सोमवार, 21 जनवरी 2013

वैसे इस पोस्‍ट का अंतिम हिस्‍सा ग़ज़ल का सफ़र पर लगाने के लिये था लेकिन उसको यहीं लगाया जा रहा है ।

पिछली पोस्‍ट 20 दिसम्‍बर को लगाई थी, पिछले साल । उसके बाद से अब तक कुछ नहीं लगाया । एक नया साल आ गया और उसके साथ ही कयामत का वो दिन भी बीत गया जिसको लेकर पिछले कई सालों से शंका कुशंका चल रही थी । 20 दिसम्‍बर को पोस्‍ट लगाई और उसके बाद से अब तक कोई पोस्‍ट नहीं लगाई तो ऐसा लग रहा था कि मानो वो 20-12-2012 की घटना हो ही गई हो । किन्‍तु वास्‍तविकता ये है कि बीच में व्‍यस्‍तता हो गई । कुछ कहानियां, कुछ साक्षात्‍कार, कुछ आलेख समय पर कर के  देने थे । बस उनमें ही लग गया सारा समय । किसी अपने ने इसी बीच उलाहना भी दिया कि आप प्रोफेशनल हो गये हो । तो अपना आकलन किया । क्‍या सचमुच ऐसा हुआ है । पता लगा कि सचमुच ऐसा हुआ है । मगर ये प्रोफेश्‍ानल होना रातों रात नहीं हुआ । लेखन एक विशेष प्रकार के प्रोफेशनल होने की मांग करता ही है । उसके बिना कुछ संभव नहीं है । वैसे तो हर क्षेत्र एक प्रकार के प्रोफेशनल होने की मांग करता है, किन्‍तु, लेखन सब से ऊपर है । क्‍योंकि, यहां आप जो कुछ लिख रहे हैं वो दर्ज हो रहा है । आपकी खोज भी और आपकी गलतियां भी । दोनों ही दर्ज हो रहे हैं । बस इसी कारण कुछ संभल कर काम करने की कोशिश करता हूं । सफलता के कई दुश्‍मन होते हैं । तो बस ये कि व्‍यस्‍तता अब है तो है । तिस पर ये भी अपना खुद का व्‍यवसाय है, सो उसकी भी जवाबदारियां हैं ।

वैसे तो हम हर नये साल का स्‍वागत मुशायरे से करते हैं, लेकिन इस बार सोचा कि कुछ अलग किया जाये । बीच में देश में कई दुर्भाग्‍यपूर्ण घटनाएं हुईं । ऐसी घटनाएं जिन्‍होंने समाज के मानस को झकझोर कर रख दिया । इसके समानांतर ही एक और घटना मेरे साथ भी हुई । मुझे किसी साहित्यिक पत्रिका के लिये कुछ सामाजिक सरोकारों वाली ग़ज़लें भेजनी थीं । मैंने इस ब्‍लाग के कुछ सदस्‍यों से संपर्क किया । पता चला उस प्रकार की ग़ज़लें किसी के भी पास नहीं हैं । साहित्‍य समाज का दर्पण है तो फिर हम साहित्‍यकार कैसे कहलाएंगे यदि हमारी रचनाओं में अपने वर्तमान का प्रतिबिम्‍ब ही न हो । ये कैसी रचनाएं हैं जो प्रेमिका के बालों, उसकी आंखों, शराब के प्‍यालों और पिलाने वाले की मेहरबानी पर तो काफी कुछ कह रही हैं, किन्‍तु, अपने समय की विडम्‍बनाओं पर जो कुछ नहीं कह रही हैं । ये कैसा नियम है कि आप प्रेमिका पर लिख  सकते हैं भूख पर नहीं । ये कैसा नियम है कि आप महबूब पर लिख सकते हैं मां पर नहीं । यदि अपने समय पर चोट नहीं करे तो वो रचना ही कैसी । कबीर से लेकर गालिब और गालिब से दुष्‍यंत तक हर किसी ने अपने समय की जड़ता को तोड़ने की कोशिश की है । भला बताइये कि 'पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़' या 'खुदा के वास्‍ते परदा न काबे से हटा ज़ालिम' से बढ़ कर और प्रगतिशीलता क्‍या हो सकती है । और 'एक गुडि़या की कई कठपुतलियों में जान है' को आपातकाल के समय लिखना । इससे बड़ी अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता और क्‍या होगी ।

एक युवा, होनहार और मेरे बहुत पसंदीदा शायर का उत्‍तर था कि उनको इस प्रकार की सामाजिक सरोकारों वाली ग़ज़लें लिखने ( क्षमा करें कहने) से मना किया गया है । मुझे समझ में नहीं आया कि मना करने के पीछे क्‍या कारण है । मैंने बहुत विस्‍तार से जानने की कोशिश नहीं की । किन्‍तु ये तो पता चल ही गया कि उस प्रकार की शायरी खारिज हो जाती है इसलिये उस प्रकार की शायरी लिखने से रोका जाता है । मगर हम ये नहीं देखते कि उस प्रकार की शायरी को 'लोक' तो स्‍वीकार कर रहा है । ' हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये' ये लोक ने स्‍वीकार कर लिया है अब इसे किसी साहित्यिक संस्‍था की स्‍वीकृति की आवश्‍यकता नहीं है ।  अदम गोंडवी को क्‍यों खारिज किया जाता है मैं समझ नहीं पाता । मेरे विचार में अदम गोंडवी अपने समय के सबसे महत्‍वपूर्ण शायर हैं । मैंने पहले भी कहीं लिखा है कि इतिहास से जब कुछ स्‍पष्‍ट नहीं होता तो उस समय के साहित्‍य में पड़ताल की जाती है । साहित्‍य को विश्‍वसनीय माना जाता है । ये माना जाता है कि साहित्‍य में उस समय की आहटें मिलेंगी ही । प्रेमचंद ने साहित्‍य को समाज का दर्पण यूं ही नहीं कहा है ।

मगर एक बात और, बात ये कि जब हम किसी सामाजिक सरोकार पर कलम चलाएं तो वो कोरी भावुकता न हो, जैसा कि हमने दामिनी के मामले में फेसबुक पर देखा । बस लिखने के लिये लिख दिया गया । ये सब खारिज हो जाएगा । भावुकता, क्रोध, दुख इन सबसे ऊपर उठ कर लिखा जाए । दुष्‍यंत और अदम गोंडवी ने अपने तरीके से लिखा । उसमें हिंदी के कवि सम्‍मेलनीय मंचों पर आजकल पढे़ जाने वाले वीर रस वाली भावुकता नहीं थी, जिसमें केवल तालियां प्राप्‍त करने पर जोर होता है । ये तरीका तात्‍कालिक है । ये समय के साथ ही खत्‍म हो जाता है । समय का द्वंद अगर कविता में नहीं है तो वो कविता कहीं नहीं पहुंचती । यदि कहीं नहीं पहुंच रही तो ये समझिये कि वो कविता ही नहीं है । अपने समय का द्वंद कविता में होना ही चाहिये । स्‍वामी विवेकानंद ने कहा था कि साहित्‍य को समाज के नकारात्‍मक पक्ष पर पैनी निगाह रखनी चाहिये । असली साहित्‍य वहीं से उपजेगा ।

नकारात्‍मक पक्ष को देखते रहने मतलब ये है कि साहित्‍यकार की भूमिका सफाईकर्मी की होती है । उसे सजावट नहीं देखनी है, उसे तो केवल ये देखना है कि गंदगी कहां है । साहित्‍यकार सजावटकर्मी नहीं है वो सफाईकर्मी है । परंतु दुर्भाग्‍य ये है कि आजकल साहित्‍यकार सजावट कर्मी हो गया है । उसका काम शब्‍दों से सजावट करने का रह गया है । यदि हिंदी का कवि है तो कुछ परिमल शब्‍दों से या अगर उर्दू का शब्‍द है तो अरबी फारसी के शब्‍दों से कशीदाकारी की, सजावट की और हो गई रचना तैयार । साहित्‍यकार लिखे और साहित्‍यकार ही पढ़े तथा समझे । 

खैर चलिये तरही मुशायरे के लिये मिसरे की घोषणा के साथ बात को विराम दिया जाए ।

'ये क़ैदे बामशक्‍कत, जो तूने की अता है '

( 221-2122-221-2122)

ये मिसरा बहुत द्वंद के बाद जनमा है । क़ैदे बामुशक्‍कत मतलब हमारी जिंदगी और तूने मतलब उस दुनिया बनाने वाले ने । मेरी इच्‍छा है कि इस बार की ग़ज़ल में कहीं इश्‍क मुहब्‍बत, पारंपरिक प्रकार के शेर, न होकर समसामयिक चर्चा हो । समय के साथ द्वंद हो । हम ये देखने का प्रयास करें कि हम दुष्‍यंत और अदम गोंडवी को खारिज तो करते हैं लेकिन हम क्‍या उस तरीके से   लिख सकते हैं । क्‍या हम जनवादी, मनुष्‍य की बात करने वाली ग़ज़ल लिख सकते हैं । क्‍या हम ऐसी ग़ज़ल लिख सकते हैं जिसके एक भी शब्‍द को समझने के लिये किसी को न तो हिंदी का शब्‍दकोश उठाना पड़े और न उर्दू का । क्‍या हम भी ऐसी ग़ज़ल कह सकते हैं जिसके शेरों को विद्वान अपने भाषणों में इस्‍तेमाल करें और जिसके शेरों को  आम आदमी भी समझ ले । ग़ज़ल जिसमें अपने समय का प्रतिबिम्‍ब हो। ग़जल़ जो अपने समय के सामाजिक सरोकारों पर बहस का खुला आमंत्रण देती हो ।

आइये इस बहर के बारे में     जानें । ये एक गाई जाने वाली बहुत लोकप्रिय बहर है । जो मुरक्‍कब बहर 'मुजारे' की उप बहर है । इसका वज्‍न है 221-2122-221-2122 अर्थात मफऊलु-फाएलातुन-मफऊलु-फाएलातुन । कुछ याद आया । नहीं आया । सही याद आया । वो तराना इसी बहर पर है । सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा । बहर का नाम है 'बहरे मुजारे मुसमन अख़रब' । आइये ये भी जानें कि ये नाम कैसे पड़ा । सबसे पहले तो ये जाने लें कि बहरे मुजारे का सालिम वजन है 1222-2122-1222-2122 अर्थात मुफाईलुन-फाएलातनु-मुफाईलुन-फाएलातनु । इस रूप में ये बहुधा उपयोग में नहीं लाई जाती । इसकी मुज़ाहिफ शक्‍लें ही उपयोग में लाई जाती हैं । अब हमारी वाली बहर में हमने क्‍या किया है कि 2122 रुक्‍नों में तो कोई परिवर्तन नहीं किया किन्‍तु, 1222 रुक्‍न को 221 कर दिया है । अर्थात मात्राएं कम करते समय हमने दो लघु मात्राएं कम कीं एक प्रारंभ से (खिरम) और एक अंत से ( कफ्फ ) । इस प्रकार का परिवर्तन कर मात्राएं कम करने को नाम दिया गया है  खरब, और इससे बनने वाला रुक्‍न हुआ अखरब । दो लघु मात्राएं कम करने पर जो रुक्‍न बना वो हुआ 'फाईलु' जिसको हम समान मात्रिक ध्‍वनि मफऊलु से भी दर्शा सकते हैं । तो चूंकि मुफाईलुन का मफऊलु किया गया इसलिये अखरब नाम के साथ जुड़ेगा । चार रुक्‍न हैं इसलिये मुसमन बहर हुई ।

आइये अब देखें की रदीफ और काफिया क्‍या है । रदीफ तो है 'है' तथा काफिया है 'आ' (अता) की मात्रा ।

वैसे तो इसकी धुन समझने के लिये सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा को गुनगुनाया जा सकता है । एक प्रसिद्ध भजन की ध्‍वनि भी इसी प्रकार की है, ध्‍यान दें कि मैं केवल ध्‍वनि कह रहा हूं रुक्‍न नहीं । 'करते हो तुम कन्‍हैया मेरा नाम हो रहा है, मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है' । ध्‍वनि विज्ञान के हिसाब से इसकी ध्‍वनि बिल्‍कुल हमारे मिसरे की ही है । बस ये जान लें कि दोनों जगह जो 'मेरा' आया है उसे गिरा कर 'मिर' पढ़ा जाएगा । ये बात मैं केवल ध्‍वनि विज्ञान की कर रहा हूं, बहर विज्ञान की नहीं ।

बहर विज्ञान के हिसाब से एक बहर है । जिसमें पहले रुक्‍न   में 221 के स्‍थान पर 1121 लिया जाता है । अर्थात मफऊलु के स्‍थान पर फएलातु । अगर मात्रिक योग के अनुसार देखें तो बात समान रही । ध्‍वनि के हिसाब से देखें तो समान ही ध्‍वन‍ि आती है। किन्‍तु, ये एक अलग बहर है । 1121-2122-1121-2122 बहरे रमल मुसमन मश्‍कूल। पढ़ते समय इसकी ध्‍वनि वही होगी जो सारे जहां से अच्‍छा की होगी । किन्‍तु ज़रा सा अंतर तो है । जिसके कारण ये रमल की उप बहर है और हमारी बहर मुजारे की उप बहर । अब अगर आप 'सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा' और ' ये न थी हमारी किस्‍मत कि विसाले यार होता' को एक साथ गुनगुनाएंगे 'करते हो तुम कन्‍हैया की' की तर्ज पर तो आपको लगेगा कि अरे, ये तो एक ही मामला है, किन्‍तु मामला अलग अलग है एक नहीं है ।

बहरे रमल मश्‍कूल में रमल के स्‍थाई रुक्‍न फाएलातुन 2122 में एक लघु प्रारंभ से (खबन)और एक अंत से हटाई  गई ( कफ्फ ) । इस प्रकार से मात्राएं हटाने की प्रक्रिया को शक्‍ल कहा जाता है और इस प्रकार बने रुक्‍न को मश्‍कूल । तो इस प्रकार से बहर का नाम हुआ बहरे रमल मुसमन मश्‍कूल । ये एक अलग बहर है किन्‍तु इसको हम बहरे मुजारे मुसमन अखरब की जुडवां बहर कह सकते हैं । ध्‍वनि विज्ञान के आधार पर ।

ये न थी हमारी किस्‍मत 1121-2122 के विसाले यार होता 1121-2122

सारे जहां से अच्‍छा 221-2122 हिन्‍दोस्‍तां हमारा 221-2122

करते हो तुम कन्‍हैया 221-2122 मिर नाम हो  रहा है 1121-2122

रमल के मामले में हुआ ये कि रमल स्‍थाई रुक्‍न फा+एला+तुन (सबब+वतद+सबब) की जुजबंदी में हमने पहले 'सबब' जुज ' फा' में से दूसरी मात्रा को 'खबन' परिवर्तन का प्रयोग करते हुए हटा दिया । सो वो रह गया 'फ' । साथ में हमने एक और परिवर्तन किया वो ये कि अंत के 'सबब' जुज 'लुन' में से अंतिम लघु मात्रा हटा दी 'कफ्फ' परिवर्तन का प्रयोग करते हुए । वो रहा गया केवल 'लु' । खबन+कफ्फ=शक्‍ल । इस प्रकार जन्‍मा रुक्‍न फएलातु जिसे कहा गया मशकूल । शक्‍ल=मशकूल ।       

मुजारे के मामले में हमने ये किया कि मुजारे के स्‍थाई रुक्‍न मुफा+ई+लुन ( वतद+सबब +सबब) की जुजबंदी में पहले जुज वतद की ठीक पहली मात्रा को 'खिरम' परिवर्तन करते हुए हटा दिया । सो 'मुफा' का रह गया केवल 'फा' । फिर पहले की ही तरह अंत के 'सबब' जुज 'लुन' में से अंतिम लघु मात्रा हटा दी 'कफ्फ' परिवर्तन का प्रयोग करते हुए । वो रहा गया केवल 'लु' । खिरम+कफ्फ=खरब । इस प्रकार जन्‍मा रुक्‍न मफऊलु जिसे कहा गया अखरब । खरब=अखरब ।    

चूंकि दोनों ही रुक्‍नों 'मफऊलु' और 'फाएलातु' की ध्‍वनियों में बहुत मामूली सा अंतर है इसलिये ऐसा लगता है कि दोनों  बहरें   एक ही हैं । ये वही अंतर ह‍ै जो बहरे  रजज तथा बहरे कामिल  के रुक्‍नों में   है या बहरे हजज तथा वाफर के रुक्‍नों में है । दीर्घ टूट कर दो लघु होने का अंतर ।

बहुत सारी बातें हो गईं । मगर कुल मिलाकर बात ये कि इस बार का मुशायरा 'गहरे मुजारे मुसमन अखरब' पर होना है । जिसका मिसरा है 'ये कैदे बामशक्‍कत जो तूने की अता है' । रदीफ 'है' तथा काफिया 'आ' । ये मुशायरा फरवरी माह में संपन्‍न होना है क्‍योंकि मार्च में होली का मुशायरा आ जाएगा ।  

यदि आपको आज की जानकारी अच्‍छी लगी हो तो आगे भी और उपलब्‍ध करवाई जाएगी । हालांकि ये वास्‍तव में ग़ज़ल का सफर के लिये थी किन्‍तु इसको यहां पर ही लिख दिया है । बस मूड की बात है । तो चलिये  तैयारी कीजिये तरही के लिये ग़ज़ल कहने की ।

31 टिप्‍पणियां:

  1. गुरुदेव आप ज्ञान के भण्डार हैं। ग़ज़ल लेखन का व्याकरण इतना क्लिष्ट होता है मुझे नहीं मालूम था। बाप रे दो तीन बार पढने के बाद भी अभी आधी बात ही भेजे में घुस पायी है। जो समझ में आया है वो ये कि फरवरी माह में एक ग़ज़ल कहनी है जिसकी बहर 221 2122 221 2122 है काफिया आ की मात्र है और रदीफ़ "है" है।

    मेरे ख्याल में अगर ग़ज़ल सिर्फ महबूब पर ही कही जाय तो उसका कोई अर्थ नहीं है आखिर आप महबूब की कितनी तारीफ़ कर सकते हैं ?कब तक रकीब चाँद झील चांदनी शबनम रुखसार गेसू लब शमा परवाना जैसे लफ़्ज़ों से ग़ज़ल के शेर सजा सकते हैं? सामाजिक सरोकार के बिना ग़ज़ल कहना किसी अय्याशी से कम नहीं।

    नीरज

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    1. फरवरी में नहीं जनाब फरवरी के प्रथम पखवाड़े में । ताकि दूसरे पखवाड़े में तरही शुरू हो सके ।

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    2. 'भेजे में घुसी', मैं तो अभी भेजा तलाश रहा हूँ, मिलते ही घुसाने की कोशिश करता हूँ।

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  2. बारीकी से समझाया है आपने तीनों के फरक को ...
    तरही की शुरुआत हो रही है ये अच्छी खबर है ... विषय आज के अनुसार है ओर गज़ल का परिवेश भी ऐसी हो इसका प्रयास रहेगा ...

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  3. इस पोस्ट को तो बस नमन किया जा सकता है। ऐसी पोस्ट की हिंदी ग़ज़ल को बहुत जरूरत थी। जानकारी अच्छी है हर बार मुशायरे के साथ बहर के बारे में भी जानकारी दी जाय तो सोने पर सुहागा होगी। बहर पर काम करने की वजह से जानकारी को बार बार देखना पड़ेगा और ऐसे में वो याद भी रह जाएगी।

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  4. वर्ष की पहली पोस्ट ऐसी ही होनी थी. कहती-बतियाती से अधिक सुझाती. सो, सुहाती. बहुत-बहुत धन्यवाद, पंकजभाईजी.
    यों ऐसा नहीं है कि अपने गोल में सभी की प्रस्तुतियाँ सामयिक ऊष्णता से अछूती रही हैं. खैर.. .

    आपकी बात को थोड़ा और विस्तार दूँ तो इस तथ्य को हम सभी रेखांकित कर लें कि ’लोक-स्वीकृति’ और ’लोकप्रियता’ में भारी अंतर है. अन्यथा, सोच और चर्चा में बकवाद के पैठते देर नहीं लगेगी. और, कुछ ’लोकप्रिय’ गीतबाजों को लोक द्वारा स्वीकार कर लिए जाने का कुतर्क करने से कुछ हठी गुरेज नहीं करेंगे. फिर तो, एक वेदप्रकाश शर्मा को एक वृंदावनलाल वर्मा के समकक्ष रखने में भी कोताही नहीं करेंगे.

    सादर

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    1. सही कहा आपने सौरभ जी, वहां फेसबुक पर किसी ने आनंद बक्षी का नाम लेकर इसी प्रकार का कुतर्क करने की कोशिश की थी ।

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    2. 'वृंदावन लाल वर्मा' और 'वेद प्रकाश शर्मा' में एक अंतर तो है। एक विश्‍वविद्यालयीन पाठ्यक्रम में और आधे हिन्‍दुस्‍तान की जेब में। एक दौड़ है पाकेट बुक संस्‍कृति की, ग़ज़ल में भी है।

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    3. जी, पंकलभाई. मेरे अलोते को अनावृत ही कर दिया आपने.. :-)))

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    4. क्षमा. पंकज* भाईजी.

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  5. बहुत उपयोगी जानकारी के लिए पंकज जी को बहुत बहुत धन्यवाद , कोशिश करुगा इस बार कुछ लिख सकू तहरी के लिए :(

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  6. दुष्‍यंत और अदम गोंडवी की सोच के साथ शायरी करना सरल नहीं, उसके लिये अहसास का दायरा कुछ अलग ही चाहिये।
    इस पोस्‍ट से आनंद आ गया, तरही मिसरा तो एक आनंददायक चुनौती है ही (इस बार बस पॉंच से सात शेर दे पाऊँगा)। ग़ज़ल की तरफ़ मुँह रखूँ या दायित्‍वों की तरफ़, सोचना कठिन हो रहा है। ग़ज़ल को दायित्‍व मानकर ग़ज़ल िकहना कठिन है।

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  7. सुबीर संवाद सेवा पर पसरी ख़ामोशी को तोडती ये पोस्ट कई मायनों में अनूठी है। इसमें कई बिन्दुओं को समाहित किया गया है और साथ में आने वाले तरही मुशायेरे का मिसरा भी है .......... वाह

    बदलते वक़्त के साथ ग़ज़ल ने अपने तरकश में कई तीर जोड़े हैं और उसमे कई जुड़ते जा रहे हैं जो इसे ज़्यादा लोगों तक ले जा रहे हैं और उनकी आवाज़ बन रहे हैं। बदलाव एक प्रक्रिया है, उसका रोकना संभव नहीं है और जो बदलाव आ चुका है उसे तो रोक पाना संभव ही नहीं है। फिर चाहे कोई माने या न माने।

    तरही मिसरा उप्पर से बहुत सीधा दिख रहा है मगर है बहुत टेड़ा। इस बहर पर और अन्य पर दी गई जानकारी बहुत काम की है, धीरेधीरे इसे आत्मसात कर रहा हूँ।

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  8. संयोग ये कि परसो रात जब तबीयत खराब हो रही थी, तो जो भाव आ रहे थे, उसमें ऐसी बहर की ज़रूरत थी जिसके अंत में २२ आता हो, मुझे अंत हबीबों को और अजीज़ों को से करना था। लेकिन समझ नही आ रहा था कि बहर क्या रखूँ, अब ये जो तीन बहर मिली हैं, इनमें से एक भी अगर उठा लेती हूँ, तो मतला तो लिख ही लूँगी :)

    और हाँ ! ये जो कोई भी अपना था, जिसने आपके प्रोफेशनल होने की शिकायत या हक़ीक़त कही, वो आपका सच में अपना ही रहा होगा, जिसे आपकी उपलब्धियों से ज्यादा आपके स्वास्थ्य की चिंता हुई होगी.... पिछले दिनो स्पॉन्डलायटिस के कारण अचेत आप ही हुए थे ना.....!!

    उस अपने को मेरा धन्यवाद दीजियेगा, जो आपको साहित्यकार से अधिक मनुष्य मानता है और चाहता है कि आप मशीन ना बनें.....बस उसके अपने बने रहें...

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    1. सही कहा कंचन, मशीन बन जाने पर समस्‍याएं तो पैदा होती ही हैं । अब कोशिश कर रहा हूं कि कुछ समय अपने लिये भी निकालूं । बहुत दिनों बाद लता जी के गीत सुने और मन भर के सुने । बहुत दिनों बाद अपने लिये कुछ शापिंग की, मसलन मफलर, जैकेट आदि आदि । बहुत दिनों बाद अपने लिये अवकाश निकाला । मगर जानता हूं कि फिर उसी पहिये में जुटना है । खैर उस अपने से शिकायत नहीं है कोई भी । उस अपने को धन्‍यवाद भी क्‍यों दूं, भला अपनों का धन्‍यवाद भी दिया जाता है ।

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    2. मशीन में भी समय पर पेट्रोल न भरा जाय / चार्ज न किया जाय तो ठप हो जाती है। कलपुर्जे और स्नेहक सही समय पर न डाले / बदले जायँ तो तो टूट फूट सुधारने की सीमा से बाहर हो जाती है। मशीन का रखरखाव सही न हो तो एक दिन अचानक काम करना बंद कर देती है। एक और बात मशीन कभी भी ओवरलोड नहीं होनी चाहिए। इंसान हो या मशीन सब को यथासमय आराम मिलना और सही रखरखाव बहुत जरूरी है। ये करते रहें तो सालों साल मशीन चलती रहेगी और दिनोंदिन शानदार कहानियाँ छापती रहेगी। :) :)

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  9. गुरूवर,

    प्रणाम, आप इस नए वर्ष में सेहतमंद रहें, सेहतयाफ्ता रहें शेष तो अपने आप हो जाएगा माँ सरस्वती के वरद हस्त शीष पर हों और क्या चाहिए।

    आपने तरही के लिए मिसरा देकर अपने ही लिए काम बढ़ा लिया है, अब मेरे कैसे लोग भी कूदेंगे.....

    नए वर्ष की मंगल कामनाएँ सभी सुबीर संवाद सेवा से जुड़े साथियों को।

    मुकेश कुमार तिवारी

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  10. बहुत ज़रूरी हो जाता है तब , जब आप एक शायर , लेखक और कवि होने की प्रक्रिया में होते हैं या फिर हो गये होते हैं कि आप हर विषय पर लिखें और उसे साबित करें! मिसरा एक दफ़ा पढ कर तो चौंक ही गया था, इसके लफ़्ज़ों(उर्दू) को देखकर !
    इस बार का विषय बहुत सरल नहीं है , और जो ख़ूब मेहनत करवाने वाला है ! नये साल पर दुनियादारी की बातें बहुत अच्छी बात है !
    ब्लोग पर बह्र के बारे में दी गई जानकारी बेहद गूढ बातें हैं और बारीक़ भी !
    प्रोफेशनलिज़्म कभी भी तबियत को ख़राब करने की इजाज़त नहीं देता ! सेहत पर ध्यान दें गुरूवर ! मैं तो बस फरवरी के लिये दिन गिन रहा हूँ !
    सादर

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    1. अर्श यही तो बात है, कि मैंने मिसरा उर्दू में दिया है और काम हिंदी में करना है । यदि मैं हिंदी में दे देता तो काम आसान हो जाता । उससे कुछ कुछ संकेत मिल जाते कि किस प्रकार काम करना है । पहले एक मिसरा हिंदी में भी लिखा था लेकिन बाद में लगा कि नहीं उससे तो काफी कुछ खुल जाएगा । तो बस हिंदी के शब्‍दों को उर्दू के शब्‍दों से रिप्‍लेस कर दिया ।

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  11. मज़ा आएगा.
    हार्दिक धन्यवाद. कोशिश करूँगा.

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  12. मज़ा आएगा.
    हार्दिक धन्यवाद. कोशिश करूँगा.

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  13. पिछले दिनों एक बात-चीत के दौरान आदरणीय पंकज सुबीर सर ने कहा कि आने वाला समय ग़ज़ल का होगा और ऐसा तभी होगा जब वह सिर्फ इश्किया शायरी तक सिमटी नहीं रहेगी और अपने अन्दर सामजिक सरोकारों का समावेश करेगी।आज की पोस्ट भी कमोबेश इसी सन्दर्भ में है।ग़ज़लों के साथ साथ हिंदी साहित्य की तमाम दूसरी विधाओं में धाक जमाने वाले शख्श की इस टिप्पणी से यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि ग़ज़लों के नाम पर आज हम जो लिख पढ़ रहे हैं उसका कोई औचित्य या प्रयोजन है भी कि नहीं।



    वस्तुतः इश्किया शायरी अपने आप में कोई कम तर चीज नहीं है।

    मीर -ओ-ग़ालिब से ले कर महान शायरों की एक पूरी सफ रही है जिसने इश्किया शायरी के दायरे में ही बारीक मनोभावों और सघन जीवनानुभवों को तो अभिव्यक्ति दी ही है,बल्कि जीवन के प्रति हमारी समझ को और भी पुख्ता किया है।यहाँ तक कि बंगाल के अकाल से द्रवित हो कर जिगर जैसे शायर ने यह शेर भी कहा है:"इंसान के होते हुए इंसान का ये हश्र/देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूँ".बहरहाल,यह सच है कि क्रमशः यह धारणा बनती गई है कि शायरी का तात्पर्य सिर्फ इश्क,हुस्न,शराब,शबाब,इत्यादि से है।दुष्यंत और अदम गोंडवी की परंपरा का जिक्र,जिसके बारे में ऊपर पोस्ट में बात की गई है,यहाँ प्रासंगिक हो उठता है।इसे लेकर शायद ही कोई मतभेद है की ग़ज़ल की मूल विशेषता कथ्य के ट्रीटमेंट में बरती गई कोमलता और लालित्य है।इसका अनुपम सौंदर्य और इसकी अपार लोकप्रियता भी इसी खूबी से उपजती है। ग़ज़ल में 'शेर' का होना भी उसी तरह से ज़रूरी है,जिस तरह अच्छी कविता में 'कविता' का होना।एक अच्छा शेर स्थितियों की उथली व्याख्या मात्र नहीं करता बल्कि हमें संवेदना की गहराई में उतरने के लिए आमंत्रित करता है।उसमे उसी प्रकार एक से अधिक अर्थ ध्वनियाँ विन्यस्त होती हैं,जैसे किसी नगीने को प्रकाश में रखने के बाद उससे कई कई रंग फूटते हैं।ग़ज़ल रूखे ख्यालों को भी इस माधुर्य के साथ प्रस्तुत करने की कला है कि उसकी चिपचिपाहट और मिठास होठों पर देर तक महसूस हो।दुष्यंत और अदम गोंडवी अपने तमाम जनवादी तेवरों के बावजूद अपनी रचनाओं में न सिर्फ ग़ज़ल की इस खूबी को बरकरार रखते हैं बल्कि अपने समय के राजनैतिक आंदोलनों को उर्जा भी प्रदान करते चलते हैं।वे ग़ज़लों के पाठको का दायरा किसी भी अन्य समकालीन शायर की तुलना में कहीं अधिक बड़ा करते हैं।समय की रेत पर कहीं ज्यादा गहरे निशाँ छोड़ जाते हैं।उन पर यदि कहीं कहीं ग़ज़ल की शिल्प के साथ छेड़-छाड का आरोप लगता है तो उसे भी उनके प्रयोगों की दृष्टि से देखना उचित होगा।खैर,यह एक अलग बहस का मुद्दा है।कुल मिला कर बात यही है कि वे पूरी 'शेरीयत' के साथ अपनी ग़ज़लों में अपने समय का सच प्रतिबिंबित करने में सफल रहे हैं,जो उनके अवदान को कहीं बड़ा बनाता है।बाद की पीढ़ी में भी कई शायरों में अपने हालात से गहरा जुड़ाव दिखाई देता है।उदहारण के तौर पर:

    "फकत इस वास्ते उसने हमें बलवाई लिक्खा है/हमारे घर के बर्तन पर आइ एस आइ लिक्खा है"..मुन्नवर राना

    "कुछ नयापन,नयी सोच है ही नहीं,बस घुलामी की ज़ंजीर धोते हैं सब/ये क़बीला अपाहिज है मिट जायेगा,सिर्फ सरदार-सरदार करते हुए"..तुफ़ैल चतुर्वेदी

    "न जाने कितनी साऱी बेड़ियों को/पहन लेते हैं हम गहना समझ कर"..राजेश रेड्डी

    "कर भी सकते थे क्या गांधी इसके सिवा/छाप के नोटों पे बस मुस्कुराते रहे"..पंकज सुबीर

    उपरोक्त शेर न सिर्फ उत्कृष्ट शिल्प के उदाहरण हैं,बल्कि अपने समय की विसंगतियों को बखूबी निशाने पर लेते हैं।



    इस दृष्टि से देखें,तो ग़ज़ल कहने वाली नई पीढ़ी के समक्ष वाकई तगड़ी चुनौती है। उसे सरल भाषा में,ग़ज़ल के शिल्प को साधते हुए,अपने परिवेश के प्रति जिम्मेदार हो कर 'शेर' कहने हैं।हाँ इस नई पीढ़ी के सामर्थ्य पर संदेह करने का भी कोई कारण मुझे नज़र नहीं आता। ...सौरभ शेखर।

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    1. हम्‍मम सौरभ, अच्‍छा लगा कि मेरी बहुत मेहनत से लिखी गई पोस्‍ट पर तुमने एक लम्‍बी टिप्‍पणी देकर उस मेहनत को सार्थक किया । इससे लगा कि तुमने पूरी पोस्‍ट को गंभीरता से पढ़ा है । और उसके भावों का समझने की कोशिश की है । दुष्‍यंत और गोंडवी जी के संदर्भ में जो तुमने राजनैतिक ऊर्जा तथा दायरा बड़ा करने की बात कही है वो तुम्‍हारी विस्‍तृत सोच का परिचायकहै । तुम्‍हारा ये पूरा कमेंट इस पोस्‍ट का ही हिस्‍सा समझा जाए । क्‍योंकि उससे मैं शब्‍दश: सहमत हूं । बिल्‍कुल इश्‍क मोहब्‍बत प्रेम की कविताएं और शायरी मूल काव्‍य है । प्रेम, काव्‍य का मूल तत्‍व है । मगर कविता के अपने और भी दायित्‍व हैं । उनकी तरफ भी नज़र रखनी होगी । मेरा मानना है कि यदि आप मूलत: कवि हैं तो आप हर तरीके से लिख सकते हैं किन्‍त्‍ु, यदि आप कवि बनाए गए हैं तो आप केवल उसी तरीके से लिख सकते हैं जो तरीका आपको सिखाया गया है ।

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    2. भाई सौरभ शेखरजी, आपने जिस विस्तार किंतु इत्मिनान से तथ्यों को साझा किया है वह आपकी प्रवर्द्धित सोच और मुखर वैचारिकता की सुन्दर बानगी है. कोई चैतन्य संज्ञा अपने गुण-धर्म नहीं बदलती, परन्तु सामयिक अथवा घनीभूत प्रभावों से निर्पेक्ष भी नहीं रह सकती. ग़ज़ल अपनी चेतना के कारण ही हमारे समय में प्राणमय ही नहीं, सस्वर भी है. इसे अपनी चेतनता का निर्वहन करना ही होगा. पहले कुछ शायर हुआ करते थे जो ’अपनी तरह की ग़ज़लों’ की दुनिया में इतर शैलियों के लिए जाने जाते थे. आज ग़ज़ल वस्तुतः व्यापक हो चुकी है. सो, आज शायरों पर ग़ज़ल की इस व्यापकता को सामयिकता की कसौटी पर जिलाये रखने का दायित्व ज्यादह बड़ा है.

      विशद चर्चा के लिए आपका हृदय से अभिनन्दन.

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    3. देर से उत्तर देने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।अनुजों का उत्साहवर्धन करने में आप कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते।आप जैसे बड़े भाइयों की सौजन्यता दिल जीत लेती है।आभार।

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  14. पहली बात तो ये कि इस मंच के श्रोता व् पाठक भी प्रोफेशनल हैं, और जो नहीं हैं उन्हें हो जाना चाहिए। लेकिन सिखने वाली बात ये हैं कि उचित समय-प्रबंधन से हम सब के बीच में बने रह सकते हैं। ये टाइम मैनेजमेंट भी बहुत बड़ी कला है और मैं फिलहाल बच्चा हूँ इस मामले में।

    ग़ज़ल के ऐसे अध्यायों से गुजरने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि पाठ चाहे कितना भी कठिन हो अगर मूड सीखने का हो तो सब आसान है। ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है - ये इम्तहान का वक़्त है।

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  15. आदरणीय पंकज सर सादर प्रणाम, समसामयिक चर्चा ही समय की मांग है, निःसंकोच इस बार नज़ारा कुछ और होगा. सादर

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  16. आ. सुबीर साहब,
    ग़ज़ल पर आपकी टिप्‍पणी बहुत कुछ बताती है। मैं भी प्रयास करूंगा।
    नवनीत

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  17. गजले तो बहुत पढ़ीं थी पर गजल लिखने की इतनी बारीकी पहली बार सामने आई है। समझने और लिखने का प्रयत्न करूंगी।

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