शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

लिपि का बड़ा खेल है । देवनागरी और उर्दू ये दो लिपियां ज़रूर हैं लेकिन बोलते समय दोनों हिंदी हो जाती हैं । और इसी की पैदाइश है सौती क़ाफिया ।

कई लोगों से मिलते मिलाते पिछला बरस बीत ही गया । पिछला बरस जिसमें कि काफी कुछ हो गया । लगभग इसी समय फरवरी में ज्ञानपीठ की घोषणा हुई और एक सपना पूरा हुआ । ब्‍लाग जगत से परिचय में आये अधिकांश लोगों से पहली बार मिलवा कर गया वो साल । राकेश खंडेलवाल जी, शार्दूला दीदी, पूर्णिमा बर्मन जी, दिव्‍या माथुर जी,  दिगम्‍बर नासवा, अनुराग शर्मा, कंचन चौहान, गौतम, रवि, वीनस, सीमा गुप्‍ता,फुरसतिया जी, कुश से 2010 में मिलना हुआ ( प्रकाश और अंकित से 2009 ने मिलवा दिया था ) । बहुत सी यादें लेकर बीत गया वो साल । दो कहानियां लिखीं और दोनों ही चर्चित हुईं ( चित्रा जी ने इस बार कहा कि पंकज साल में दो या तीन से ज्‍यादा कहानियां मत लिखना । ) । कम लिखना और अच्‍छा लिखना बेहतर है बजाय अधिक और खराब लिखने के । तो उस हिसाब से चौथमल मास्‍साब और सदी का महानायक ये दोनों कहानियां पिछले वर्ष में ठीक रहीं । सदी का महानायक का नाट़य रूपांतरण हो रहा है और शायद उस पर कोई लघु फिल्‍म भी बन रही है ( जैसी मुझसे स्‍वीकृति ली गई है ) । ये वो सहर तो नहीं के साथ ही कई लोगों की नाराज़गी झेलनी पड़ी । कई अपने नाराज़ हो गये । तो एक बहुत अपने ने उपन्‍यास पढ़कर कहा कि पंकज तुम अपनी तुलना एक बार तसलीमा नसरीन और रशदी से तो करो । अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अपने खतरे होते हैं जो सब नहीं उठाते, लेकिन किसी न किसी को उठाने होते हैं ।एक और शोधपरक उपन्‍यास की भूमिका बन रही है । देखें क्‍या होता है । बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा, तो गौतम का फोन आ गया, लगा कि चलो कोई तो है जो परवाह कर रहा है इस बात की । ये पोस्‍ट गौतम के ही नाम ।

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 सौती काफिया : जैसा कि पहले ही कहा था कि इस बार होली पर सौती मुशायरा करवाने की इच्‍छा है । सौती मुशायरा आजकल तो नहीं होता । लेकिन जैसा कि एक किताब में पढ़कर ज्ञात हुआ कि पहले काफी होते थे । आजकल सौती क़ाफि़या ये शब्‍द तो चलन में है । सौती काफिया का अर्थ ये कि ऐसा काफिया जो उर्दू के हिसाब से ग़लत है लेकिन ध्‍वनि के हिसाब से सही है उसे सौती काफिया कहा जाता है । जैसे उर्दू में ख़ास  के साथ आस तथा प्‍यास  के काफिये नहीं लगाये जा सकते । क्‍योंकि खास  में जो  स है वो स्वाद  ( उर्दू का एक अक्षर ص) से बन रहा है तो आस  में   जो है वो सीन ( उर्दू का एक अक्षर س) से बन रहा है । देवनागरी में कोई फर्क नहीं दिखता लेकिन उर्दू में जब लिखेंगें तो फर्क साफ दिखेगा । इसलिये जब भी कोई शायर खास  के साथ आस, प्‍यास   को काफि़या बनायेगा तो पहले कह देगा कि '' माफ कीजिये इसमें मैंने सौती काफिया लगाया है ।''  इसी प्रकार से ख़त  के साथ मत, लत  को नहीं लिया जा सकता है । यदि ले रहे हैं तो आपको कहना होगा कि आपने सौती काफिया लगाया है ( जो ग़लत तो है लेकिन समान ध्‍वनि उत्‍पन्‍न कर रहा है अर्थात फोनेटिकली सही है, लिंग्विस्टिकली ग़लत है ) । यहां पर ये बात भी जान लें कि  आग  साथ दाग़  का क़ाफिया लगाना सौती काफिया  की श्रेणी में नहीं आता क्‍योंकि ये ध्‍वनि ( फोनेटिकली ) भी ग़लत है तथा लिपि ( लिंग्विस्‍टकली ) भी ग़लत है ।  आग  की ध्‍वनि तथा बाग़  की ध्‍वनियों में अंतर है । इसलिये मेरे विचार में आग  के साथ दाग़  का काफिया लगाना हिंदी या देवनागरी में भी ग़लत है और उर्दू में तो है ही ।

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्‍फ़ के सर होने तक

ये मतला एक बार गौतम ने प्रश्‍न की तरह उछाला था कि इसमें तो क़ाफि़या सर को बनाया गया है तो फिर आगे इस ग़ज़ल में चचा गालिब ने ख़ाक हो जाएंगें हम तुमको ख़बर होने तक, दिल का क्‍या रंग करूं ख़ूने जिगर होने तक, शम्‍अ हर रंग में जलती है सहर होने तक  जैसे प्रयोग कैसे कर लिये । कायदे में तो क़ाफिया सर से बंध गया था । दरअसल में ये मतला भी उर्दू में पढ़ने पर समझ में आता है कि वहां पर असर में जो   है वो से ( ث )  से बन रहा है तथा सर में जो  स  है वो सीन ( س ) से बन रहा है । उर्दू में  स तीन प्रकार से लिखा जाता है से, सीन और स्वाद ( ث س ص  ) और तीनों में अलग अलग ही माना जाता है ।   उर्दू को देवनागरी में लिखना बहुत मुशिकल है क्‍योंकि हम तो तीनों ही स ( से, सीन और स्वाद )  के लिये केवल   ही लिखेंगें । तो फिर अंतर तो कहीं हुआ ही नहीं । ठीक वैसे ही जैसे उर्दू में   को 6 तरीके से लिखा जाता है (जीम, ज़ाल, ज़े, ज़्हे,  ज़्वाद, और ज़ोय ج ذ ز ژ ض ظ),    को दो तरीके से लिखा जाता है ते और तोय (  ت ط  ) तथा   को दो तरीके से  अलिफ़ और ऐन ( ا ع  )   लेकिन जब आप इनको देवनागरी में लिखेंगें तो केवल और कवल ज, अ और  ही लिखेंगें । यहां पर मामला थोड़ा लिपी से जुड़ा हो जाता है इसलिये उसको समझने के लिये हमें वह लिपि भी आनी चाहिये । हालांकि मैं अभी भी इस बात का झंडा उठा कर खड़ा हूं कि जो चीज़ जिस लिपि में लिखी जा रही है उसे उसी लिपि‍ के नियमों का पालन करना चाहिये । यदि आप देवनागरी में लिख रहे हैं तो आपको देवनागरी के ही नियमों का पालन करना चाहिये । इसलिये यदि आप देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो आपको सौती काफिये कहने की इजाज़त होनी चाहिये ( जो नहीं है ) । यदि आप देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो आपको छोटी ईता की इजाज़त होनी चाहिये ( जो नहीं है ) । अब ये प्रश्‍न कि यदि ये इतने सारे ज, स, त अ हैं तो क्‍यों हैं तथा हैं तो इनका क्‍या अर्थ है । असल में ये अरबी से आये हैं जहां इनके लिये अलग अलग ध्‍वनियां हैं । लेकिन हिंदी तथा उर्दू में नहीं है ( ऐसा इसलिये क्‍योंकि देवनागरी तथा उर्दू ये दो लिपियां हैं जिनकी एक ही भाषा है हिंदी । या यूं कह लें कि हिंदी को दो प्रकार की लिपियों में लिखा जा सकता है देवनागरी तथा उर्दू, मगर बोला एक ही प्रकार से जाता है । ) । अरबी में इनको बोलते समय अलग अलग प्रकार से ज़बान तथा गले का प्रयोग होता है लेकिन उर्दू और हिंदी में नहीं होता । यदि आपने किसी को पवित्र कुरान पढ़ते हुआ सुना है तो आप समझ रहे होंगें कि वे ध्‍वनियां किस प्रकार निकाली जाती हैं जो इन अक्षरों को अलग अलग करती हैं । जैसे क्‍यों वुसअ़त शब्‍द में   अक्षर के नीचे नुक्‍ता लगा है जबकि हम तो ये जानते हैं कि नुक्‍ता तो केवल क,ख, ज, ग, फ में ही लगते हैं । लेकिन ये नुक्‍ता बताता है कि   का उच्‍चारण अब विशिष्‍ट हो गया है अब उसे गले के विशेष भाग से बोलना है ।

सौती मुशायरा : तो इस प्रकार से सौती काफिया का अर्थ निकलता है । लेकिन ये सौती मुशायरा ,ये तो कम सुना हुआ लगता है । दरअसल में सौती मुशायरे के बारे में जो कुछ मुझे ज्ञात हुआ है वो ये है कि ये भी तरही मुशायरे की ही तरह होता था जिसमें कि बहर रदीफ और काफिया दे दिया जाता था । जिस पर गज़ल लिखनी होती थी । लेकिन ग़ज़ल और शेर की परिभाषा के उलट यहां पर शेर इस प्रकार निकालने होते थे जिनमें मिसरे का कोई भी अर्थ नहीं निकले । केवल बहर के वज्‍न के हिसाब से शब्‍द रख रख कर मिसरा इस प्रकार बनाया जाये कि उसका कोई भी अर्थ नहीं हो । यद‍ि कोई अर्थ बन गया तो शेर खारिज । यदि रदीफ काफिये से शब्‍दों का कोई तारतम्‍य मिल गया तो शेर खारिज । गरज ये कि आपको केवल वज्‍न के बारे में सोचना है, कहन के बारे में बिल्‍कुल भी नहीं । इसके बारे कहा जाता है कि ये बहुत ही मुश्किल काम होता था । तथा इससे बहर के बारे में काफी जानकारी मिल जाती थी । मुश्किल काम तो मुझे अभी इसलिये भी लग रहा है कि मैं अभी तक एक मिसरा नहीं बना पाया हूं । ऐसा जिसमें सारे रुक्‍न एक दूसरे से रूठे रूठे हों । कोई किसी का पूरक नहीं हो । इस प्रकार की ग़ज़ल सुनने वालों को खूब आनंद देती हैं इसलिये इस बार होली पर सौती तरही का आयोजन किया जायेगा ताकि फुल बेवकूफी से भरी ये ग़ज़लें आनंद दे सकें ।

बहरे वाफर :  बहरे वाफर पर इस बार का होली का सौती मुशायरा होना है  । इस बहर पर लगभग नहीं के बराबर काम उर्दू तथा हिंदी में मिलता है । बहर का रुक्‍न हजज जैसा है । बस फर्क ये है कि बहरे हजज में जहां 1222 होता है वहीं इसमें 12112 होता है अर्थात हजज की तीसरी दीर्घ मात्रा को दो लघु में बांट दिया है । ध्‍वनि लगभग एक जैसी है दोनों बहरों की । गुनगुनाने में एक सी ही लगती हैं । जैसे कामिल और रजज लगती हैं । क्‍योंकि वहां पर भी एक दीर्घ को तोड़ कर दो लघु बना कर बहर को अलग अलग कर दिया है और यहां पर भी वही है । खैर तो इस बार की योजना बहरे वाफर पर सौती तरही करने की है । यदि आप लोग वाफर मुसमन सालिम पर कोई सौती मिसरा लिख पाएं तो भेजें । जैसे

जो तुम  न अगर, कहीं से न दिल, कभी ये ख़बर, नहा के चलो

12112-12112-12112-12112

अब ये तो एक उदाहरण है जो बहुत जल्‍दी में यहीं पर बनाया है । आप लोग तो माहिर लोग हैं मुझे भरोसा है कि टिप्‍पणियों में ही मिसरे मिलेंगें और उन्‍हीं में से हम तय कर लेंगें होली के सौती मुशायरे का मिसरा क्‍या होगा । जल्‍दी करें क्‍योंकि होली सर पर है अब तो एक माह से भी कम का समय बाकी है ।

और अंत में गीत ( झेला जाये )

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