राजस्थान के शायर श्री दिलीप सिंह दीपक की पुस्तक फि़ज़ा की कोख से में से मैंने ये शेर कोट किया है । इस शेर को पढ़कर मानों अपने अंदर एक प्रकार के गर्व का एहसास भर गया है । चूंकि ये शेर दुनिया के हर एक साहित्यकार के लिये लिखा गया है इसलिये ये कह सकता हूं कि ये शेर उन कई सारे ज़ख़्मों पर मरहम रखता हुआ चला गया है जो अदीबों को साहित्यकारों को दुनिया से, समाज से, परिवार से मिलते हैं । ज़ख़्म इस बात के कि क्यों काग़ज़ काले कर रहे हो, क्या होगा इन सब के करने से । लेकिन दिलीप जी का ये शेर हर पीड़ा को हरने वाला है ।
असर करें जो दुआएं कभी फरिश्तों की, फि़ज़ा की कोख से पैदा अदीब होता है ।
अब संयोग देखिये कि कई दिनों से मैं सोच रहा था कि इसी बहर पर अगला तरही मुशायरा होना चाहिये । मुझे ये बहर और इसकी तीन चार बहनें बहुत पसंद आती हैं । वैसे ये बता दूं कि मिसरा तो कुछ और ही होगा क्योंकि हमनें अपने तरही मुशायरे में किसी की ग़ज़ल का मिसरा लेना बंद कर रखा है तथा हवा से पैदा हुए मिसरों को ही हम रखते हैं । तो इस शेर की बहर तलाशिये और फिर तैयार हो जाइये जोरदार मानसूनी धमाके के लिये ।
मेरे अग्रज फोटोग्राफर श्री बब्बल गुरू ने ये ग्रीष्म की तपन को कैमरे में कैद किया है
आप सोच रहे होंगें कि इतने दिनों से मैं कहां था और आज अचानक कहां से प्रकट हो गया हूं । दरअसल में दो कारण थे मेरे लापता होने के । पहला तो ये कि भीषण गर्मी मेरे दिमाग की बत्ती को गुल कर देती है । लेखन पढ़न सब विलोपित हो जाता है । और कल जब शहर में मानसून की पहली दस्तक हुई और फुहारों से मौसम ठीक ठाक हुआ तो रुके हुए शब्द मचलने लगे । दूसरा कारण बताने से पहले ये बता दूं कि आप में से कई लोग ये शिकायत कर सकते हैं कि चलो ठीक है नहीं लिख पा रहे थे लेकिन न किसी के ब्लाग पर कमेंट और न ही कुछ और । तो उसके लिये दूसरा कारण जिम्मेदार है । और ये दूसरा कारण है शिवराज सिंह चौहान । अब आप कहेंगें कि शिवराज सिंह चौहान तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं । वो कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं किसी बात के लिये । तो साहब बात तो वही है न कि जो प्रदेश का मुखिया होता है वही तो जिम्मेदार होता है । असल बात ये है कि पिछले एक डेढ़ माह से मेरे शहर में बिजली की कटौती का रोजाना का शेड्यूल ये है, सुबह छ: बजे से दोपाहर बारह बजे तक और फिर दोपहर दो बजे से शाम छ: या सात बजे तक । अब आप गौर से देखेंगें तो पाएंगें कि दोपहर में केवल दो घंटे की बिजली ही मिल पा रही है । अब इस दो घंटे की बिजली में चाहे तो रोजी रोटी के काम कर लो या ब्लागिंग ब्लागिंग खेल लो । इन्वर्टर लगे हैं लेकिन उनको भी चार्ज होने के लिये बिजली चाहियें । देखें अब मानसून की आमद के बाद कुछ सुधरता है या ऐसा ही चलता है ।
ग़ज़ल का सफ़र भी पोस्ट की प्रतीक्षा करा रहा है । लेकिन बात वही है न कि दो घंटे की बिजली की प्राथमिकताएं तय करनी पड़ती हैं । खैर देखें कभी तो कुछ सुधरेगा । ग़ज़ल का सफर पर लगाने के लिये दो तीन पोस्टें लिख कर रखी हैं लेकिन बात वही है कि जब टाइप करने के लायाक बिजली मिले तब तो हो पाये कुछ । ग़ज़ल का सफर पर अभी बहुत ही प्राथमिक स्तर पर सब कुछ चल रहा है । और मेरा ऐसा मानना है कि वहां पर जो कुछ भी होना है वह बहुत ही विस्तार से होना है । जिस प्रकार से योजना बना कर वहां पर काम करना चाहता हूं वो इस प्रकार की है कि ग़ज़ल का सफ़र एक संदर्भ ग्रंथ की तरह काम करे । लेकिन ये भी सच है कि उसके लिये बहुत सारी एकाग्रता की आवश्यकता होती है ।
कई सारे काम लंबित हैं । बिजली की समस्या के चलते बहुत सारे इस्लाह के काम भी लंबित हैं । अब उन सबके लिये एक ही विकल्प तलाशा है कि शनिवार को सारी ग़ज़लों के प्रिंट निकाल कर घर ले जाया जाये और उन पर काम करके वापस कम्प्यूटर पर ठीक किया जाये । इसमें हालांकि दोहरा परिश्रम तो लगना है लेकिन इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है ।
चलिये ये तो मैंने अपनी सारी बहाने बाजी कर दी । अब कुछ काम की बातें हो जाएं । तो ऊपर जो शेर दिया गया है आपके हिसाब से उसकी तकतीई क्या होगी । वैसे तो ये और इसकी दो तीन बहनें मुशायरों के तरन्नुम वाले शायरों की बहुत ही पसंदीदा बहरें हैं । तथा इन पर काफी काम होता है । मेरे विचार में और ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है । ये हमारे मानसूनी तरही मुशायरे की बहर है मिसरा आपको जल्द ही मिल जायेगा ।
एक फुल ग्रामीण कवि सम्मेलन में मेरा, रमेश हठीला जी और डॉ आज़म जी का तीन अन्य कवियों के साथ जाना हुआ । जब हमने भीड़ को देखा तो हाथ पांव फूल गये । हाथ पांव फूलने का कारण भीड़ नहीं थी बल्कि ग्रामीण थे । खाना खाते तक तो हमें ये ही समझ में नहीं आ रहा था कि यहां पर पढ़ेंगे क्या। उस पर ये कि गांव में पहली बार कवि सम्मेलन हो रहा था । बैलगाडि़यां ट्रैक्टर भर भर के लोग आये थे । मंच के ठीक सामने हजारों ग्रामीण महिलाएं रामलीला का तमाशा देखने के अंदाज में बैठी थीं । हठीला जी के पास तो कुछ ग्रामीण कविताएं हैं और मेरे पास कुछ धार्मिक टाइप की कविताएं हैं सो हमें तो फिर भी लग रहा था कि जैसे तैसे बेड़ा पार लग जायेगा लेकिन हमें चिंता आज़म जी की थी । ग्रामीण और ग़ज़ल ? आप सोच सकते हैं कि गांव के पटेल के खेत में ट्रेक्टर की ट्राली पर बना वो मंच हमें कैसा लग रहा होगा । शुरू के तीन कवि जब माइक से शहीद होकर लौटे तो हमारा रकतचाप और बढ़ चुका था । क्योंकि उन तीनों के बाद अब हम तीनों का ही नंबर था । मंच पर हम कुल 6 ही तो थे । वे जो तीन शहीद होकर लौटे उनमें से दो तो कविता ही भूल गये । इन तीन के बाद अब हम तीन थे । गर्मी की रात, खेत, और ट्राली पर बना हुआ मंच, मंच के सामने हजारों ग्रामीण महिलाएं जो सत्यनारायण की कथा सुनने के अंदाज में भक्ति भाव से बैठी थीं । और इधर तीन के शहीद होने के बाद हम तीन की बारी थी ।
क्या हुआ हमारा ये जानिये अब अगले अंक में क्योंकि बिजली जाने का समय हो चुका है ।
waah bahut khoob...maza aaya ye sansmaran padh ke...
जवाब देंहटाएंइस लेख का अंतिम भाग पढ़ने के बाद अगले लेख का बे सब्री से इंतेज़ार है
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो दीपक जी का ये बहतरीन शेर पढवाने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया...ये वो शेर है जो आपके शब्दों में ऊपर से उतरता है...बेहतरीन...लाजवाब जैसे शब्द बहुत हलके हैं इसके सामने...और ये ग़ज़ल की किताब आपने कहाँ से खरीदी हमें भी बताएं ताकि इसे हासिल कर पढ़ा जाए...
जवाब देंहटाएंआप की समस्याएं पढ़ी सुनी और गुणी और तय पाया के सारी की सारी समस्याएं जेनुइन हैं...शिव कुमार चौहान जी को इस की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी...हम ब्लॉग के माध्यम से उन्हें चेता रहे हैं ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये...
आपने अपनी पोस्ट को बहुत दिलचस्प मोड़ पर ख़तम किया है...इब्ने सफी बी.ऐ के पढ़े जासूसी किताबों की याद आ गयी जिसके हर पेज के बाद अगले पेज पर क्या होगा जानने की उत्सुकता बनी रहती थी...अगर आपने उनकी कोई किताब नहीं पढ़ी है तो जरूर पढ़िए...हमने अपने युवा काल में (हम तो अब भी युवा काल में ही हैं...मुगालते पालने में क्या हर्ज़ है?) उन्हें खूब पढ़ा है...
बेताबी से इंतज़ार है अगली पोस्ट का...
नीरज
पुनश्च: १.आपकी जानकारी के लिए बता दें, बरसात खोपोली में दस्तक दे चुकी है...लेकिन अभी झरने शुरू नहीं हुए...
२. हम आपके दिए मिसरे की बहर बताने को तैयार नहीं हैं क्यूँ की हम इस लायक नहीं हैं...अपनी नालायकी को सार्वजनिक करने में भी हमें कोई गुरेज़ नहीं है...अब हैं तो हैं...हमारा मानना है के अगर नालायक नहीं होंगे तो बुद्धिमानों को कौन पूछेगा?
कुछ लोग नालायकी करने से बाज़ नहीं आते उनमें से एक हम हैं इसलिए जान बूझ कर कर रहे हैं...अँधेरे में तीर चलने में क्या जाता है...लग गया तो तीर नहीं तुक्का ही सही...
जवाब देंहटाएंये गीत याद करें: कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...
बहर होगी:-
1212 1122 1212 22
पुनश्च: गर्मी के मौसम का फोटो कमाल का है
मै तो इस मामले मे मतलव बह्र बताने के मामले मे बिलकुल नालायक हूं । इतनी अच्छी बातें पढ कर और ये लाजवाब शेर सुन कर अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है। आशीर्वाद्
जवाब देंहटाएंसुबीर भाई साहब
जवाब देंहटाएंदिलीप सिंह जी के शेर के लिए हार्दिक आभार.
आप मिसरा दीजिए, हम भी कोशिश करेंगे ग़ज़ल कहने की.
श्री बब्बल गुरु जी ने जो फोटो लिया है उसे देख कर
याद आ गया दुश्यंत कुमार का यह शे'र :
`रह- रह चुभती है आँखों में पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे'
गुरु जी प्रणाम
जवाब देंहटाएंआप आये बहार आई
दिलीप जी का शेर पढ़ कर मज़ा आ गया, हर एक सरस्वती साधक को सलाम करता हुआ शेर है
"गजल का सफर" पर पोस्ट का बेसब्री से इंतज़ार है
ग्रामीण कवि सम्मलेन में क्या हुआ होगा इसका थोडा बहुत अनुमान है :)
जिन्होंने श्रद्धेय हठीला जी की पुस्तक बंजारे गीत को पढ़ा होगा हर उस व्यक्ति को अनुमान हो सकता है :)
मुझे तो ये उत्सुकता है कि आजम साहब ने क्या पढ़ा होगा अगली पोस्ट का दुगनी बेसब्री से इंतज़ार शुरू हो चुका है
चित्र देख कर मुझे भी कुछ पंक्तियां बरबस याद हो आई जो चित्र के पीछे के बादलों को देख कर याद आ गई
कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है
मै तुझसे दूर कैसा हू तू मुझसे दूर कैसी है
ये मेरा दिल समझता है ये तेरा दिल समझता है
आपने तरही के लिए एक बार फिर से इतनी कठिन बहर चुनी है कि अभी से पसीना छूट रहा है मगर एक राहत है कि बारिश के आने से पसीने को झेल कर गजल लिख ही लेंगे
ये बहर मुझे भी १२१२, ११२२, १२१२, २२ लग रही है जो कि संभवतः मुरक्कब बहर "मुजारे" (१२२२, २१२२, १२२२, २१२२) की मुजाहिफ शक्ल है
पूरा यकीन है कि आप लोगों ने समाँ बाँध दिया होगा - कैसे, यह जानने की उत्सुकता है
जवाब देंहटाएंसुबीरजी
जवाब देंहटाएंआप यूं तो लगातार व्यस्त रहे हैं , लेकिन सुबीर संवाद सेवा से जुड़े हम जैसों को सहभागिता निभाने का अवसर बहुत समय बाद दे रहे हैं । इंतज़ार रहेगा , अगली पोस्ट का , यह जानने के लिए कि आज़मजी ने क्या रास्ता निकाला ?
वैसे मैं तो बहुत बार ऐसे तज्रुबों से गुज़रा हूं …लेकिन मैं तो राजस्थानी में भी बराबर लिखता हूं , और तो और राजस्थानी में ग़ज़लें भी कहता हूं
( मेरे ब्लॉग शस्वरं पर देखी भी जा सकती हैं )
इसलिए कभी दिक़्क़त नहीं हुई ।
तरही का इंतज़ार रहेगा ।
आप द्वारा प्रस्तावित बह्र पर आधारित एक शे'र मुलाहिज़ा फ़रमालें… ( मत्ला मेरा नहीं है )
मेरी अना पॅ कोई जब भी वार करता है
मेरा ज़मीर मुझे होशियार करता है
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
Subeer ji
जवाब देंहटाएंaapke blog par aane ke baad khali haath laut jaana mushkil hi nahin na-mumkin hai..bahut khoob ! sher nahin nageena padne ko mila hai. mIsre ka ntezaar rahega
गुरूदेव,
जवाब देंहटाएंप्रणाम। डंडा खाने के लिये तैयार हूं- बहर है, बहरे मुजतस मखबून महज़ूफ (1212 1122 1212 22)
कुछ उदाहरण-
गज़ब किया तिरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात कयामत का इंतिज़ार किया (दाग)
सुना है लूट लिया है किसी को रहबर ने
ये वाकया तो मिरी दासतां से मिलता है (शमीम जयपुरी)
गुरु जी प्रणाम
जवाब देंहटाएंकल रात लाईट चली गई इसलिए अधूरे कमेन्ट को प्रकाशित कर के चला गया था
प्रस्तुत बहर पर राजेन्द्र जी और रवि भाई ने जो शेर पढ़वाए हैं उनसे बहर को समझने और भी आसानी होगी
मैं भी कुछ देर तक उदहारण खोजता रहा मगर सफल नहीं हुआ
शेर के साथ और माता पच्ची करने पर ये समझ आया कि ये बहर २२१२, २१२२, २२१२, २१२२ की मुजाहिफ शक्ल भी हो सकती है और अभी देखा तो रवि भाई ने भी इसकी चर्चा की है तो मेरी सोच को और प्रोत्साहन मिला
आज यहाँ इलाहाबाद में भी मौसम करवट ले रहा है और बारिश के आसार बने हुए हैं लोग बारिश का इंतज़ार कर रहे है और हम बेसब्री से आपकी नई पोस्ट का...
आपका वीनस केशरी
यूरेका यूरेका :)
जवाब देंहटाएं१ #
तज़ल्लियों का नया दायरा बनाने में
मेरे चराग लगे हैं हवा बनाने में
मेरी निगाह में वो शख्स आदमी भी नहीं
जिसे लगा है ज़माना खुदा बनाने में
अड़े थे जिद पे कि सूरज बना के छोड़ेंगे
पसीने छूट गये इक दिया बनाने में
ये चाँद लोग जो बस्ती में सबसे अच्छे हैं
इन्हीं का हाँथ है मुझको बुरा बनाने में
२ #
जवानियों में जवानी को धूल करते हीं
जो लोग भूल नहीं करते हैं भूल करते हैं
अगर अनार कली है सबब बगावत का
सलीम हम तेरी शर्ते कबूल करते हैं
३#
कभी अकेले मे मिल कर झझोंड दूंगा उसे
जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूंगा उसे
मुझे वो छोड़ गया ये कमाल है उसका
इरादा मैंने किया था कि छोड़ दूंगा उसे
पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज
कभी जो हाँथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे
मज़ा चखा के ही माना हूँ मै भी दुनिया को
समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूंगा उसे
बचा के रखता खुद को वो मुझसे शीशा बदन
उसे ये दर है कि तोड़ फोड दूंगा उसे
गुरूजी प्रणाम,
जवाब देंहटाएंनए पोस्ट का इंतज़ार था. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर.. 'ग़ज़ल का सफर' पर नए पोस्ट का बेसब्री से इंतज़ार है.
इस शेर की बहर निकालने की कोशिश की तो निकली १२१२ ११२२ १२१२ २२
अथकथित पर देखा तो उसका नाम पाया "मुजारे मुसम्मन् मक्बूज मख्बून मक्तुअ"
असर करें जो दुआएं कभी फरिश्तों की,
१२१२ ११२२ १२१२ २२
फिजा की कोख से पैदा अदीब होता है.
१२१२ ११२२ १२१२ २२
मुश्किल बहर है. तरही मुशायरा आसान नहीं होने वाला!
गुरु जी बहर का वजन तो
जवाब देंहटाएं१२१२-११२२-१२१२-२२ है.
इसमें आखिरी के २२ क्या ११२ भी हो सकते हैं?
दिलीप सिंह दीपक का शेर बेजोड़ है, बहुत बहुत बधाइयाँ उन्हें.
गाँव के मुसह्येरे का विवरण सुनने का बेसब्री से इंतज़ार है.
श्री बब्बल गुरु जी तो कैमरे से कमाल करते हैं, मुझे इस वक़्त अर्श की सीहोर में कही वो टिप्पणी याद आ गयी.
ये मानसूनी बहर तो शक्ल से ही मुश्किल दिख रही है.
प्रणाम गुरुदेव ... बहुत दिनो बाद आप पोस्ट लाए पर बहुत अच्छी पोस्ट लाए, कुछ तो हलचल होगी ... ग़ज़ब का शेर है दिलीप जी का .. और इस बार तो दिग्गज शामिल होंगे इस मुशायरे में ... हम तो आनंद ही लेंगे ... और ये फोटो तो ग़ज़ब का लगा है इस पोस्ट के साथ ...
जवाब देंहटाएंप्रणाम!
जवाब देंहटाएंसच पूछिये तो अभी थोड़ी देर पहले दोपहरी में हम वीरान अवस्था में बेचैन जैसे थे, पोस्ट पर नज़र पड़ी, आधी बेचैनी तो वहीं ख़त्म... शायर दीपक जी के शेर से मुझे भी बड़ा हौसला मिला.
या यूँ कहें...
हौसला फिर से मुझको बड़ा मिला
सूखे दरख़्त पर पत्ता हरा मिला
ग्रीष्म का यह चित्र बहुत स्पष्ट है. आपने अपनी परेशानी को दिलचस्प अंदाज में बयान किया... हम खुश हुए (माफ़ कीजिये आपकी परेशानी पर हम खुश क्यूँ होंगे). आगे भव्य ग्रामीण कवि सम्मलेन में क्या क्या हुआ... उत्सुकता है.
- सुलभ