दोस्तों इस बार का तरही मुशायरा आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी की स्मृति में आयोजित किया जा रहा है। इस बार होली का रंग कुछ फीका है क्योंकि इस बार राकेश जी इस होली में शामिल नहीं हैं। राकेश जी के गीतों से अब हमारे मुशायरों में छंदों का जादू नहीं जगेगा। होली क्या वे तो हर मुशायरे में एक माह पहले से उत्साहित होकर अपने संदेश भेजना प्रारंभ कर देते थे। इस बार यह हुआ है कि होली तो है पर अंदर उनके जाने का सूनापन बसा हुआ है। आइए आज होली के तरही मुशायरे को प्रारंभ करते हैं।
इस बार मुशायरे के लिए मिसरा देते समय मन इतना उदास था कि मैं रदीफ़ और क़ाफ़िये के बारे में बताना ही भूल गया कि क़ाफ़िया है 'कभी' शब्द में आ रही 'ई' की मात्रा और रदीफ़ है 'नहीं होते'। ख़ैर अब सब ने अपने हिसाब से रदीफ़ काफ़िया लेकर ग़ज़लें भेज दी हैं।
"रंग इतने कभी नहीं होते”
आइए आज मनाते हैं होली राकेश खण्डेलवाल जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह, सुधीर त्यागी, संजय दानी, दिनेश नायडू, मंसूर अली हाशमी और रेखा भाटिया के साथ।
शुरुआत करते हैं राकेश जी के एक गीत से जो उन्होंने दीपावली के मुशायरे के लिए भेजा था तथा उस समय यह लग नहीं पाया था। शायद आज के लिए ही छूट गया था।
राकेश खंडेलवाल
संस्कृतियों का एक बीज था जन्मभूमि ने किया अंकुरित
कर्मभूमि ने देखभाल की और। नया कुछ रूप निखारा
अनुभवों की इक कसौटी ने उन्हें जाँचा, परख कर
इक अनूठे शिल्प की अनमोल कृति देकर संवारा
यह पथिक विश्वास वह लेकर चला अपनी डगर पर
साथ में जिसको लिए दीपक तमस से लड़ रहा है
ज़िंदगी के इस सफ़र में मंज़िलें निश्चित नहीं थी
एक था संकल्प पथ में हर निमिष गतिमान रहना
जाल तो अवरोध फैलाये हुए हर मोड़ पर थे
संयमित रहते हुए बस लक्ष्य को था केंद्र रखना
कर्म का प्रतिफल मिला इस भूमि पर हर इक दिशा से
सूर्य का पथ पालता कर्तव्य अपना बढ़ रहा है
चिह्न जितने सफलता के देखते अपने सफ़र में
छोड कर वे हैं गए निर्माण जो करते दिशा का
चीर पर्वत घाटियों को, लांघ कर नदिया, वनों को
रास्ता करते गए आसान पथ की यात्रा का
सामने देखो क्षितिज के पार भी बिखरे गगन पर
धनक उनके चित्र में ही रंग अद्भुत भर रहा है
अनुसरण करना किसी की पग तली की छाप का या
आप अपने पाँव के ही चिह्न सिकता पर बनाना
पृष्ठ खोले ज़िंदगी में नित किसी अन्वेषणा के
या घटे इतिहास की गाथाओं को ही दोहराना
आज चुनना है विकल्पों में इसी बस एक को ही
सामने फ़ैला हुआ यह पथ, प्रतीक्षा कर रहा है
क्या कहा जाए इस गीत को लेकर, यह गीत नहीं है, यह तो मानों उस पूर्वाभास से उपजा हुआ संदेश है, जो शायद उनको हो चुका था। गीत की अंतिम पंक्ति में सामने फैला हुआ पथ जो प्रतीक्षा कर रहा है, शायद उस प्रतीक्षा में यही भाव है। राकेश जी को एहसास हो गया था कि अब कहीं कोई पथ प्रतीक्षा कर रहा है, उनको एक और लंबी यात्रा पर जाना है। इसीलिए यह गीत उन्होंने बहुत पहले ही भेज दिया था। यह गीत जैसे उनका प्रयाण गीत है। क्या कहूँ, बस मौन हूँ।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
गीत यूँ कुदरती नहीं होते
गर जो राकेश जी नहीं होते
हम भी यूँ कीमती नहीं होते
वो अगर पारखी नहीं होते
गीत बनकर हमारे बीच हैं वो
इसलिए हम दुखी नहीं होते
वो तो लाखों में एक थे साहब
उन के जैसे कई नहीं होते
हम से छोटों को मानते थे बहुत
वो थे जैसे, सभी नहीं होते
वो जो होते न गर तो गीतों में
रंग इतने कभी नहीं होते
स्नेह उनका अगर नहीं मिलता
‘सज्जन’ इतने धनी नहीं होते
राकेश जी का नाम मतले में ही बहुत सुंदरता के साथ गूँथा गया है। और उसके बाद हुस्ने-मतला भी उतना ही सुंदर बन पड़ा है, क्या बात है। यह भी सच है कि राकेश जी के गीत हमारे साथ हैं, हम कैसे मान लें कि वे हमारे साथ नहीं हैं, दुखी होने की कोई बात ही नहीं है। और इस बात को भी शत प्रतिशत सच माना जाये कि वे लाखों में एक ही थे, उनके जैसे कई नहीं हो सकते। अपने से छोटों को भी मान-सम्मान देना, दुलार देना यह उनके जैसे बड़े लेखक ही कर सकते हैं। और तरही का शेर बहुत ही सुंदर तरीक़े से गूँथा गया ह। अंत में मकता भी बहुत कमाल है। इस मुसलसल ग़ज़ल ने समाँ बाँध दिया है। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।
डॉ. सुधीर त्यागी
काफ़िए हम सलीके से ढोते,
और सृजन के बीज भी बोते।
खास महफिल उरूज पर होती,
साथ में काश आप भी होते।
आप रौनके बहार थे वरना,
रंग इतने कभी नहीं होते।
याद आते हैं आप गीतों को,
आप के गीत आप बिन रोते।
चलता तो है सुबीर जी का ब्लॉग,
सब मगर आप की कमी ढोते।
जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि इस बार पोस्ट में मैं लिख नहीं पाया कि रदीफ़ और क़ाफ़िया क्या रहेगा, तो इसलिए सभी ने अपने हिसाब से रदीफ़ क़ाफ़िया ले लिया है। सुधीर जी ने बिना रदीफ़ की ग़ज़ल कही है और बहुत अच्छे से कठिन क़ाफ़िया को निभा लिया है। विशेषकर गिरह का शेर बहुत अच्छा बना है। सबसे अच्छा शेर है जिसमें कहा गया है कि आपके गीत भी आपके बिना रोते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
डॉ संजय दानी दुर्ग
आप गर सारथी नहीँ होते,
रंग इतने कभी नहीं होते।
छोड़ हमको न जल्द तुम जाते,
तो यूँ हम आंसू ना बहाते।
माना इक दिन सभी को जाना है,
सबका अंतिम वही ठिकाना है।
वक़्त से पहले जाना ठीक नहीं,
अपनों का दिल दुखाना ठीक नहीं।
होली अब कैसे हम मनायेंगे,
रंगों से दूरियां बढ़ायेंगे।
संजय जी ने अपने ही तरीक़े से राकेश जी को याद किया है। तरही मिसरे को अच्छे से पहली दो पंक्तियों में बांध कर आगे स्वतंत्र दो दो पंक्तियों में बात कही है। यह भी सच है कि किसी एक के बिना सच में होली जैसा पर्व एकदम अधूरा हो जाता है। रंगों से दूरियाँ सी हो जाती हैं। बहुत ही अच्छे से संजय जी ने याद किया है राकेश जी को। बहुत ही सुंदर रचना वाह वाह वाह।
दिनेश नायडू
हैं मगर.. वाक़ई नहीं होते
सारे मंज़र सही नहीं होते !
वो भी तो रौशनी नहीं होते
हम अगर तीरगी नहीं होते
उसकी तस्वीर कैसे हो पूरी
रंग इतने कभी नहीं होते
आह मेरी सदा नहीं बनती
अश्क मेरे नदी नहीं होते
मैं तेरी बात मान लेता हूँ
इतने अच्छे सभी नहीं होते
शेर मेरे बहुत ही सादे हैं
मायने फ़लसफ़ी नहीं होते
वो जो सच में ख़ुदा के बन्दे हैं
वो कभी मज़हबी नहीं होते
एक बहुत ही सधी हुई ग़ज़ल, एकदम उस्तादाना रंग लिए हुए है यह ग़ज़ल। मतला ही इतना ग़ज़ब बनाया है कि उफ़्फ़। और उसके बाद का हुस्ने मतला तो एकदम कमाल है हम अगर तीरगी नहीं होते तो वे रौशनी कैसे होते। और अगले शेर में गिरह भी एकदम ग़ज़ब है। मैं तेरी बात मान लेता हूँ में मिसरा ए सानी तो एकदम कमाल को बना है। और ख़ुदा के बंदों का मज़हबी न होना, एक बड़ा अर्थ लिए हुए शेर है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
मंसूर अली हाश्मी
कैसे खेलेंगे दोस्तो होली
भाई राकेश अब नहीं होंगे
तरही सूनी रहेगी अब उन बिन
रंग इतने तो अब नहीं होंगे!
वो नहीं पास जब कभी होते
फिर भी होते हैं, बस वही होते।
भर के 'राशी चुनावी' छ्प जाते
काश इतने तो हम 'लकी' होते!
(इलेक्टोरल बांड की)
उनकी तासीर दूध से मिलती
फट भी जाए तो हैं दही होते।
वो चतुर्वेदी भी कहे जाते
पुस्तकें चार गर पढ़ी होते।
हम को भी गुनगुनाया जाता ही
गर किसी गीत की लड़ी होते।
कैसे दावा करें हमी सब कुछ
हम ग़लत तो कभी सही होते।
ज़िन्दगी बे मज़ा नहीं होती
आप भुजिया जो हम कढ़ी होते
हो के शाइर तुझे मिला क्या है?
काम करते तो आदमी होते
कर दिया है दही दिमागों का!
अच्छा होता न गर कवि होते !!
मंसूर जी ने पहली राकेश जी को बहुत सुंदर शेरों के द्वारा श्रद्धांजलि प्रदान की है उसके बाद थोड़ा बदले हुए रदीफ़ काफ़िया के साथ ग़ज़ल कही है। मतला ही बहुत सुंदर है कि जब वे नहीं होते तब भी वही होते हैं। इलेक्टोरल बांड का शेर और उसके बाद दूध और दही का शेर भी सुंदर बना है। चतुर्वेदी होने का और किसी गीत की लड़ी होने का अंदाज़ भी गुदगुदाता है। भुजिया और कढ़ी के साथ शाइर के बदले आदमी होने का शेर भी बहुत अच्छा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
रेखा भाटिया
वो भी एक रंग था जीवन में
वो भी एक रंग था जीवन में
गुज़र गया तो फिर क्या हुआ
साँझ-सवेरे खिलता चमन में
आज छोड़ इस चमन वो चला
वो भी एक रंग था जीवन में
खूब हँसता, खूब रुलाता
प्यार वो भरपूर लुटाता
अँधियारों को रोशन करता
वो भी एक रंग था जीवन में
गई दिवाली परदेस चला था
बाबुल का अँगना सूना था
सोचा आएगा वो फिर से
खिल जाएगी बगिया फिर से
होली के रंगों में डूबो कर मन
हँसी ठिठोली में मगन करेगा
साँझ ढली अब वो नहीं आया
जाने किस दिशा डाला डेरा
महफ़िल अब सज न पाएगी
जहाँ भी होगा झूम रहा होगा
वो भी एक रंग था जीवन में
दुआएँ लेकर जा रे मितवा
हँसते खिलते हर पल बीते
गुज़रा रंग गुलाल कर गया
गुज़र गया तो फिर क्या हुआ
साथ रंग इतने कभी नहीं होते
घुलता था हर रंग में नादान
वो भी एक रंग था जीवन में
हर मर्ज़ की वो दवा दे गया !
बहुत ही सुंदर कविता के साथ दार्शनिक अंदाज़ में रेखा भाटिया जी ने राकेश खंडेलवाल जी को अपनी भावांजलि प्रदान की है। एक रंग जीवन में जब कम हो जाता है तो हमें ऐसा लगता है कि सब कुछ तो वैसा ही है, लेकिन उस एक रंग की कमी हर बार महसूस होती है।यह पूरा गीत इसी भाव से भरा हुआ है। एक रंग को कवयित्री का मन कहाँ-कहाँ नहीं तलाश कर रहा है। पूरा गीत एकदम भावों से भरा हुआ है। बहुत ही सुंदर, वाह वाह वाह।
इस बार मुशायरे के लिए मिसरा देते समय मन इतना उदास था कि मैं रदीफ़ और क़ाफ़िये के बारे में बताना ही भूल गया कि क़ाफ़िया है 'कभी' शब्द में आ रही 'ई' की मात्रा और रदीफ़ है 'नहीं होते'। ख़ैर अब सब ने अपने हिसाब से रदीफ़ काफ़िया लेकर ग़ज़लें भेज दी हैं।
"रंग इतने कभी नहीं होते”
आइए आज मनाते हैं होली राकेश खण्डेलवाल जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह, सुधीर त्यागी, संजय दानी, दिनेश नायडू, मंसूर अली हाशमी और रेखा भाटिया के साथ।
शुरुआत करते हैं राकेश जी के एक गीत से जो उन्होंने दीपावली के मुशायरे के लिए भेजा था तथा उस समय यह लग नहीं पाया था। शायद आज के लिए ही छूट गया था।
राकेश खंडेलवाल
संस्कृतियों का एक बीज था जन्मभूमि ने किया अंकुरित
कर्मभूमि ने देखभाल की और। नया कुछ रूप निखारा
अनुभवों की इक कसौटी ने उन्हें जाँचा, परख कर
इक अनूठे शिल्प की अनमोल कृति देकर संवारा
यह पथिक विश्वास वह लेकर चला अपनी डगर पर
साथ में जिसको लिए दीपक तमस से लड़ रहा है
ज़िंदगी के इस सफ़र में मंज़िलें निश्चित नहीं थी
एक था संकल्प पथ में हर निमिष गतिमान रहना
जाल तो अवरोध फैलाये हुए हर मोड़ पर थे
संयमित रहते हुए बस लक्ष्य को था केंद्र रखना
कर्म का प्रतिफल मिला इस भूमि पर हर इक दिशा से
सूर्य का पथ पालता कर्तव्य अपना बढ़ रहा है
चिह्न जितने सफलता के देखते अपने सफ़र में
छोड कर वे हैं गए निर्माण जो करते दिशा का
चीर पर्वत घाटियों को, लांघ कर नदिया, वनों को
रास्ता करते गए आसान पथ की यात्रा का
सामने देखो क्षितिज के पार भी बिखरे गगन पर
धनक उनके चित्र में ही रंग अद्भुत भर रहा है
अनुसरण करना किसी की पग तली की छाप का या
आप अपने पाँव के ही चिह्न सिकता पर बनाना
पृष्ठ खोले ज़िंदगी में नित किसी अन्वेषणा के
या घटे इतिहास की गाथाओं को ही दोहराना
आज चुनना है विकल्पों में इसी बस एक को ही
सामने फ़ैला हुआ यह पथ, प्रतीक्षा कर रहा है
क्या कहा जाए इस गीत को लेकर, यह गीत नहीं है, यह तो मानों उस पूर्वाभास से उपजा हुआ संदेश है, जो शायद उनको हो चुका था। गीत की अंतिम पंक्ति में सामने फैला हुआ पथ जो प्रतीक्षा कर रहा है, शायद उस प्रतीक्षा में यही भाव है। राकेश जी को एहसास हो गया था कि अब कहीं कोई पथ प्रतीक्षा कर रहा है, उनको एक और लंबी यात्रा पर जाना है। इसीलिए यह गीत उन्होंने बहुत पहले ही भेज दिया था। यह गीत जैसे उनका प्रयाण गीत है। क्या कहूँ, बस मौन हूँ।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
गीत यूँ कुदरती नहीं होते
गर जो राकेश जी नहीं होते
हम भी यूँ कीमती नहीं होते
वो अगर पारखी नहीं होते
गीत बनकर हमारे बीच हैं वो
इसलिए हम दुखी नहीं होते
वो तो लाखों में एक थे साहब
उन के जैसे कई नहीं होते
हम से छोटों को मानते थे बहुत
वो थे जैसे, सभी नहीं होते
वो जो होते न गर तो गीतों में
रंग इतने कभी नहीं होते
स्नेह उनका अगर नहीं मिलता
‘सज्जन’ इतने धनी नहीं होते
राकेश जी का नाम मतले में ही बहुत सुंदरता के साथ गूँथा गया है। और उसके बाद हुस्ने-मतला भी उतना ही सुंदर बन पड़ा है, क्या बात है। यह भी सच है कि राकेश जी के गीत हमारे साथ हैं, हम कैसे मान लें कि वे हमारे साथ नहीं हैं, दुखी होने की कोई बात ही नहीं है। और इस बात को भी शत प्रतिशत सच माना जाये कि वे लाखों में एक ही थे, उनके जैसे कई नहीं हो सकते। अपने से छोटों को भी मान-सम्मान देना, दुलार देना यह उनके जैसे बड़े लेखक ही कर सकते हैं। और तरही का शेर बहुत ही सुंदर तरीक़े से गूँथा गया ह। अंत में मकता भी बहुत कमाल है। इस मुसलसल ग़ज़ल ने समाँ बाँध दिया है। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।
डॉ. सुधीर त्यागी
काफ़िए हम सलीके से ढोते,
और सृजन के बीज भी बोते।
खास महफिल उरूज पर होती,
साथ में काश आप भी होते।
आप रौनके बहार थे वरना,
रंग इतने कभी नहीं होते।
याद आते हैं आप गीतों को,
आप के गीत आप बिन रोते।
चलता तो है सुबीर जी का ब्लॉग,
सब मगर आप की कमी ढोते।
जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि इस बार पोस्ट में मैं लिख नहीं पाया कि रदीफ़ और क़ाफ़िया क्या रहेगा, तो इसलिए सभी ने अपने हिसाब से रदीफ़ क़ाफ़िया ले लिया है। सुधीर जी ने बिना रदीफ़ की ग़ज़ल कही है और बहुत अच्छे से कठिन क़ाफ़िया को निभा लिया है। विशेषकर गिरह का शेर बहुत अच्छा बना है। सबसे अच्छा शेर है जिसमें कहा गया है कि आपके गीत भी आपके बिना रोते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
डॉ संजय दानी दुर्ग
आप गर सारथी नहीँ होते,
रंग इतने कभी नहीं होते।
छोड़ हमको न जल्द तुम जाते,
तो यूँ हम आंसू ना बहाते।
माना इक दिन सभी को जाना है,
सबका अंतिम वही ठिकाना है।
वक़्त से पहले जाना ठीक नहीं,
अपनों का दिल दुखाना ठीक नहीं।
होली अब कैसे हम मनायेंगे,
रंगों से दूरियां बढ़ायेंगे।
संजय जी ने अपने ही तरीक़े से राकेश जी को याद किया है। तरही मिसरे को अच्छे से पहली दो पंक्तियों में बांध कर आगे स्वतंत्र दो दो पंक्तियों में बात कही है। यह भी सच है कि किसी एक के बिना सच में होली जैसा पर्व एकदम अधूरा हो जाता है। रंगों से दूरियाँ सी हो जाती हैं। बहुत ही अच्छे से संजय जी ने याद किया है राकेश जी को। बहुत ही सुंदर रचना वाह वाह वाह।
दिनेश नायडू
हैं मगर.. वाक़ई नहीं होते
सारे मंज़र सही नहीं होते !
वो भी तो रौशनी नहीं होते
हम अगर तीरगी नहीं होते
उसकी तस्वीर कैसे हो पूरी
रंग इतने कभी नहीं होते
आह मेरी सदा नहीं बनती
अश्क मेरे नदी नहीं होते
मैं तेरी बात मान लेता हूँ
इतने अच्छे सभी नहीं होते
शेर मेरे बहुत ही सादे हैं
मायने फ़लसफ़ी नहीं होते
वो जो सच में ख़ुदा के बन्दे हैं
वो कभी मज़हबी नहीं होते
एक बहुत ही सधी हुई ग़ज़ल, एकदम उस्तादाना रंग लिए हुए है यह ग़ज़ल। मतला ही इतना ग़ज़ब बनाया है कि उफ़्फ़। और उसके बाद का हुस्ने मतला तो एकदम कमाल है हम अगर तीरगी नहीं होते तो वे रौशनी कैसे होते। और अगले शेर में गिरह भी एकदम ग़ज़ब है। मैं तेरी बात मान लेता हूँ में मिसरा ए सानी तो एकदम कमाल को बना है। और ख़ुदा के बंदों का मज़हबी न होना, एक बड़ा अर्थ लिए हुए शेर है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
मंसूर अली हाश्मी
कैसे खेलेंगे दोस्तो होली
भाई राकेश अब नहीं होंगे
तरही सूनी रहेगी अब उन बिन
रंग इतने तो अब नहीं होंगे!
वो नहीं पास जब कभी होते
फिर भी होते हैं, बस वही होते।
भर के 'राशी चुनावी' छ्प जाते
काश इतने तो हम 'लकी' होते!
(इलेक्टोरल बांड की)
उनकी तासीर दूध से मिलती
फट भी जाए तो हैं दही होते।
वो चतुर्वेदी भी कहे जाते
पुस्तकें चार गर पढ़ी होते।
हम को भी गुनगुनाया जाता ही
गर किसी गीत की लड़ी होते।
कैसे दावा करें हमी सब कुछ
हम ग़लत तो कभी सही होते।
ज़िन्दगी बे मज़ा नहीं होती
आप भुजिया जो हम कढ़ी होते
हो के शाइर तुझे मिला क्या है?
काम करते तो आदमी होते
कर दिया है दही दिमागों का!
अच्छा होता न गर कवि होते !!
मंसूर जी ने पहली राकेश जी को बहुत सुंदर शेरों के द्वारा श्रद्धांजलि प्रदान की है उसके बाद थोड़ा बदले हुए रदीफ़ काफ़िया के साथ ग़ज़ल कही है। मतला ही बहुत सुंदर है कि जब वे नहीं होते तब भी वही होते हैं। इलेक्टोरल बांड का शेर और उसके बाद दूध और दही का शेर भी सुंदर बना है। चतुर्वेदी होने का और किसी गीत की लड़ी होने का अंदाज़ भी गुदगुदाता है। भुजिया और कढ़ी के साथ शाइर के बदले आदमी होने का शेर भी बहुत अच्छा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
रेखा भाटिया
वो भी एक रंग था जीवन में
वो भी एक रंग था जीवन में
गुज़र गया तो फिर क्या हुआ
साँझ-सवेरे खिलता चमन में
आज छोड़ इस चमन वो चला
वो भी एक रंग था जीवन में
खूब हँसता, खूब रुलाता
प्यार वो भरपूर लुटाता
अँधियारों को रोशन करता
वो भी एक रंग था जीवन में
गई दिवाली परदेस चला था
बाबुल का अँगना सूना था
सोचा आएगा वो फिर से
खिल जाएगी बगिया फिर से
होली के रंगों में डूबो कर मन
हँसी ठिठोली में मगन करेगा
साँझ ढली अब वो नहीं आया
जाने किस दिशा डाला डेरा
महफ़िल अब सज न पाएगी
जहाँ भी होगा झूम रहा होगा
वो भी एक रंग था जीवन में
दुआएँ लेकर जा रे मितवा
हँसते खिलते हर पल बीते
गुज़रा रंग गुलाल कर गया
गुज़र गया तो फिर क्या हुआ
साथ रंग इतने कभी नहीं होते
घुलता था हर रंग में नादान
वो भी एक रंग था जीवन में
हर मर्ज़ की वो दवा दे गया !
बहुत ही सुंदर कविता के साथ दार्शनिक अंदाज़ में रेखा भाटिया जी ने राकेश खंडेलवाल जी को अपनी भावांजलि प्रदान की है। एक रंग जीवन में जब कम हो जाता है तो हमें ऐसा लगता है कि सब कुछ तो वैसा ही है, लेकिन उस एक रंग की कमी हर बार महसूस होती है।यह पूरा गीत इसी भाव से भरा हुआ है। एक रंग को कवयित्री का मन कहाँ-कहाँ नहीं तलाश कर रहा है। पूरा गीत एकदम भावों से भरा हुआ है। बहुत ही सुंदर, वाह वाह वाह।
होली है भाई होली है रंगों वाली होली है। आप सभी को होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। आज के रचनाकारों ने होली का रंग जमा दिया है। आप भी दाद दीजिए। और यदि आगे रचनाएँ आती हैं, तो हम होली के बासी मुशायरे का भी आनंद लेंगे।
Sabhi ki rachnaye bhavpuran hain
जवाब देंहटाएंराकेश जी की कमी को पूूरा करने का प्रयास करता गीत पढ़ रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंसाथ में जिसको लिए दीपक तमस से लड़ रहा है
सूर्य का पथ पालता कर्तव्य अपना बढ़ रहा है
धनक उनके चित्र में ही रंग अद्भुत भर रहा है
सामने फ़ैला हुआ यह पथ, प्रतीक्षा कर रहा है।
और लगता है पूर्ण विराम लग गया राकेश जी के गीतों को। आज उनके गीतों का स्मरण दिवस हो गया। शायद कहीं और की तरही में उनके गीत सुने जा रहे होंगे।
शेष के लिये फिर आता हूँ।
राकेश जी को शत शत नमन। सबने अच्छा लिखा।
जवाब देंहटाएंराकेश जी को सादर नमन और मेरी श्रद्धान्जलि। । मैंने पंकज जी के दिए मिसरे व बह्र में नज़्म लिखा है न कि ग़ज़ल इसका कारण है कि मुझे गज़ल लिखने में रदीफ के " लिंगीय" अनुशासन का पालन करने मे कठिनाई महसूस हो रही थी।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत बढ़िया ग़ज़लें। राकेश जी अपने गीतों के माध्यम से हमेशा हमारे साथ रहेंगे
जवाब देंहटाएंधर्मेंद्र जी का शेर
जवाब देंहटाएंहम भी यूँ कीमती नहीं होते
वो अगर पारखी नहीं होते।
हासिल-ए-ग़ज़ल शेर रहा।
डॉ सुधीर जी का गिरह का शेर विशेष रहा।
डॉ संजय दानी ने मतले के शेर में राकेश जी के सारथी रूप को खूब बांधा है।
दिनेश नायडू जी मतले के शेर में सूफियाना हो गए। इसी तरह अंतिम शेर के बड़ी खूबसूरत बात कही। इस बीच गिरह का शेर भी दमदार रहा।
मंसूर अली हाश्मी साहब ने राकेश जी की अनुपस्थिति को बखूबी चित्रित किया है।
रेखा भाटिया जी ने भावनाओं में डूबकर राकेश जी का स्मरण किया है।
एक से बढ़कर एक रचनाएं सभी रचनाकारों ने दिए हैं आदरणीय राजेश जी की यादों में 🙏😊
जवाब देंहटाएं