर जब दिनकर जी कहते हैं कि ' आज़ादी खादी के कुरते का एक बटन, आज़ादी टोपी एक नुकीली तनी हुई, फैशन वालों के लिये नया फैशन निकला, मोटर में बांधों तीन रंग वाला चिथड़ा' तो ये स्‍वर जनता का होने के कारण लोकप्रिय हो जाता है । या फिर धूमिल जब कहते हैं ' क्‍या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है जिन्‍हें एक पहिया ढोता है, या इसका और भी कुछ मतलब होता है ' तो ऐसा लगता है देश की सौ करोड़ जनता कवि के स्‍वर में सत्‍ता से प्रश्‍न पूछ रही है ।
इतनी बातें इसलिये कर रहा हूं क्‍योंकि मैं चाहता हूं कि आप जब ग़ज़ल लिखना शुरू करें तो बात वो न हो जो घिसी पिटी है वही इश्‍क़ शराब और मेहबूबा, नहीं दोस्‍तों आज का दौर कवि से कुछ और मांग रहा है । आज का दौर हताशा और निराशा का दौर है लोग राजनीति से परेशान हैं और कोई भी जनकवि नहीं आ रहा जो चीख के कहे ' उठो समय के घर्घर रथ का नाद सुनो, सिंहासन खाली करो के जनता आती है' तो मैं आप सब से यही चाहता हूं कि आप अब से जो भी लिखें उसमें आज का चित्रण हो । उन लोगों के लिये लिखें जिनको आपकी ज़रूरत है उन लोगों के लिये मत लिखें जो शराब के घूंट पीते हुए किसी फाइव स्‍टार होटल में आपकी ग़ज़लें सुनेंगें।
एक बार फिर दिनकर जी की पुस्‍तक संस्‍कृति के चार अध्‍याय को संदर्भ लेना चाहूंगा उसमें दिनकर जी कहते हैं 'जिस समाज में कवि उत्‍पन्‍न नहीं होते वो अंधों का समाज होता है, वो बहरों को समाज होता है इसीलिये प्रत्‍येक समाज अपने कवि के आगमन की राह देखता है । राजनीति, तर्क, दर्शन और इतिहास सभी में असत्‍य का समावेश हो जात है किंतु कवि की लेखनी असत्‍य का समर्थन नहीं कर सकती'
इसीलिये मैं लाख मात्रा दोष होने के बाद भी दुष्‍यंत को अपने समय का सबसे बड़ा जनकवि मानता हूं । आप से भी अनुराध है कि कुछ ऐसा लिखें जो लोकरंजन के लिये हो ना कि मनरंजन के लिये ।
पहला लेक्‍च्‍ार इसलिये ग़ज़ल से हटकर दिया है क्‍योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे छात्र लकीरों पर चलें 'लीक लीक गाड़ी चले, लीकै चले कपूत, ये तीनों तिरछे चलें शायर, सिंह, सपूत' तो आप आपन ग़ज़लों को रवायतों और परंपराओं से अलग कर लें । कुछ ऐसा लिखे जिसमें अपने समय की गूंज हो, आने वाले समय में सैकड़ों साल बाद जब इतिहास का कोई शोधार्थी आपकी कविता को पलटे तो उसे लगे कि उस समय राजनीति का कितना नैतिक पतन हो चुका था उसे ये न लगे कि चारों ओर शराब पीकर लोग अपनी मेहबूबा के साथ्‍ज्ञ पड़े रहते थे ।
तो कल मिलेंगें ग़ज़ल की क्‍लास में कल हम बात करेंगें ग़ज़ल के प्रारंभिक तत्‍वों की और साथ में होंगें कुछ उदाहरण।

बुधवार, 29 अगस्त 2007

चलिये आज से शुरू करते हैं ग़ज़ल के बारे में

मैंने कहा था कि कोई भी ग़ज़ल का व्‍यकरण नहीं सीखना चाहता उस पर काफी टिप्‍पणियां आईं हैं और उत्‍साहित होकर मैं आज से शुरू कर रहा हूं । मैं ये तो नहीं कहता कि मैं ग़ज़ल का कोई विशेषज्ञ हूं फिर भी जितना भी जानता हूं उसको आप सब के साथ बांटना चाहूंगा । मेरा ये प्रयास उन लोगों के लिये है जो सीखने की प्रक्रिया में हैं उन लोगों के लिये नहीं जो ग़ज़ल के अच्‍छे जान‍कार हैं । वे लोग तो मुझे बता सकते हैं कि मैं कहां ग़लती कर रहा हूं । क्‍योंकि मैं वास्‍तव में एक प्रयास कर रहा हूं कि वे लोग जो हिंदी भाषी हैं वे भी ग़ज़ल की ओर आएं । इसलिये क्‍योंकि मशहूर शायर बशीर बद्र साहब ने ख़ुद कहा है कि ग़ज़ल का अगला मीर या गा़लिब अब हिंदी से ही आएगा । और आजकल मुशायरों में भी हिंदी के शब्‍दों वाली ग़ज़ल को ही ज्‍़यादा पसंद किया जाता है । फारसी के मोटे मोटे शब्‍द अब लोगों को समझ में ही नहीं आते हैं तो दाद कहां से दें । जैसे बशीर बद्र जी का एक शेर है ' रूप देश की कलियों पनघटों की सांवरियों कुछ ख़बर भी है तुमको, हम तुम्‍हारे गांव में प्‍यासे प्‍यासे आये थ्‍ो प्‍यासे प्‍यासे जाते हैं ' ये पूरा का पूरा शेर ही हिंदी मैं है मगर पूरे वज़न में है ये बहरे मुक्‍़तजब का शेर है । तो अब ये ही होगा आने वाला समय हिंदुस्‍तानी भाषा का है अब न कुंतल श्‍यामल चलना है और न ही शबो रोज़ो माहो साल चलना है अब तो वही कविता पसंद की जाएगी जो आम आदमी का भाषा में बात करेगी । मुनव्‍वर राना और बशीर बद्र जैसे शायरों को उर्दू अदब में बहुत अच्‍छा मुकाम नहीं दिया जाता है मगर जनता के दिलों में तो उनका आला मुकाम है । इसलिये क्‍योंकि उन्‍होने ग़ज़ल को उस भाषा में कहा जिस भाषा में जनता समझ पाए । ये काम तो दुष्‍यंत ने भी कहा मगर उनकी ग़ज़लों में मात्रा दोष बहुत हैं और मेरे विचार से कविता में भाव और शब्‍द के साथ व्‍याकरण भी हो तभी वो संपूर्ण होती है और फिर रह जाता है केवल उसका प्रस्‍तुतिकरण जो कवि या शाइर पर निर्भर करता है । निदा फाज़ली जैसे लोग हिंदी में ही कह कर आज इतने मक़बूल हो गये हैं । वो लोग जो ग़ज़ल कहना चाहते हैं वो समझ लें कि कोई ज़रूरी नहीं है उर्दू और फारसी के शब्‍द रखना आप तो उस भाषा में कहें जिस में आम हिन्‍दुस्‍तानी बात करता है । मशहूर शायर कै़फ़ भोपाली की बेटी परवीन क़ैफ़ मुशायरों में इन पंक्तियों पर काफी दाद पाती हैं ' मिलने को तो मिल आएं हम उनसे अभी जाकर, जाने में मगर कितने पैसे भी तो लगते हैं ' कहीं कोई कठिन शब्‍द नहीं हैं जो है वो केवल एक आम भाषा है । एक दो दिन तक तो मैं ग़ज़ल लिखने के लिये आपको तैयार करनी की भूमिका बांधूंगा फिर जब आप तैयार हो जाएंगे तो फिर मैं आपकी क्‍लास प्रारंभ कर दूंगा । टिप्‍पणी देने का अनुरोध अब नहीं करूंगा क्‍योंकि मुझे पता है कि आपको एक बार आदत हो गई तो फिर आप टिप्‍पणी क्‍या मेरा मोबाइल नंबर ही मांग लेंगें । एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि एक सज्‍जन की टिप्‍पणी आई है कि आप कितना जानते हैं बहर के बारे में तो मैं ये कहना चाहूंगा कि मैं केवल एक छात्र हूं मैं आलिम फ़ाजि़ल होने का दावा नहीं करता और गर्व भी नहीं करता क्‍योंकि मैं तो उन पंक्तियों पर विश्‍वास करता हूं 'देनहार कोइ और है भेजत है दिन रैन, लोग भरम हम पर करें ताते नीचे नैन' में विनम्र हूं और कोई दावा भी नहीं करता हां जितना जानता हूं वो ज़रूर आप तक पहुचा दूंगा ।

सोमवार, 27 अगस्त 2007

मुझे नहीं लगता कि किसी को ग़ज़ल का व्‍याकरण सीखने में दिलचस्‍पी है

मैंने कहा था कि मैं ग़ज़ल का व्‍याकरण अब से अपने ब्‍लाग पर लिखा करूंगा और पूरा व्‍याकरण लिखूंगा जिसमें उदाहरण सहित बहरें देने के साथ साथ तफ़सील से उनको तोड़ कर भी बताउंगा कि किस प्रकार इनको बनाया गया है । उसके साथ ही मैं ये भी देने का प्रयास करूंगा कि हिंदी और उर्दू के पिंगल में क्‍या फर्क है । किंतु लगता है कि किसी को सीखने में दिलचस्‍पी नहीं है मुझे केवल तीन ही टिप्‍पणियां मिली हैं । मैं इस दुर्लभ विधा को सिखाने की कोई फीस नहीं ले रहा हूं किंतु कम अ स कम टिप्‍पणियां तो मेरा अधिकार है । फिलहाल मैंने व्‍याकरण देकर ग़ज़ल सिखाने का इरादा छोड़ दिया है और वो इसलिये कि जब कोई सीखना ही नहीं चाहता तो किसको सिखाया जाए ।

शनिवार, 25 अगस्त 2007

क्‍या आप भी ग़ज़ल का व्‍याकरण समझना चाहते हैं

ग़ज़ल को लेकर काफी सारी भ्रांतियां हैं लेकिन एक बात जो ग़ज़ल को लेकर कही जा सकती है वो ये कि ग़ज़ल में कहन बहुत ही सीधी सादी होती है । जिस तरह हिंदी में कविता के लिये पिंगल शास्‍त्र है वैसे ही उर्दू में ग़ज़ल को लेकर बेहरें होती हैं । और ये आवश्‍यक होता है कि लिखने वाला उन बेहरों पर ही लिखे उर्दू व्‍याकरण को उर्दू अरूज़ भी कहा जाता है । ग़ज़ल को मेहबूबा से बातें करना कहा जाता है अब ये बात दो तरह की है अगर ये इश्‍क हक़ीक़ी है तो मतलब परमात्‍मा से बातें करना और अगर ये इश्‍क मजाज़ी है तो मतलब प्रेमिका से बातें करना है । वैसे सूफियों में प्रमिका उस ईश्‍वर को भी माना गया है और तदानुसार ही ग़ज़लें कहीं गईं हैं । अब बात करें ग़ज़ल की ग़ज़ल जो बहुत सीधे सादे तरीके से अपनी बात कहती है । ग़ज़ल और गीत में फ़र्क़ ये है कि गीत को जहां पूरा का पूरा एक ही भाव को लेकर चलना होता है वहीं ग़ज़ल में हर शेर स्‍वतंत्र होता है । हर शेर के दो भाग होते हैं पहले भाग को मिसरा उला कहा जाता है तो दूसरे को मिसरा सानी । ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहा जाता है और आखि़र में जो शेर आता है जिसमें शायर का नाम होता है उसे मक्‍ता कहा जाता है । पूरी की पूरी ग़ज़ल एक ही बहर पे चलती है अर्थात लघु और दीर्घ मात्राओं को क्रम एक सा रहता है यहां हिंदी की तरह जोड़ नहीं चलता । और लघु तथा दीर्घ मात्राओं के छोटे छोटे समेह बनाए जाते हैं जिनको रुक्‍न कहा जाता है । इन्‍हीं छोटे छोटे रुक्‍नों से मिलकर मिसरे बनते हैं ओर मिसरों से शेर और शेरों से पूरी ग़ज़ल । ये रुक्‍न वास्‍तव में मात्राओं का एक गुच्‍छा होता है जिसको एक साथ बोल कर फिर ठहर कर आगे बढ़ा जाता है । उर्दू अरूज़ में बेहरों का ज्ञान होता है । ग़ज़लों में एक फायदा ये है कि यहां मात्राएं उच्‍चारण के हिसाब ये तय होतीं हैं कहीं दिवाना लिखा जाता है तो कहीं दीवाना । कहीं पर मैं को दीर्घ में लिया जाएगा तो कहीं लघु में और ये आप अपनी सुविधा के अनुसार कर सकते हैं । आज केवल इतना ही लेकिन मैं अब अपने ब्‍लाग पर उर्दू पिंगल शास्‍त्र की पूरी माला प्रकाशित करने जा रहा हूं बशर्ते आप सभी का सहयोग तथा उत्‍साह वर्द्धन टिप्‍पणियों के रूप में मिले ।

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